मन के भीतर एक तीर्थ बसा, जो है पुनीत हर तीरथ से
जिसमें एक स्वच्छ सरोवर है, कुछ अनजाना, कुछ पहचाना |
इस तीरथ में मन की भोली गोरैया हँसती गाती है
है नहीं उसे कोई चिंता, ना ही भय उसको पीड़ा का ||
चिंताओं के, पीड़ाओं के अंधड़ न यहाँ चल पाते हैं
हर पल वसन्त ही रहता है, पतझड़ न यहाँ टिक पाते हैं |
पर कठिन बड़ा इसका मग है, और दूर बहुत सरवर तट है
जिसमें हैं सुन्दर कमल खिले, हासों के और उल्लासों के ||
कैसे तट का पथ वह पाए, कैसे पहुँचे उस सरवर तक
पंथी को चिंता है इसकी, होगी कब वो पुनीत वेला |
लेकिन मन में विश्वास भरे, संग संवेदन पाथेय लिये
चलता जाए राही कोई, तो पा ही जाएगा मंज़िल ||
होगी हरीतिमा दिशा दिशा, होगा प्रकाश हर निशा निशा
एक शान्तिपूर्ण उल्लास लिये थिरकेगा केवल प्रेम वहाँ |
फिर धीरे धीरे सरवर में जितना गहरे वह उतरेगा
जग की चिंताओं को तज, वह परमात्मभाव हो जाएगा ||