श्रद्धा
और भक्ति का पर्व श्राद्ध पर्व
भाद्रपद
शुक्ल चतुर्दशी यानी पहली सितम्बर को क्षमावाणी – अपने द्वारा जाने अनजाने किये गए
छोटे से अपराध के लिए भी हृदय से क्षमायाचना तथा दूसरे के पहाड़ से अपराध को भी हृदय
से क्षमा कर देना – के साथ जैन मतावलम्बियों के दशलाक्षण पर्व का समापन होगा |
वास्तव में कितनी उदात्त भावना है क्षमावाणी पर्व के आचरण के पीछे | पहले दश दिनों
तक सभी जैन मतावलम्बी दश लक्षणों का पालन करते हुए पूर्ण रूप से मन की शुद्धि का
प्रयास करते हैं और अन्त में “खम्मामि सव्व जीवेषु सव्वे जीवा
खमन्तु में, मित्ति मे सव्व भू ए वैरम् मज्झणम् केण वि” अर्थात “समस्त जीवों की
किसी भी भूल के लिए हम हृदय से क्षमा करें, और अपनी समस्त ज्ञाताज्ञात त्रुटियों
के लिए हम हृदय से क्षमायाचना करते हैं – समस्त जीव हमें क्षमादान दें, समस्त
जीवों के साथ हमारा मैत्री का भाव रहे और किसी के साथ भी वैर न रहे” इस संकल्प के
साथ अपनी समस्त ज्ञाताज्ञात भूलों के लिए प्राणिमात्र से क्षमा याचना करते हुए जीवमात्र के प्रति क्षमाशील होने का
भी प्रयास करते हैं, जो अहिंसा का प्रथम सोपान है | यदि हम सभी अपने जीवन वास्तव
में इस तथ्य को अपना लें तो किसी प्रकार के ईर्ष्या द्वेष लालच मोह अथवा किसी
प्रकार के अपराध के लिए या किसी प्रकार की हिंसा के लिए स्थान ही नहीं रह जाएगा
|
इसी
दिन अनन्त चतुर्दशी का पावन पर्व भी है | इस दिन अनन्त भगवान की पूजा करके
संकटों से रक्षा करने वाला अनन्त सूत्र बांधा जाता है | मान्यता है कि जब पाण्डव जुए
में अपना सारा राज-पाट हारकर वन में कष्ट भोग रहे थे, तब भगवान
श्रीकृष्ण ने उन्हें अनन्त चतुर्दशी के व्रत का पालन करने का सुझाव दिया था | धर्मराज
युधिष्ठिर ने अपने भाइयों तथा द्रौपदी के साथ पूरे विधि-विधान से यह व्रत किया तथा
अनन्त सूत्र धारण किया | और इस व्रत के प्रभाव से पाण्डव सब संकटों से मुक्त हो गए
| अनन्त चतुर्दशी का आरम्भ 31 अगस्त
को प्रातः आठ बजकर पचास मिनट के लगभग होगा, लेकिन सूर्योदय
के समय चतुर्दशी न होने के कारण पहली सितम्बर को अनन्त चतुर्दशी का विधान किया
जाएगा | इस दिन प्रातः नौ बजकर चालीस मिनट तक चतुर्दशी तिथि रहेगी और उसके बाद
पूर्णिमा का आगमन हो जाएगा जो दो सितम्बर को प्रातः 10:51 तक
रहेगी इसलिए पूर्णिमा का श्राद्ध भी इसी दिन होगा | मंगल,
शनि, सूर्य और गुरु स्वराशिगत होने के कारण बहुत अच्छे योग
बन रहे हैं | इस वर्ष श्राद्ध की तिथियाँ इस प्रकार
रहेंगी...
