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10 फरवरी 2022

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प्रातः काल था। ज्ञानशंकर स्टेशन पर गाड़ी का इन्तजार कर रहे थे। अभी गाड़ी के आने में आध घण्टे की देर थी। एक अँग्रेजी पत्र लेकर पढ़ना चाहा पर उसमें जी न लगा। दवाओं के विज्ञापन अधिक मनोरंजक थे। दस मिनट में उन्होंने सभी विज्ञापन पढ़ डाले। चित्त चंचल हो रहा था। बेकार बैठना मुश्किल था। इसके लिए बड़ी एकाग्रता की आवश्यकता होती है। आखिर खोंचे की चाट खाने में उनके चित्त को शान्ति मिली। बेकारी में मन बहलाने का यही सबसे सुगम उपाय है।
जब वह फिर प्लेटफार्म पर आये तो सिगनल डाउन हो चुका था। ज्ञानशंकर का हृदय धड़कने लगा। गाड़ी आते ही पहले और दूसरे दरजे की गाड़ियों में झाँकने लगे, किन्तु प्रेमशंकर इन कमरों में न थे। तीसरे दर्जे की सिर्फ दो गाड़ियाँ थीं। वह इन्हीं गाड़ियों के कमरे में बैठे हुए थे। ज्ञानशंकर को देखते ही दौड़कर उनके गले लिपट गये। ज्ञानशंकर को इस समय अपने हृदय में आत्मबल और प्रेमभाव प्रवाहित होता जान पड़ता था। सच्चे भ्रातृ-स्नेह ने मनोमालिन्य को मिटा दिया। गला भर आया और अश्रुजल बहने लगा। दोनों भाई दो-तीन मिनट तक इसी भाँति रोते रहे। ज्ञानशंकर ने समझा था कि भाई साहब के साथ बहुत-सा आडम्बर होगा, ठाट-बाट के साथ आते होंगे, पर उनके वस्त्र और सफर का सामान बहुत मामूली था। हाँ, उनका शरीर पहले से कहीं हृष्ट-पुष्ट था और यद्यपि वह ज्ञानशंकर से पाँच साल बड़े थे, पर देखने में उनसे छोटे मालूम होते थे, और चेहरे पर स्वास्थ्य की कान्ति झलक रही थी।
ज्ञानशंकर अभी तक कुलियों को पुकार ही रहे थे कि प्रेमशंकर ने अपना सब सामान उठा लिया और बाहर चले। ज्ञानशंकर संकोच के मारे पीछे हट गये कि किसी जान-पहचान के आदमी से भेंट न हो जाये!
दोनों आदमी ताँगे पर बैठे, तो प्रेमशंकर बोले– छह साल के बाद आया हूँ, पर ऐसा मालूम होता है कि यहाँ से गये थोड़े ही दिन हुए हैं। घर पर तो सब कुशल है न?
ज्ञान– जी हाँ, सब कुशल है। आपने तो इतने दिन हो गये, एक पत्र भी न भेजा, बिल्कुल भुला दिया। आपके ही वियोग में बाबूजी के प्राण गये।
प्रेम– वह शोक समाचार तो मुझे यहाँ के समाचार पत्र से मालूम हो गया था, पर कुछ ऐसे ही कारण थे कि आ न सका! ‘‘हिन्दुस्तान रिव्यू’’ में तुमने नैनीताल के जीवन पर जो लेख लिखा था, उसे पढ़कर मैंने आने का निश्चय किया। तुम्हारे उन्नत विचारों ने ही मुझे खींचा, नहीं तो सम्भव है, मैं अभी कुछ दिन और न आता। तुम पॉलिटिक्स (राजनीति) में भाग लेते हो न?
ज्ञान– (संकोच भाव से) अभी तक तो मुझे इसका अवसर नहीं मिला। हाँ, उसकी स्टडी (अध्ययन) करता रहता हूँ।
प्रेम– कौन-सा प्रोफेशन (पेशा) अख्तियार किया?
