गुरु की आवश्यकता क्यों
अज्ञान्तिमिरान्धस्य ज्ञानांजनशलाकया
चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्री गुरवे नमः
मैं आजकल अपने ब्लॉग पर अपने योग गुरु हिमालयन योग परम्परा के स्वामी
वेदभारती जी की पुस्तक “Meditation and it’s practices” का हिन्दी अनुवाद
– जो स्वयं स्वामी जी ने मुझ पर कृपा करके मुझसे कराया था – की श्रृंखला पोस्ट कर
रही हूँ | लोग पढ़ते हैं और कई बार कुछ विचित्र किन्तु तर्कसंगत प्रश्न भी पूछ
बैठते हैं | इसी क्रम में अभी कुछ इन पूर्व एक मित्र ने मुझसे पूछा “पूर्णिमा जी, गुरु मन्त्र क्या होता है और इसकी क्या आवश्यकता होती ही... हम तो इन
साधु सन्यासियों में बिल्कुल विश्वास नहीं करते...” उनका प्रश्न और उनका विचार
एकदम तर्कसंगत था | लेकिन “साधु सन्यासियों” और “गुरु” में वास्तव में बहुत अन्तर
होता है – ऐसी मेरी मान्यता है |
हम सभी को जीवन में आगे बढ़ने के लिए किसी न किसी के मार्गदर्शन की आवश्यकता
होती है – यदि ऐसा न होता तो क्यों भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन के सारथि बनकर उन्हें
गीता का उपदेश देते | चाहे व्यावहारिक जीवन हो, व्यवसाय हो, धर्म का मार्ग हो या अध्यात्म का - गुरु की आवश्यकता पग पग पर अनुभव होती
है | कहते है माँ सन्तान की सर्वप्रथम गुरु होती है | जो सत्य भी है | माँ के गर्भ
में पलते हुए ही शिशु को माता के संस्कारों, भावनाओं और
व्यवहार के माध्यम से बहुत से संस्कारों का, भावनाओं का
ज्ञान होता जाता है और गर्भ से बाहर आकर जब वह व्यवहार करता है तो उसमें उसकी माता
के लक्षण स्पष्ट दिखाई देने लगते हैं | और यदि माता के गर्भ के दौरान पिता का भी
अधिक साहचर्य प्राप्त होता है तब तो सोने पे सुहागा वाली स्थिति हो जाती है - माता
पिता दोनों के व्यवहार, ज्ञान, भावनाओं
और संस्कारों का लाभ शिशु को गर्भ में ही हो जाता है । अभिमन्यु की कथा सर्वविदित
ही है | और अब तो विज्ञान ने भी इस तथ्य को स्वीकार कर लिया है | इसीलिए माता पिता
और सगे सम्बन्धियों को महिला की गर्भावस्था के समय में उचित नैतिक तथा
हर्षोल्लासपूर्ण व्यवहार करने तथा वैसा ही वातावरण बनाए रखने की सलाह दी जाती है |
इस प्रकार माता सबसे प्रथम गुरु होती है और उसके बाद पिता तथा बाद में
परिवार के अन्य सदस्य बालक के गुरु की भूमिका में आते हैं | बालक का चरित्र तथा
मान्यताओं का निर्माण वास्तव में गर्भ से ही आरम्भ हो जाता है | ये तो शिक्षा का
एक पक्ष हुआ - जो जीवित रहने के लिए, समाज में विचरण करने के
लिए, सामाजिक धार्मिक व्यवहार और व्यवसाय की दिशा प्रकाशित
करता है |
शिक्षा का दूसरा और सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण पक्ष है व्यक्ति का आध्यात्मिक
विकास | इस प्रक्रिया में निश्चित रूप से एक योग्य और अनुभवी गुरु की आवश्यकता
