माँ दुर्गा की उपासना के
लिए पूजन सामग्री
साम्वत्सरिक नवरात्र चल रहे हैं
और समूचा हिन्दू समाज माँ भगवती के नौ रूपों की पूजा अर्चना में बड़े उत्साह,
श्रद्धा और आस्था के साथ लीन है | इस अवसर पर कुछ मित्रों के आग्रह पर माँ दुर्गा
की उपासना में जिन वस्तुओं का मुख्य रूप से प्रयोग होता है उनके विषय में लिखना
आरम्भ किया है | पारम्परिक रूप से जो सामग्रियाँ माँ भगवती की उपासना में प्रमुखता
से प्रयुक्त होती हैं उनका अपना प्रतीकात्मक महत्त्व होता है तथा प्रत्येक सामग्री
में कोई विशिष्ट सन्देश अथवा उद्देश्य निहित होता है...
अभी तक हमने कलश तथा कलश
स्थापना और वन्दनवार तथा यज्ञादि में प्रयुक्त किये जाने वाले आम्रपत्र और आम्र
वृक्ष की लकड़ी, दीपक, पुष्पों तथा नारियल इत्यादि के विषय में लिख चुके हैं... अब
आगे...
रक्षा सूत्र - पूजा को निर्विघ्न सम्पन्न
करने के उद्देश्य से रक्षा सूत्र अपने नाम के अनुरूप ही रक्षा के निमित्त बाँधा
जाता है | रक्षा सूत्र बांधते समय एक मन्त्र का उच्चारण किया जाता है:
येन बद्धो बली राजा दानवेन्द्रो महाबल: |
तेन त्वामनुबध्नामि रक्षे मा चल मा चल
||
अर्थात जिस रक्षासूत्र से महान शक्तिशाली दानवेन्द्र राजा बलि को बाँधा गया था वही आज में
तुम्हारी कलाई पर बाँध रहा हूँ | ये रक्षासूत्र तुम्हारी रक्षा करेगा | हे
रक्षासूत्र तुम सदा अचल रहते हुए रक्षा करो | रक्षा सूत्र अर्थात कलावा या मौली तीन कच्चे धागे से बनी होती है |
कलाई पर तीन रेखाएं होती हैं, जिन्हें मणिबन्ध कहा जाता है | ये तीन रेखाएँ ब्रह्मा, विष्णु और महेश की प्रतीक मानी जाती हैं तथा इन्हीं तीनों रेखाओं में
दुर्गा, सरस्वती और लक्ष्मी का वास भी माना जाता है |
पौराणिक मान्यताओं के अनुसार जब अभिमन्त्रित करके रक्षा सूत्र बाँधा जाता है तो वह
त्रिदेव और त्रिदेवियों को समर्पित हो जाता है और इस प्रकार तीनों देव और तीनों
देवियाँ व्यक्ति की रक्षा करती हैं |
मुखवास अर्थात पान सुपारी - किसी भी पूजा अर्चना में पान का भी
महत्त्व होता है | भगवती अथवा किसी भी देवी देवता को पान समर्पित करते समय मन्त्र
बोला जाता है:
पूगीफलं महादिव्यं नागवल्लीदलैर्युतम्
| एलादिचूर्णसंयुक्तं ताम्बूलं प्रतिग्रह्यताम् ||
अथवा:
एलालवंग कस्तूरीकर्पूरै: सुष्टुवासिताम | वीटिकां मुखवासार्थमर्पयामि
सुरेश्वरि ||
दिव्य पूगीफल अर्थात सुपारी
नागवल्लीदल अर्थात पान के पत्ते और एलादिचूर्ण अर्थात इलायची तथा कर्पूर आदि के सुगन्धित
चूर्ण के साथ आपको समर्पित करते हैं, इस ताम्बूल अर्थात पान के बीड़े को ग्रहण करें |
आपने देखा होगा कि पान सबसे अन्त में
समर्पित किया जाता है | इसका एक प्रमुख कारण यह है कि पान एक प्राकृतिक मुखवास है
– मुख को सुगन्धि प्रदान करता है | सारा भोजन सम्पन्न हो जाए, अतिथि को जो भी दान दक्षिणा दे दी जाए, उसके बाद अन्त में मुखवास के लिए पान देने की प्रथा अनादि काल से भारतीय
