हम सभी जानते हैं कि ज्योतिष एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण और सम सामयिक विषय है | वेदांगों के अन्तर्गत ज्योतिष को अन्तिम वेदान्त माना गया है | प्रथम वेदांग है शिक्षा – जिसे वेद की नासिका माना गया है | दूसरा वेदांग है व्याकरण जिसे वेद का मुख माना जाता है | तीसरे वेदांग निरुक्त को वेदों का कान, कल्प को हाथ, छन्द को चरण और ज्योतिष को वेदों का नेत्र माना जाता है |
वेद की प्रवृत्ति यज्ञों के सम्पादन के निमित्त हुई थी | और यज्ञों का सम्पादन विशेष मुहूर्त में ही सम्भव है | इसी समय विशेष के निर्धारण के लिए ज्योतिष की आवश्यकता प्रतीत हुई | और इस प्रकार ग्रह नक्षत्रों से सम्बन्धित ज्ञान ही ज्योतिष कहलाया | नक्षत्र, तिथि, पक्ष, मास, ऋतु तथा सम्वत्सर – काल के इन समस्त खण्डों के साथ यज्ञों का निर्देश वेदों में उपलब्ध है | वास्तव में तो वैदिक साहित्य के रचनाकाल में ही भारतीय ज्योतिष पूर्णरूप से अस्तित्व में आ चुका था | सम्पूर्ण वैदिक साहित्य में इसके प्रमाण इधर उधर बिखरे पड़े हैं | हमारे ऋषि मुनि किस प्रकार समस्त ग्रहों नक्षत्रों से अपने और समाज के लिए मंगल कामना करते थे इसी का ज्वलन्त उदाहरण है प्रस्तुत मन्त्र:
स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवा: स्वस्ति न: पूषा विश्ववेदा: |
स्वस्ति न तार्क्ष्योSरिष्टनेमि: स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ||
प्रस्तुत मन्त्र में राशि चक्र के समान चार भाग करके परिधि पर समान दूरी वाले चारों बिन्दुओं पर पड़ने वाले नक्षत्रों से अपने व समस्त संसार के कल्याण की कामना इन ऋषि मुनियों ने की है | इन्द्र से चित्रा का, पूषा से रेवती का, तार्क्ष्य से श्रवण का तथा बृहस्पति से पुष्य नक्षत्रों का ग्रहण किया गया है | चित्रा का अन्तिम भाग कन्या राशि के अन्त पर और रेवती का अन्तिम भाग मीन राशि के अन्त पर 180 अंश का कोण बनाते हैं | यही स्थिति श्रवण व पुष्य नक्षत्रों की मकर व कर्क राशियों में है |
तैत्तिरीय शाखा के अनुसार चित्रा नक्षत्र का स्वामी इन्द्र को माना गया है | भारत में प्राचीन काल में नक्षत्रों के जो स्वरूप माने जाते थे उनके अनुसार चित्रा नक्षत्र का स्वरूप लम्बे कानों वाले उल्लू के जैसा माना गया है | अतः इन्द्र का नाम वृद्धश्रवा भी है | जो सम्भवतः इसलिए भी है कि इन्द्र को लम्बे कानों वाले चित्रा नक्षत्र का अधिपति माना गया है | अतः यहाँ वृद्धश्रवा का अभिप्राय चित्रा नक्षत्र से ही है | पूषा का नक्षत्र रेवती तो सर्वसम्मत ही है | तार्क्ष्य शब्द से अभिप्राय श्रवण से है | श्रवण नक्षत्र में तीन तारे होते हैं | तीन तारों का समूह तृक्ष तथा उसका अधिपति तार्क्ष्य | तार्क्ष्य को गरुड़ का विशेषण भी माना गया है | और इस प्रकार तार्क्ष्य उन विष्णु भगवान का भी पर्याय हो गया जिनका वाहन गरुड़ है | अरिष्टनेमि अर्थात कष्टों को दूर करने वाला सुदर्शन चक्र – भगवान विष्णु का अस्त्र | पुष्य नक्षत्र का स्वामी देवगुरु बृहस्पति को माना गया है | विष्णु पुराण के द्वितीय अंश में नक्षत्र पुरुष का विस्तृत वर्णन मिलता है | उसके अनुसार भगवान विष्णु ने अपने शरीर के ही अंगों से अभिजित सहित 28 नक्षत्रों की उत्पत्ति की और बाद में दयावश अपने ही शरीर में रहने के लिए स्थान भी दे दिया | बृहत्संहिता में भी इसका विस्तार पूर्वक उल्लेख मिलता है |
https://www.astrologerdrpurnimasharma.com/2018/07/19/constellation-nakshatras-2/