खम्मामि सव्व जीवेषु
मित्रों ! भाद्रपद कृष्ण द्वादशी से भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी तक चलने वाला श्वेताम्बर जैन सम्प्रदाय का अष्टदिवसीय पर्यूषण पर्व सम्पन्न होने के पश्चात भाद्रपद शुक्ल पञ्चमी से दिगम्बर जैन सम्प्रदाय के दशदिवसीय पर्यूषण पर्व अर्थात क्षमावाणी पर्व और
दशलाक्षण पर्व का आरम्भ हो चुका है जो बीस सितम्बर को अनन्त चतुर्दशी के साथ सम्पन्न होगा | यों तो साल में तीन बार दशलाक्षण मनाया जाता है, लेकिन भाद्रपद शुक्ल पञ्चमी से भाद्रपद शुक्ल पूर्णिमा (अनन्त चतुर्दशी) तक मनाए जाने वाले पर्व
का विशेष महत्त्व माना जाता है | इसका मुख्य कारण है इसमें आने वाला साम्वत्सरिक पर्व | यह साम्वत्सरिक पर्व पर्यूषण का ही नही वरन् समस्त जैन धर्म का प्राण है | इस दिन साम्वत्सरिक प्रतिक्रमण किया जाता है जिसके द्वारा वर्ष भर में किए गए पापों का प्रायश्चित्त करते हैं | साम्वत्सरिक प्रतिक्रमण के बीच में ही सभी चौरासी लाख जीव योनि से क्षमा याचना की जाती है | प्रतिक्रमण शब्द का अर्थ ही है वापस लौटना | प्रतिक्रमण कर्म वास्तव में जैन धर्म के छह आवश्यक अनुष्ठानों में से एक है | ये अनुष्ठान हैं – सामयिक अर्थात समभाव की साधना, चौवित्सव अर्थात समस्त चौबीस तीर्थंकरों का स्मरण, वन्दना, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग अर्थात आत्मतत्व का ध्यान तथा प्रत्याख्यान अर्थात त्याग की साधना | इनमें प्रतिक्रमण कर्म के समय समस्त
ज्ञाताज्ञात पापकर्मों के लिए पश्चात्ताप करते हुए आत्मभाव की जागृति का प्रयास किया जाता है जिसके माध्यम से सभी प्रमादजन्य दोषों से निवृत्त होकर आत्मस्वरूप में स्थिर हुआ जा सके | अर्थात साम्वत्सरिक प्रतिक्रमण में आत्मा की शुद्धि करते हुए अपने मूल स्वभाव में वापस लौटने का संकल्प लिया जाता है | और व्यक्ति का मूल स्वभाव वह होता है जिसके साथ उसका जन्म होता है – किसी भी प्रकार के कषाय से मुक्त होकर दिव्यता और अध्यात्म का भाव | और वास्तव में यही साम्वत्सरिक प्रतिक्रमण की मूलभूत भावना है |
किन्तु प्रतिक्रमण केवल एक रस्म अदायगी भर नहीं बन कर रह जाना चाहिए | जिस दिन मन की सौम्यता प्रकट हो गई – मन की मृदुता की अभिव्यक्ति हो गई – समस्त प्रकार के कषाय स्वयमेव नष्ट हो जाएँगे | नवरात्रों की ही भाँति पर्यूषण पर्व भी संयम और आत्मशुद्धि के पर्व हैं | इन पर्वों में त्याग, तप, उपवास, परिष्कार, संकल्प, स्वाध्याय और आराधना पर बल दिया जाता है | क्षमादान और क्षमायाचना का संकल्प इस पर्व का सबसे महत्त्वपूर्ण अंग है | आत्मिक शुद्धि का मूल मन्त्र इसी प्रकार का क्षमाभाव है | मन को स्वच्छ उदार और विवेकी बनाकर समाज के संगठन की दिशा में इससे बड़ा और क्या प्रयत्न हो सकता है |
