मानसिक शान्ति
मानसिक शान्ति - जिसकी आजकल हर किसी को आवश्यकता है - चाहे वह किसी भी
व्यवसाय से जुड़ा हो, गृहस्थ हो, सन्यासी हो -
विद्यार्थी हो - कोई भी हो - हर किसी का मन किसी न किसी कारण से अशान्त रहता है | और हम अपनी मानसिक अशान्ति का दोष अपनी परिस्थितियों तथा अपने आस पास के
व्यक्तियों पर - समाज पर - मढ़ देते हैं | कितना भी ब्रह्म
मुहूर्त में प्राणायाम, योग और ध्यान का अभ्यास कर लिया जाए,
कितना भी चक्रों को जागृत कर लिया जाए - मन की अशान्ति, क्रोध, चिड़चिड़ापन और कई बार उदासी यानी डिप्रेशन भी
- जाता ही नहीं | किन्तु समस्या यह है कि जब तक व्यक्ति का
मन शान्त नहीं होगा तब तक वह अपने कर्तव्य कर्म भी सुचारु रूप से नहीं कर पाएगा,
क्योंकि मन एक स्थान पर - एक लक्ष्य पर स्थिर ही नहीं रह पाएगा | हमने ऐसे लोग देखें हैं जो नियमित ध्यान का अभ्यास करते हैं, प्राणायाम, ध्यान और योग सिखाते भी हैं - लेकिन उनके
भीतर का क्रोध, घृणा, लालच, दूसरों को नीचा दिखाने की उनकी प्रवृत्ति में कहीं किसी प्रकार की कमी
नहीं दिखाई देती |
अस्तु, मन को शान्त करने के क्रम में सबसे पहला अभ्यास है मन को -
अपने ध्यान को - उन बातों से हटाना जिनके कारण व्यवधान उत्पन्न होते हैं या मन के
घोड़े इधर उधर भागते हैं | जब तक इस प्रकार की बातें मन में
रहेंगी - मन का शान्त और स्थिर होना कठिन ही नहीं असम्भव भी है | इसीलिए पतंजलि ने मनःप्रसादन की व्याख्या दी है |
महर्षि पतंजलि ने ऐसे कुछ भावों के विषय में बताया है जो इस प्रकार की
बाधाओं को दूर करने में सहायक होते हैं | ये हैं - मित्रता, करुणा या संवेदना और धैर्य तथा समभाव | निश्चित रूप
से यदि मनुष्य इन प्रवृत्तियों को अपने दिन प्रतिदिन के व्यवहार में अपना लेता है
तो नकारात्मक विचार मन में आने ही नहीं पाएँगे | किसी भी
व्यक्ति के किसी विषय में व्यक्तिगत विचार हो सकते हैं | यदि
उसके उन विचारों से किसी को कोई हानि नहीं पहुँच रही है तो हमें इसकी आलोचना करने
का या उसे टोकने का कोई अधिकार नहीं | ऐसा करके हम अपना मन
ही अशान्त नहीं करते, वरन अपनी साधना के मार्ग में व्यवधान
उत्पन्न करके लक्ष्य से बहुत दूर होते चले जाते हैं |
अतः जब भी और जहाँ भी कुछ अच्छा - कुछ आनन्ददायक - कुछ सकारात्मक ऊर्जा से
युक्त दीख पड़े - हमें सहज आनन्द के भाव से उसकी सराहना करनी चाहिए और यदि सम्भव हो
तो उसे आत्मसात करने का प्रयास भी करना चाहिए, ताकि हमारे मन में वह
आनन्द का अनुभव दीर्घ समय तक बना रहे - न कि अपनी व्यक्तिगत ईर्ष्या, दम्भ, अहंकार आदि के कारण उस आनन्ददायक क्षण से विरत
होकर उदासी अथवा क्रोध की चादर ओढ़कर एक ओर बैठ जाया जाए |
ऐसा करके आप न केवल उस आनन्द के क्षण को व्यर्थ गँवा देंगे, बल्कि
चिन्ताग्रस्त होकर अपनी समस्त सम्भावनाओं को भी नष्ट कर देंगे | आनन्द के क्षणों में कुछ इतर मत सोचिए - बस उन कुछ पलों को जी लीजिये | इसी प्रकार जब कभी कोई प्राणी कष्ट में दीख पड़े हमें उसके प्रति दया,
करुणा, सहानुभूति और अपनापन दिखाने में तनिक
देर नहीं करनी चाहिए | आगे बढ़कर स्नेहपूर्वक उसे भावनात्मक
अवलम्ब प्रदान चाहिए |
इस प्रकार चित्त प्रसादन के उपायों का पालन करके कोई भी व्यक्ति मानसिक स्तर पर एकाग्र तथा प्रसन्न अवस्था में रह सकता है | यदि हमारा व्यवहार ऐसा होगा - यदि इन दोनों बातों का अभ्यास हम अपने नित्य प्रति के जीवन में करेंगे – तो हमारा चित्त प्रसन्न रहेगा – और विश्वास कीजिये - इससे बड़ा ध्यान का अभ्यास कुछ और नहीं हो सकता | इस अभ्यास को यदि हम दोहराते रहते हैं तो कोई भी विषम परिस्थिति हमारा चित्त अशान्त नहीं कर पाएगी - किसी भी प्रकार का नकारात्मक विचार हमारे मन में नहीं उत्पन्न होने पाएगा और हमारा मन आनन्दमिश्रित शान्ति का अनुभव करेगा |