महिला आरक्षण विधेयक और वैदिक कालीन नारी
महिला आरक्षण बिल यानी नारी शक्ति वन्दन विधेयक लम्बी चर्चा के बाद लोक सभा और राज्य सभा दोनों में बहुमत से पास हो गया है – इसके लिए सभी महिलाओं को सबसे पहले तो हार्दिक बधाई – अब उनके लिए तैंतीस प्रतिशत का आरक्षण संसद और विधान सभाओं में सुरक्षित हो गया है | बहुत वर्षों से इस विधेयक को लाने का प्रयास किया जा रहा था जो अब माननीय प्रधानमन्त्री श्री मोदी जी के प्रयासों के कारण – उनके रात दिन के परिश्रम के कारण सम्भव हो पाया | इस ऐतिहासिक विधेयक के पास हो जाने के कारण अब राजनीति में महिलाओं की भागीदारी में वृद्धि होगी | लेकिन प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि जिस महान भारत देश की मान्यता है “यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता”, जहाँ वैदिक संस्कृति का पालन किया जाता है, ऐसे विचारशील देश में इस विधेयक को लाने की आवश्यकता क्यों पड़ी | कल इसी विषय पर यू ट्यूब के एन चन्द्रा पटल पर एक परिचर्चा में हमें भी आमन्त्रित किया गया था | उसी के लिए यह लेख लिखा था | तो सर्वप्रथम वैदिक काल में प्रत्येक क्षेत्र में नारी की स्थिति पर छोटी सी समीक्षा कर ली जाए...
वैदिक और उत्तर वैदिक युग की जब बात करते हैं तो एक ऐसे समाज का चित्र हमारी आँखों के समक्ष उपस्थित हो जाता है जहाँ महिलाओं को पुरुषों के समान जीवन के हर क्षेत्र में अधिकार प्राप्त थे – चाहे शिक्षा का क्षेत्र हो, धर्म का, राजनीति का, सम्पत्ति में उत्तराधिकार का क्षेत्र हो – हर क्षेत्र में नारी को पुरुष के बराबर अधिकार प्राप्त थे | और यही कारण है कि वह युग इतिहास का सबसे अधिक आदर्श और प्रगतिशील युग रहा है – स्वर्णिम युग रहा है | इस युग में महिलाओं ने अपने अधिकारों का पूर्णता से उपयोग किया था | अथर्ववेद में कहा गया है “सम्राज्योधि श्वशुरेषु सम्राज्युत देवृषु: नानान्दु: सम्राज्येधि सम्राज्युत श्वश्रुवा:” यानी हे नारी जिस घर में तुम वधु के रूप में जा रही हो वहाँ की तुम साम्राज्ञी हो, तुम्हारे साम्राज्य में परिवार के सभी सदस्य आनन्द से रहें | इसी से स्पष्ट हो जाता ही कि कितनी उन्नत थी नारी की स्थिति उस समय | परिवार मातृ सत्तात्मक हुआ करते थे और इस कारण सभी क़बीलों की मुखिया महिलाएँ ही हुआ करती थीं और क़बीले का सारा प्रशासन सम्हालती थीं | आज भी बहुत से आदिवासी समाजों में स्त्रियों की प्रमुखता परिवार में देखने को मिलती है |
सिन्धु घाटी सभ्यता और वैदिक काल के दौरान महिलाओं को समाज में पुरुषों के समान स्थान प्राप्त था | सभा समितियों में वे राजनीतिक रूप से भाग लेती थीं और सार्थक बहस करती थीं | उस समय की कुछ महत्त्वपूर्ण महिलाएँ जैसे घोषा, लोपामुद्रा, सुलभा, मैत्रेयी, गार्गी आदि इसका उदाहरण हैं | इसके अतिरिक्त कुछ साम्राज्यों में नगरवधू की परम्परा भी थी | कुछ लोगों का मानना है कि इन नगर वधुओं का कार्य केवल नृत्य गान करना और दरबारियों को रिझाना ही हुआ करता था – क्योंकि हिन्दी सिनेमा में इस विषय को इसी रूप में प्रदर्शित किया गया है | किन्तु वास्तविकता तो यह है कि महिलाओं के सम्मान के लिए नगरवधू की प्रतियोगिताएँ हुआ करती थीं | और ये प्रतियोगिताएँ सरल नहीं होती थीं – इनमें जहाँ इनके सौन्दर्य – इनके नृत्य गान लेखन आदि की परीक्षा ली जाती थी वहीं इनके सामान्य ज्ञान, राजनीति, अर्थ आदि विषयों की कसौटी पर भी इन्हें परखा जाता था | इन नगरवधुओं का सम्मान करना सारी प्रजा और सम्राट से