रंग की एकादशी – कुछ भूली बिसरी यादें
आज फाल्गुन
शुक्ल एकादशी है, जिसे आमलकी एकादशी और रंग की एकादशी के नाम से भी जाना जाता है | इस दिन
आँवले के वृक्ष की पूजा अर्चना के साथ ही रंगों का पर्व होली अपने यौवन में
पहुँचने की तैयारी में होता है | बृज में जहाँ होलाष्टक
यानी फाल्गुन शुक्ल अष्टमी से होली के उत्सव का आरम्भ हो जाता है वहीं काशी
विश्वनाथ मन्दिर में फाल्गुन शुक्ल एकादशी से इस उत्सव का आरम्भ माना जाता है |
होलाष्टक के विषय में जहाँ मान्यता है कि फाल्गुन शुक्ल अष्टमी को
भगवान कृष्ण प्रथम बार राधा जी के परिवार से मिलने बरसाने गए थे तो वहाँ लड्डू
बाँटे गए थे, वहीं काशी विश्वनाथ में रंग की एकादशी के विषय में
मान्यता है कि इसी दिन भगवान शिव ने माता पार्वती को अपने घर लिवा लाने के लिए
पर्वतराज हिमालय की नगरी की ओर प्रस्थान किया था |
होलाष्टक के
विषय में बहुत सी कथाएँ और मान्यताएँ जन साधारण के मध्य प्रचलित हैं, किन्तु मान्यताएँ कुछ भी हों, कथाएँ कितनी भी हों, सत्य
बस यही है कि होली का उत्साहपूर्ण रंगपर्व ऐसे समय
आरम्भ होता है जब सर्दी धीरे धीरे पीछे खिसक रही होती है और गर्मी चुपके से अपने
पैर आगे बढ़ाने की ताक में होती है | साथ में वसन्त की खुमारी हर किसी के सर चढ़ी
होती है | फिर भला हर कोई मस्ती में भर झूम क्यों न उठेगा | कोई विरह वियोगी ही
होगा जो ऐसे मदमस्त कर देने वाले मौसम में भी एक कोने में सूना सूखा और चुपचाप खड़ा
रह जाएगा |
अपने पैतृक नगर
की होली अक्सर याद आ जाती है | हमारे शहर में मालिनी नदी के पार छोटी सी बस्ती थी
| रंगपंचमी यानी फाल्गुन शुक्ल पंचमी से रात को भोजन आदि से निवृत होकर सब लोग
चौपाल में इकट्ठा हो जाते थे | रात को सारंगी और बाँसुरी से काफी पीलू के सुर
उभरने शुरू होते, धीरे धीरे खड़ताल खड़कनी शुरू होती, चिमटे चिमटने
शुरू होते, मँजीरे झनकने की आवाज़ें कानों में आतीं और साथ
में धुनुकनी शुरू होतीं ढोलकें धमार, चौताल, ध्रुपद या कहरवा की लय पर – फिर धीरे धीरे कंठस्वर उनमें मिल जाते और आधी
रात के भी बाद तक काफी, बिरहा, चैती, फाग, धमार, ध्रुपद, रसिया और उलटबांसियों के साथ ही स्वांग का जो दौर चलता तो अपने अपने घरों
में बिस्तरों में दुबके लोग भी अपना सुर मिला देते | हमारे पिताजी को अक्सर वे लोग
साथ में ले जाया करते थे तो जब पिताजी वापस लौटते थे तो वही सब गुनगुनाते कब में घर
की सीढ़ियाँ चढ़ जाते थे उन्हें कुछ होश ही नहीं रहता था | और ऐसा नहीं था कि उस
चौपाल में गाने बजाने वाले लोग कलाकार होते थे | सीधे सादे ग्रामीण किसान होते थे, पर होली की मस्ती जो कुछ उनसे प्रदर्शन करा देती थी वह लाजवाब होता था और
इस तरह फ़जां में घुल मिल जाता था कि रात भर ठीक से नींद पूरी न होने पर भी किसी को
कोई शिकायत नहीं होती थी, उल्टे फिर से उसी रंग और रसभरी रात
का इंतज़ार होता था | तो ऐसा असर होता है इस पर्व में |
और रंग की
एकादशी से तो सारे स्कूल कालेजों और शायद ऑफिसेज़ की भी होली की छुट्टियाँ ही हो
जाया करती थीं | फिर तो हर रोज़ बस होली का हुडदंग मचा करता था | रंग की एकादशी को
हर कोई स्कूल कॉलेज ज़रूर जाता था – अपने दोस्तों और टीचर्स के साथ होली खेले बिना
भला कैसा रहा जा सकता था ? और टीचर्स भी बड़े जोश के साथ अपने स्टूडेंट्स के साथ उस
दिन होली खेलते थे |
घरों में होली
के पकवान बनने शुरू हो जाया करते थे | होलिका दहन के स्थल पर जो अष्टमी के दिन
होलिका और प्रहलाद के प्रतीकस्वरूप दो दण्ड स्थापित किये गए थे अब उनके चारों ओर
वृक्षों से गिरे हुए सूखे पत्तों, टहनियों, लकड़ियों आदि के ढेर
तथा बुरकल्लों की मालाओं आदि को इकठ्ठा किया जाने का कार्यक्रम शुरू हो जाता था |
ध्यान ये रखा जाता था कि अनावश्यक रूप से किसी पेड़ को न काटा जाए | हाँ शरारत के
लिए किसी दोस्त के घर का मूढा कुर्सी या चारपाई या किसी के घर का दरवाज़ा होली की
