कृत्तिका :-
बात चल रही है वैदिक ज्योतिष के आधार पर मुहूर्त, पञ्चांग, प्रश्न इत्यादि के विचार के लिए प्रमुखता से प्रयोग में आने वाले 27 नक्षत्रों के नामों की व्युत्पति (किस धातु आदि से किस नक्षत्र का नाम बना) किस प्रकार हुई तथा इनके अर्थ क्या हैं इस विषय पर | पिछले लेख में इसी सन्दर्भ में अश्विनी नक्षत्र पर बात की थी | आज भरणी नक्षत्र...
कृ धातु में क्तिन् प्रत्यय लगाकर कृत्तिका शब्द की निष्पत्ति हुई है | इसमें छह तारे होते हैं तथा कार्तिक माह का नाम इसी नक्षत्र के नाम पर पड़ा है | यह नक्षत्र अक्टूबर और नवम्बर के महीनों में पड़ता है | कृत्तिका का अर्थ होता ऐसा कार्य जो पूर्ण किया जा चुका हो | भोज वृक्ष का भी यह पर्यायवाची है | ऐसा माना जाता है कि इसके छह तारे वास्तव में छह अप्सराएँ हैं जो युद्ध के देवता स्कन्द कुमार अर्थात कार्तिकेय के सेवा में नियुक्त थीं | महाभारत में एक विवरण उपलब्ध होता है कि इन छह अप्सराओं को नक्षत्र मण्डल में कैसे स्थान मिला |
कहानी कुछ इस प्रकार है कि सप्तर्षियों में से छह ऋषियों ने अपनी पतिव्रता पत्नियों को केवल इसलिए त्याग दिया कि उन्हें सन्देह था कि कार्तिकेय का जन्म उनके गर्भ से हुआ है | जबकि यह सत्य नहीं था | ये ऋषिपत्नियाँ कार्तिकेय के पास पहुँचीं और उन्हें सारी बात बताते हुए कहा कि “यह सत्य है कि हमने तुम्हें जन्म नहीं दिया लेकिन हमने तुम्हारा पालन पोषण अपनी सन्तान के समान ही स्नेहपूर्वक किया है | अब जब हमारे पतियों ने हमें त्याग दिया है तो अब हम कहाँ जाएँ, कौन हमें स्वीकार करेगा ? हमारी सहायता कीजिए...” इन्द्र वहीं उपस्थित थे | सारा वृत्तान्त सुनकर इन्द्र ने कार्तिकेय से कहा कि “इस समय रोहिणी और अभिजित दोनों में इस बात पट बहस छिड़ी हुई है कि दोनों बहनों में कौन बड़ी है | अभिजित रोहिणी से छोटी होते हुए भी अपने बड़े होने का दावा कर रही है | लेकिन रोहिणी के साथी ही और भी कोई अभिजित के इस दावे को मानने के लिए तैयार नहीं है | इसलिए अभिजित अप्रसन्न होकर तपस्या करने चली गई है और तब तक वापस नहीं लौटेगी जब तक अपने बड़े होने के विषय में तथ्य एकत्र नहीं कर लेगी | और ऐसा हो नहीं सकता | अब जबकि अभिजित नीचे गिर चुकी है तो नक्षत्र मण्डल में एक स्थान रिक्त हो गया है | क्यों न कृत्तिकाओं को उसके स्थान पर नियुक्त कर दिया जाए ?”
कार्तिकेय को यह सुझाव पसन्द आया तो इन्द्र ने ब्रह्मा जी के समक्ष यह प्रस्ताव रखा | ब्रह्मा जी तैयार हो गए और इस प्रकार उन कृत्तिकाओं को नक्षत्र मण्डल में अभिजित का स्थान प्राप्त हो गया | वहाँ उनकी भेंट अग्निदेव से हुई और इस प्रकार अग्निदेव तथा छह कृत्तिकाओं ने मिलकर सात सिरों वाले कृत्तिका नक्षत्र की आकृति बना ली | (महाभारत वनपर्व अध्याय 230) |
इसके साथ ही एक और भी तथ्य स्पष्ट होता है कि उस समय तक अभिजित नक्षत्र – जिसे आजकल 28वाँ नक्षत्र माना जाता है उस समय प्रथम नक्षत्र अर्थात युग का आदि नक्षत्र माना जाता था | उससे भी पूर्व रोहिणी को युग का आदि नक्षत्र माना जाता था | अभिजित के पतन के बाद ब्रह्मा ने युग की कालगणना धनिष्ठा नक्षत्र से आरम्भ कर दी थी | (महाभारत वनपर्व अध्याय 230 श्लोक 10)
चन्द्रमा को कृत्तिकाभव कहा जाता है – अर्थात कृत्तिका से उत्पन्न | इस नक्षत्र के अन्य नाम हैं – अग्नि, वह्नि, कृशानु, दहन, पावक, हुतभुक, हुताश – अर्थात अग्नि के सारे विशेषण और पर्यायवाची |
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