काव्य मैराथन में आज सप्तम दिवस की
रचना प्रस्तुत कर रहे हैं, जिसका शीर्षक है “तू
कभी न दुर्बल हो सकती”... अपनी आज की रचना प्रस्तुत करें उससे पहले दो बातें...
हमारी प्रकृति वास्तव में नारी रूपा है... जाने कितने रहस्य इसके गर्भ में समाए
हुए हैं… शक्ति के न जाने कितने स्रोत प्रकृति ने अपने भीतर धारण किये हुए हैं…
जिनसे मानव मात्र प्रेरणा प्राप्त करता है... और जब सारी प्रकृति ही शक्तिरूपा है
तो भला नारी किस प्रकार दुर्बल या अबला हो सकती है ? नारी
हमेशा से सशक्त और स्वावलम्बी रही शारीरिक, मानसिक और
आध्यात्मिक स्तरों पर, और आज की नारी तो आर्थिक स्तर भी
पूर्ण रूप से सशक्त है… यहाँ तक कि आज की तारीख़ में उसे न तो पुरुष पर निर्भर रहने
की आवश्यकता है न ही वह किसी रूप में पुरुष से कमतर है… कात्यायनी...
हम पुरुष के महत्त्व को कम करके नहीं
आँक रहे हैं | पुरुष – पिता के रूप में नारी का अभिभावक भी है और गुरु भी, भाई के
रूप में उसका मित्र भी है और पति के रूप में उसका सहयोगी भी - लेकिन अगर वो किसी
भी रूप में नारी को अपने अधीन मानता है या उसे अपने अधिकार में आई कोई वस्तु या
चीज़ समझता तो ये तो उसका अहंकार ही कहा जाएगा | इसके लिए आवश्यकता है कि हम अपने
बच्चों को बचपन से ही नारी का सम्मान करना सिखाएँ, चाहे सम्बन्ध कोई भी हो... पुरुष
को शक्ति की सामर्थ्य और स्वतन्त्रता का सम्मान करना ही होगा, और यह कार्य अपने घर से ही शुरू करना होगा…
माता पिता की लाडली बिटिया के रूप में
नारी गौरव होती है परिवार... समाज का... देश का... यदि उनके हौसलों को बुलन्दी तक
पहुँचाने के लिए उनके पंखों में साहस,
योग्यता और आत्मविश्वास की उड़ान भरी जाए तो बेटों से भी आगे बढ़ जाती हैं... जिनके
कारण परिवार का, समाज का, देश का मान
ही बढ़ता है... तो बेटियाँ दुर्बल या बोझ कैसे हो सकती हैं ? लेकिन हाँ, इस दिशा में पहल माँ को ही करनी होगी… प्रस्तुत रचना में एक माँ के इसी
प्रकार के मनोभावों का चित्रण करने का प्रयास है जो समर्पित है हमारी अपनी बिटिया
सहित संसार की समस्त बेटियों को संसार की हर माँ की ओर से सप्रेम और ससम्मान...
कात्यायनी...
तू कभी न दुर्बल हो सकती…
तू पत्नी और
प्रेमिका भी, तू माँ भी और तू ही बहना |
तू सीता भी, तू गीता भी, तू द्रौपदी कुन्ती गोपसुता ||
तुझमें जौहर की
ज्वाला भी, तू लक्ष्मीबाई क्षत्राणी |
पर इन सबसे भी
बढ़कर तू है बिटिया, जग से तू न्यारी ||
तू एक नन्ही सी
गुड़िया, जो हो गई बड़ी कब पता नहीं |
नित नव रचना
रचने वाली, तू कभी न दुर्बल हो सकती ||
तू दूर गगन तक हाथ उठाए, सबको है प्रेरित करती
|
तितली से पंख
लगा तू हर पल ऊँची ही ऊँची उड़ती ||
तेरा आकाश
असीमित है, जो दूर क्षितिज से मिलता है |
तू स्नेह प्रेम
के तारों से ये जगत प्रकाशित कर देती ||
सुख हो तो नृत्य
दिखा देती, पर दुःख में भी गाती रहती |
अपनी मस्ती में
खोई हर पल खुशियाँ बरसाती रहती ||
तू भरे हुए
विश्वास हृदय में, आगे ही बढ़ती जाती |
मदमस्त बयार बनी
हर पल उन्मुक्त प्रवाहित तू रहती ||
तू कली कली में
प्राण फूँक अपना प्रतिबिम्ब बना देती |
और जुड़ी हुई
अपनी जड़ से सर ऊँचा किये डटी रहती ||
तुझसे है मान मिला
मुझको, मैं धन्य हुई पाकर तुझको
आशीष मेरा है
साथ तेरे, तू कभी न दुर्बल हो सकती ||
______________कात्यायनी
डॉ पूर्णिमा शर्मा