1 सितम्बर पूर्णिमा का श्राद्ध
3 सितम्बर आश्विन कृष्ण प्रतिपदा का श्राद्ध
4 सितम्बर आश्विन कृष्ण द्वितीया का श्राद्ध
5 सितम्बर आश्विन कृष्ण तृतीया का श्राद्ध
6 सितम्बर आश्विन कृष्ण चतुर्थी का श्राद्ध
7 सितम्बर आश्विन कृष्ण पञ्चमी का श्राद्ध
8 सितम्बर आश्विन कृष्ण षष्ठी का श्राद्ध
9 सितम्बर आश्विन कृष्ण सप्तमी का श्राद्ध
10 सितम्बर आश्विन कृष्ण अष्टमी का श्राद्ध
11 सितम्बर आश्विन कृष्ण नवमी का श्राद्ध
12 सितम्बर आश्विन कृष्ण दशमी का श्राद्ध
13 सितम्बर आश्विन कृष्ण एकादशी का श्राद्ध
14 सितम्बर आश्विन कृष्ण द्वादशी का श्राद्ध
15 सितम्बर आश्विन कृष्ण त्रयोदशी का श्राद्ध
16 सितम्बर आश्विन कृष्ण चतुर्दशी का श्राद्ध
17 सितम्बर आश्विन कृष्ण अमावस्या – पितृविसर्जनी अमावस्या - महालया का
श्राद्ध
महालया के
दूसरे दिन से ही शारदीय नवरात्र आरम्भ हो जाते हैं | किन्तु इस वर्ष 18 सितम्बर से आश्विन अधिक मास आरम्भ हो रहा है, जिस कारण से नवरात्र एक माह के अन्तराल के बाद यानी 17 अक्तूबर से आरम्भ होंगे |
मान्यताएँ जितनी भी हो और जैसी भी हों,
सबकी अन्तर्निहित भावना जीवमात्र के प्रति सम्मान व्यक्त करने और सबके कल्याण की
ही है | और यही भावना श्राद्धकर्म में भी परिलक्षित होती है | यों तो आश्विन कृष्ण प्रतिपदा से 15 दिन के पितृ पक्ष का आरम्भ
माना जाता है | जिनके प्रियजन पूर्णिमा को ब्रह्मलीन हुए हैं उनका श्राद्ध कुछ लोग
अमावस्या के दिन करते हैं | लेकिन जो लोग पूर्णिमा को ही उनका श्राद्ध करना चाहते
हैं उनके लिए श्राद्ध पक्ष आरम्भ होने से एक दिन पूर्व अर्थात भाद्रपद पूर्णिमा को
भी करने का विधान है |
वैदिक मान्यता के अनुसार वर्ष का पूरा
एक पक्ष ही पितृगणों के लिये समर्पित कर दिया गया है | जिसमें विधि विधान पूर्वक
श्राद्धकर्म किया जाता है | शास्त्रों के अनुसार श्राद्धकर्म करने का अधिकारी कौन
है, विधान क्या है आदि चर्चा में हम नहीं पड़ना चाहते, इस कार्य के लिये पण्डित
पुरोहित हैं | पण्डित लोगों का तो कहना है और शास्त्रों में भी लिखा हुआ है कि
श्राद्ध कर्म पुत्र द्वारा किया जाना चाहिये | प्राचीन काल में पुत्र की कामना ही
इसलिये की जाती थी कि अन्य अनेक बातों के साथ साथ वह श्राद्ध कर्म द्वारा माता
पिता को मुक्ति प्रदान कराने वाला माना जाता था “पुमान्
तारयतीति पुत्र:” | लेकिन जिन लोगों के पुत्र नहीं हैं उनकी क्या
मुक्ति नहीं होगी, या उनके समस्त कर्म नहीं किये जाएँगे ? हमारे कोई भाई नहीं है,
माँ का स्वर्गवास अब से ग्यारह वर्ष पूर्व जब हुआ तो पिताजी भी उस समय तक गोलोक
सिधार चुके थे | हमने अपनी माँ को मुखाग्नि भी दी और अब उनका तथा अपने पिता का
दोनों का ही श्राद्ध भी पूर्ण श्रद्धा के साथ हम ही करते हैं | तो इस बहस में हम
नहीं पड़ना चाहते | हम तो बात कर रहे हैं इस श्राद्ध पर्व की मूलभूत भावना श्रद्धा
की – जो भारतीय संस्कृति की नींव में है |
भारतीय संस्कृति अत्यन्त
प्राचीन है तथा आचार मूलक है | किसी भी राष्ट्र की संस्कृति की पहचान वहाँ के
लोगों के आचरण से होती है | और
