Ganga Dashehara
नदी का सम्मान नारी का सम्मान
मेरे लेख का शीर्षक “नदी का सम्मान नारी का सम्मान” सम्भव है अटपटा सा लगे, वह भी गंगा दशहरा जैसे महान पर्व के अवसर पर, किन्तु यह शीर्षक कितना सटीक है इसका लेख के अन्त में स्वतः भान हो जाएगा |
प्रतिवर्ष ज्येष्ठ शुक्ल दशमी को गंगा दहशरा के अवसर पर दस दिवसीय गंगा दशहरा के पर्व का समापन होता है | माना जाता है कि ज्येष्ठ शुक्ल दशमी को हस्त नक्षत्र में गंगा का अवतरण पृथिवी पर हुआ था | इस वर्ष ज्येष्ठ शुक्ल प्रतिपदा से ज्येष्ठ शुक्ल दशमी तक चलने वाले इस गंगा स्नान का आरम्भ अधिक ज्येष्ठ शुक्ल प्रतिपदा यानी 16 मई से हो गया था और अधिक ज्येष्ठ शुक्ल दशमी यानी 24 मई को यह स्नान सम्पन्न होगा | यों 23 मई को लगभग 19:14 पर दशमी तिथि का आगमन होगा, किन्तु सूर्योदय में नवमी तिथि नहीं होगी | सूर्योदय में 24 मई को दशमी तिथि होगी इसलिए पर्व उसी दिन मनाया जाएगा | सूर्योदय का समय 5:26 है और दशमी तिथि सूर्योदय से लेकर सायं 6:18 तक रहेगी | सूर्योदय के समय तैतिल करण और वज्र योग होगा तथा सूर्य वृषभ राशि और कृत्तिका नक्षत्र में तथा चन्द्र कन्या राशि और उत्तर फाल्गुनी नक्षत्र में होगा | इस दिन श्रद्धालुगण पवित्र गंगा के जल में स्नान करते हैं और दान पुण्य करते हैं | गंगा दशहरा के ठीक बाद निर्जला एकादशी आती है | इस दिन शीतल पेय पदार्थों के दान की प्रथा है | ये दोनों ही पर्व ऐसे समय आते हैं जब सूर्यदेव अपने प्रचण्ड रूप में आकाश के मध्य उपस्थित होते हैं, सम्भवतः इसलिए भी इन दिनों गंगा में स्नान तथा शीतल वस्तुओं के दान की प्रथा है |
किन्तु इन पर्वों का महत्त्व केवल इसीलिए नहीं है कि इस दिन गंगा का अवतरण पृथिवी पर हुआ था अथवा सूर्य की किरणों की दाहकता अपने चरम पर होती है | अपितु गंगा अथवा जल की पूजा अर्चना करने के और भी अनेक कारण हैं |
भारत ीय सभ्यता और संस्कृति में पर्यावरण की सुरक्षा का कितना अधिक महत्त्व है और प्राचीन काल में लोग इस बात के प्रति कितने अधिक जागरूक थे इस बात का पता इसी से लग जाता है कि समस्त वैदिक और वैदिकोत्तर साहित्य में वृक्षों तथा नदियों की पूजा अर्चना का विधान है | इन समस्त बातों को धर्म के साथ जोड़ देने का कारण भी यही था कि व्यक्ति प्रायः धर्मभीरु होता है और धार्मिक भावना से ही सही – जन साधारण प्रकृति के प्रति सहृदय बना रहकर उसका सम्मान करता रहे | जल जीवन का आवश्यक अंग होने के कारण वरुण को जल का देवता मानकर वरुणदेव की उपासना का विधान भी इसीलिए है | किसी भी धार्मिक तथा माँगलिक अनुष्ठान के समय जल से परिपूर्ण कलश की स्थापना करके उसमें समस्त देवी देवताओं का, समस्त नदियों और समुद्रों अर्थात समस्त जलाशयों का तथा समस्त जलाशयों को धारण करने वाली पृथिवी का आह्वाहन किया जाता है |
