गृहस्थ जीवन में प्रवेश के उपरान्त प्रथम कर्त्तव्य के रूप में गर्भाधान संस्कार का ही महत्त्व है | क्योंकि गृहस्थ जीवन का प्रमुख उद्देश्य श्रेष्ठ सन्तान की उत्पत्ति है | अतः उत्तम सन्तान की कामना करने वाले माता पिता को गर्भाधान से पूर्व अपने तन और मन दोनों को पवित्र तथा स्वस्थ रखने के लिए यह संस्कार किया जाता था |
गर्भः संधार्यते येन कर्मणा तद्गर्भाधानमित्यनुगतार्थं कर्मनामधेयम् | - पूर्वमीमांसा 1/4/2
निषिक्तो यत्प्रयोगेण गर्भः सन्धार्यते स्त्रिया | तद्गर्भलम्भनं नाम कर्म प्रोक्तं मनीषिभ: || - शौनक
वैदिकैः कर्मभिः पुण्यैर्निषेकादिर्द्विजन्मनाम् | कार्यः शरीरसंस्कारः पावनः प्रेत्य चेह च || - मनु
गर्भः सन्धार्यते येन कर्मणा तद् गर्भाधानमित्यनुगतार्थं कर्मनामधेयम् | - जैमिनी
सभी के भाव स्पष्ट हैं – जिस संस्कार कर्म के द्वारा स्त्रियाँ गर्भ धारण करती हैं वह गर्भाधान संस्कार (Garbhaadhaan Sanskaar) कहलाता है |
गर्भाधान और इसके बाद किये जाने वाले पुंसवन, सीमन्तोन्नयन, जातकर्म, नामकरण आदि संस्कार केवलमात्र धार्मिक अनुष्ठान – Rituals – भर ही नहीं हैं | इनका आध्यात्मिक महत्त्व है | इन समस्त संस्कारों का उद्देश्य यही था कि गर्भ में भी और जन्म के बाद भी शिशु स्वस्थ तथा प्रसन्नचित्त रहे तथा धीरे धीरे इस समस्त सृष्टि से उसका सम्बन्ध प्रगाढ़ हो सके | गर्भ धारण करने के बाद अनेक प्रकार के प्राकृतिक दोषों के आक्रमण होते रहने की सम्भावना होती है, जिनसे बचने के लिए यह संस्कार किया जाता है | इसके करने से गर्भ सुरक्षित रहता है तथा सुयोग्य सन्तान उत्पन्न होती है | चिकित्सा शास्त्र भी इस तथ्य को स्वीकार करता है कि गर्भाधान के समय पति-पत्नी के मन के जो भाव होंगे उनका प्रभाव गर्भस्थ शिशु पर अवश्य पड़ेगा |
यही कारण है कि पति पत्नी दोनों को यह सिखाया जाता था कि विवाह के बाद सबसे पहले वे यह विचार करें कि उन्हें कब सन्तान उत्पन्न करनी है और किस प्रकार की सन्तान की उनकी कामना है | साथ ही अपने शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य का भी ध्यान रखें और उसके लिए जो भी आवश्यक उपाय करने हों वे करें | उसके बाद गर्भाधान का विचार करें | अर्थात गर्भाधान से पूर्व माता पिता दोनों को शारीरिक और मानसिक रुप से स्वयं को तैयार करना आवश्यक है, क्योंकि आने वाली सन्तान उनकी ही आत्मा का प्रतिरुप होती है | इसीलिए पुत्र को आत्मज और पुत्री को आत्मजा कहा जाता है |
किसी भी व्यक्ति को अपना तन और मन दोनों स्वस्थ तथा प्रसन्न रखने के लिए सबसे पहले उत्तम और पौष्टिक भोजन ग्रहण करना होगा | माता जैसा भोजन करेगी उसका प्रभाव गर्भस्थ शिशु पर अवश्य पड़ेगा | साथ ही उचित व्यायाम भी शारीरिक स्वास्थ्य के लिए आवश्यक है | उसके बाद घर का वातावरण आनन्दमय होगा तो मन स्वतः प्रसन्नता से आन्दोलित रहेगा | इसके अतिरिक्त माता पिता की मानसिक परिपक्वता के लिए उत्तम साहित्य का अध्ययन, मन को प्रसन्न करने वाला तथा ज्ञानवर्द्धक वार्तालाप और श्रेष्ठ लोगों का साहचर्य भी आवश्यक है | इतना सब कुछ हो जाएगा तो उसका प्रभाव गर्भस्थ शिशु पर अवश्य ही पड़ेगा तथा माता पिता स्वयं ही अपने जन्म लेने वाले शिशु के लिए अच्छे भविष्य का निर्माण कर सकते हैं | महाभारत को यदि इतिहास ग्रन्थ मानते हैं तो अभिमन्यु का उदाहरण सबको ज्ञात ही है |
क्रमशः...
http://www.astrologerdrpurnimasharma.com/2018/06/22/samskaras-3/