संस्कृति का अंग रही है | इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि पान को ताज़गी और
समृद्धि का स्रोत माना जाता है | भोजन के बाद यदि पान खा लिया जाए तो भोजन सरलता
से पच जाता है |
कथा उपलब्ध होती है कि कात्यायन ऋषि के कोई सन्तान नहीं थी | उन्होंने भगवती की
उपासना की और देवी से उन्हें कन्या रूप में प्राप्त करने का वरदान माँग लिया |
महिषासुर के बढ़ते अत्याचारों के कारण देवों का क्रोध भी बढ़ रहा था | उनके क्रोध से
एक तेजपुंज प्रकट हुआ जो कन्या रूप में था | उसी ने ऋषि कात्यायन के घर में जन्म
लिया और कात्यायनी कहलाईं | आश्विन शुक्ल नवमी और दशमी को उन्होंने महिषासुर से
युद्ध किया और अन्त में उसका का वध किया | मान्यता है की महिषासुर वध से पूर्व
उन्होंने पान ही खाया था जिसके कारण उनमें और अधिक ऊर्जा का संचार हो गया था | ऐसी
भी मान्यता है कि पान के पत्ते में समस्त देवी देवताओं का वास होता है |
तिलक - पुण्यं
यशस्यमायुष्यं तिलकं मे प्रसीदतु |
कान्ति लक्ष्मीं धृतिं सौख्यं सौभाग्यमतुलं बलम् |
ददातु चन्दनं नित्यं सततं धारयाम्यहम् ||
तिलक के लिए चन्दन,
हल्दी और कुमकुम आदि का प्रयोग किया जाता है | एक तो इन वस्तुओं के औषधीय गुण और
दूसरे इनकी सुगन्धि के कारण इन पदार्थों का उपयोग किया जाता है | चन्दन लगाने से
शीतलता प्राप्त होती है साथ ही बुद्धिमत्ता में भी वृद्धि होती है | हल्दी भी अपने
औषधीय गुणों के कारण प्रसिद्ध है | और पारम्परिक रूप से कुमकुम भी हल्दी से ही
बनाया जाता है |
तिलक लगाने के कुछ नियम भी होते हैं | जैसे:
पितृगणों को तर्जनी
अंगुलि से तिलक लगाया जाता है | अर्थात पिण्डदान करते समय तिलक लगाने के लिए
तर्जनी अंगुलि का प्रयोग किया जाता है | तर्जनी अर्थात तर्जन करना – किसी बात के
लिए रोकना – इसीलिए तर्जनी अंगुलि का प्रयोग किसी अतिथि को,
स्वयं को अथवा पूजा आदि में तिलक लगाने के लिए नहीं किया जाता |
यदि स्वयं को तिलक
लगाना हो तो मध्यमा अँगुली का प्रयोग किया जाता है | इसका एक कारण यह भी है की ये अंगुलि
लम्बी होने के कारण सरलता से अपने मस्तक तक पहुँच जाती है |
पूजा कार्य में किसी
को तिलक लगाना हो तो अनामिका का प्रयोग किया जाता है |
किसी अतिथि को तिलक
लगाना हो तो अंगुष्ठ अर्थात अँगूठे का प्रयोग किया जाता है |
साथ ही, तिलक
मस्तक पर जिस स्थान पर लगाया जाता है वह आज्ञाचक्र कहलाता है | तिलक धारण करने का
अभिप्राय है कि हम अपने आज्ञाचक्र को भी जाग्रत कर रहे हैं |
वास्तव में देखा जाए
तो जिस पूजा विधि और सामग्री की बात हम करते हैं वह हिन्दू समाज का सनातन काल से
चला आ रहा चिर परिचित अतिथि सत्कार ही है | कोई “विशिष्ट” अतिथि हमारे घर आता है
तो सबसे पहले तोरण बनाते हैं पञ्चपल्लवों से | अतिथि के आने पर द्वार पर ही हम
उसके हस्त पाद प्रक्षालन कराते हैं | कुछ भीतर आने पर उसका आरता भी उतारते हैं |
