महामन्त्र प्रणव और अध्यात्म चिकित्सा
आज का लेख आरम्भ करें उससे पूर्व सभी को पर्यूषण पर्व – दशलाक्षण पर्व – साम्वत्सरिक पर्वों की अनेकशः हार्दिक शुभकामनाएँ...
कल कहीं प्राणिक हीलिंग विषय पर एक व्याख्यान में उपस्थित होने का अवसर प्राप्त हुआ | व्याख्यान बहुत अच्छा था | व्याख्यानकर्ता ने बहुत ही सरल और सहज रीति से अपने विषय की जानकारी श्रोताओं को दी | वापस आने के बाद बहुत कुछ मन में घुमड़ता रहा | उसी कारण से आज यह लेख लिखने के लिए प्रवृत्त हुए | यहाँ एक बात स्पष्ट कर दें कि इस लेख की लेखिका कोई प्राणिक हीलर अर्थात अध्यात्म चिकित्सक नहीं है, किन्तु बचपन से ही पारिवारिक पृष्ठभूमि के कारण वेद वेदांगों, पुराण उपनिषद तथा अन्य अध्यात्मपरक साहित्य में रूचि के कारण जो कुछ पढ़ा समझा और गुना और जो कुछ विद्वज्जनों की संगति में सीखा तथा अनुभव किया उसी सबके आधार पर कुछ लिखने का प्रयास किया है...
सम्भवतः बहुत से लोग इस तथ्य से परिचित होंगे कि न केवल प्राचीन भारत में बल्कि विश्व की तमाम सभ्यताओं में किसी भी रोग को दूर करने के लिए इस प्रकार की चिकित्सा पद्धतियाँ विकसित थीं जो बिना किसी औषधि के रोगी को ठीक कर देती थीं | इन पद्धतियों को आध्यात्मिक चिकित्सा पद्धति तथा पूरक चिकित्सा पद्धति कहा जाता था | इन चिकित्सा पद्धतियों के अन्तर्गत नाड़ी उपचार, स्पर्श चिकित्सा, प्राण चिकित्सा आदि आते थे | इन सभी चिकित्सा पद्धतियों के मूल में चक्र चिकित्सा निहित थी | यही चक्र चिकित्सा आज की तथाकथित प्राणिक हीलिंग का ही आधार है | मानव शरीर चक्रों से संचालित होता है | और ये चक्र क्या हैं ? तीव्र गति से घूमने वाले ऊर्जा केन्द्र हैं जो प्राण शक्ति को समाहित करके उसे शरीर के अन्य भागों तक पहुँचाने का कार्य करते हैं | यदि चक्र अपना कार्य समुचित रूप से न करें तो शरीर में अनेक प्रकार के रोगों की सम्भावना बन जाती है |
व्यक्ति का ऊर्जा शरीर अथवा आभा अथवा सूक्ष्म शरीर – जो हमें दिखाई नहीं देता - और जो स्थूल अथवा दृश्यमान शरीर हमें दिखाई देता है उनमें से यदि एक भी प्रभावित हो जाता है तो दूसरा स्वयमेव प्रभावित हो जाता है | क्योंकि प्राण शक्ति को एक प्रकार की सजीव ऊर्जा शक्ति कहा गया है | जिन पाँच तत्वों से समस्त प्रकृति का और उसी प्रकृति के एक छोटे से अवयव मानव शरीर का निर्माण हुआ है उन सभी में यह प्राण ऊर्जा समाहित होती है | प्रकृति में व्याप्त किसी भी ऊर्जा अथवा तत्व में – पृथिवी, जल, अग्नि, वायु और आकाश – इनमें से किसी में भी कुछ विकृति आ जाए, अथवा असन्तुलन हो जाए तो इसका दुष्प्रभाव व्यक्ति के स्वास्थ्य पर पड़ना स्वाभाविक ही है | क्योंकि इन्हीं सबसे मिलकर निर्माण होता है प्राण शक्ति का – प्राण ऊर्जा का – जिस व्यक्ति की प्राण ऊर्जा सन्तुलित होगी – दीप्त होगी – वही व्यक्ति उतना ही स्वस्थ रहेगा |
