गुरु पूर्णिमा
व्यासाय विष्णुरूपाय व्यासरूपाय विष्णवे।
नमो वै ब्रह्मनिधये वासिष्ठाय नमो नम:॥
ब्रह्मज्ञान
के भण्डार, महर्षि वशिष्ठ के वंशज साक्षात भगवान विष्णु के स्वरूप महर्षि व्यास को
हम नमन करते हैं और उन्हीं के साथ भगवान विष्णु को भी नमन करते हैं जो महर्षि
व्यास का ही रूप हैं |
आज 25:49 (अर्द्धरात्र्योत्तर एक बजकर
उन्चास मिनट) पर पूर्णिमा तिथि का आगमन होने के कारण कल यानी मंगलवार 16 जुलाई को गुरु
पूर्णिमा का पावन पर्व मनाया जाएगा – जिसे व्यास पूर्णिमा के नाम से भी जाना जाता
है | पंचम
वेद “महाभारत” के रचयिता कृष्ण द्वैपायन वेदव्यास का जन्मदिन इसी दिन मनाया जाता है
| महर्षि वेदव्यास को ही आदि गुरु भी माना जाता है इसीलिए व्यास पूर्णिमा और
गुरु पूर्णिमा एक दूसरे के पर्यायवाची बन गए हैं | भगवान वेदव्यास
ने वेदों का संकलन किया, पुराणों और उपपुराणों की रचना की,
ऋषियों के अनुभवों को सरल बना कर व्यवस्थित किया, पंचम वेद ‘महाभारत’ की रचना की तथा विश्व के सुप्रसिद्ध आर्ष ग्रन्थ
ब्रह्मसूत्र का लेखन किया । इस सबसे प्रभावित होकर देवताओं ने महर्षि वेदव्यास को
“गुरुदेव” की संज्ञा प्रदान की तथा उनका पूजन किया । तभी से व्यास पूर्णिमा को
“गुरु पूर्णिमा” के रूप में मनाने की प्रथा चली आ रही है |
आषाढ़ मास की
पूर्णिमा का महत्त्व बौद्ध समाज में भी गुरु पूर्णिमा के रूप में ही है | बौद्ध
ग्रन्थों के अनुसार ज्ञान प्राप्ति के पाँच सप्ताह बाद भगवान बुद्ध ने भी सारनाथ
पहुँच कर आषाढ़ पूर्णिमा के दिन ही अपने प्रथम पाँच शिष्यों को उपदेश दिया था | इसलिये बौद्ध
धर्मावलम्बी भी इसी दिन गुरु पूजन का आयोजन करते हैं | साथ
ही आषाढ़ मास की पूर्णिमा होने के कारण इसे आषाढ़ी पूर्णिमा भी कहा जाता है |
चातुर्मास का
आरम्भ भी इसी दिन से हो जाता है | जैन मतावलम्बियों के लिए चातुर्मास का विशेष
महत्त्व है | सभी जानते हैं कि अहिंसा का पालन जैन धर्म का प्राण है | क्योंकि
इन चार महीनों में बरसात होने के कारण अनेक ऐसे जीव जन्तु भी सक्रिय हो जाते हैं जो
आँखों से दिखाई देते | ऐसे में मनुष्य के अधिक चलने फिरने के कारण इन जीवों की
हत्या अहो सकती है | इसीलिए जैन साधू इन चार महीनों में एक ही स्थान पर निवास करते
हैं और स्वाध्याय आदि करते हुए अपना समय व्यतीत करते हैं |
कल ही कर्क
संक्रान्ति भी है – भगवान भास्कर का दक्षिण दिशा में प्रस्थान हेतु कर्क राशि में
संक्रमण | और कल खण्डग्रास चन्द्रग्रहण भी है | जैसा कि हम अपने पूर्व के लेखों
में भी लिखते आए हैं कि सूर्य ग्रहण और चन्द्रग्रहण बहुत ही आकर्षक खगोलीय घटनाएँ
हैं अतः इनसे भयभीत हुए बिना इनके सौन्दर्य की सराहना करने की आवश्यकता है |
किन्तु फिर भी जो लोग ग्रहण के वेध को मानते हैं उनके लिए कल रात्रि 25:32 (अर्द्ध
रात्र्योत्तर एक बजकर बत्तीस मिनट) पर ग्रहण का स्पर्श काल होगा और 28:30 (अगले
दिन सूर्योदय से लगभग एक घंटा पूर्व यानी चार बजकर तीस मिनट) पर मोक्ष काल होगा |
लगभग ग्रहण से मुक्ति के ही समय चार बजकर चौंतीस मिनट के लगभग सूर्यदेव कर्क राशि
में प्रस्थान कर जाएँगे |
यहाँ हम बात कर