ज्ञान– अभी तो घर के ही झंझटों से छुट्टी नहीं मिली। जमींदारी के प्रबन्ध के लिए मेरा घर रहना जरूरी था। आप जानते हैं यह जंजाल है। एक न एक झगड़ा लगा ही रहता है। चाहे उससे लाभ कुछ न हो पर मन की प्रवृत्ति आलस्य की ओर हो जाती है! जीवन के कर्म-क्षेत्र में उतरने का साहस नहीं होता। यदि यह अवलम्बन न होता तो अब तक मैं अवश्य वकील होता।
प्रेम– तो तुम भी मिल्कियत के जाल में फँस गये और अपनी बुद्धि-शक्तियों का दुरुपयोग कर रहे हो? अभी जायदाद के अन्त होने में कितनी कसर है?
ज्ञान– चाचा साहब का बस चलता तो कभी का अन्त हो चुका होता, पर शायद अब जल्द अन्त न हो मैं चाचा साहब से अलग हो गया हूँ।
प्रेम– खेद के साथ? यह तुमने क्या किया। तब तो उनका गुजर बड़ी मुश्किल से होता होगा?
ज्ञान– कोई तकलीफ नहीं है। दयाशंकर पुलिस में है और जायदाद से दो हजार मिल जाते हैं।
प्रेम उन्हें अलग होने का दुःख तो बहुत हुआ होगा। वस्तुतः मेरे भागने का मुख्य कारण उन्हीं का प्रेम था। तुम तो उस वक्त शायद स्कूल में पढ़ते थे, मैं कॉलेज से ही स्वराज्य आन्दोलन में अग्रसर हो गया। उन दिनों नेतागण स्वराज्य के नाम से काँपते थे। इस आन्दोलन में प्रायः नवयुवक ही सम्मिलित थे। मैंने साल भर बड़े उत्साह के काम किया। पर पुलिस ने मुझे फँसाने का प्रयास शुरू किया। मुझे ज्यों ही मालूम हुआ कि मुझ पर अभियोग चलाने की तैयारियाँ हो रही हैं, त्यों ही मैंने जान लेकर भागने में ही कुशल समझी। मुझे फँसे देखकर बाबू जी तो चाहे धैर्य से काम लेते, चचा साहब निस्सन्देह आत्म-हत्या कर लेते। इसी भय से मैंने पत्र-व्यवहार बन्द कर दिया कि ऐसा न हो, पुलिस यहाँ लोगों को तंग करे। बिना देशाटन किए अपनी पराधीनता का यथेष्ट ज्ञान नहीं होता। जिन विचारों के लिए मैं यहाँ राजद्रोही समझा जाता था उससे कहीं स्पष्ट बातें अमेरिका वाले अपने शासकों को नित्य सुनाया करते हैं, बल्कि वहाँ शासन की समालोचना जितनी ही निर्भीक हो, उतनी ही आदरणीय समझी जाती है। इस बीच में यहाँ भी विचार-स्वातन्त्र्य की कुछ वृद्धि हुई है। तुम्हारा लेख इसका उत्तम प्रणाम है। इन्हीं सुव्यवस्थाओं ने मुझे आने पर प्रोत्साहित किया और सत्य तो यह है कि अमेरिका से दिनोंदिन अभक्ति होती जाती थी। वहाँ धन और प्रभुत्व की इतनी क्रूर लीलाएँ देखीं कि अन्त में उनसे घृणा हो गयी। यहाँ के देहातों और छोटे शहरों का जीवन उससे कहीं सुखकर है। मेरा विचार भी सरल जीवन व्यतीत करने का है। हाँ, यथासाध्य कृषि की उन्नति करना चाहता हूँ।
ज्ञान– यह रहस्य आज खुला। अभी तक मैं और घर से सभी लोग यही समझते थे कि आप केवल विद्योपार्जन के लिए गये हैं। मगर आज कल तो स्वराज्य आन्दोलन बहुत शिथिल पड़ गया। स्वराज्यवादियों की जबान ही बन्द कर दी गयी है।