लेकर मन्त्री परिषद तक के लिए आवश्यक हुआ करता था | ये नगर वधुएँ एक ओर जहाँ बहुत अच्छी कलाकार हुआ करती थीं, बहुत अच्छी साहित्यकार हुआ करती थीं, अत्यन्त शिष्टाचारी हुआ करती थीं – यहाँ तक भी विवरण उपलब्ध होते हैं जब इनके पास राजकुमारों तथा अन्य सम्भ्रान्त परिवारों के युवक युवतियों को इनके पास राजनीति, अर्थशास्त्र, तथा शिष्टाचार जैसे विषयों की शिक्षा के लिए भेजा जाता था, वहीं उन्हें राज्य सभाओं में महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त हुआ करते थे | साथ ही राज्य की विदेश नीतियों में इनका बहुत बड़ा योगदान हुआ करता था और राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों में किसी विवाद आदि की स्थिति में इनके साथ भी विचार विमर्श किया जाता था |
सामाजिक व्यवस्था की यदि बात करें तो उस समय बाल विवाह नहीं होते थे – अध्ययन पूर्ण कर लेने के बाद और बहुत सी कलाओं में निपुण हो जाने के बाद – जिनमें युद्ध कला भी आती थी – परिपक्व अवस्था में लड़की का विवाह किया जाता था – वह भी उसकी अनुमति से और उसकी पसन्द के युवक के साथ | स्वयंवर इसी प्रथा का एक अंग था | वैदिक सभ्यता यद्यपि पुरुष प्रधान थी फिर भी महिलाएँ सैनिक की भूमिका में होती थीं, राज्य सलाहकार होती थीं, मन्त्री पद पर आसीन होती थीं, नेत्री यानी राजनेता होती थीं, पुरोहित होती थीं | जन प्रतिनिधि के रूप में बहस में हिस्सा लेती थीं | वेद नारी को घर की महारानी कहते हैं, उसे देश का शासक बनने का अधिकार देते हैं, यहाँ तक कि पृथिवी की महारानी यानी साम्राज्ञी मानते हैं | वीरता का जहाँ तक प्रश्न है तो कैकेयी से बड़ा उदाहरण और क्या हो सकता है | वीरता के साथ ममत्व भी उनमें कूट कूट कर भरा होता था | भगवती का स्कन्द माता का रूप और आधुनिक समय में रानी लक्ष्मीबाई इसका ज्वलन्त उदाहरण हैं, जब आतताइयों से लोहा भी लेना है, किन्तु सन्तान को कैसे पीछे छोड़कर जाएँ - चल पड़ीं सन्तान को पीठ से बांधकर शत्रु से लोहा लेने...
उस समय यद्यपि तलाक़ की व्यवस्था नहीं थी फिर भी नारी को इतना अधिकार अवश्य था कि यदि पति असाध्य रोग से पीड़ित है, परस्त्रीगामी है, गुरु अथवा देवता से शापित है, ईर्ष्यालु है अथवा पत्नी के सम्मान की रक्षा नहीं कर सकता तो पत्नी उस पुरुष का त्याग करके एक वर्ष पश्चात् पुनर्विवाह कर सकती थी | साथ ही जो व्यक्ति अपनी सुशील, मृदुभाषिणी, गुणवती, सन्तानवती पत्नी का त्याग करेगा वह दण्ड का भागी होगा | इसी प्रकार स्त्रियों के साथ यदि कोई व्यभिचार करता है तो उसके लिये भी कठोर दण्ड का विधान था | पर्दा प्रथा उस समय नहीं थी क्योंकि माना जाता था कि पर्दा स्त्री के जीवन की बहुत बड़ी रुकावट होता है | अथर्ववेद और नारदीय मनु स्मृति जैसे ग्रन्थों में इन सन्दर्भों में अनेक श्लोक उपलब्ध होते हैं | उदाहरण के लिए, (श्लोक 9/72, 81) पुरुष या महिला को कपटपूर्ण विवाह या अपमानजनक विवाह से बाहर निकलने और पुनर्विवाह करने की अनुमति देता है और उसके लिए कानूनी साधन भी प्रदान करता है | अथर्ववेद में कई स्थान पर इसका संकेत मिलता है (अथर्व. 7/38/4, 12/4/46, 12/3/52) जिससे स्पष्ट होता है कि वैदिक युग में पुरुषों की भाँति राज्य की सभा व समितियों में स्त्रियाँ भाग ले सकती थीं | स्त्रियों के सभा समितियों में जाकर भाग लेने और बोलने का वर्णन आता है | उस समय की नारी प्रातः उठकर यही कहती थी कि सूर्योदय के साथ मेरा सौभाग्य भी ऊँचा उठता चला जाता है, मैं अपने घर और समाज की ध्वजा हूँ, मैंने अपने सभी शत्रु निःशेष कर दिये हैं | महिलाओं को यज्ञोपवीत धारण करने का भी अधिकार था |
