आप सभी को रक्षा बन्धन के पर्व की बड़ी उत्सुकता
से प्रतीक्षा होगी | आगामी तीन अगस्त को रक्षा बन्धन का उल्लासमय प्रेममय पर्व है | सभी
को बहुत बहुत बधाई | पूर्णिमा तिथि का आगमन दो अगस्त को रात्रि साढ़े नौ बजे के लगभग होगा इसलिए
व्रत की पूर्णिमा तो दो अगस्त को ही होगी | लेकिन नारियली पूर्णिमा उदया तिथि में
मानी जाती है इसलिए राखी का त्यौहार तीन अगस्त को मनाया जाएगा | इस दिन प्रातः नौ
बजकर छब्बीस मिनट तक विष्टि करण यानी भद्रा रहेगी अतः उसके बाद ही रक्षा बन्धन का
मुहूर्त होगा | यानी प्रातः नौ बजकर सत्ताईस मिनट से भद्रा की समाप्ति से लेकर
रात्रि नौ बजकर अट्ठाईस मिनट तक किसी भी समय राखी बाँधी जा सकती है | पूरा दिन
आयुष्मान योग रहेगा जो बहुत शुभ योग है | प्रातः 7.20 पर श्रवण
नक्षत्र भी आ जाएगा और सोमवार को यदि चन्द्रमा श्रवण नक्षत्र में हो तो
सर्वार्थसिद्धि योग बनता है | इसके अतिरिक्त सूर्य और शनि का सम सप्तक योग भी बन
रहा है | इस प्रकार इस वर्ष रक्षा बन्धन पर बहुत शुभ संयोग बन रहे हैं |
रक्षा बन्धन – जिसे लोकभाषाओं में
सलूनो, राखी और श्रावण मास की पूर्णिमा के दिन मनाया जाने के कारण श्रावणी भी कहा
जाता है – हिन्दुओं का एक लोकप्रिय त्यौहार है | इस दिन बहनें अपने भाई के दाहिने
हाथ पर रक्षा सूत्र बांधकर उसकी दीर्घायु की कामना करती हैं | जिसके बदले में भाई
उनकी रक्षा का वचन देता है | सगे भाई बहन के अतिरिक्त अन्य भी अनेक सम्बन्ध इस
भावनात्मक सूत्र के साथ बंधे होते हैं जो धर्म, जाति और देश की सीमाओं से भी ऊपर
होते हैं | कहने का अभिप्राय यह है की यह पर्व केवल भाई बहन के ही रिश्तों को
मज़बूती नहीं प्रदान करता वरन जिसकी कलाई पर भी यह सूत्र बाँध दिया जाता है उसी के
साथ सम्बन्धों में माधुर्य और प्रगाढ़ता घुल जाती है | यही कारण है कि इस अवसर पर
केवल भाई बहनों के मध्य ही यह त्यौहार नहीं मनाया जाता अपितु गुरु भी शिष्य को
रक्षा सूत्र बाँधता है, मित्र भी एक दूसरे को रक्षा सूत्र बांधते हैं | भारत में
जिस समय गुरुकुल प्रणाली थी और शिष्य गुरु के आश्रम में रहकर विद्याध्ययन करते थे
उस समय अध्ययन के सम्पन्न हो जाने पर शिष्य गुरु से आशीर्वाद लेने के लिये उनके
हाथ पर रक्षा सूत्र बाँधते थे तो गुरु इस आशय से शिष्य के हाथ में इस सूत्र को
बाँधते थे कि उन्होंने गुरु से जो ज्ञान प्राप्त किया है सामाजिक जीवन में उस ज्ञान
का वे सदुपयोग करें ताकि गुरुओं का मस्तक गर्व से ऊँचा रहे | आज भी इस परम्परा का
निर्वाह धार्मिक अनुष्ठानों में किया जाता है | पुत्री भी पिता को राखी बांधती है
कई जगहों पर पिता का आशीर्वाद प्राप्त करने के लिये | वन संरक्षण के लिये वृक्षों
को भी राखी बाँधी जाती है |
1947 के भारतीय
स्वतन्त्रता संग्राम में भी जन जागरण के लिये राखी को माध्यम बनाया गया था |
गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर ने बंग-भंग का विरोध करते समय इस पर्व को बंगाल के
निवासियों के पारस्परिक भाईचारे तथा एकता के प्रतीक के रूप में इसका राजनीतिक
उपयोग आरम्भ किया था |
इस दिन यजुर्वेदी द्विजों का उपाकर्म
होता है | उत्सर्जन, स्नान विधि, ऋषि तर्पण आदि करके नवीन यज्ञोपवीत धारण किया
जाता है | प्राचीन काल में इसी दिन से वेदों का अध्ययन आरम्भ करने की प्रथा थी |
विष्णु पुराण के एक प्रसंग में कहा गया है कि श्रावण की पूर्णिमा के दिन भागवान
विष्णु ने हयग्रीव के रूप में अवतार लेकर वेदों को ब्रह्मा के लिए फिर से प्राप्त
किया था | हयग्रीव को विद्या और बुद्धि का प्रतीक माना जाता है
| ऋग्वेदीय उपाकर्म श्रावण पूर्णिमा से एक दिन पहले सम्पन्न
किया जाता है | जबकि सामवेदीय उपाकर्म श्रावण अमावस्या के दूसरे दिन प्रतिपदा तिथि
में किया जाता है | उपाकर्म का शाब्दिक अर्थ है “नवीन आरम्भ” | इस दिन ब्राहमण लोग
पवित्र नदी में स्नान करके नवीन आरम्भ अथवा नई शुरुआत के प्रतीक के रूप में नवीन
यज्ञोपवीत धारण करते हैं | इसी दिन अमरनाथ यात्रा भी सम्पन्न होती है | कहते हैं
इसी दिन यहाँ का हिमानी शिवलिंग पूरा होता है |
रक्षा बन्धन आजकल के रूप में कब आरम्भ
हुआ यह तो किसी को ज्ञात नहीं | किन्तु पुराणों से सम्बद्ध बहुत सी कथाएँ प्रचलित
हैं | जिनमें से एक कथा भविष्य पुराण से है कि जब देव और दानवों के मध्य युद्ध
आरम्भ हुआ तो दानव विजयी होते जान पड़ने लगे | जिससे इन्द्र घबरा गए और बृहस्पति के
पास पहुँचे उनकी सलाह तथा सहायता माँगने | इन्द्राणी भी वहीं बैठी थीं | सारा
समाचार जानकर उन्होंने इन्द्र को आश्वस्त किया और रेशम का एक धागा मन्त्रों से
अभिषिक्त करके अपने पति इन्द्र की कलाई पर बाँध दिया | उस दिन श्रावण पूर्णिमा थी
| इन्द्र विजयी हुए और इन्द्राणी द्वारा बांधे गए धागे को इस विजय का कारण माना
गया | तभी से धन, शक्ति, हर्ष तथा विजय की कामना से श्रावण पूर्णिमा के दिन राखी
बाँधने का प्रचलन है | राजपूतनी रानियाँ भी पति के युद्धभूमि में जाते समय उनकी
विजय की कामना से उनकी कलाई में राखी बाँधा करती थीं |
इसके अतिरिक्त स्कन्दपुराण, पद्मपुराण
तथा श्रीमद्भागवत में भी रक्षा बन्धन का प्रसंग मिलता है | जिसके अनुसार भगवान
विष्णु के द्वारा पाताल पहुँचा दिए गए राजा बलि से भगवान विष्णु को मुक्त कराने के
लिए देवी लक्ष्मी ने रसातल पहुँचकर राजा बलि के हाथ पर राखी बाँधकर उसे अपना भाई
बना लिया था और बलि ने भेंट स्वरूप बहिन लक्ष्मी को भगवान विष्णु सौंप दिए थे |
इसीलिए रक्षा बन्धन के अवसर पर तथा अन्य भी पूजा विधानों में रक्षासूत्र बाँधते
समय राजा बलि की ही कथा से सम्बद्ध एक मन्त्र का उच्चारण किया जाता है जो इस
प्रकार है “येन बद्धो बली राजा दानवेन्द्रो महाबलः, तेन त्वां निबध्नामि रक्षे