प्रेम– यह तो कोई बुरी बात नहीं, अब लोग बातें करने की जगह काम करेंगे। हमें बातें करते एक युग बीत गया। मुझे भी शब्दों पर विश्वास नहीं रहा। हमें अब संगठन की, परस्पर-प्रेम व्यवहार की और सामाजिक अन्याय को मिटाने की जरूरत है। हमारी आर्थिक दशा भी खराब हो रही है। मेरा विचार कृषि विधान में संशोधन करने का है। इसलिए मैंने अमेरिका में कृषिशास्त्र का अध्ययन किया है।
यों बातें करते हुए दोनों भाई मकान पर पहुँचे। प्रेमशंकर को अपना घर बहुत छोटा दिखाई दिया। उनकी आँखें अमेरिका की गगनस्पर्शी अट्टालिकाओं को देखने की आदी हो रही थीं। उन्हें कभी अनुमान ही न हुआ था कि मेरा घर इतना पस्त है। कमरे में आये तो उसकी दशा देखकर और भी हताश हो गये। जमीन पर फर्श तक न था। दो-तीन कुर्सियों जरूर थीं, लेकिन बाबा आदम के जमाने की, जिन पर गर्द जमी हुई थी। दीवारों पर तस्वीरें नई थीं, लेकिन बिल्कुल भद्दी और अस्वाभाविक। यद्यपि वह सिद्धान्त रूप से विलास वस्तुओं की अवहेलना करते थे, पर अभी तक रुचि उनकी ओर से न हटी थी।
लाला प्रभाशंकर उनकी राह देख रहे थे। आकर उनके गले से लिपट गये और फूट-फूटकर रोने लगे। मुहल्ले के और सज्जन भी मिलने आ गये। दो-ढाई घण्टों तक प्रेमशंकर उन्हें अमेरिका को वृत्तान्त सुनाते रहे। कोई वहाँ से हटने का नाम न लेता था। किसी को यह ध्यान न होता था कि ये बेचारे सफर करके आ रहे हैं, इनके नहाने खाने का समय आ गया है, यह बातें फिर सुन लेगें। आखिर ज्ञानशंकर को साफ-साफ कहना पड़ा कि आप लोग कृपा करके भाई साहब को भोजन करने का समय दीजिए, बहुत देर हो रही है।
प्रेमशंकर ने स्नान किया, सन्ध्या की और ऊपर भोजन करने गये। उन्हें आशा थी कि श्रद्धा भोजन परसेगी, वहीं उससे भेंट होगी, खूब बातें करूँगा। लेकिन यह आशा पूरी न हुई। एक चौकी पर कालीन बिछा हुआ था थाल परसा रखा था, पर श्रद्धा वहाँ पर उनका स्वागत करने के लिए न थी। प्रेमशंकर को उसकी इस हृदय शून्यता पर बड़ा दुःख हुआ। श्रद्धा से प्रेम उनके लौटने का एक मुख्य कारण था। उसकी याद इन्हें हमेशा तड़पाया करती थी उसकी प्रेम-मूर्ति सदैव उनके हृदय नेत्रों के सामने रहती थी। उन्हें प्रेम के बाह्याडम्बर से घृणा थी। वह अब भी स्त्रियों की श्रद्धा, पति-भक्ति, लज्जाशीलता और प्रेमनुराग पर मोहित थे। उन्हें श्रद्धा को नीचे दीवानखाने में देखकर खेद होता, पर उसे यहाँ न देखकर उनका हृदय व्याकुल हो गया। यह लज्जा नहीं, हया नहीं, प्रेम शैथिल्य है। वह इतने मर्माहत हुए कि जी चाहा इसी क्षण यहाँ से चला जाऊँ और फिर आने का नाम न लूँ, पर धैर्य से काम लिया। भोजन पर बैठे। ज्ञानशंकर से बोले, आओ भाई बैठो। माया कहाँ है, उसे भी बुलाओ, एक मुद्दत के बाद आज सौभाग्य प्राप्त हुआ है।
