ज्ञानी
और अहंकारी व्यक्ति में भेद
विहाय
कामान्यः सर्वान्पुमांश्चलति निःस्पृहः |
निर्ममो
निरहङ्कारः स शान्तिमधिगच्छति || श्रीमद्भगवद्गीता
2/71
जो व्यक्ति सभी
इच्छाओं और कामनाओं के परित्याग कर निस्पृह भाव से कर्म करता है तथा जिसमें ममत्व
और अहंकार नहीं होता वही शान्ति को प्राप्त होता है |
दम्भो दर्पोऽभिमानश्च क्रोधः
पारुष्यमेव च |
अज्ञानं चाभिजातस्य पार्थ
सम्पदमासुरीम् || श्रीमद्भगवद्गीता 16/4
हे पृथानन्दन ! दम्भ करना, घमण्ड करना, अभिमान करना,
क्रोध करना, कठोरता रखना और अविवेक का होना ये
सभी आसुरी सम्पदा को प्राप्त हुए मनुष्य के लक्षण हैं |
वास्तव में यही भेद है वास्तविक ज्ञानी
व्यक्ति में और ज्ञान के मद में चूर एक अहंकारी व्यक्ति में | ज्ञानी व्यक्ति कभी अपना विवेक नहीं खोता | उसे कभी
अपने ज्ञान का अभिमान नहीं होता | यदि उसमें ज्ञान का अभिमान आ गया तो समझना चाहिए
कि अब उसके पतन का समय आ गया है और उनकी समस्त उपलब्धियाँ, समस्त सिद्धियाँ और सारी मान प्रतिष्ठा का अब पराभव होने जा रहा है |
व्यक्ति चाहे कितना भी ज्ञानी हो, लेकिन दूसरे के ज्ञान को तुच्छ और अपने ज्ञान को ही श्रेष्ठ नहीं जानना
चाहिए, क्योंकि ज्ञान कभी बड़ा या छोटा नहीं होता | यदि हमें
किसी तथ्य का – किसी विषय का ज्ञान है तो किसी अन्य को किसी अन्य विषय का ज्ञान हो
सकता है | यदि हम किसी कार्य में सिद्धहस्त हैं तो दूसरा किसी अन्य कार्य में कुशल
हो सकता है | और इस स्थिति में हम दोनों ही एक स्तर पर होते हैं और एक दूसरे से
कुछ न कुछ सीख सकते हैं |
हम जब तक सोचते हैं कि हम अमुक कार्य
को करने में सक्षम हैं इसलिए कर रहे हैं तब तक वह ज्ञान कहलाता है | लेकिन जिस पल
हमने सोचना आरम्भ कर दिया कि अमुक कार्य को केवल हम ही कर सकते हैं – कोई दूसरा उस
कार्य को करने के लिए न तो सक्षम है न उसमें इतनी योग्यता ही है – समझिये उसी दिन
से हमारे मन में अहंकार ने जन्म ले लिया | और अहंकार पतन का सबसे बड़ा कारण होता है | ज्ञानी
व्यक्ति कभी भी अहंकारी नहीं होता | अहंकारी वही व्यक्ति
होता जिसका ज्ञान या तो सतही है – अधूरा है – अथवा जिसने पुस्तकें पढ़कर और
गुणीजनों के सान्निध्य में ज्ञानार्जन तो कर लिया और दूसरों को वह ज्ञान बाँटना भी
आरम्भ कर दिया, किन्तु उस ज्ञान को स्वयं आत्मसात नहीं किया | ऐसे व्यक्तियों में बहुत शीघ्र "गुरु" कहलाए जाने की भावना भी
प्रबल हो जाती है क्योंकि वे स्वयं को सर्वोत्कृष्ट मानने लग जाते हैं और दूसरों
को अपने समक्ष हीन अथवा अज्ञानी मानने लगते हैं |
इसे इस प्रकार समझा जा सकता है कि हमें
कहीं किसी सभा में किसी कार्यक्रम में आमन्त्रित किया जाए एक विशिष्ट अतिथि के रूप
में और मंच पर आसीन हम मान बैठें कि सामने दर्शक दीर्घा में बैठे लोग कुछ नहीं
जानते, केवल हम ही सर्वज्ञ हैं - तो इसका
अर्थ है कि हम केवलमात्र अहंकारी हैं - ज्ञानवान नहीं |
क्योंकि हमें इस बात को समझ लेना चाहिये कि उस सभा में ऐसे ज्ञानवान लोग उपस्थित
हैं जो हमारे ही समान अपने अपने क्षेत्रों में अपने अपने विषयों में – और कई बार
अनेक विषयों में - पूरा ज्ञान रखते हैं इसीलिए हमारी बात को समझ सकते हैं और
इसीलिए उन्होंने हमें अपने मध्य एक अतिथि के रूप में आमन्त्रित किया है |
अहंकार का नाश नहीं किया गया तो वह
व्यक्ति का और उसके ज्ञान का नाश कर देता है क्योंकि वह व्यक्ति की विनम्रता
समाप्त करके उसे पथभ्रष्ट कर देता है | ऐसा व्यक्ति किसी का भी अपमान कर सकता है, अकारण ही क्रोध और ईर्ष्या की
भावना उसके मन में आ सकती हैं और वह स्वयं अपने ही पैरों में कुल्हाड़ी मार सकता है
|
इसलिए ज्ञानी व्यक्ति को स्वाभिमानी तो
होना चाहिए लेकिन अहंकारी नहीं |
हम सन ज्ञानार्जन करके स्वाभिमानी बनें और अहंकार के मद से दूर रहें यही कामना है...