भेंट चढ़ाने में किसी को कोई आपत्ति नहीं होती थी | और ये कार्य लड़कियाँ नहीं करती थीं
| विशेष रूप से हर लड़का हर दूसरे लड़के के घर के दरवाज़े और फर्नीचर पर अपना
मालिकाना हक समझता था और होलिका माता को अर्पण कर देना अपना परम कर्त्तव्य तथा
पुण्य कर्म समझता था | और इसी गहमागहमी में आ जाता था होलिकादहन का पावन मुहूर्त |
गन्ने के
किनारों पर जौ की बालियाँ लपेट कर घर के पुरुष प्रज्वलित होलिका की परिक्रमा करते
हुए आहुति देते थे और होलिका की अग्नि में भुने हुए इस गन्ने को प्रसादस्वरूप वितरित
करते थे | अगली सुबह होलिका की अग्नि से हर घर का चूल्हा जलता था | रात भर होलिका
की अग्नि पर टेसू के फूलों का रंग पकता था जो सुबह सुबह कुछ विशिष्ट परिवारों में
भेजा जाता था और बाक़ी बचा रंग बड़े बड़े ड्रमों में भरकर होली के जुलूस में ले जाया
जाता था और हर आते जाते को उस रंग से सराबोर किया जाता था | गुनगुना मन को लुभाने
वाली ख़ुशबू वाला टेसू के फूलों का रंग जब घर में आता तो पूरा घर ही एक नशीली सी
ख़ुशबू से महक उठता |
दोपहर को इधर सब
नहा धोकर तैयार होते और उधर होली पर बना देसी घी का सूजी का गरमा गरमा हलवा प्रसाद
के रूप में हर घर में पहुँचा दिया जाता | हलवे का प्रसाद ग्रहण करके और भोजनादि से
निवृत्त होकर नए वस्त्र पहन कर शाम को सब एक दूसरे के घर होली मिलने जाते | अब
त्यौहार आता अपने समापन की ओर | नजीबाबाद जैसे सांस्कृतिक विरासत के धनी शहर में
भला कोई पर्व संगीत और साहित्य संगोष्ठी से अछूता रहा जाए ऐसा कैसे सम्भव था ? तो रात
को संगीत और कवि गोष्ठियों का आयोजन होता जो अगली सुबह छह सात बजे जाकर सम्पन्न
होता | रात भर चाय, गुझिया, समोसे, दही भल्ले
पपड़ी चाट के दौर भी चलते रहते | यानी रंग की पञ्चमी से जो होली के गान का आरम्भ
होता उसका उत्साह बढ़ते बढ़ते होलाष्टक तक अपने शैशव को पार करता हुआ रंग की एकादशी को
किशोरावस्था को प्राप्त होकर होली आते आते पूर्ण युवा हो जाता था |
आज जब हर तरफ एक
अजीब सी अफरातफरी का माहौल बना हुआ है, एक दूसरे पर जैसे किसी को भरोसा ही नहीं रहा गया है, ऐसे में याद आते हैं वे दिन… याद आते हैं वे लोग… उन्हीं दिनों और उन्हीं
लोगों का स्मरण करते हुए, सभी को कल रंग की एकादशी के साथ ही
अग्रिम रूप से होली की रंग भरी… उमंग भरी… हार्दिक शुभकामनाएँ… इन पंक्तियों के
साथ...
जिससे यह तन मन रंग जाए ऐसा कोई रंग भरो तो |
प्रेमगीत की पिचकारी से सबही को एकरंग करो तो ||
यह दीवार घृणा की ऊँची आसमान तक खड़ी हुई है
भू पर ही जन जन में भू नभ जैसी दूरी पड़ी हुई है |
आँगन समतल करो,
ढहाने का इसके कुछ ढंग करो तो
प्रेमगीत की पिचकारी से सबही को एकरंग करो तो ||
दुर्भावों का हिरणाकश्यप घेर रहा है सबके मन को
विषम होलिका लिपट रही है इस पावन प्रहलाद के तन
को
सच पर आँच नहीं आएगी, जला असत्य अपंग करो तो
प्रेमगीत की पिचकारी से सबही को एकरंग करो तो ||
मुख गुलाल से लाल हुआ है, किन्तु न मन अनुराग रंगा है
रंग से केवल तन भीगा है, मन तो बिल्कुल ही सूखा है |
दुगुना होगा असर, नियम संयम की सच्ची गंध भरो तो
प्रेमगीत की पिचकारी से सबही को एकरंग करो तो ||
एक दूसरे पर आरोपों की कीचड़ क्यों उछल रही है
पिचकारी से रंग के बदले नफ़रत ही क्यों निकल रही
है |
ये बेशर्म ठिठोली छोड़ो, मधुर हास्य के व्यंग्य भरो तो
प्रेमगीत की पिचकारी से सबही को एकरंग करो तो ||
खींचे कोई घूँघट का पट, हाथ पकड़ कर नीचे कर दो
मत रोको गोरी के मग को, उसे नेह आदर से भर दो |
राधा स्वयं चली आएगी, सरस श्याम का रंग भरो तो
प्रेमगीत की पिचकारी से सबही को एकरंग करो तो ||
भीतर से यदि नहीं रंगा तो मिट्टी है मिट्टी का
चोला
दुनिया का यह वैभव क्या है, हिम से ढका आग का गोला |
वहम और सन्देह तजो सब, मन में नई उमंग भरो तो
प्रेमगीत की पिचकारी से सबही को एकरंग करो तो ||