अविवाहित बेटियों की अपने पिता की सम्पत्ति में हिस्सेदारी होती थी | किसी भी पुत्र की अनुपस्थिति में बेटी को अपने पिता की सम्पत्ति में पूर्ण कानूनी अधिकार प्राप्त थे | माँ की सम्पत्ति उनकी मृत्यु के बाद, बेटों और अविवाहित बेटियों में समान रूप से विभाजित होती थी | इन सब उच्चतम सामाजिक व्यवस्थाओं के अतिरिक्त महाभारत में हमें ऐसे उदाहरण भी उपलब्ध होते हैं जहाँ महिलाएँ सभी प्रकार के राजनीतिक, सामाजिक और धार्मिक मुद्दों पर पुरुषों को न केवल सलाह दिया करती थीं बल्कि उनके सुझावों को माना भी जाता था | कहने का अभिप्राय है कि तत्कालीन समाज के सामाजिक और राजनीतिक जीवन में महिलाओं की प्रभावी भूमिका हुआ करती थी | मनु ने तो स्पष्ट रूप से स्त्री को राज्य संचालन के योग्य माना है | वेदों में स्त्री के लिए पुरन्धि शब्द उपलब्ध होता है जिसका अर्थ है वह स्त्री जो नगर की रक्षा और पोषण करे | “पुरं नगरं दधातीति पुरन्धि” | नगरों का प्रबन्धन, आन्तरिक सुरक्षा और साफ़ सफाई की व्यवस्था स्त्रियों के ही हाथों में होती थी |
वास्तव में किसी भी स्वस्थ और विकसित समाज के निर्माण और विकास में स्त्री पुरुष की समान भागीदारी अत्यन्त आवश्यक है | राजनीतिक चेतना के विकास दिशा के सन्दर्भ में यही बात कही जाएगी | महिलाओं में राजनीतिक मुद्दों के प्रति जागरूकता और संवेदनशीलता बढ़े, सक्रियता बढ़े, साथ ही विभिन्न संगठनों, निकायों और इकाइयों के माध्यम से वे इन समस्त मुद्दों को सामाजिक पटल पर रखने की तथा समस्याओं के समाधान की सामर्थ्य होनी आवश्यक है | और हमारे वैदिक तथा उत्तर वैदिक काल में ऐसी ही व्यवस्थाएँ थीं | फिर क्या कारण हुआ कि धीरे धीरे ये सब समाप्त होता चला गया और स्थिति यहाँ तक आ गई कि संसद में महिला आरक्षण विधेयक सरकार को लेकर आना पड़ा |
इसके लिए हमें काफ़ी पीछे जाना होगा | सोलहवीं से अठारहवीं शताब्दी के मध्य का समय जिसे मध्य युग माना जाता है उस समय बहुत बड़ी उथल पुथल हुई और महिलाओं से उनके अधिकार धीरे धीरे छीन लिए गए | समाज पितृ सत्तात्मक होता चला गया और नारी पुरुष के आधीन होने को विवश हो गई | दरबारी मानसिकता के कारण इस युग का आरम्भ ही इस अवधारणा के साथ हुआ कि नारी नरक का द्वार है | बचपन में पिता, युवावस्था में पति और उसके बाद पुत्रों के आधीन रहने को विवश कर दी गई | घर की चारदीवारी में क़ैद कर दी गई | बाल विवाह होने लगे | शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे मूलभूत अधिकार भी उससे छीन लिए गए | यद्यपि इस सबके लिए ज़िम्मेदार विदेशी आक्रमण और गुलामी थे | हालाँकि बीच बीच में समाज सुधार के प्रयासों के चलते नारी की स्थिति में सुधार के भी प्रयास किये जाते रहे – लेकिन अंग्रेजों का सहयोग नहीं मिला क्योंकि उनके लिए भारतीय महिलाओं को उनके अधिकारों से वंचित रखना उनके पक्ष में जाता था | जिस देश की नारी सशक्त नहीं होगी वह देश कभी न तो आज़ादी की कल्पना कर सकता है न ही तरक्की कर सकता है | रानी लक्ष्मीबाई, रानी दुर्गावती जैसी असंख्य महिलाओं के शौर्य की आँधी को देखकर अंग्रेज़ और भी अधिक डरे हुए थे | महारानी अहिल्याबाई होल्कर जैसी महिलाओं ने न केवल राज्य की बागडोर सम्हाली बल्कि महिला शिक्षा, महिला जागृति और महिला उद्धार की दिशा में बहुत बड़ा योगदान दिया | तो अंग्रेजों ने नारी सुधार के कार्यों को होने ही नहीं दिया | तो