आपमें से कुछ लोगों को सम्भवतः स्मरण हो इस तथ्य का कि पहले जब वैद्यों से इलाज़ कराया जाता था तो वे नाड़ी अथवा नब्ज़ टटोलकर रोग के विषय में बता दिया करते थे | किन्तु उससे भी पूर्व व्यक्ति का चेहरा देखकर ही बता देते थे कि उसे क्या बीमारी है और उसके ठीक होने की कितनी प्रतिशत सम्भावना है | वे लोग कोई जादूगर नहीं होते थे कि चेहरा देखकर ही बता दें | आप कह सकते हैं कि वे फेस रीडिंग करते थे | आप ऐसा कह सकते हैं | लेकिन इसका कारण होता था उनका अनुभव और ज्ञान | और इस अनुभव तथा ज्ञान के पीछे का कारण वही होता था – प्राण ऊर्जा |
आपने अनुभव किया होगा कि प्रत्येक व्यक्ति के मुखमण्डल के चारों ओर एक विशेष प्रकार की आभा व्याप्त होती है | अक्सर हम पुराने देवी देवताओं के चित्रों में उनके मुखमण्डल के चारों ओर एक श्वेत पीत अथवा चमकीला घेरा बना देखते हैं | ये घेरा वास्तव में उनके मुखमण्डल के चारों ओर व्याप्त उसी आभा का प्रतिनिधित्व करता है | ठीक यही बात समस्त मनुष्यों पर भी लागू होती है | स्वस्थ मनुष्य के चेहरे के चारों ओर व्याप्त आभा में और अस्वस्थ मनुष्य के चेहरे की आभा में अन्तर होता है | सामान्य जन भी प्रायः किसी व्यक्ति को देखकर कह देते हैं कि इस व्यक्ति का चेहरा कैसा मरीज़ों वाला लग रहा है | क्योंकि स्वस्थ व्यक्ति के चेहरे की आभा – जो वास्तव में उसके चारों ओर व्याप्त प्राण ऊर्जा ही होती है – बिना किसी मेकअप के ही अत्यन्त खिली खिली होती है | वहीं अस्वस्थ व्यक्ति के मुख की आभा मुरझाई हुई होती है | जब हम और आप जैसे साधारण जन ऐसा अनुभव कर सकते हैं तो फिर जो लोग इस विद्या का अभ्यास करते हैं – जिन्होंने इसे अनुभव किया है - उनके लिए तो यह बता पाना अत्यन्त ही सरल है | इसी मुरझाई हुई आभा को देखकर एक अनुभवी प्राण चिकित्सक इस बात का पता लगाता है कि उस रोगी की प्राण ऊर्जा शरीर के किस चक्र पर अथवा किस स्थान पर असन्तुलित हुई है अथवा दुष्प्रभाव में आई है | और अपनी स्वयं की ऊर्जा के माध्यम से व्यक्ति के सूक्ष्म शरीर की ऊर्जा तक सकारात्मक सन्देश
पहुँचाता है और इस प्रकार रोग का निदान करता है | क्योंकि यही आभा प्राण ऊर्जा कहलाती है और इसका व्यक्ति को रोगों से बचाने में तथा उसकी रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने में महत्त्वपूर्ण योगदान होता है |
इसे और अधिक सरलता से इस प्रकार समझा जा सकता है कि इस दृश्यमान स्थूल शरीर की ही भाँति एक सूक्ष्म शरीर भी होता है | उसके भी अपने गुण धर्म होते हैं | स्थूल शरीर से भी अधिक शक्तिशाली ये सूक्ष्म शरीर होता है | सूक्ष्म शरीर यदि स्वस्थ है तो स्थूल शरीर भी स्वस्थ रहेगा, और यदि सूक्ष्म शरीर पर किसी प्रकार का कोई दुष्प्रभाव है तो स्थूल शरीर का स्वस्थ रहना असम्भव है | अनेक बार ये दुष्प्रभाव इतने अधिक बली हो जाते हैं कि किसी प्रकार की औषधि से कोई लाभ नहीं होता और पीढ़ी दर पीढ़ी ये रोग दूर नहीं होते | इस स्तर पर आध्यात्मिक अथवा पूरक चिकित्सा पद्धतियों का सहारा लिया जाता है | ऐसे में प्राण चिकित्सक मनुष्य के सूक्ष्म शरीर तक जाकर उसकी प्राण ऊर्जा को स्वस्थ करने का प्रयास करता है जिसे प्राणिक हीलिंग के नाम से जाना जाता है |
