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नैतिकमूल्य

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              सुबह के सात बजे थे। ज्योति अपनी छत पर हाथ में किताब लिए, घूम घूम कर कुछ याद कर रही थी। इस साल वह दसवीं कक्षा में थी। घूमते -घूमते कभी वो किताब में देखत

पीहर आयी थी एक बहन,मनाने त्योहार रक्षाबन्धन,गाँव पहुँचने का न था कोई साधन,चल दी पैदल एक राहगीर बन।सावन का था महीना,पर चिलचिलाती धूप से था सामना,दो छोटे बच्चे साथ थे पैदल,और एक को था गोद में थामा।वो सड़

कागज़ का टुकड़ा जिस पर,कलम,स्याही, दवात का पहरा।शब्दों का प्रयोग जहां तक,मनस्थिति आंकलन का पहरा।।कागज़ का टुकड़ा जिस पर,लेखनी से विचार सजाते।भावों और विचारों का मंथन,प्रयासों से अपना लेखन सजाते।।कागज़

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हे गजानन करुणानिधान,विघ्नविनाशक मूषकवाहन।शिव पुत्र पार्वती के नंदन,बारम्बार तुम्हें अभिनंदन।।एकदंत हो दयावंत हो,चार भुजा हो तुम धारी।मस्तक सिंदूर सोहे तुम्हरे,लम्बोदर और हो त्रिपुरारी।।कुशाग्र बुद्धि

जिंदगी भी क्या पहेली,समझ गया तो सहेली।जो न समझ सका तो,होती है अनबूझ पहेली।।जिंदगी जीने का ढंग,तय करे खुद इंसान।कभी कभी न समझे,बदल जाता है इंसान।।जिंदगी की पहेली भी,अजीबोगरीब कारनामे।कभी खुशी तो कभी गम

कई बार जो हम सोचते है और चाहते है । उससे उलट हो जाता है। जरूरी नहीं हम जो चाहे वहीं हो, इसके कई कारण होते है। कुछ कोशिश में कमी या फिर किस्मत भी कह सकते है। उस वक्त हौसला हारने के बजाय अपनी कमजोरियों

अवैध निर्माण क्यों होते,रिश्वतखोरी में पलते हैं।जाग मुसाफिर भोर भई,इस जाल में फंदे कसते हैं।।टूट जाता है वह आशियां,जो अवैध निर्माण से होता।न जमीं पर न आसमां नजर,जमींदोज वह फिर हो जाता।।अवैध निर्माण के

खेल जगत में क्रिकेट का,बैट बल्ले का होता काम।खेल खेल की तरह खेल,दुश्मनी का न कोई काम।होता है दो पक्षों के बीच,जीतने को आतुर नाम।।कोई फेंकता है गेंद को,तो बैट से लेता है काम।।खेल क्रिकेट टीम संयुक्त,एक

आज हमारी ईश्वर में आस्था,है कितनी यह देखो जरा।कोई तो करता पूजा साधना,कोई करे ऐसे खिलवाड़ जरा।।न उड़ाए मजाक आस्था का,न आस्था को ही संसाधन।करे ईश्वर की अर्चना याचना,न ही पब्लिसिटी का साधन।।ईश्वर का भी म

जल ही प्रथ्वी का जीवन है,जीवनशैली इस पे निर्भर है।अस्तित्व जीवन धरती पर,जल से संभव है धरती पर।।ब्रह्माण्ड का अपवाद धरा पर,जीवन चक्र होता मनुष्य का।जल से संरक्षित ये रहता है,मन मस्तिष्क भी मनुष्य का।।ब

आज का यह युवा भारत,लोकतांत्रिक मुख्य आधार।राजनीति और विकास पर,युवा अग्रसर और है तैयार।।आज का यह युवा भारत,शक्ति से यह परिपूर्ण है।देश स्वाधीनता इसकी,योगदान बेहतरी सम्पूर्ण है।।आज का यह युवा भारत,मार्ग

समय और शब्द का तुम,न लापरवाही से करो प्रयोग।वरना दुनिया की भीड़ में,होगा तुम्हारी ही उपयोग।।गलत बोलने पर कभी,वह वापस नहीं आता।शब्द तीर की तरह होता,कमान में वापस नहीं आता।।जो कल समय था आज नहीं,आज के पल

गुरुकुल में शिक्षा दीक्षा,शिष्य ग्रहण करें दिन रैन।चाहे करें वह चाकरी,या फिर हो शिक्षा रैन।।गुरुकुल में रहकर शिष्य,सीखते है जीवन के पाठ।गुरु की सेवा सुश्रुषा से,पाते गुरुकृपा का पाठ।।वृक्ष तले खुले आस

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आज  का  आधुनिक भारत।किसी को मिलती नहीं राहत।।महंगाई  पकड़े अब  जोर है।सब करते यही अब शोर है।।गरीबों का होता बुरा हाल।अमीर और होते मालामाल।।नेतागण कैसे पैसे ये कमाते।मध्यम वर्गीय हि

आयो नंद घर ललना, ब्रज में मची खुशहाली। घर घर दीप जल रहे, बजा  रहे  हैं  थाली।। बगिया में फूल खिल रहे, सीचें बगिया का माली। धरती  अंबर  झूम  रहा, धरा पे छाई हरियाली।। पत्त

हँसते हुए लोग भी दर्द लिए होते हैं,मुस्करा कर भी लोग ज़ख्म दे जाते हैं।कल तक जो हमदर्दी की कसमें खाते थे,वक़्त आने पर वो भी साथ छोड़ जाते हैं।।किसी की खूबसूरत बातों में मत आना,किसी में बहुत सारी खूबियाँ

मुद्दतों बाद भैया और दिव्या संग मुस्कुरा रही थी,अरसों बाद आज सुरीली आज मायके जा रही थी | सुरीली की सवारी गांव के बहुत पास आ गई थी,पर आज सुरीली गांव पहचान ना पा रही थी | जंगलों और पर्वतों&nbs

ज्यों-ज्यों सुरीली की मंज़िल करीब आ रही थी, त्यों-त्यों सुरीली की धड़कन बढ़ती जा रही थी | आठ बरस बाद वो अपने घर को देख रही आज, जिसे उसके पति ने बनाया था मसक्क्तों के बाद | दिव्या हौले से अपनी द

आय रक्षा पर्व आस,एक दूजे से परिहास।पावन पर्व यह मास,मन से होते ये पास।।समय के होते दास,दूर रह होता हास।पास हो तो उल्लास,एक दूजे से उपहास।।डाक भेजे तो संत्रास,दूर रह होकर पास।आय मायके परिहास,यादे रचे इ

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मेरे घर आती गौरैया,फुदक फुदक जाती गौरैया।इधर उधर वो दाना खाती,आहट पाकर फुर्र उड़ जाती।।चीं चीं कर वह हमें जगाती,भोर हो गया हमें बताती।हमारे लिए अलार्म बन जाती,हमें देख वो खुश हो जाती।।कुछ खाना दे दो हम

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