होती है | हम कह सकते हैं कि अपने गुरु हम स्वयं हैं – हमारी अन्तरात्मा – उसे
हमारे विषय में सब कुछ ज्ञात है इसलिए वही हमारी सबसे उपयुक्त मार्गदर्शक हो सकती
है | बिल्कुल हो सकती है, किन्तु इसके लिए आत्मा को इस योग्य बनाने की
आवश्यकता होती है | और जब वह इस योग्य हो जाती है तो वही परमात्मा कहलाती है | और
जिस दिन परमात्मा के साथ – हमारी अपनी आत्मा के साथ हमारा साक्षात्कार हो गया वही
स्थिति परम ज्ञान की, समाधि की, मोक्ष
की, निर्वाण की स्थिति कहलाती है | किन्तु आत्मा को इस
स्थिति को प्राप्त करने के लिए एक लम्बी यात्रा करनी पड़ती है | इस यात्रा में
सफलता प्राप्त करने के लिए निश्चित रूप से एक योग्य गुरु की आवश्यकता होती है |
अभी हमारी आत्मा हमारे शरीर के साथ लिप्त है समस्त प्रकार की सांसारिक
गतिविधियों में | इस सबसे निर्लिप्त कैसे हुआ जाए कि लक्ष्य प्राप्ति का मार्ग सरल
हो जाए ? कैसे मात्र द्रष्टा बनकर समस्त कर्म किये जाएँ ? यही कार्य तो कठिन है |
जब तक हमारी अन्तरात्मा स्वयं इस दिशा में जागृत नहीं होगी तब तक वह हमारा
मार्गदर्शन भी कैसे कर सकेगी ? और यहीं आवश्यकता अनुभव होती है ध्यान के अभ्यास की
| ध्यान का अभ्यास भी बड़ा कठिन कार्य है | क्योंकि अश्व की गति से भी अधिक चंचल मन
कभी स्थिर हो ही नहीं पाता | इसके लिए या तो कोई बाह्य वास्तु ग्रहण की जाए – जैसे
किसी अपने इष्ट देवता के चित्र को स्थिर भाव से निहारते रहे | लेकिन इससे अपने
भीतर कैसे उतरा जाएगा ? यह तो बाह्य क्रिया हो गई | इसी कारण से मन्त्र का सुझाव
ध्यान के साधकों को दिया जाता है | इसी मन्त्र को प्रदान करने के लिए एक अनुभवी और
योग्य गुरु की आवश्यकता होती है – जो हमारी चित्तवृत्ति और अध्यात्म मार्ग में
प्रवृत्त होने की हमारी इच्छाशक्ति को ध्यान में रखते हुए हमें अनुकूल मन्त्र का
ज्ञान करा सके – हमारा सारथि बनकर हमें उचित मार्ग पर अग्रसर कर सके |
यहाँ यह भी समझ लेना आवश्यक है कि गुरु के द्वारा मन्त्र प्रदान किया जाना
कोई धार्मिक अथवा सामाजिक क्रिया या आयोजन नहीं होता, और न ही
किसी प्रकार का कोई बाह्य आडम्बर होता है | अतः योग्य गुरु का चयन भी स्वयं ही
सावधानीपूर्वक करना होता है – जिसमें किसी भी प्रकार का कोई लालच आदि न हो | यों
आजकल तो गुरुओं की बाढ़ सी आई हुई है जो अपने आपको “स्प्रिचुअल गुरु” कहलाने में
बहुत गर्व का अनुभव करते हैं | ऐसे गुरुओं से बचने की आवश्यकता है | क्योंकि
वास्तव में जो गुरु होगा उसका उद्देश्य कभी भी अपना प्रचार प्रसार नहीं होगा |
प्रचार प्रसार की आवश्यकता धर्म के लिए हो सकती है, किन्तु
अध्यात्म के लिए नहीं – क्योंकि अध्यात्म की यात्रा तो होती ही अपने भीतर से आरम्भ
है...
https://www.astrologerdrpurnimasharma.com/2019/10/04/why-we-need-a-guru/