ज्ञानशंकर ने सिर नीचा करके कहा– आप भोजन कीजिए, मैं फिर खा लूँगा।
प्रेम– ग्यारह तो बज रहे हैं, अब कितनी देर करोगे? आओ, बैठ जाओ। इतनी चीजें मैं अकेले कहाँ तक खाऊँगा? मुझे अब धैर्य नहीं है। बहुत दिनों के बाद चपातियों के दर्शन हुए हैं। हलुआ, समोसे, खीर आदि का तो स्वाद ही मुझे भूल गया। अकेले खाने में मुझे आनन्द नहीं आता। यह कैसा अतिथि सत्कार है कि मैं तो यहाँ भोजन करूँ और तुम कहीं और। अमेरिका में तो मेहमान इसे अपना घोर अपमान समझता।
ज्ञान– मुझे तो इस समय क्षमा ही कीजिए। मेरी पाचन-शक्ति दुर्बल है, बहुत पथ्य से रहता हूँ।
प्रेमशंकर भूल ही गये थे कि समुद्र में जाते ही हिन्दू-धर्म धुल जाता है। अमेरिका से चलते समय उन्हें ध्यान भी न था कि बिरादरी मेरा बहिष्कार करेगी, यहाँ तक कि मेरा सहोदर भाई मुझे अछूत समझेगा। पर इस समय उनके बराबर आग्रह करने पर भी ज्ञानशंकर उनके साथ भोजन करने नहीं बैठे और एक-न-एक बहाना करके टालते रहे तो उन्हें भूली हुई बात याद आ गयी। सामने के बर्तनों ने इस विचार को पुष्ट कर दिया, फूल या पीतल का कोई बर्तन न था। सब बर्तन चीनी के थे और गिलास शीशे का। शंकित भाव से बोले, आखिर यह बात क्या है कि तुम्हें मेरे साथ बैठने में इतनी आपत्ति है? कुछ छूत-छात का विचार तो नहीं है?
ज्ञानशंकर ने झेंपते हुए कहा– अब मैं आपसे क्या कहूँ? हिन्दुओं को तो आप जानते ही हैं, कितने मिथ्यावादी होते हैं। आपके लौटने का समाचार जब से मिला है, सारी बिरादरी में एक तूफान-सा उठा हुआ है। मुझे स्वयं विदेशी यात्रा में कोई आपत्ति नहीं है। मैं देश और जाति की उन्नति के लिए इसे जरूरी समझता हूँ और स्वीकार करता हूँ कि इस नाकेबन्दी से हमको बड़ी हानि हुई है, पर मुझे इतना साहस नहीं है कि बिरादरी से विरोध कर सकूँ।
प्रेम– अच्छा यह बात है! आश्चर्य है कि अब तक क्यों मेरी आँखों पर परदा पड़ा रहा! अब मैं ज्यादा आग्रह नहीं करूंगा। भोजन करता हूँ, पर खेद यह है कि तुम इतने विचारशील होकर बिरादरी के गुलाम बने हुए हो; विशेषकर जब तुम मानते हो कि इस विषय में बिरादरी का बन्धन सर्वथा असंगत है। शिक्षा का फल यह होना चाहिए कि तुम बिरादरी के सूत्रधार बनो, उसको सुधारने का प्रयास करो, न यह कि उसके दबाव से अपने सिद्धान्तों को बलिदान कर दो। यदि तुम स्वाधीन भाव से समुद्र यात्रा को दूषित समझते तो मुझे कोई आपत्ति न होती। तुम्हारे विचार और व्यवहार अनुकूल होते। लेकिन अन्तःकरण से किसी बात से कायल होकर केवल निन्दा या उपहास के भय से उसको व्यवहार न