माचल माचल |” श्लोक का भावार्थ यह है कि जिस रक्षासूत्र से महान शक्तिशाली
दानवेन्द्र राजा बलि को बाँधा गया था उसी रक्षाबन्धन से मैं तुम्हें बाँध रहा हूँ
जिससे तुम्हारी रक्षा होगी |
एक कथा महाभारत में भी आती है कि जब
युधिष्ठिर ने भगवान से प्रश्न किया कि वे संकटों से किस प्रकार मुक्त हो सकते हैं
तब कृष्ण ने समस्त पाण्डव सेना को रक्षाबन्धन मनाने की सलाह दी थी |
इन पौराणिक प्रसंगों के अतिरिक्त कुछ
प्रसंग इतिहास से भी सुनने को मिल जाते हैं | जैसा ऊपर भी लिखा है, राजपूतों के
युद्धभूमि में जाते समय उनकी विजय की कामना से महिलाएँ उनके मस्तक पर कुमकुम का
तिलक लगाकर हाथ में राखी बाँधा करती थीं | चित्तौड़ की रानी कर्मावती और मुग़ल
बादशाह हुमायूँ की कहानी तो जग प्रसिद्ध है ही कि जब चित्तौड़ की विधवा रानी
कर्मावती को गुजरात के बादशाह बहादुरशाह द्वारा राज्य पर हमला करने की पूर्व सूचना
मिली तो वे समझ गईं की वे अकेले शत्रु से नहीं भिड़ सकतीं और तब उन्होंने मुग़ल
बादशाह हुमायूँ को सहायता के लिये पत्र लिखा तथा साथ में एक राखी भी भेजकर हुमायूँ
को मुँहबोला भाई बना लिया | हुमायूँ ने भी राखी की लाज रखी और रानी कर्मावती का
साथ दिया | एक कथा और है कि सिकन्दर की पत्नी ने अपने पति के शत्रु राजा पौरस को
राखी बाँधकर भाई बना लिया और सिकन्दर को न मारने का वचन ले लिया |
इसी तरह एक और कथा है जो मृत्यु –
मोक्ष तथा यम नियम संयम के देवता – यम तथा उनकी बहन यमुना से सम्बन्धित है | कथा
इस प्रकार है कि यमुना ने अपने भाई के हाथ पर राखी बाँधी और बदले में अमरत्व का
वरदान ले लिया | यम अपनी बहन के प्रेम से इतने अभिभूत हुए कि उन्होंने उसे वचन दे
दिया कि आज के बाद जो भी भाई अपनी बहन से राखी बंधवाएगा और उसकी सुरक्षा का वचन
देगा वह दीर्घायु होगा |
अलग राज्यों में इस पर्व को अलग अलग
नामों से जाना जाता है – जैसे उड़ीसा में यह पर्व घाम पूर्णिमा के नाम से मनाया
जाता है, तो उत्तराँचल में जन्यो पुन्यु (जनेऊ पुण्य) के नाम से, तो मध्य प्रदेश,
छत्तीसगढ़, झारखंड तथा बिहार में कजरी पूर्णिमा के नाम से इस पर्व को मनाते हैं |
वहाँ तो श्रावण अमावस्या के बाद से ही यह पर्व आरम्भ हो जाता है और नौवें दिन कजरी
नवमी को पुत्रवती महिलाओं द्वारा कटोरे में जौ व धान बोया जाता है तथा सात दिन तक
पानी देते हुए माँ भगवती की वन्दना की जाती है तथा अनेक प्रकार से पूजा अर्चना की
जाती है जो कजरी पूर्णिमा तक चलती है | उत्तरांचल के चम्पावत जिले के देवीधूरा में
इस दिन बाराही देवी को प्रसन्न करने के लिए पाषाणकाल से ही पत्थर युद्ध का आयोजन
किया जाता रहा है, जिसे स्थानीय भाषा
में ‘बग्वाल’ कहते हैं | इस युद्ध में घायल होने वाला योद्धा भाग्यवान माना जाता है और युद्ध के