वास्तव में लगभग समस्त सभ्यताएँ नदियों के किनारे ही विकसित हुईं | किसी भी सभ्यता का मूलभूत आधार होता है कि लोग प्रकृति के प्रति, पञ्चतत्वों के प्रति किस प्रकार का दृष्टिकोण रखते हैं | किस प्रकार का व्यवहार प्रकृति के प्रति करते हैं | और जल क्योंकि प्रकृति का तथा मानव जीवन का अनिवार्य अंग है इसलिए जलाशयों के किनारे ही सभ्यताएँ फली फूलीं | मानव जीवन में जन्म से लेकर अन्त तक जितने भी कार्य हैं – जितने भी संस्कार हैं – सभी में जल की कितनी अनिवार्यता है इससे कोई भी अपरिचित नहीं है | कुम्भ, गंगा दशहरा, गंगा सप्तमी, गंगा जयन्ती आदि जितने भी नदियों की पूजा अर्चना से सम्बन्धित पर्व हैं उन सबका उद् देश ्य वास्तव में यही था कि नदियों के पौष्टिक जल को पवित्र रखा जाए – प्रदूषित होने से बचाया जाए | दुर्भाग्य से आज ये समस्त पर्व केवल “स्नान” मात्र बन कर रह गए हैं | आए दिन नदियों के प्रदूषण के विषय में समाचार प्राप्त होते रहते हैं | सरकारें इन नदियों की साफ़ सफाई का प्रबन्ध भी करती हैं | लेकिन कोई भी सरकार कितना कर सकती है यदि जन साधारण ही अपनी जीवनदात्री नदियों का सम्मान नहीं करेगा ? जितनी भी गन्दगी होती है आज नदियों में बहाई जाती है |
हम लोग जब बाहर के किसी देश में जाते हैं तो वहाँ के जलाशयों की खुले दिल से प्रशंसा करते हैं और साथ ही अपने देश के जलाशयों में फ़ैल रही गन्दगी के विषय में क्रोध भी प्रकट करते हैं | लेकिन वहाँ के जलाशय इतने स्वच्छ होने का कारण है कि वहाँ जन साधारण जलाशयों की स्वच्छता के प्रति – प्रकृति और पर्यावरण की सुरक्षा के प्रति जागरूक है | वहाँ इन जलाशयों को गन्दगी बहाने का साधनमात्र नहीं माना जाता | किन्तु हम हर जगह घूम फिरकर जब अपने देश वापस लौटते हैं तो जलाशयों में गन्दगी बहाना अपना जन्मसिद्ध अधिकार मान बैठते हैं | हम एक ओर बड़ी बड़ी गोष्ठियों में जल के संचय की बात करते हैं, दूसरी ओर हम स्वयं ही जल का दुरूपयोग करने से भी स्वयं को नहीं रोक पाते |
कहने का अभिप्राय यह है कि हम कितने भी गंगा सप्तमी या गंगा दशहरा या कुम्भ के पर्वों का आयोजन कर लें, जब तक अपने जलाशयों का और प्रकृति का सम्मान करना नहीं सीखेंगे तब तक कोई लाभ नहीं इन पर्वों पर गंगा में स्नान करने का | नदियाँ जीवन का माँ के समान पोषण करती हैं, माँ के समान संस्कारित अर्थात शुद्ध करती हैं, इसीलिए नदियों को “माता” के सामान पूज्यनीय माना गया है | इसीलिए जब तक हम अपनी नदियों का सम्मान करना नहीं सीखेंगे तब तक हम नारी का सम्मान भी कैसे कर सकते हैं ? क्योंकि नारी भी नदी का – प्रकृति का ही तो रूप है – जो जीवन को पौष्टिक बनाने के साथ ही संस्कारित भी करती है… यदि उसे निर्बाध गति से प्रवाहित होने दिया जाए तथा पल्लवित और पुष्पित होने का अवसर प्रदान किया जाए…
अस्तु, सभी को गंगा दशहरा की हार्दिक शुभकामनाएँ… इस आशा के साथ हम नारी का प्रतिरूप अपनी नदियों की पवित्रता और स्वच्छता को अक्षुण्ण रहने देंगे…