सहस्रों वर्ष पूर्व वेदों में अध्यात्म चिकित्सा के अन्तर्गत प्राण चिकित्सा का वर्णन उपलब्ध होता है | प्राण चिकित्सा इसलिए क्योंकि प्राणों के नियमानुसार चलने से ही जीवन में गति रहती है | शतपथ ब्राह्मण और बृहदारण्यक उपनिषद में इस प्रकार की समस्त पूरक अथवा आध्यात्मिक चिकित्साओं को आंगिरस विद्या का नाम दिया गया है | साथ ही इन चिकित्साओं का अभ्यास करने वाले चिकित्सकों के लिए भी कुछ नियम बताए गए हैं – जैसे उनके लिए अन्तः और बाह्य शुद्धि की ओर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है | अन्तः शुद्धि के लिए प्राणायाम और ध्यान का अभ्यास, अन्तः और बाह्य शुद्धि के लिए योग का
अभ्यास, यम नियम का पालन करना, सात्विक भाव से जीवन व्यतीत करना, बाह्य शुद्धि के लिए नित्य नैमित्तिक क्रियाएँ एक आध्यात्मिक चिकित्सक के लिए अत्यन्त आवश्यक हैं, अन्यथा इन आध्यात्मिक चिकित्सा पद्धतियों से रोगी को लाभ होना तो दूर की बात है – स्वयं चिकित्सक पर इनका दुष्प्रभाव हो सकता है |
दुर्भाग्य अथवा विडम्बना कहेंगे कि कुछ योग संस्थानों को छोड़कर इन आध्यात्मिक चिकित्साओं के प्रचार प्रसार की दिशा में किसी ने ठोस प्रयास नहीं किया | प्रयास हुआ तो विदेशों में - हमारी ही विद्या विदेशी ठप्पा लगकर हम तक पहुँचाई गई और हम लोगों ने बड़े गर्व के साथ उसे स्वीकार किया | और अध्यात्म चिकित्सा ही नहीं, और भी अनेकों पारम्परिक विधाओं का
यही हाल हुआ है | खैर, हमें इस बहस में पड़ने का अब कोई लाभ नहीं | लेकिन कल के व्याख्यान में कुछ बातें हमें समझ नहीं आईं – सम्भवतः हमारी मूढ़मति के कारण |
जो “ध्यान” कल कराया गया वह वास्तव में वैदिक ध्यान पद्धतियों तथा जापान और चीन की ध्यान की पद्धतियों का एक मिश्रण था | साथ में ईसाई समुदाय की प्रार्थना पद्धति भी उसमें समाहित की गई थी | इस प्रकार से एक बहुत ही अच्छा सा “पैकेज” बनाकर प्रस्तुत किया गया था | इस पैकेज से वास्तव में लाभ होना चाहिए जन साधारण को – क्योंकि एक बहुमुखी ध्यान की पद्धति हमें प्राप्त हो रही है |
लेकिन इसके अनुचित रूप से व्यावसायीकरण के साथ ही एक सबसे अहम बात जो हमारी समझ में नहीं आई वो ये थी कि गर्भवती महिलाएँ इस ध्यान का अभ्यास तथा ॐकार का जाप न करें | ऐसा कहने का कारण उन्होंने बताया कि ध्यान के इस अभ्यास और ॐकार के जाप के बाद जिस ऊर्जा का अनुभव होगा उसे गर्भवती महिलाएँ सम्हाल नहीं पाएँगी | तथ्य की बात ये है कि सर्वप्रथम तो, एक दिन के ध्यान के अभ्यास से कोई सिद्धहस्त नहीं हो जाता | मन के अश्व दौड़ते ही रहते हैं | यदि उन पर लगाम कसी गई तो वे और छटपटाएँगे | इसलिए वे जितना दौड़ते हैं उन्हें दौड़ने देना चाहिए ताकि वे दिन प्रतिदिन के ध्यान के अभ्यास से थक कर स्वयं ही शान्त हो जाएँ | इसलिए गर्भवती महिला हो या कोई भी हो – किसी के लिए भी ध्यान के अभ्यास में कोई समस्या