करना तुम जैसे उदार पुरुष को शोभा नहीं देता। अगर तुम्हारे धर्म में किसी मुसाफिर की बातों पर विश्वास करना मना न हो तो मैं तुम्हें यकीन दिलाता हूँ कि अमेरिका में मैंने कोई ऐसा कर्म नहीं किया जिसे हिन्दू-धर्म निषिद्ध ठहराता हो। मैंने दर्शन शास्त्रों पर कितने ही व्याख्यान दिए, अपने रस्म-रिवाज और और वर्णाश्रम धर्म का समर्थन करने में सदैव तत्पर रहा, यहाँ तक कि पर्दे की रस्म की भी सराहना करता रहा; और मेरा मन इसे कभी नहीं मान सकता कि यहाँ किसी को मुझे विधर्मी समझने का अधिकार है। मैं अपने धर्म और मत का वैसा ही भक्त हूँ, जैसा पहले था– बल्कि उससे ज्यादा। इससे अधिक मैं अपनी सफाई नहीं दे सकता।
ज्ञान– इस सफाई की तो कोई जरूरत ही नहीं क्योंकि यहाँ लोगों को विदेशी-यात्रा पर अश्रद्धा है, वह किसी तर्क या सिद्धान्त के अधीन नहीं हैं। लेकिन इतना तो आपको भी मानना पड़ेगा कि हिन्दू-धर्म कुछ रीतियों और प्रथाओं पर अवलम्बित है और विदेश में आप उनका पालन समुचित रीति से नहीं कर सकते। आप वेदों से इनकार कर सकते हैं, ईसा मूसा के अनुयायी बन सकते हैं, किन्तु इन रीतियों को नहीं त्याग सकते। इसमें संदेह नहीं कि दिनों-दिन यह बन्धन ढीले होते जाते हैं और इसी देश में ऐसे कितने ही सज्जन हैं जो प्रत्येक व्यवहार का भी उलंघन करके हिन्दू बने हुए हैं किन्तु बहुमत उनकी उपेक्षा करता है और उनको निन्द्य समझता है। इसे आप मेरी आत्मभीरुता या अकर्मण्यता समझें, किन्तु मैं बहुमत के साथ चलना अपना कर्त्तव्य समझता हूँ। मैं बलप्रयुक्त सुधार का कायल नहीं हूँ मेरा विचार है कि हम बिरादरी में रहकर उससे कहीं अधिक सुधार कर सकते हैं जितना स्वाधीन होकर।
प्रेमशंकर ने इसका कुछ जवाब न दिया। भोजन करके लेटे तो अपनी परिस्थिति पर विचार करने लगे। मैंने समझा था यहाँ शान्तिपूर्वक अपना काम करूँगा, कम-से-कम अपने घर में कोई मुझसे विरोध न करेगा, किन्तु देखता हूँ, यहाँ कुछ दिन घोर अशान्ति का सामना करना पड़ेगा। ज्ञानशंकर के उदारतापूर्ण लेख ने मुझे भ्रम में डाल दिया। खैर कोई चिन्ता नहीं, बिरादरी मेरा कर ही क्या सकती है? उसमें रहकर मुझमें कौन-से सुर्खाब के पर लग जायेंगे। अगर कोई मेरे साथ नहीं खाता तो न खाय, मैं भी उसके साथ न खाऊँगा। कोई मुझसे सहवास नहीं करता, न करे, मैं भी उससे किनारे रहूँगा। वाह! परदेश क्या गया, मानो कोई पाप किया; पर पापियों को तो कोई बिरादरी से च्युत नहीं करता। धर्म बेचने वाले, ईमान बेचनेवाले, सन्तान बेचने वाले बँगले में रहते हैं, कोई उनकी ओर कड़ी आँख से देख नहीं सकता। ऐसे पतितों, ऐसे भ्रष्टाचारियों में रहने के लिए मैं अपनी आत्मा का सर्वनाथ क्यों करूँ?
