सप्तक के स्वरों की स्थापना सर्वप्रथम महर्षि भरत के द्वारा मानी जाती
है | वे अपने सप्त स्वरों को षड़्ज ग्रामिक
स्वर कहते थे | षड़्ज
ग्राम से मध्यम ग्राम और मध्यम ग्राम से पुनः षड़्ज ग्राम में आने के लिये उन्हें दो
स्वर स्थानों को और मान्यता देनी पड़ी, जिन्हें ‘अंतर गांधार’ और ‘काकली निषाद’ कहा गया | महर्षि भरत ने अपने स्वरों को न तो
शुद्ध ही कहा न ही विकृत | क्योंकि
उनको सभी स्वरों की प्राप्ति षड़्जग्राम, मध्यमग्राम और उनकी मूर्छनाओं से हो जाती थी | जैसे यदि धैवत को षड़्ज माना जाए
तो नी कोमल ऋषभ हो जाता है | बहरहाल, ये सारी बातें संगीत की पारिभाषिक
बातें हैं | बरखा
की रुत में जब अनेक पंछी, दादुर
आदि समवेत स्वर में अपना राग छेड़ते हैं तो वास्तव में ऐसा प्रतीत होता है जैसे वीणा
के तारों को छेड़ने पर खरज से गंधार की मीड में मानों अन्तर गंधार की ध्वनि उत्पन्न
हो रही ही – जो प्रत्यक्ष नहीं होती – क्योंकि अन्तर गंधार मूल स्वर न होकर खरज और
गंधार के मध्य की एक ध्वनि है... और इसी के साथ बरखा की गूँज के रूप में दसों दिशाओं
में गूँजता खरज का नाद मानों घोषणा सी करता है कि समस्त प्रकृति श्रुति-स्वर-संगीतमयी
है... इन्हीं उलझे सुलझे से भावों के साथ प्रस्तुत है हमारी आज की रचना “षड़्जान्तर”...
सुनने के लिए कृपया वीडियो देखें... कात्यायनी...