Shani Stuti
श्री दशरथकृत शनि स्तुति:
शनि के विषय में अनेक प्रकार के पौराणिक उपाख्यान उपलब्ध होते हैं | शनि को सूर्य और उनकी पत्नी छाया का पुत्र तथा उचित कर्मफलों को प्रदान करने वाला न्यायाधीश माना जाता है | किन्तु साथ ही पिता सूर्य का शत्रु भी माना जाता है | शनि को स्वाभाविक मारक ग्रह माना जाता है | किन्तु सत्य तो यह है कि शनि प्रकृति में सन्तुलन का कारक है | Vedic Astrologer किसी व्यक्ति की जन्मकुण्डली में शनि की स्थिति-युति-दृष्टि के आधार पर कुण्डली का अवलोकन करके यह ज्ञात कर पाते हैं कि वह व्यक्ति कितना कर्मठ होगा या कितना आलसी | शनि की शुभ स्थिति व्यक्ति को कर्मठ, निडर व धनी बनाती है किन्तु अशुभ स्थिति धनहीन, आलस्यपूर्ण तथा डरपोक बनाती है | इसका वर्ण वैदूर्यमणि, बाणपुष्प तथा अलसी के पुष्प के समान निर्मल होता है और अपने प्रकाश से अन्य वर्णों को प्रकाशित करता हुआ जन साधारण के लिए शुभफलदायी होता है…
वैदूर्यकान्ति रमल: प्रजानां वाणातसीकुसुमवर्णविभश्च शरत: |
अन्यापि वर्ण भुवगच्छति तत्सवर्णाभि सूर्यात्मज: अव्यतीति मुनि प्रवाद: ||
शनि के न्याय के सम्बन्ध में सती के अपने पिता दक्ष के यज्ञ में आत्मदाह से लेकर ऋषि अगस्त्य को राक्षसों से मुक्ति में सहायता प्रदान करना, राजा हरिश्चन्द्र की कथा, नल दमयन्ती आदि के अनेक उपाख्यान पुराणों में उपलब्ध होते हैं | पद्मपुराण में आख्यान है कि शनि राजा दशरथ के सूर्यवंशी होने के कारण उनसे क्रुद्ध हो गए और उनके राज्य में घोर दुर्भिक्ष की स्थिति उत्पन्न हो गई | राजा दशरथ जब शनि से युद्ध करने के लिए गए तो उनके पराक्रम से शनि प्रभावित हुए और उनसे वर माँगने को कहा | तब महाराज दशरथ ने विधिपूर्वक उनकी स्तुति करके उन्हें प्रसन्न किया और उन्हें शनि ने यथेच्छ वर प्रदान किया |
आज शनिवार भी है और प्रदोष का व्रत भी | प्रदोष के व्रत में यों तो भगवान् शंकर की पूजा अर्चना का विधान है, किन्तु शनि प्रदोष होने के कारण शनि की स्तुति भी शुभ फलदायी मानी जाती है | अतः प्रस्तुत है पद्मपुराण में राजा दशरथ द्वारा कहा गया शनि स्तोत्र…
|| अथ श्री दशरथकृत शनिस्तुति: ||
नम: कृष्णाय नीलाय शितिकण्ठनिभाय च
नम: कालाग्निरूपाय कृतान्ताय च वै नम: ||
नमो निर्मांस देहाय दीर्घश्मश्रुजटाय च |
नमो विशालनेत्राय शुष्कोदर भयाकृते ||
नम: पुष्कलगात्राय स्थूलरोम्णेSथ वै नम: |
नमो दीर्घाय शुष्काय कालदंष्ट्र नमोSस्तु ते ||
नमस्ते कोटराक्षाय दुर्निरीक्ष्याय वै नम: |
नमो घोराय रौद्राय भीषणाय कपालिने ||
नमस्ते सर्वभक्षाय वलीमुखाय नमोSस्तु ते |
सूर्यपुत्र नमस्तेSस्तु भास्करे भयदाय च ||
अधोदृष्टे नमस्तेSस्तु संवर्तक नमोSस्तु ते ।
नमो मन्दगते तुभ्यं निस्त्रिन्शाय नमोSस्तु ते ||
तपसा दग्धदेहाय नित्यं योगरताय च |
नमो नित्यं क्षुधार्ताय अतृप्ताय च वै नम: ||
ज्ञान चक्षुर्नमस्तेSस्तु कश्यपात्मजसूनवे |
तुष्टो ददासि वै राज्यं रुष्टो हरसि तत्क्षणात् ||
देवासुरमनुष्याश्च सिद्घविद्याधरोरगा: |
त्वया विलोकिता: सर्वे नाशं यान्ति समूलत: ||
प्रसादं कुरु मे देव वरार्होSमुपागतः |
एवं स्तुतस्तद: सौरिर्ग्रहराजो महाबलः ||
|| इति श्रीदशरथकृत शनिस्तुति: सम्पूर्णम् ||