वास्तव में भगवान महावीर पुरुषार्थ में विश्वास रखते हैं | वे जीवन का चरम लक्ष्य किसी विराट सत्ता में विलीन होना नहीं मानते, अपितु अपनी मूल सत्ता को ही सिद्ध और बुद्ध बनाते हुए मुक्त करने की प्रक्रिया को जीवन का चरम लक्ष्य निरूपित करते हैं | इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए समस्त जीव सत्ता के साथ भावनात्मक तादात्म्य स्थापित करने की आवश्यकता होती है | महावीर दर्शन के अनुसार संयम और तप के द्वारा आत्म परिष्कार करके ही स्वयं का स्वयं से उद्धार सम्भव है | और क्षमा उसी साधना का अंग है जिसे भगवान महावीर ने सर्वोपरि स्थान दिया है |
भगवान महावीर ने सूत्र दिया कि सब जीव मुझे क्षमा करें, मैं सबको क्षमा करता हूँ | सब जीवों के साथ मेरी मैत्री है | किसी के साथ मेरा वैर नहीं है... “खम्मामि सव्व जीवेषु – सब जीवों से मैं क्षमायाचना करता हूँ, सव्वे जीवा खमन्तु मे – सारे जीव मुझे क्षमा करें, मित्त्ति मे सव्व भू ए सू – सभी जीवों के साथ मेरा मैत्री का भाव रहे, वैरं मज्झणम् केण इ – किसी के साथ मेरा वैर न रहे |” यह सूत्र ध्वनित करता है कि क्षमा केवल स्वयं में ही साध्य नहीं है, उसका साध्य है मैत्री और मैत्री का साध्य है समता तथा निर्वाण | क्षमा और मैत्री मात्र सामाजिक गुण नहीं हैं वरन साधना की ही एक प्रक्रिया का प्रतिनिधित्व करते हैं जिसका प्रारम्भ ग्रन्थि विमोचन से होता है अर्थात अपनी मन की ग्रन्थियों से मुक्ति प्राप्त करना – तभी तो हम उदात्त और उदार भाव से क्षमापना में प्रवृत्त हो सकेंगे |
यों प्रत्येक वर्ष सात जुलाई को वैश्विक क्षमा दिवस का आयोजन भी किया जाता है – जिसके अन्तर्गत समस्त जीवों को उनके ज्ञाताज्ञात अपराधों के लिए हृदय से क्षमा करने की प्रक्रिया का पालन किया जाता है | भाव बहुत अच्छा है, किन्तु यदि हम केवल “क्षमा करने” का ही भाव रखते हैं तो यह अहंकार को जन्म देगा | हमने किसी को क्षमा किया – इसके कारण हमारे मन में अहंकार भी आ सकता है कि हम इतने उदारमना हैं कि हम दूसरों के अपराधों के लिए उन्हें क्षमा करने की भी सामर्थ्य रखते हैं |
महावीर स्वामी की क्षमापना में “क्षमा याचना” मूल भाव है उसके बाद “क्षमादान” का भाव आता है | जिस व्यक्ति में याचक का भाव आएगा उसे विनम्र होना ही पड़ेगा – उसके मन में किसी भी प्रकार का अहम् का भाव शेष रह ही नहीं सकता | किन्तु यह भी सत्य है कि केवल पर्यूषण, दशलाक्षण अथवा क्षमावाणी पर्व मनाने भर से ही इन पर्वों का गहनतम उद्देश्य पूर्ण नहीं हो जाता | उत्सव और व्रत उपवास आदि तो भौतिक क्रियाएँ हैं | इन पर्वों का मूल उद्देश्य – इनकी मूल भावना तो बहुत ऊँची है | क्या ही अच्छा हो कि क्षमावाणी पर्व को राष्ट्रीय क्षमावाणी पर्व के रूप में मनाया जाए, ऐसा करने से जन साधारण में आत्मौपम्य की भावना (सबकी आत्मा समान है) का स्वतः ही विकास होगा – और जब आत्मौपम्य की भावना उत्पन्न हो जाएगी तो सम्यग्दृष्टि भी स्वतः ही विकसित होगी और तब समस्त प्रकार के वैर भाव का भी स्वतः ही नाश होकर प्रेम और सद्भावना का विकास होगा | अस्तु, सभी को पर्यूषण, क्षमावाणी और दशलाक्षणी पर्व की हार्दिक शुभकामनाएँ...