हमें अपने “हिन्दुस्तानी”
होने पर गर्व होना चाहिए
हिन्दी हैं हम, वतन है हिन्दोस्तां हमारा
कल 25 दिसम्बर की तारीख थी – हमारे ईसाई भाई बहनों के उल्लासमय पर्व क्रिसमस का
पर्व | हमने भी और हमारे साथ साथ और भी बहुत से लोगों ने किसी भी जाति, धर्म, सम्प्रदाय से ऊपर उठकर क्रिसमस की शुभकामनाएँ अपने परिचितों को प्रेषित
कीं – जो हमारे विचार से साम्प्रदायिक सद्भाव की दिशा में एक बहुत अच्छा क़दम रहा
है हमेशा से | लेकिन उसके बाद से कुछ “हिन्दू धर्म के हितैषियों” ने इसके विरोध
में मैसेज भेजने आरम्भ कर दिए – जैसे न जाने क्या अपराध हो गया हो | इनमें कुछ वे
लोग भी शामिल थे जिन्होंने कल क्रिसमस की बधाई पोस्ट की थी लेकिन आज उन्हें इस तरह
की बधाइयों के कारण हिन्दुत्व ख़तरे में नज़र आ रहा था | हम पूछना चाहते हैं ऐसे सभी
लोगों से कि क्या किसी को उसके पर्व की बधाई देने से हिन्दुत्व पर किसी प्रकार की
आँच आनी सम्भव है ?
हमारा देश अनेकों पन्थों और अनेकों भाषाओं का देश
है | और हिन्दू दर्शन अनेकता में एकता की मान्यता का जीता
जागता उदाहरण है | तो जो लोग पीढ़ियों से यहाँ रहते आ रहे हैं
उन सबको मिल जुल कर रहने का, मिल जुल कर अपने त्योहार मनाने
का पूरा अधिकार है - इसमें हिन्दू धर्म या हिन्दू राष्ट्र को किस बात का ख़तरा है ?
जिस छोटे से शहर नजीबाबाद से हम आते हैं वहाँ का इतिहास है कि
रोहिल्ला सरदार नजीबुद्दौला ने उसे बसाया था | एक समय में
सहारनपुर से लेकर देहरादून तक उसका साम्राज्य था – गवर्नर था वो उस समूचे क्षेत्र
का – और ऐसा भी कहा जाता है कि सहारनपुर से लेकर देहरादून तक राजमार्ग के किनारे
किनारे जो ऊँचे ऊँचे दरख़्त खड़े हैं उनमें से कुछ ऐसा हैं जो सैंकड़ों साल पुराने
हैं और नजीबुद्दौला ने उस पूरे क्षेत्र को हरा भरा बनाने के लिए लगवाए थे | कितनी
सच्चाई है इस बात में, नहीं मालूम | लेकिन
नजीबुद्दौला वही रोहिल्ला सरदार था जिसने पानीपत की लड़ाई में मराठों को मारा था और
हिन्दू महाराजा सूरजमल ने मराठों को साथ देने का वादा किया था लेकिन बदले में आगरा
का ताज उसे चाहिए था, जिसके लिए मराठों ने मना कर दिया, तो ऐन
वक़्त पर मराठों को धोखा देकर नजीब से जा मिला और मराठों की हार का कारण बना | क्या कहेंगे इसे ? कैसा हिन्दू था वह ?
दूसरी तरफ जब नजीबुद्दौला ने नजीबाबाद बसाया तो
सारे हिन्दुओं और मुसलमानों के त्यौहार सबके साथ मिलकर मनाता था - यहाँ तक कि होली
भी | होली के रंग के जुलूस की परम्परा तो हमारे सामने तक
रही जिसमें हिन्दू मुसलमान दोनों शिरक़त करते थे क्योंकि नवाब के सामने से ये प्रथा
चली आ रही थी | ईद पर हिन्दुओं के घरों में सेवई भेजी जाती
थीं तो दिवाली पर मुसलमानों के घरों में मिठाई | खुद हमारे
पिताजी यों कट्टर कर्मकांडी ब्राह्मण थे – लेकिन क्योंकि उस समय के प्रसिद्ध
दार्शनिक विचार वाले व्यक्ति थे तो नन्हे मियाँ की मजार का उर्स उनके गाए नात के
बिना पूरा नहीं होता था, चर्च में क्रिसमस और ईस्टर पर फादर
उन्हें ससम्मान आमन्त्रित करते थे धर्मोपदेश के लिए और वहाँ केरल से आए बच्चों को
पिताजी मलयालम भाषा के माध्यम से सारे विषय पढ़ाते थे | सिख
पर्वों और जैन पर्वों पर जब तक पिताजी कुछ न बोल दें तब तक लोग गुरुद्वारे और जैन
मन्दिर से निकलना ही नहीं चाहते थे | सिखों के गुरुपर्व पर
सारा शहर प्रभात फेरी में शामिल होता था | सारे धर्मों के पर्व इसी तरह मिल जुल कर
मनाए जाते थे |
और यही क्या,
हमारे साथ जितने भी संगत कलाकार थे उनमें हिन्दू बहुत कम थे,
अधिकाँश तो मुस्लिम ही थे, कुछ ईसाई भी थे | कितने महान
संगीतज्ञ, चित्रकार और सभी अन्य विधाओं के कलाकार मुस्लिम हुए हैं या ईसाई और
दूसरे वर्गों के लोग हुए हैं जिन्होंने अपनी कला से भारतीय कलाओं को समृद्ध किया
है | तब तो हिन्दू राष्ट्र या हिन्दू धर्म को कोई ख़तरा नहीं होता था, फिर आज क्यों ? अगर ऐसा ही है तो हमें वो क़ौमी तराना
गाना बन्द कर देना चाहिए जो कहता है "मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर करना,
“हिन्दी” हैं हम, वतन है हिन्दोस्तां हमारा..."