उसके पश्चात उसे बैठने के लिए आसन प्रदान करते हैं | अत्यन्त ही विशिष्ट व्यक्ति हुआ
तो उसके स्वागत में वाद्ययन्त्र भी बजाए जाते हैं | बैठने के बाद पुनः उसके हस्त
प्रक्षालन के लिए जल और हाथ पोंछने के लिए वस्त्र समर्पित करते हैं | कुछ पुष्प
आदि देकर तथा इत्र आदि छिड़ककर उसका सम्मान करते हैं | मस्तक पर तिलक लगाते हैं |
फिर कुछ पेय पदार्थ उसके समक्ष प्रस्तुत करते हैं | उसके बाद भोजन देते हैं | साथ
में जल भी देते हैं | भोजन के पश्चात मिष्टान्न भेंट किया जाता है | उसके बाद पुनः
हस्त प्रक्षालन के लिए जल दिया जाता है | अन्त में सुगन्धित पान और कुछ दक्षिणा
तथा उपहार आदि देकर पुनः आगमन की प्रार्थना के साथ विदा किया जाता है |
जब हम किसी भी देवी
देवता की स्थापना और आह्वाहन करते हैं तो वह वास्तव में अत्यन्त विशिष्ट होता है
हमारे लिए | और माँ भगवती के अतिरिक्त विशिष्ट अतिथि भला और कौन हो सकता है ? तो
माँ भगवती की उपासना में भी यही सब होता है | माता के भक्त उन्हें अपने निवास पर
आमन्त्रित करते हैं और जिस दिन उनका आगमन होता है उस दिन घर द्वार को अच्छे से
सजाते हैं | वन्दनवार द्वार पर लटकाते हैं | मैया का आह्वाहन करते हैं, उनके
आगमन पर शंखध्वनि करते हैं | उनके हस्त पाद प्रक्षालित करके आरती करके उन्हें घर
के भीतर लेकर आते हैं | पुष्प भेंट करते हैं | आसन प्रदान करते हैं | मस्तक पर
तिलक लगाते हैं श्रृंगार की वस्तुएँ तथा नारिकेल फल भेंट करते हैं | रक्षा सूत्र
समर्पित करते हैं | दीप प्रज्वलित करते हैं | भोजन और नैवेद्य समर्पित करते हैं | भोजनोपरान्त
पुनः हस्त प्रक्षालन करके ताम्बूल तथा अन्य सुगन्धि द्रव्य भेंट करते हैं | अन्त
में दक्षिणा समर्पित करके पुष्प तथा उपहार आदि भेंट करके भूल चूक के लिए क्षमा
याचना करते हैं | और फिर पुनः आगमन की प्रार्थना अर्थात आरती करके उन्हें विदा
करते हैं |
इस प्रकार यदि धार्मिक
पक्ष की बात नहीं भी करें, तो चाहे माँ भगवती की पूजा अर्चना हो
अथवा किसी भी अन्य देवी देवता की उपासना हो – ये समस्त प्रक्रियाएँ हमें अपनी जड़ों
से – अपने रीति रिवाज़ों से – अपने संस्कारों से जोड़े रखती हैं तथा हमें पग पग पर
यही सीख देती हैं कि व्यक्ति जीवन में कितना भी ऊँचा क्यों न उठ जाए... परिवार के
बड़े व्यक्तियों के समक्ष – अतिथियों के समक्ष – उसे विनम्र तथा श्रद्धावान ही बने
रहना चाहिए... अन्त में पुनः यही कहना चाहेंगे कि माँ केवल भावनाओं से प्रसन्न हो
जाती है... जहाँ भी जिस भी स्थिति में व्यक्ति है, बस हृदय
से माँ का स्मरण कर ले तो माँ अवश्य उसकी मनोकामना पूर्ण करती है... अस्तु, माँ भगवती अपने सभी नौ रूपों में जगत का कल्याण करें यही कामना है...
देवी प्रपन्नार्तिहरे
प्रसीद, प्रसीद मातार्जगतोSखिलस्य |
प्रसीद विश्वेश्वरी
पाहि विश्वं, त्वमीश्वरी देवी चराचरस्य ||