कल दोपहर लगभग एक बजकर सैंतालीस मिनट पर भगवान भास्कर धनु राशि को छोड़कर मकर राशि में संक्रमण करेंगे अर्थात उत्तरायण गमन कर जाएँगे, और विविधता से भरपूर हमारा देश मकर संक्रांति के पावन पर्व को विविध रूपों में पूर्ण हर्षोल्लास के साथ मनाएगा | कल सायं छह बजकर उन्नीस मिनट तक वर पर्व आदि के लिए पुण्य काल रहेगा |
मकर राशि में सूर्य अपने शत्रु ग्रह की राशि में गोचर कर जाता है | फिर इस पर्व का इतना अधिक महत्त्व क्यों माना जाता है ? वास्तव में वर्ष को दो भागों में बाँट गया है | पहला भाग “उत्तरायण” और दूसरा भाग “दक्षिणायन” कहालाता है | मकर संक्रान्ति के दिन से सूर्य की उत्तरायण गति प्रारम्भ होती है इसलिये इसको उत्तरायणी भी कहते हैं | जब सूर्य किसी एक राशि को पार करके दूसरी राशि में प्रवेश करता है, तो उस संक्रमण काल को संक्रान्ति कहते हैं । यह संक्रान्ति काल प्रतिमाह होता है और इस प्रकार हर माह एक संक्रान्ति अवश्य होती है | किन्तु प्रायः 14 जनवरी को पड़ने वाले मकर संक्रान्ति का विशेष महत्त्व माना जाता है | और पूरे भारत में किसी न किसी रूप में मनाया जाता है । तमिलनाडु में इसे पोंगल के रूप में मनाते हैं | कर्नाटक, केरल तथा आन्ध्र प्रदेशों में इसे संक्रान्ति और पोंगल दोनों नामों से मनाया जाता है | क्योंकि यह संक्रान्ति माघ-पौष में पड़ती है अतः इसे पौषी संक्रान्ति भी कहते हैं | वेदों में पौष माह को “सहस्य” भी कहा गया है, जिसका अर्थ होता है वर्ष ऋतु, अर्थात् शीतकालीन वर्षा ऋतु | पुनर्वसु और पुष्य नक्षत्रों का उदय इस समय होता है | पुनर्वसु का अर्थ है एक बार समाप्त होने पर पुनः उत्पन्न होना, पुनः नवजीवन का आरम्भ करना | और पुष्य अर्थात् पुष्टिकारक | पौष के अन्य अर्थ हैं शक्ति, प्रकाश, विजय | इसी से अनुमान लगाया जा सकता है कि इस संक्रान्ति का इतना अधिक महत्व किसलिये है | यह संक्रान्ति हमें नवजीवन का संकेत और वरदान देती है |
उत्तर प्रदेश में इसे दान के पर्व के रूप में मनाते हैं और इलाहाबाद में माघ मेले का आयोजन किया जाता है | समूचे उत्तर प्रदेश में इस व्रत को खिचड़ी के नाम से भी जाना जाता है तथा इस दिन खिचड़ी के सेवन और दान का विशेष महत्त्व माना जाता है | महाराष्ट्र में सभी विवाहित महिलाएँ अपनी पहली संक्रान्ति पर कपास, तेल, नमक आदि चीजें अन्य सुहागिन महिलाओं को दान करती हैं । बंगाल में इस पर्व पर तिलों का दान करने की प्रथा है । यहां प्रतिवर्ष गंगासागर में विशाल मेला लगता है । माना जाता है किइसी दिन गंगाजी भागीरथ के पीछे-पीछे चलकर कपिल मुनि के आश्रम से होकर सागर में जा मिली थीं । असम में मकर संक्रान्ति को माघ बिहू अथवा भोगली बिहू के नाम से जाना जाता है | इस प्रकार इस पर्व के माध्यम से भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति की झलक विविध रूपों में दिखती है ।