कुछ लोगों ने कहा 25 दिसम्बर को क्रिसमस के रूप में नहीं बल्कि “तुलसी विवाह” के रूप में मनाया
जाना चाहिए | कोई बुराई नहीं है इसमें भी | लेकिन हमारे यहाँ तो तुलसी पूजन और पाँचदिवसीय
तुलसी विवाह की इतनी समृद्ध परम्परा पौराणिक काल से चली आ रही है कि हमें 25 दिसम्बर की आवश्यकता ही नहीं – और वह अंग्रेजी महीने के आधार पर नहीं
होता – हिन्दी माह के अनुसार होता है – कार्तिक शुक्ल एकादशी यानी देवोत्थान
एकादशी से आरम्भ होकर कार्तिकी पूर्णिमा तक चलता है | यों पूरा का पूरा कार्तिक
माह ही तुलसी पूजन के लिए समर्पित होता है | गाँव और छोटे शहरों में तो घर के आँगन
में विराजमान तुलसीवृक्ष के समक्ष प्रातः-सायं दीप अभी भी प्रज्वलित किया जाता है
|
कुछ लोगों ने दूसरे वर्गों की धूर्तता की
कहानियाँ भी शेयर कीं | तो उनसे हमारा प्रश्न है कि धूर्त लोग क्या हर सम्प्रदाय में, हर धर्म में और हर युग में नहीं हुए हैं ? तो किसी भी एक धर्म या
सम्प्रदाय को कटघरे में खड़ा कर देना कहाँ तक उचित है ? और एक बात, हिन्दू धर्म जिस तरह अनगिनती जातियों में बंटा
हुआ है – यदि उस जातिवादी सोच और पूर्वाग्रहों से ऊपर नहीं उठा गया तो हिन्दू धर्म
का पतन निश्चित है | इसलिए सबसे पहले हम हिन्दू अपनी सोच में एकता तो लाएँ ताकि
हमारा आपस में विभाजन ख़त्म हो जाए और हम सब एक हो सकें |
जहाँ तक हमारे देश की बात है, तो भारत हमेशा से हिन्दू राष्ट्र ही था और रहेगा – एक ऐसा हिन्दू राष्ट्र
जिसमें हर धर्म – हर सम्प्रदाय - हर वर्ग –
हर दर्शन के लोग आपस में मिल जुल कर रहते हैं और एक दूसरे के सुख दुःख में पूरे
दिल से सम्मिलित होते हैं - इसके लिए हमें किसी को भी डरने की आवश्यकता नहीं है -
लेकिन ये भी सच है हिन्दू कोई धर्म नहीं है - ये तो किसी भी तरह की साम्प्रदायिकता
से बहुत ऊँची एक सोच है, विश्व के महान दर्शनों में इसकी
गणना की जाती है - एक ऐसी महान सोच - एक ऐसा महान दर्शन जो सब कुछ को आत्मसात करने
की सामर्थ्य रखता है - और हिन्दू दर्शन की ये महानता ईसाइयों को क्रिसमस की बधाई
देकर या मुसलमानों को ईद की बधाई देकर और भी बढ़ जाती है और इस महान दर्शन की
"सर्वधर्मसमभाव" की महान सोच को और भी विशाल बना देती है...
इसीलिए हमें गर्व है कि हम “हिन्दुस्तानी” हैं और
“हिन्दी हैं हम, वतन है हिन्दोस्तां हमारा...” जय
हिन्द... जय भारत...
https://www.astrologerdrpurnimasharma.com/2019/12/26/we-should-be-proud-to-be-hindustani/