होलाष्टक
सोमवार दो मार्च को दिन में 12:53 के
लगभग विष्टि करण और विषकुम्भ योग में फाल्गुन शुक्ल अष्टमी तिथि का आरम्भ हो रहा
है | इसी समय से होलाष्टक आरम्भ हो जाएँगे जो सोमवार नौ
मार्च को होलिका दहन के साथ ही समाप्त हो जाएँगे | नौ मार्च को
सूर्योदय से पूर्व तीन बजकर चार मिनट के लगभग पूर्णिमा तिथि का आगमन होगा जो
रात्रि ग्यारह बजकर सत्रह मिनट तक रहेगी | इसी मध्य गोधूलि वेला में सायं छह बजकर
छब्बीस मिनट से रात्रि आठ बजकर बावन मिनट तक होलिका दहन का मुहूर्त है, और उसके
बाद रंगों की बरसात के साथ ही फाल्गुन कृष्ण प्रतिपदा से होलाष्टक समाप्त हो
जाएँगे |
फाल्गुन मास की शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि से आरम्भ
होकर पूर्णिमा तक की आठ दिनों की अवधि होलाष्टक के नाम से जानी जाती है और चैत्र
कृष्ण प्रतिपदा को होलाष्टक समाप्त हो जाते हैं | होलाष्टक
आरम्भ होने के साथ ही होली के पर्व का भी आरम्भ हो जाता है |
इसे “होलाष्टक दोष” की संज्ञा भी दी जाती है और कुछ स्थानों पर इस अवधि में बहुत
से शुभ कार्यों की मनाही होती है | विद्वान् पण्डितों की
मान्यता है कि इस अवधि में विवाह संस्कार, भवन निर्माण आदि
नहीं करना चाहिए न ही कोई नया कार्य इस अवधि में आरम्भ करना चाहिए | ऐसा करने से अनेक प्रकार के कष्ट, क्लेश, विवाह सम्बन्ध विच्छेद, रोग आदि अनेक प्रकार की अशुभ
बातों की सम्भावना बढ़ जाती है | किन्तु जन्म और मृत्यु के
बाद किये जाने वाले संस्कारों के करने पर प्रतिबन्ध नहीं होता |
फाल्गुन कृष्ण अष्टमी को होलिका दहन के स्थान को
गंगाजल से पवित्र करके होलिका दहन के लिए दो दण्ड स्थापित किये जाते हैं,
जिन्हें होलिका और प्रह्लाद का प्रतीक माना जाता है | फिर
उनके मध्य में उपले (गोबर के कंडे), घास फूस और लकड़ी आदि का
ढेर लगा दिया जाता है | इसके बाद होलिका दहन तक हर दिन इस
ढेर में वृक्षों से गिरी हुई लकड़ियाँ और घास फूस आदि डालते रहते हैं और अन्त में
होलिका दहन के दिन इसमें अग्नि प्रज्वलित की जाती है | ऐसा
करने का कारण सम्भवतः यह रहा होगा कि होलिका दहन के अवसर तक वृक्षों से गिरी हुई
लकड़ियों और घास फूस का इतना बड़ा ढेर इकट्ठा हो जाए कि होलिका दहन के लिए वृक्षों
की कटाई न करनी पड़े |
मान्यता ऐसी भी है कि तारकासुर नामक असुर ने जब
देवताओं पर अत्याचार बढ़ा दिए तब उसके वध का एक ही उपाय ब्रह्मा जी ने बताया, और
वो ये था कि भगवान शिव और पार्वती की सन्तान ही उसका वध करने में समर्थ हो सकती है
| तब नारद जी के कहने पर पार्वती ने शिव को प्राप्त करने के
लिए घोर तप का आरम्भ कर दिया | किन्तु शिव तो दक्ष के यज्ञ
में सती के आत्मदाह के पश्चात ध्यान में लीन हो गए थे |
पार्वती से उनकी भेंट कराने के लिए उनका उस ध्यान की अवस्था से बाहर आना आवश्यक था
| समस्या यह थी कि जो कोई भी उनकी साधना भंग करने का प्रयास
करता वही उनके कोप का भागी बनता | तब कामदेव ने अपना बाण
छोड़कर भोले शंकर का ध्यान भंग करने का दुस्साहस किया |
कामदेव के इस अपराध का परिणाम वही हुआ जिसकी कल्पना सभी देवों ने की थी – भगवान
शंकर ने अपने क्रोध की ज्वाला में कामदेव को भस्म कर दिया |
अन्त में कामदेव की पत्नी रति के तप से प्रसन्न होकर शिव ने कामदेव को पुनर्जीवन
देने का आश्वासन दिया | माना जाता है कि फाल्गुन शुक्ल
अष्टमी को ही भगवान शिव ने कामदेव को भस्म किया था और बाद में रति ने आठ दिनों तक
उनकी प्रार्थना की थी | इसी के प्रतीक स्वरूप होलाष्टक के
दिनों में कोई शुभ कार्य करने की मनाही होती है |
वैसे व्यावहारिक रूप से पंजाब और उत्तर प्रदेश के कुछ
भागों में होलाष्टक का विचार अधिक किया जाता है, अन्य
अंचलों में होलाष्टक का कोई दोष प्रायः नहीं माना जाता |
अतः, मान्यताएँ चाहें जो भी हों, इतना निश्चित है कि होलाष्टक आरम्भ होते ही मौसम में भी परिवर्तन आना आरम्भ
हो जाता है | सर्दियाँ जाने लगती हैं और मौसम में हल्की सी
गर्माहट आ जाती है जो बड़ी सुखकर प्रतीत होती है | प्रकृति के
कण कण में वसन्त की छटा तो व्याप्त होती ही है | कोई विरक्त
ही होगा जो ऐसे सुहाने मदमस्त कर देने वाले मौसम में चारों ओर से पड़ रही रंगों की
बौछारों को भूलकर ब्याह शादी, भवन निर्माण या ऐसी ही अन्य सांसारिक बातों के विषय
में विचार करेगा | जनसाधारण का रसिक मन तो ऐसे में सारे काम
काज भुलाकर वसन्त और फाग की मस्ती में झूम ही उठेगा...
इन सभी मान्यताओं का कोई
वैदिक, ज्योतिषीय अथवा आध्यात्मिक महत्त्व नहीं है, केवल धार्मिक आस्थाएँ और
लौकिक मान्यताएँ ही इस सबका आधार हैं | तो क्यों न होलाष्टक की
इन आठ दिनों की अवधि में स्वयं को सभी प्रकार के सामाजिक रीति रिवाज़ों के बन्धन से
मुक्त करके इस अवधि को वसन्त और फाग के हर्ष और उल्लास के साथ व्यतीत किया जाए...
रंगों के पर्व की अभी से रंग और उल्लास से भरी हार्दिक शुभकामनाएँ...