सर्द रात के ढलते
ढलते
माघ पूस की सर्द रात के ढलते ढलते
कोहरे की चादर में लिपटी धरती / लगती है ऐसी
जैसे
छिपी हो कोई दुल्हनिया परदे में / लजाती, शरमाती
हरीतिमा का वस्त्र धारण किये
मानों प्रतीक्षा कर रही हो / प्रियतम भास्कर के आगमन की
कि सूर्यदेव आते ही समा लेंगे अपनी इस दुल्हनिया को
बाँहों के घेरे में
शर्मीली ओस की बूँदों को टपकाता चाँद
धीरे धीरे जाने लगता है अपने गाम
क्योंकि जानता है कि आने वाले हैं प्रियतम उसकी सखी के
और तब धीरे धीरे
हज़ारों सुनहरी किरणों के रथ पर सवार
प्रकट होते हैं प्रियतम आदित्यदेव
उनके आते ही ओस की बूँदें रूपी सारी सखियाँ
जाने लगती हैं वापस अपने घरों को
ताकि हो सके मिलाप / रात भर के बिछड़े हुए दो प्रेमियों का
और तब निःसंकोच आ जाते हैं सूर्यदेव
अपनी प्रियतमा के और अधिक निकट
भर लेते हैं बाँहों में
हटाते हुए कोहरे का पर्दा / उसके लाज से रक्ताभ मुखमण्डल से
और जड़ देते हैं किरणों का गर्म गर्म चुम्बन / प्रियतमा के अधरों पर
तब लाज शर्म के सारे परदे तोड़ / खिल उठती है मही प्रियतमा
हरी हरी वनस्पतियों से खुद को सजाए
और तब इस मिलन से जन्म लेता है
नया सवेरा, नया जीवन
ख़ुशी में चहचहाते पंछी
गाने लगते हैं मधुर मिलन रागिनी
यही क्रम चलता रहता है / निरन्तर... अनवरत... युगों युगों तक...