निस्वार्थ
प्रेम ही है ध्यान
संसार के समस्त वैभव होते हुए भी
कँगाल है मनुष्य, रीते हैं हाथ उसके
यदि नहीं है प्रेम का धन उसके पास...
किया जा सकता है प्रेम समस्त चराचर से
क्योंकि नहीं होता कोई कँगाल दान करने से प्रेम
का
जितना देते हैं / बढ़ता है उतना ही...
नहीं है कोई परिभाषा इसकी / न ही कोई नाम / न रूप
बस है एक विचित्र सा अहसास...
सोचते सोचते हुआ आभास कुछ / आँखों ने देखा कुछ
कानों ने सुना कुछ / कुछ ऐसा जिसने किया मुझे
आकर्षित
खटखटाया द्वार किसी ने धीमे धीमे प्यार से...
मैंने सुना, और मैं सुनती रही / मैंने देखा, और मैं देखती रही
मैंने सोचा, और मैं सोचती रही / द्वार खोलूँ या ना खोलूँ...
प्रेम खटखटाता रहा द्वार / और भ्रमित मैं बनी रही
जड़
खोई रही अपने ऊहापोह में..
तभी कहा किसी ने / सम्भवतः मेरी अन्तरात्मा ने
सारा सोच विचार है व्यर्थ
क्योंकि तुम द्वार खोलो या ना खोलो / द्वार
टूटेगा,
और प्रेम आएगा भीतर
कब, इसका भान भी नहीं हो पाएगा तुम्हें...
हाँ, यदि करती रही प्रयास इसे पाने का
गणनाएँ और मोल भाव / लेन देन या नक़द उधार
तो लौटना होगा रिक्त हस्त
क्योंकि आदत नहीं प्रेम को गणनाओं की
मोल भाव की या नक़द उधार की...
क्या होगा, इसका प्रश्न क्यों ?
कैसे होगा, इसका चिन्तन क्यों ?
कितना होगा, इसका मनन क्यों ?
छोड़ दो ये सारे प्रश्न, विचार, चिन्तन और मनन
प्रेम के प्रकाश को करने दो पार सीमाएँ अपने
समस्त तर्कों की
और तब, वही निस्वार्थ निराकार प्रेम / बन जाएगा ध्यान...
ध्यान, जो होगा तुम्हारे ही भीतर...
ध्यान, जो होगा तुम्हारे ही लिये...
ध्यान, जो होगी तुम स्वयम् ही…