फिर भला राजनीतिक परिदृश्य में नारी को इतना अधिक महत्त्व कैसे प्राप्त होता | हालाँकि कुछ महिलाएँ विशेष रूप से प्रभावशाली रहीं जिनमें श्रीमती इन्दिरा गाँधी का नाम प्रमुखता से लिया जाएगा | उनके अतिरिक्त मारग्रेट अल्वा, श्रीमती सुषमा स्वराज जैसी बहुत सी महिलाएँ प्रभावशाली पदों पर रहीं | श्रीमती प्रतिभा देवी सिंह पाटिल देश की राष्ट्रपति रहीं और आज भी श्रीमती द्रौपदी मुर्मू राष्ट्रपति के रूप में देश की प्रगति में योगदान दे रही हैं तो श्रीमती स्मृति ईरानी जैसी कर्मठ सांसद भी हैं | किन्तु ये सब अपवाद स्वरूप ही रहा | साथ ही, जिस देश की लड़कियाँ पत्रकार हैं तो डाक्टर भी हैं, खगोलीय रहस्यों का पता लगाने अन्तरिक्ष में भी जा रही हैं तो पुलिस में भी बड़े बड़े ओहदों से लेकर सिपाही तक की भूमिका का निर्वाह कर रही हैं – उस देश में राजनीति में महिलाओं की भागीदारी इतनी कम होना वास्तव में चिन्ता का विषय है | एक निश्चित संख्या में महिलाओं की राजनीति में भागीदारी होनी चाहिए इस ओर किसी ने ध्यान ही नहीं दिया | किन्तु साथ ही यह भी ध्यान रखना होगा कि योग्य महिलाएँ ही राजनीति में आएँ |
हालाँकि आज भी कुछ लोग इसके विरोध में खड़े हैं | लेकिन उनका कुछ नहीं किया जा सकता जिन्होंने केवल विरोध की ही ठान ली है – हर अच्छे कार्य का उन्हें विरोध करना ही है | वेदों और मनु स्मृति का अपनी सुविधा और अपने स्वार्थ के अनुसार मोड़ तोड़ कर अनुवाद करके उन्हें दलित और महिला विरोधी कहने वालों ने ही वास्तव में बहुत अधिक क्षति हिन्दू समाज को पहुँचाई है और अब भी पहुँचाने का प्रयास कर रहे हैं | ऐसे लोगों से और आशा भी क्या की जा सकती है जो भगवान श्री राम पर आरोप लगाते हैं कि उन्होंने एक धोबी के लांछन पर गर्भवती पत्नी को वन में छोड़ दिया था | सत्य है कि कुछ प्रजा जनों ने माता सीता के चरित्र पर सन्देह किया था, किन्तु जिन श्री राम ने माता कैकेयी को उनके अपराध के लिए क्षमा कर दिया, मन्थरा को क्षमादान दिया, स्वयं लंका में ही माता सीता के सतीत्व का प्रमाण सबको दिया – एक राज्य का संचालक होने के कारण जन साधारण के प्रति यह उनका कर्तव्य भी था – वही क्या इतना सब होने के बाद भी अपनी गर्भवती पत्नी को घर से निकाल देते ? इन लोगों को वाल्मीकि रामायण के उत्तर काण्ड के बयालीसवें सर्ग के तीस से पैंतीस तक के श्लोक पढ़ने की आवश्यकता है जिनमें स्पष्ट लिखा है कि जब श्री राम ने सीता जी से पूछा कि इस समय तुम गर्भ से हो और मैं तुम्हारी हर इच्छा पूर्ण करना चाहता हूँ – तो बताओ तुम क्या चाहती हो, इस पर सीता जी ने कहा की मैं पवित्र तपोवनों में रहकर यशस्वी ऋषि मुनियों की सेवा करना चाहती हूँ ताकि मेरी सन्तान क्षत्रिय तेज के साथ ब्रह्म तेज से भी युक्त हों | सीता जी स्वेच्छा से वनों में गई थीं, श्री राम ने उन्हें निष्कासित नहीं किया था | इसी तरह श्री कृष्ण पर आरोप लगाया जाता है कि उनकी सोलह हज़ार रानियाँ थीं, जबकि सत्य यह है कि जरासंध द्वारा बलपूर्वक कैद करके रखी गई सोलह हज़ार निराश्रित स्त्रियों को समाज में सर उठाकर जीने का अधिकार देने के लिए उस युग पुरुष ने ऐसा क़दम उठाया था |
तो अन्त में बस यही कहेंगे कि जिस समाज में नैतिक मूल्यों का इतना ह्रास हो चुका हो, जहाँ सनातन को समूल नष्ट करने की प्रतिज्ञाएँ की जाती हों, वहाँ तो फिर इस तरह के विधेयक लाकर ही विकास की प्रक्रिया को आगे बढ़ाया जा सकता है | एक बार पुनः इस विधेयक के पास हो जाने पर सभी महिलाओं को बधाई...