एक दिन बैठी हुई कुछ सोच रही थी ।
अपना वजूद, दिल की हदें खोज रही थी ।।
भीतर से सदा आई ख़ुद को ख़ुद ही में ढूंढो ।
वरना सिवा मायूसियों के कुछ न मिलेगा ।।
जो जैसा है वैसा ही रहे, तब ही है सुकूँ
दूजे की नक़ल में ख़ुदी को खोना पड़ेगा ।।
वाकिफ़ हूँ कहाँ तक है हद मेरे वजूद की ।
गहराइयाँ कितनी हैं समन्दर के इस दिल की ।।
मिलता है जहाँ आसमाँ अपनी ज़मीन से ।
उससे नहीं हैं कम हदें अपने वजूद की ।।
इस दिल का समन्दर की भी कोई नही है थाह ।
उतरे कोई जो इसमें तो रह जाए डूबके ।।