नहीं होनी चाहिए | साथ ही, गर्भवती महिलाओं के लिए तो ध्यान का अभ्यास और ॐकार का जाप अत्यन्त लाभदायक माना गया है | ध्यान के अभ्यास से मन शनै: शनै: शान्त होना आरम्भ हो जाता है, और जब मन बिल्कुल शान्त हो जाता है तब गर्भवती महिला गर्भस्थ शिशु से सकारात्मक सम्वाद करके तादात्म्य स्थापित कर सकती है | गर्भस्थ शिशु के समक्ष जो भी कहा जाए अथवा किया जाए उसका पूर्ण प्रभाव उस पर पड़ता है और वह आश्वस्त हो जाता है कि अब यदि वह बाहर के संसार में आता है तो वहाँ पूर्ण रूप से सुरक्षित रहेगा | साथ ही, ॐ अर्थात प्रणव के जाप से उत्पन्न ऊर्जा उस तक पहुँचती है तो उसे भी उसका बल प्राप्त होता है और वह एक सुदृढ़ शरीर और सुदृढ़ मानसिकता के साथ इस दृश्य संसार में अपने नेत्र खोलता है | महाभारत की अभिमन्यु की कथा केवल कपोल कल्पना ही नहीं है, आज विज्ञान इस तथ्य को सत्यापित कर चुका है गर्भ के समय जिस प्रकार का वार्तालाप गर्भस्थ के साथ किया जाएगा और जिस प्रकार का वातावरण गर्भिणी के आस पास का होगा उसका प्रभाव निश्चित रूप से शिशु पर पड़ता है |
अस्तु, सर्वप्रथम तो ध्यान और योग की क्रियाओं पर किसी का एकाधिकार नहीं है, कोई भी इन प्रक्रियाओं का अभ्यास कर सकता है | दूसरे, हमें ये कभी नहीं भूलना चाहिए कि ये समस्त प्रक्रियाएँ वैदिक प्रक्रियाएँ हैं – देश और काल के अनुसार इनमें परिवर्तन परिवर्धन आवश्यक है – जो हो भी रहा है - और इस प्रकार सभी देशों के सम्मिलित अभ्यासों के रूप में ये प्रक्रियाएँ और अधिक समृद्ध रूप में हमें उपलब्ध हो रही हैं | तीसरे, कोई भी व्यक्ति इनका अभ्यास कर सकता है – हर अवस्था में इनका लाभ ही होगा – चाहे वह कोई रोगी हो अथवा गर्भवती महिला हो | गर्भवती महिला के लिए तो और भी अधिक आवश्यक है तन और मन की शान्ति के लिए तथा गर्भस्थ शिशु को उसकी सुरक्षा की ओर से आश्वस्त करने के लिए ताकि एक स्वस्थ शिशु स्वस्थ संसार में अपने नेत्र खोल सके | भारत जैसे देश में, जहाँ जन्म से पूर्व से लेकर जीवन के अन्तिम पड़ाव तक प्रकृति के कण कण में प्रणव का अनहद नाद गूँजता हो वहाँ किसी भी व्यक्ति के लिए यह कहना कि इसके जाप से उत्पन्न ऊर्जा को वह झेल नहीं पाएगा – इससे अधिक हास्यास्पद भला और क्या हो सकता है...
और सबसे अन्तिम तथा आवश्यक तथ्य ये कि कोई भी रोग अथवा किसी भी प्रकार का असन्तुलन का अनुभव हो तो एक बार तो अपने चिकित्सक से अवश्य परामर्श करें, उसके बाद ही इन पूरक चिकित्साओं की ओर बढें | हाँ, यदि नियमित रूप से इनका अभ्यास करते रहे तो आपकी रोग प्रतिरोधक क्षमता इतनी प्रबल हो जाएगी कि आसानी से रोग आपको घेर नहीं
सकेंगे, और इन अभ्यासों के कोई “साइड इफेक्ट्स” भी नहीं होते |
सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे सन्तु निरामयाः |
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु, मा कश्चिद्दु:खभागभवेत् ||
इसी कामना के साथ एक बार पुनः सभी को दशलाक्षण पर्वों की अनेकानेक हार्दिक शुभकामनाएँ...