शास्त्रों के अनुसार, दक्षिणायन को देवताओं की रात्रि अर्थात नकारात्मकता का प्रतीक तथा उत्तरायण को देवताओं का दिन अर्थात सकारात्मकता का प्रतीक माना गया है । इसीलिए इस दिन जप, तप, दान, स्नान, श्राद्ध, तर्पण आदि धार्मिक क्रियाकलापों का विशेष महत्व है ।
सामान्यत: सूर्य सभी राशियों को प्रभावित करते हैं, किंतु कर्क व मकर राशियों में सूर्य का प्रवेश धार्मिक दृष्टि से अत्यन्त फलदायक माना जाता है । यह प्रवेश अथवा संक्रमण क्रिया छ:-छ: माह के अंतराल पर होता है । सूर्य का मकर रेखा से उत्तरी कर्क रेखा की ओर जाना उत्तरायण और कर्क रेखा से दक्षिण मकर रेखा की ओर जाना दक्षिणायन कहलाता है । जब सूर्य दक्षिणायन से उत्तरायण होने लगता है तब दिन बड़े और रात छोटी होने लगती है । दिन बड़ा होने से प्रकाश अधिक होगा तथा रात्रि छोटी होने से अंधकार कम होगा । अत: मकर संक्रान्ति पर सूर्य की राशि में हुए परिवर्तन को अंधकार से प्रकाश की ओर अग्रसर होना माना जाता है । प्रकाश अधिक होने से प्राणियों की चेतनता एवं कार्यशक्ति में वृद्धि होगी । इस समय शीत पर धूप की विजय प्राप्त करने की यात्रा शुरू हो जाती है । सामान्यत: भारतीय पंचांग की समस्त तिथियाँ चंद्रमा की गति को आधार मानकर निर्धारित की जाती हैं, किन्तु मकर संक्रान्ति को सूर्य की गति से निर्धारित किया जाता है । इसी कारण यह पर्व प्रतिवर्ष 14 जनवरी को ही पड़ता है । वैदिक काल में उत्तरायण को `देवयान` तथा दक्षिणायन को `पितृयान` कहा जाता था । ऐसा माना जाता है कि मकर संक्रान्ति के दिन यज्ञ में दिये गए द्रव्य को ग्रहण करने के लिए देवतागण पृथ्वी पर अवतरित होते हैं । ऐसा भी माना जाता है कि इस दिन भगवान सूर्य अपने पुत्र शनि से मिलने स्वयं उसके घर जाते हैं और शनिदेव मकर राशि के स्वामी हैं | महाभारत काल में भीष्म पितामह ने अपनी देह त्यागने के लिए मकर संक्रान्ति का ही चयन किया था । सूर्य की गति से सम्बन्धित होने के कारण यह पर्व हमारे जीवन में गति, नव चेतना, नव उत्साह और नव स्फूर्ति का प्रतीक है । फिर इससे हमें सूर्य का प्रकाश भी अधिक समय तक मिलने लगता है, जो हमारी फसलों के लिए अत्यन्त आवश्यक है । इस प्रकार यह पर्व अधिक क्रियाशीलता और अधिक उत्पादन का भी प्रतीक है |
कल ही मेरु त्रयोदशी का पर्व भी है | माना जाता है कि इस दिन जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर मुनि ऋषभदेव ने अष्टपाद पर्वत पर निर्वाण प्राप्त किया था | इसीलिए इस पर्व को “निर्वाण कल्याणक” के नाम से भी जाना जाता है |
इस पर्व को परिवर्तन का पर्व भी कहा जा सकता है – एक ऐसा परिवर्तन जो सार्थकता लिये हुए होता है | तो आइये इस परिवर्तन के प्रकाश पर्व को इस संकल्प के साथ मनाएँ कि समाज में व्याप्त कुरीतियाँ और दुराचार सूर्यदेव की दृष्टि से भस्म हो जाएँ और एक स्वस्थ समाज का सूत्रपात हो | इसी कामना के साथ सभी पाठकों को कल होने वाले मकर संक्रान्ति के प्रकाश पर्व और पोंगल की हार्दिक शुभकामनाएँ…