भारतीय संस्कृति की तो नींव ही सदाचरण, सद्विचार, योग व भक्तिपरक उपासना,
पुनर्जन्म में विश्वास तथा देव और पितृ लोकों में आस्था आदि पर आधारित है जिसका
अन्तिम लक्ष्य है मोक्ष प्राप्ति अर्थात आत्म तत्व का ज्ञान | पितृगणों के प्रति
श्राद्ध कर्म भी इसी प्रकार के सदाचरणों में से एक है | ब्रह्म पुराण में कहा गया है “देशे काले च पात्रे च श्राद्धया विधिना चयेत |
पितृनुद्दश्य विप्रेभ्यो दत्रं श्राद्धमुद्राहृतम ||”
- देश काल तथा पात्र के अनुसार श्रद्धा तथा विधि विधान पूर्वक पितरों को समर्पित
करके दान देना श्राद्ध कहलाता है | स्कन्द पुराण के अनुसार देवता और पितृ तो इतने
उदारमना होते हैं कि दूर बैठे हुए भी रस गंध मात्र से ही तृप्त हो जाते हैं | जिस
प्रकार गौशाला में माँ से बिछड़ा बछड़ा किसी न किसी प्रकार अपनी माँ को ढूँढ़ ही लेता
है उसी प्रकार मन्त्रों द्वारा आहूत द्रव्य को पितृगण ढूँढ ही लेते हैं | इसी
प्रकार याज्ञवल्क्य स्मृति में लिखा है कि पितृगण श्राद्ध से तृप्त होकर आयु,
सन्तान, धन, विद्या, स्वर्ग, मोक्ष, राज्य एवं सभी प्रकार के सुख प्रदान करते हैं “आयु: प्रजां धनं विद्यां स्वर्गं मोक्षं सुखानी च,
प्रयच्छन्ति तथा राज्यं प्रीता नृणां पितां महा: |” (याज्ञ. स्मृति: 1/270)
वास्तव में श्राद्ध प्रतीक है
पूर्वजों के प्रति सच्ची श्रद्धा का | हिन्दू मान्यता के अनुसार प्रत्येक शुभ कर्म
के आरम्भ में माता पिता तथा पूर्वजों को प्रणाम करना चाहिये | यद्यपि अपने
पूर्वजों को कोई विस्मृत नहीं कर सकता, किन्तु फिर भी दैनिक जीवन में अनेक समस्याओं
और व्यस्तताओं के चलते इस कार्य में भूल हो सकती है | इसीलिये हमारे ऋषि मुनियों
ने वर्ष में पूरा एक पक्ष ही इस निमित्त रखा हुआ है |
श्रद्धावान होना चारित्रिक
उत्थान का, ज्ञान प्राप्ति का तथा एक सुदृढ़ नींव वाले पारिवारिक और सामाजिक ढाँचे
का एक प्रमुख सोपान है | फिर पितृजनों के प्रति श्रद्धायुत होकर दान करने से तो
निश्चित रूप से अपार शान्ति का अनुभव होता है तथा शास्त्रों की मान्यता के अनुसार
लोक परलोक संवर जाता है | इसीलिए श्राद्धपक्ष का इतना महत्व हिन्दू मान्यता में है
| भारतीय संस्कृति एवं समाज में अपने पूर्वजों और दिवंगत माता पिता का इस श्राद्ध
पक्ष में श्रद्धा पूर्वक स्मरण करके श्रद्धापूर्वक दानादि के द्वारा उनके प्रति
श्रद्धा सुमन अर्पित किये जाते हैं | इस अवसर पर दिये गए पिण्डदान का भी अपना
विशेष महत्व होता है | श्राद्ध कर्म में पके चावल, दूध और तिल के मिश्रण से पिण्ड
बनाकर उसे दान करते हैं | पिण्ड का अर्थ है शरीर | यह एक पारम्परिक मान्यता है कि हर पीढ़ी में मनुष्य में अपने
मातृकुल तथा पितृकुल के गुणसूत्र अर्थात वैज्ञानिक रूप से कहें तो जीन्स उपस्थित
रहते हैं | इस प्रकार यह पिण्डदान का प्रतीकात्मक अनुष्ठान उनकी तृप्ति के लिये
होता है जिन लोगों के गुणसूत्र श्राद्ध करने वाले की अपनी देह में विद्यमान होते
हैं |
तो आइये श्रद्धापूर्वक अपने पूर्वजों का स्मरण करते हुए
उनके प्रति श्रद्धा-सुमन समर्पित करें...