इसके बाद कुशा के द्वारा विधि विधान पूर्वक समस्त दिशाओं को तथा स्वयं को भी स्त्री पवित्र करती थी | वेदी को पवित्र किया जाता था | उसके बाद पति मंगल नामक अग्नि का पूजन करके गर्भिणी के बालों के पाँच भाग करके पाँच चोटियाँ बनाकर उनमें सुगन्धित वनस्पतियों की वेणी लगाता था | सौभाग्यवती स्त्रियाँ गर्भिणी को आशीर्वाद देती थीं | और यज्ञ के अन्त में पति पत्नी दोनों मिलकर फल पुष्प युक्त घी की पूर्णाहुति यज्ञाग्नि में देते थे | बाद में पति पत्नी को हरे भरे उपवन के दर्शन कराए जाते थे | आज भी कुछ पारम्परिक (Traditional) परिवारों में यह प्रथा जीवित है |
इस आयोजन का तात्पर्य होता यही था कि हर्षोल्लास के वातावरण के चलते गर्भिणी का मन प्रसन्न रहे ताकि वह एक स्वस्थ और प्रसन्नचित्त सन्तान को जन्म दे सके | साथ ही गर्भिणी की देखभाल करने वाले परिजनों के लिए भी यह सलाह दोहराई जाती थी कि किस प्रकार गर्भिणी के लिए अनुकूल वातावरण तथा पौष्टिक भोजन की व्यवस्था की जानी चाहिए | क्योंकि माता प्रसन्नचित्त रहेगी तो सन्तान भी प्रसन्नचित्त, बलिष्ठ तथा दीर्घायु होगी | प्रसन्न तथा शान्त चित्त से जब माता गर्भस्थ शिशु के साथ वार्तालाप करती है तो उसका बड़ा गहरा प्रभाव शिशु पर पड़ता है | शिशु – एक पवित्र, मासूम किन्तु पूर्ण रूप से ज्ञानवान आत्मा – अपनी इच्छा से माता का चयन करके उसके गर्भ में प्रविष्ट तो हो जाती है, किन्तु उसके मन में ऊहापोह चलता रहता है कि न जाने बाहर का संसार कैसा होगा | माता प्रसन्न, सन्तुष्ट तथा शान्त चित्त से जब गर्भस्थ शिशु के साथ वार्तालाप करती है और उसे अपने स्नेह के माध्यम से विश्वास दिलाती है कि उसके साथ वह शिशु पूर्ण रूप से सुरक्षित है तो गर्भ में शिशु का मानसिक और शारीरिक विकास भली भाँति होता रहता है और उसका जन्म भी सरलता से हो जाता है | अभिमन्यु की कथा केवल कपोल कल्पनामात्र नहीं है | इस तथ्य के प्रति आज के चिकित्सा वैज्ञानिक भी अपनी सहमति प्रदान करते हैं | आज भी बेबी शावर या गर्भवती स्त्री की गोद भराई करने के मूल में भावना यही निहित होती है...
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