
अभी दो तीन पूर्व हमारी एक मित्र के देवर जी का स्वर्गवास हो गया... असमय...
शायद कोरोना के कारण... सोचने को विवश हो गए कि एक महामारी ने सभी को हरा दिया...
ऐसे में जीवन को क्या समझें...? हम सभी जानते हैं जीवन मरणशील है... जो जन्मा
है... एक न एक दिन उसे जाना ही होगा... इसीलिए जीवन सत्य भी है और असत्य भी... भाव
भी है और अभाव भी... कुछ इसी तरह के उलझे सुलझे विचारों से युक्त है हमारी आज की
रचना... जीवन भाव भी अभाव भी... कात्यायनी...
जीवन अभाव भी भाव भी
जीवन का नहीं होता अवसान कभी
न ही होता है इसका अन्त कभी / अभाव कभी…
क्योंकि अभाव है दूसरा नाम भाव का
असम्भव है भाव के बिना अभाव भी…
क्योंकि अन्त है दूसरा नाम आरम्भ का
असम्भव है आरम्भ के बिना अन्त भी…
अभाव है यदि, तो भाव तो विद्यमान स्वयं ही है
अन्त है यदि, तो आरम्भ तो विद्यमान स्वयं ही है
इसीलिए न तो है जीवन का अवसान या समापन
न ही है इसका अन्त या अभाव…
जीवन नहीं है असत्य भी
क्योंकि होता यदि असत्य / तो कैसे दीख पड़ती सत्ता इसकी…
हाँ, अन्तराल होता है अवश्य / कुछ समय का / किसी चलचित्र की भाँति
ताकि नवीन रूप में जीवन पुनः भर सके उछाह की कुलाँचें…
हो जाता है तिरोहित भी कभी / छिप जाता है आँचल में प्रेमिका के अपनी…
प्रेमिका – नाम है जिसका मृत्यु
आती है जो इठलाती बलखाती / दिखाती नित नवीन भाव भंगिमाएँ
आकर्षित करती / लुभाती / अपने प्रेमी को
ढाँप लेती है नेहपगे आँचल में अपने…
थक जाता है जीवन जब, वहन करते हुए भार अपने उत्तरदायित्वों का
थक जाता है जीवन जब / दौड़ते भागते गिरते पड़ते
अनवरत – निरन्तर – प्रतिपल – प्रतिक्षण
सो जाता है तब सर रखकर गोद में प्यारी सखी की
कुछ पलों के लिए / पुनः जागने हेतु…
तब कोई स्नेहशील आत्मा पुनः करती है रोपित स्नेह का एक बीज
सींचा जाता है जिसे स्नेह के अमृत जल से…
और तब, विश्राम के बाद कुछ पलों के / होता है पुनर्जागरण जीवन का
फूटती हैं नवीन कोंपलें और होती है वृद्धि…
तब बन जाता है पुनः एक छायादार वृक्ष
मिलता है विश्राम जिसकी छाया में अनेकों सम्वेदनाओं को / भावनाओं को
इच्छाओं को / आकाँक्षाओं को / लोभ को / मोह को
जहाँ विश्राम पाते हैं क्रोध और घृणा / प्रेम और विश्वास
स्वप्न रूपी खगचर झूलते हैं टहनियों पर जिसकी
भरती है जिसमें गति – लय और ऊर्जा / प्रेमपगी मलय पवन की सुगन्ध से…
हो जाता है नवजीवन उत्साह उमंग तथा नवयौवन से परिपूर्ण
चहचहाने लगता है फिर एक बार मस्ती में भर
श्रम और कष्टों के झाड़ों के मध्य एक बार फिर
लहलहाने लगती है सुख की पीली सरसों…
जिसे देख गूँजती है कोयल की मधुर रागिनी
जो बताती है – जीवन है एक ऐसा स्वप्न – जो बन जाता है सत्य भी
जो बताती है – जीवन है एक ऐसा अभाव – जो बन जाता है भाव भी
यही तो है जीवन का सत्य... चिरन्तन... शाश्वत...