मैं करती हूँ
नृत्य
दोनों हाथ ऊपर
उठाकर, आकाश की ओर
भर लेने को
सारा आकाश अपने हाथों में |
चक्राकार घूमती
हूँ
कई आवर्तन
घूमती हूँ
गतों और परनों
के, तोड़ों और तिहाइयों के |
घूमते घूमते बन
जाती हूँ बिन्दु
हो जाने को एक
ब्रह्माण्ड के
उस चक्र के साथ |
खोलती हूँ अपनी
हथेलियों को ऊपर की ओर
बनाती हूँ
नृत्य की एक मुद्रा
देने को
निमन्त्रण समस्त विशाल को
कि आओ, करो
नृत्य मेरे साथ
मेरी लय में लय
मिला, मुद्राओं में मुद्रा मिला
भावों में भाव
मिला
और धीरे धीरे
बढ़ती है गति
छाता है उन्माद
मेरे नृत्य में
क्योंकि मुझे
होता है भास अपनी एकता का
उस समग्र के
साथ |
और मैं करती
हूँ नृत्य, आनन्द में उस क्षण को जीने को |
मैं करती हूँ
नृत्य, शिथिल करने के लिये मन को |
मैं करती हूँ
नृत्य, खो देने को अपनी सारी उपलब्धियाँ |
मैं करती हूँ
नृत्य, मिटा देने को सारी सम्वेदनाएँ |
मैं करती हूँ
नृत्य, विस्मृत कर देने को सारा ज्ञान |
मैं करती हूँ
नृत्य, अन्तिम समर्पण को स्वयं के |