गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः
गुरुर्साक्षाद्परब्रह्म
तस्मै श्री गुरवे नमः |
अज्ञानतिमिरान्धस्य
ज्ञानान्जन्शलाकया
चक्षुरुन्मीलितं
येन तस्मै श्री गुरवे नमः ||
अखण्डमण्डलाकारं
व्याप्तं येन चराचरम्
तत्पदं
दर्शितं येन तस्मै श्री गुरवे नमः |
अनेकजन्मसम्प्राप्तम
कर्मबन्धविदाहिने
आत्मज्ञानप्रदानेन
तस्मै श्री गुरवे नमः ||
ब्रह्मानन्दं
परमसुखदं केवलं ज्ञानमूर्तिम्
द्वन्द्वातीतं
गगनसदृशं तत्त्वमस्यादिलक्ष्यम् |
एकं
नित्यं विमलमचलं सर्वधी साक्षिभूतम्
भावातीतं
त्रिगुणरहितं सद्गुरुं तन्नमामि ||
आज गुरु पूर्णिमा का पावन पर्व है | “मौसी आज तो नाना जी
आपका जन्मदिन कितने उत्साह से मनाया करते थे…” भाँजी ने शुभकामनाएँ देते हुए फोन
किया तो अपना बचपन याद आ गया | बचपन क्या, जब तक विवाह हुआ तब तक पिताजी ऐसे ही रहे
| गुरु पूर्णिमा की पूजा हमारे परिवार में बड़ी धूम धाम से होती थी | उस दिन गुरु
पूजा के साथ ही हमारे जन्मदिन की पूजा पिताजी किया करते थे |
प्रत्येक व्यक्ति के प्रथम गुरु माता पिता ही होते हैं |
मैं भी इसका अपवाद नहीं रही | माँ से बहुत ऐसे कार्य सीखे जो आज तक भी नहीं भूले
हैं – सिलाई कढ़ाई बुनाई और घर के दूसरे कार्यों एक साथ अनुशासन माँ का जबरदस्त था
| पिताजी जहाँ हमारी हाँ में हाँ मिलाते थे तो वहीं माँ हम दोनों को ही अनुशासन
में रखती थीं |
लेखन का क ख ग पिताजी की देन रही | बहुआयामी व्यक्तित्व
के धनी पिताजी उत्सवप्रिय बेहद मस्त प्रकृति के व्यक्ति थे | कितनी भी समस्याएँ उनके
जीवन में रहीं – सबको दरकिनार कर वे सदा मोहक मुस्कान ही लुटाते रहे | उनके लिए
बेटा बेटी सब हम ही थे तो हमारे लिए भी पिता के साथ साथ भाई मित्र गुरु सब हमारे
पिताजी ही थे | उनकी स्मृति में बहुत समय पूर्व कुछ पंक्तियाँ लिखी थीं जो सहृदय
पाठको के अवलोकनार्थ प्रस्तुत हैं:
जब खुशियाँ भरमाने लगतीं, या फिर मन उदास होता है |
मेरे जनक तुम्हारी स्मृति मेरा मन बहला जाती है ||
मुझे अंक भर हँसते गाते मीठे मीठे राग सुनाना
और मचल जाने पर मेरे तरह तरह से मुझे मनाना |
मेरे हंसने रोने पर सर्वस्व निछावर तुम कर देते
मेरे जनक तुम्हारी स्मृति मेरा मन बहला जाती है ||
राखी पर तुम भाई बने और सावन में तुम
मीत बने
झोंटे देकर मुझे सुलाया, मीठे मीठे गीत सजे |
तुम मेरे बचपन के साथी, यौवन के भी मीत रहे
मेरे जनक तुम्हारी स्मृति मेरा मन बहला जाती है ||
दीवाली के दीप जलाए या होली के रंग बरसे
थामे मेरा हाथ सदा तुम सबसे आगे बढ़ निकले |
मेरा मन बहलाने के हित हर पल तुम तत्पर रहते
मेरे जनक तुम्हारी स्मृति मेरा मन बहला जाती है ||
मेरे मग के काँटों को तुम निज पलकों से चुन लेते
और बिछाते पुष्प राह में हँसती खिलती बातों के |
मेरे पथ की धूल झाड़ने निज आँचल फैला देते
मेरे जनक तुम्हारी स्मृति मेरा मन बहला जाती है ||
पथ में जब अँधियारा छाता तब तुम मन का दीप जलाते
सदा प्रकाशित हो पथ मेरा इसी हेतु तुम स्नेह बढ़ाते |
आगे बढती रहूँ सदा मैं इसी हेतु तत्पर रहते
मेरे जनक तुम्हारी स्मृति मेरा मन बहला जाती है ||
मेरे हर प्रयत्न पर तुम तो सदा मान ही थे करते
और सदा मेरे मन में उल्लासों का तुम रंग भरते |
बिछड़ गए तुम, बिखर गया मेरा हर एक सपना पल में
मेरे जनक तुम्हारी स्मृति मेरा मन बहला जाती है ||