रहे हैं गुरु पूर्णिमा की…
मातृवत्
लालयित्री च, पितृवत् मार्गदर्शिका,
नमोऽस्तु
गुरुसत्तायै, श्रद्धाप्रज्ञायुता च या ||
वास्तव में ऐसी
श्रद्धा और प्रज्ञा से युत होती है गुरु की सत्ता – गुरु की प्रकृति – जो माता के
सामान ममत्व का भाव रखती है तो पिता के सामान उचित मार्गदर्शन भी करती है | अर्थात गुरु अपने
ज्ञान रूपी अमृत जल से शिष्य के व्यक्तित्व की नींव को सींच कर उसे दृढ़ता प्रदान
करता है और उसका रक्षण तथा विकास करता है | तो सर्वप्रथम तो
समस्त गुरुजनों को श्रद्धापूर्वक नमन करते हुए सभी को गुरु पूर्णिमा की हार्दिक
बधाई और शुभकामनाएँ |
हमारे देश में
पौराणिक काल से ही आषाढ़ शुक्ल पूर्णिमा को गुरु पूजा के रूप में मनाया जाता है | इस अवसर पर न केवल
गुरुओं का स्वागत सत्कार किया जाता था, बल्कि माता पिता तथा
अन्य गुरुजनों की भी गुरु के समान ही पूजा अर्चना की जाती थी | वैसे भी व्यक्ति के प्रथम गुरु तो उसके माता पिता ही होते हैं |
आषाढ़ शुक्ल
पूर्णिमा से प्रायः वर्षा आरम्भ हो जाती है और उस समय तो चार चार महीनों तक
इन्द्रदेव धरती पर अमृत रस बरसाते रहते थे | आवागमन के साधन इतने थे नहीं, इसलिए
उन चार महीनों तक अर्थात चातुर्मास की अवधि में सभी ऋषि मुनि एक ही स्थान पर निवास
करते थे | और इस प्रकार इन चार महीनों तक प्रतिदिन गुरु के
सान्निध्य का सुअवसर शिष्य को प्राप्त हो जाता था और उसकी शिक्षा निरवरोध चलती
रहती थी | क्योंकि विद्या अधिकाँश में गुरुमुखी होती थी,
अर्थात लिखा हुआ पढ़कर कण्ठस्थ करने का विधान उस युग में नहीं था,
बल्कि गुरु के मुख से सुनकर विद्या को ग्रहण किया जाता था | गुरु के मुख से सुनकर उस विद्या का व्यावहारिक पक्ष भी विद्यार्थियों को
समझ आता था और वह विद्या जीवनपर्यन्त शिष्य को न केवल स्मरण रहती थी, बल्कि उसके जीवन का अभिन्न अंग ही बन जाया करती थी | इस समय मौसम भी अनुकूल होता था – न अधिक गर्मी न सर्दी | तो जिस प्रकार सूर्य से तप्त भूमि को वर्षा से शीतलता तथा फसल उपजाने की
सामर्थ्य प्राप्त होती है उसी प्रकार गुरुचरणों में उपस्थित साधकों को ज्ञानार्जन
की सामर्थ्य प्राप्त होती थी और उनके व्यक्तित्व की नींव दृढ़ होती थी जो उसके व्यक्तित्व
के विकास में सहायक होती थी |
गुरु केवल शिष्य को उसका लक्ष्य बताकर उस तक पहुँचने का मार्ग ही नहीं
प्रशस्त करता अपितु उसकी चेतना को अपनी चेतना के साथ समाहित करके लक्ष्य प्राप्ति
की यात्रा में उसका साथ भी देता है | गुरु और शिष्य की आत्माएँ जहाँ एक हो जाती
हैं वहाँ फिर अज्ञान के अन्धकार के लिए कोई स्थान ही नहीं रह जाता | और गुरु के
द्वारा प्रदत्त यही ज्ञान कबीर के अनुसार गोविन्द यानी ईश्वर प्राप्ति यानी अपनी
अन्तरात्मा के दर्शन का मार्ग है… इसलिए गुरु की सत्ता ईश्वर से भी महान है…
गुरु गोबिंद दोऊ खड़े, काके लागूँ
पाँय |
बलिहारी गुरु आपने जिन गोबिंद दियो बताए ||
तो, हम सभी समस्त गुरुजनों के चरणकमलों में सादर
अभिवादन करके उनका आशीर्वाद प्राप्त करें | जय गुरुदेव…..
https://www.astrologerdrpurnimasharma.com/2019/07/15/guru-parva-guru-purnima/