मेरा अन्तर इतना विशाल
समुद्र से गहरा / आकाश से ऊँचा / धरती सा विस्तृत
जितना चाहे भर लो इसको / रहता है फिर भी रिक्त ही
अनगिन भावों का घर है ये मेरा अन्तर
कभी बस जाती हैं इसमें आकर अनगिनती आकाँक्षाएँ और आशाएँ
जिनसे मिलता है मुझे विश्वास और साहस / आगे बढ़ने का
क्योंकि नहीं है कोई सीमा इस मन की
चाहे जितनी ऊँची पेंग बढ़ा लूँ / छू लूँ नभ को भी हाथ बढ़ाकर
क्योंकि धरती और आकाश दोनों ही हैं मेरा घर
या पहुँच जाऊँ नभ के भी पार / जहाँ न हो धरती का भी कोई आकर्षण
या चाहे अपनी कल्पनाओं से करा दूँ मिलन / धरा और आकाश का
इतना कुछ छिपा है मेरे इस अन्तर में / फिर भी है ये रीता का रीता
खिले हैं अनगिनती पुष्प मेरे अन्तर में
आशाओं के, विश्वासों के, उत्साहों के
न तो कोई दीवार है इसके चारों ओर / न ही कोई सीमा इसकी
अतुलित स्नेह का भण्डार मेरे इस अन्तर में
आ जाता है जो एक बार / नहीं लौटता फिर वो रिक्त हस्त
अपने इसी खालीपन में तो मिलता है मुझे
विस्तार अपार
नहीं चाहती भरना इसे पूरी तरह
भर गया यदि यह रीता घट / तो कहाँ रह जाएगा स्थान
नवीन भावनाओं के लिए... नवीन आशाओं के लिए...
इसीलिए तो प्रिय है मुझे
अपना ये विशाल अन्तर
क्योंकि रहता है सदा इसमें / अवकाश अपार...
https://purnimakatyayan.wordpress.com/2018/07/19/मेरा-अन्तर-इतना-विशाल