इस आयोजन की समाप्ति पर पुरोहित पीले वस्त्र धारण कर रणक्षेत्र में आकर योद्धाओं
पर पुष्प व अक्षत् की वर्षा कर उन्हें आशीर्वाद देते हैं |
इसके बाद योद्धाओं का मिलन समारोह होता है | गुजरात में इस
दिन शंकर भगवान की पूजा की जाती है |
महाराष्ट्र में इसे नारियल पूर्णिमा
और श्रावणी दोनों कहा जाता है तथा समुद्र के तट पर जाकर स्नानादि के पश्चात् वरुण
देव की पूजा करके नया यज्ञोपवीत धारण किया जाता है | राजस्थान में रामराखी और
चूड़ाराखी या लूंबा बाँधा जाता है |
रामराखी सामान्य राखी से भिन्न होती है | इसमें लाल डोरे पर
एक पीले छींटों वाला फुंदना लगा होता है और या राखी केवल भगवान को बांधी जाती है | चूड़ा राखी भाभियों की चूड़ियों में बाँधी जाती है | इस दिन राजस्थान में कई स्थानों पर दोपहर में गोबर मिट्टी और भस्म से
स्नान करके शरीर को शुद्ध किया जाता है और फिर अरुंधती, गणपति तथा सप्तर्षियों की
पूजा के लिये वेदी बनाकर मंत्रोच्चार के साथ इनकी पूजा की जाति है | पितरों का
तर्पण किया जाता है | उसके बाद घर आकर यज्ञ आदि के बाद राखी बाँधी जाती है |
तमिलनाडु, केरल, उड़ीसा तथा अन्य दक्षिण भारतीय प्रदेशों में यह पर्व “अवनि
अवित्तम” के नाम से जाना जाता है तथा वहाँ भी नदी अथवा समुद्र के तट पर जाकर
स्नानादि के पश्चात् ऋषियों का तर्पण करके नया यज्ञोपवीत धारण किया जाता है | कहने
का तात्पर्य यह है की रक्षा बन्धन के साथ साथ इस दिन देश के लगभग सभी प्रान्तों
में यज्ञोपवीत धारण करने वाले द्विज लगभग एक ही रूप में उपाकर्म भी करते हैं |
बहरहाल,
कथाएँ चाहे जितनी भी हों, नाम चाहे जो हो, रूप चाहे जैसा भी हो, विधि विधान चाहे
जैसे भी हों, चाहे कोई भी भाषा भाषी हों, किन्तु अन्ततोगत्वा इस पर्व को मनाने के
पीछे अवधारणा केवल यही है कि लोगों में परस्पर भाईचारा तथा स्नेह प्रेम बना रहे |
भारतीय समाज में रक्षाबन्धन सिर्फ भाई-बहन के रिश्तों तक ही सीमित नहीं है, अपितु
प्रत्येक सम्बन्ध में यह पर्व मिठास, अपनापन तथा प्रगाढ़ता भर देता है | रक्षाबन्धन
हमारे सामाजिक परिवेश एवं मानवीय रिश्तों का एक अभिन्न अंग है | किन्तु जिस प्रकार
आज तरह तरह के आडम्बर इस भावपूर्ण में अपनी जगह बना चुके हैं उसे देखते हुए इतना
अवश्य कहना चाहेंगे कि इस आडम्बर को छोड़कर, व्यर्थ के दिखावे तथा दान के प्रदर्शन
का मोह त्यागकर इस पर्व के साथ जुड़े संस्कारों और जीवन मूल्यों को समझने का प्रयास
किया जाए तभी यह पर्व सार्थक होगा और तभी व्यक्ति, परिवार, समाज तथा देश का कल्याण सम्भव होगा |
अन्त में एक बार पुनः रक्षा बन्धन के
इस प्रेम और उल्लास से पूर्ण पर्व की अनेकशः हार्दिक शुभकामनाएँ... इस आशा और
विश्वास के साथ समाज में – देश में – संसार में – परस्पर ईर्ष्या और द्वेष को
भुलाकर हर कोई पारस्परिक सद्भावना और भाईचारे के मार्ग को अपनाएँगे...