संस्कारों का दिखावा करने वालों पर डॉ दिनेश
शर्मा का खरा व्यंग्य...
निर्वाण टॉयलेट
सीट पर – दिनेश डॉक्टर
मन चंगा तो
कठौती में गंगा
कई बरस पहले की बात है मैं दिल्ली से लंदन की
फ्लाइट पर था । मैं जाकर बैठा ही था कि साथ वाली सीट पर सुप्रसिद्ध और जाने माने गायक श्री अनूप जलोटा
जी आकर बैठ गए । इनके गाये भजन सुबह शाम हर घर में खूब बजते हैं । सेलिब्रिटीज़ को
हर जगह लोगों की अटेंशन और इज़्ज़त खूब मिलती है। मैनें भी प्रणाम किया तो उन्होंने
बड़े उदार ह्रदय और गर्मजोशी से जवाब दिया । फ्लाइट लंबी थी । बाते शुरू हुई । दो
पैग पीने के बाद वो काफी खुल गए । मुझसे
पूछा कि मैं क्या करता हूँ । जब मैंने अपना परिचय दिया तो ज्योतिष के दृष्टिकोण से
अपनी जन्म कुंडली डिस्कस करने लगे । ज्योतिष का उन्हें भी अच्छा खासा ज्ञान है ।
इतने में स्नेक्स आ गए । ग्रिल्ड चिकन का एक पीस मुंह में डालते हुए उन्होंने
बताया कि अक्सर लोग उनके शराब पीने और नॉन वेज खाने को लेकर अनचाहे कमेंट्स करते
हैं कि मैं भजन गाता हूँ तो मैं ऐसा पाप क्यों करता हूँ । खास तौर पर हवाई यात्रा
के वक़्त अगर मैं शराब पी रहा हूँ तो साथ बैठे लोग इस तरह के कमेंट्स करने से नही
चूकते । फिर मुझे उन्हें प्यार से समझाना पड़ता है कि उन्हें इससे क्या मतलब कि
मेरे मुंह में क्या जा रहा है -उन्हें तो इस बात से मतलब होना चाहिए कि मेरे मुंह
से बाहर क्या आ रहा है और मैं तो ग़ज़ल और रोमांटिक गाने भी गाता हूँ ।
ऐसा ही एक किस्सा उन दिनों हुआ था जब टेलीविजन पर
रामायण सीरियल चल रहा था । दिल्ली के चेम्सफोर्ड क्लब में भगवान राम का पात्र
निभाने वाले श्री अरुण गोविल कुछ मित्रों के साथ शाम इंजॉय कर रहे थे । मैं भी
क्योंकि क्लब का मेम्बर हूँ तो उस शाम इत्तेफ़ाक़ से वहीं था और उनकी बगल वाली मेज
पर कुछ दोस्तों के साथ गप्पबाज़ी कर रहा था । तभी क्लब के दो अधेड़ उम्र के मेम्बर
जो मुझे अच्छी तरह जानते थे और खुद अच्छी खासी पिये हुए थे, अपने गिलास थामे मेरी टेबल पर आ गए और श्री गोविल की तरफ इशारा करके
शिकायत के स्वर में कहने लगे , "देक्खो डॉ साब इसको
शर्म नही आती खुले आम शराब पी रहा है -लोगों की इस पर कितनी श्रद्धा है" !
सुन श्री गोविल ने भी लिया पर क्योंकि शालीन व्यक्ति हैं - कोई प्रतिक्रिया नही दी
। हो सकता है कि वो ऐसा अक्सर सुनने के अभ्यस्त थे ।
हम अपनी अंधश्रद्धा की वजह से किसी व्यक्ति के
बारे में जो इमेज बना लेते हैं वो हमारा अपना विषय है । हम उस व्यक्ति से ऐसी अपेक्षा करने लगें कि वह
हमारी इमेज के हिसाब से जिये तो यह गलती उस व्यक्ति की नही बल्कि हमारी है । जब हम
पाप और पुण्य की परिभाषा अपने हिसाब से गढ़ने लगते है तो यह हमारा खुद का अज्ञान है
। आप रोज़ पूजा करते हैं , मंदिर जाते हैं ,
तीर्थ यात्रा करते हैं , शुद्ध शाकाहारी हैं ,
शराब सिगरेट तम्बाकू को हाथ नही लगाते - बहुत अच्छी बात है - पर
आपके लिए । पर यह सब करने से आपको यह अधिकार बिल्कुल नही मिल जाता कि जिन लोगों का
खान पान, रहन सहन आपके जैसा नही है उन्हें आप हीन दृष्टि से
देखें या पापी समझें ।
कोई क्या खाता पीता है - पूजा करता है या नही
करता, मंदिर जाता है या नही जाता यह उसकी अपनी चॉइस है ।
अगर आप की दृष्टि में वह पाप है तो अपने पाप का भागी वह खुद है वैसे ही - जैसे जो
आप पुण्य समझकर कर रहें है उसके शुभ फल के प्राप्तकर्ता आप स्वयम हैं । जिस परिवार
में हम जन्मे है तो बचपन से जो उस परिवार का खानपान या धर्म है वही हमारा भी हो
जाता है । एक कर्मकांडी ब्राह्मण परिवार में जन्मे बच्चे के लिए जानवर को मारना
पाप है पर एक कसाई के परिवार में जन्मे बच्चे के लिए पशु वध उसका कर्म है । संसार
में अस्सी प्रतिशत से ज्यादा लोग मांसाहारी है तो क्या शाकाहारियों की दृष्टि में
वे सब पापी हैं ? अधिकांश काश्मीरी ब्राह्मण मांसाहारी है
क्योंकि मांसाहार उनकी भोजन संस्कृति का हिस्सा है । अधिकांश बंगाली और उड़िया
ब्राह्मण मछली खाते हैं तो क्या वे सब पापी हैं ?
पाप और पुण्य से आपके खान पान, पूजा तीर्थ करने या न करने से कोई लेना देना नही है । आप लाख जाप करें,
घंटों पूजा करें, मंदिर गुरुद्वारों में जाकर
शीश नवाएं , भंडारे जागरण करें पर आपके ह्रदय में कुटिलता,
क्रोध, ईर्ष्या, लोभ,
अहंकार इत्यादि का वास हो तो क्या आप स्वयम को पुण्यात्मा कहेंगे ?
हिमालय परम्परा के एक महान संत अक्सर एक अजीब बात कहते थे कि यदि
टॉयलेट सीट पर बैठ कर भी शांत मन और पवित्र ह्रदय से ईश्वर का स्मरण कर लो तो वो
महीनों मंदिरों में बैठ कर लोगों को दिखाने के लिए माला जपने से ज्यादा सार्थक और
शुभ फलकारक है।
महान संत रविदास का अमर वाक्य तो आपको स्मरण ही
होगा , "मन चंगा तो कठौती (मिट्टी का चौड़े मुंह का वह
पात्र जिसमे जूते बनाने से पहले चमड़े को नर्म करने के लिए भिगोया जाता है ) में
गंगा" ।