नियम प्रकृति का
सरल नहीं पकड़ना / पुष्पों के गिर्द इठलाती तितली
को |
हर वृक्ष पर पुष्पित हर पुष्प उसका है
तभी तो इतराती फिरती है कभी यहाँ कभी वहाँ /
निर्बाध गति से…
बाँध सकोगे मुक्त आकाश में ऊँची उड़ान भरते
पक्षियों को ?
समस्त आकाश है क्रीड़ास्थली उनकी
हाथ फैलाओगे कहाँ तक ?
कितने बाँध बना दो कल कल छल छल करती नदिया पर
उन्मुक्त प्रवाह से निकाल ही लेगी राह यहाँ से
वहाँ से
पहुँचने को प्रियतम सागर के पास / एकाकार हो जाने
को…
स्वच्छन्द बहती मलय पवन की बयार के साथ
बहते चले जाओगे तुम भी किसी अनजानी सी दिशा में…
उन्मुक्त प्रवाहित होती ये मदिराई बयार
उड़ा ले जाएगी दूर कहीं / क्षितिज के भी पार
जहाँ बिखरी होगी आभा इन्द्रधनुष की
इस छोर से उस छोर तक…
और तब होगा अहसास अपने एक होने का
इस समूचे ब्रह्माण्ड के साथ…
क्योंकि ये तितलियाँ, ये कल
कल छल छल बहती नदिया,
ये खगचर,
मलयानिल / ये बहुरंगी इन्द्रधनुष
मचलते हैं,
प्रवाहित होते हैं, खिलते हैं
पूर्ण स्वच्छन्दता से,
अपनी शर्तों पर...
नहीं होगी जहाँ कोई शर्त / नहीं कोई बन्धन
अपनी शर्तों पर उतरेंगे जब भवसागर की लहरों में
और बहते चले जाएँगे जब समय की धाराओं के साथ
धाराएँ स्वयं ही हो जाएँगी अनुकूल
और पहुँचा देंगी तट पर बिना किसी प्रयास के…
कठिन अवश्य है / किन्तु असम्भव नहीं
क्योंकि यही है नियम प्रकृति का
शाश्वत… अविचल… निरन्तर…