अकस्मात् उन्हें ध्यान आया, कहीं श्रद्धा भी मेरा बहिष्कार न कर रही हो! इन अनुदान भावों का उस पर भी असर न पड़ा हो! फिर तो मेरा जीवन ही नष्ट हो जायेगा। इस शंका ने उन्हें घोर चिन्ता में डाल दिया और तीसरे पहर तक उनकी व्यग्रता इनती बढ़ी कि वह स्थिर न रहे सके। माया से श्रद्धा का कमरा पूछकर ऊपर चढ़ गये।
श्रद्धा इस समय अपने द्वार पर इस भाँति खड़ी थी, जैसे कोई पथिक रास्ता भूल गया हो। उसका हृदय आनन्द से नहीं, एक अव्यक्त भय से काँप रहा था। यह शुभ दिन देखने के लिए कितनी तपस्या की थी! यह आकांक्षा उसके अन्धकारमय जीवन का दीपक, उसकी डूबती हुई नौका की लंगर थी। महीने के तीस दिन और दिन के चौबीस घण्टे यही मनोहर स्वप्न देखने में कटते थे। विडम्बना यह थी कि वे आकांक्षाएँ और कामनाएँ पूरी होने के लिए नहीं, केवल तड़पाने के लिए थीं। वह दाह और सन्तोष शान्ति का इच्छुक न था। श्रद्धा के लिए प्रेमशंकर केवल एक कल्पना थे। इसी कल्पना पर वह प्राणार्पण करती थी उसकी भक्ति केवल उनकी स्मृति पर थी, जो अत्यन्त मनोरम, भावमय और अनुरागपूर्ण थी। उनकी उपस्थिति ने इस सुखद कल्पना और मधुर स्मृति का अन्त कर दिया। वह जो उनकी याद पर जान देती थी, अब उनकी सत्ता से भयभीत थी, क्योंकि वह कल्पना धर्म और सतीत्व की पोषक थी, और यह सत्ता उनकी घातक। श्रद्धा को सामाजिक अवस्था और समयोजित आवश्यकताओं का ज्ञान था। परम्परागत बन्धनों को तोड़ने के लिए जिस विचारस्वातन्त्र्य और दिव्य ज्ञान की जरूरत थी उससे वह रहित थी। वह एक साधारण हिन्दू अबला थी। वह अपने प्राणों से अपने प्राणप्रिय स्वामी के हाथ धो सकती थी, किन्तु अपने धर्म की अवज्ञा करना अथवा लोक-निन्दा को सहन करना उसके लिए असम्भव न था। जब उसने सुना था कि प्रेमशंकर घर आ रहे हैं, उसकी दशा उस अपराधी की-सी हो रही थी, जिसके सिर पर नंगी तलवार लटक रही हो। आज जब से वह नीचे आकर बैठे थे उसके आँसू एक क्षण के लिए भी न थमते थे। उसका हृदय काँप रहा था कि कहीं वह ऊपर न आते हों, कहीं वह आकर मेरे सम्मुख खड़े न हो जायँ, मेरे अंग को स्पर्श न कर लें! मर जाना इससे कहीं आसान था। मैं उनके सामने कैसे खड़ी हूँगी, मेरी आँखें क्योंकर उनसे मिलेंगी, उनकी बातों का क्योंकर जवाब दूँगी? वह इन्हीं जटिल चिन्ताओं में मग्न खड़ी थी इतने में प्रेमशंकर उसके सामने आकर खड़े हो गये। श्रद्धा पर अगर बिजली गिर पड़ती, भूमि उसके पैरों के नीचे से सरक जाती अथवा कोई सिंह आकर खड़ा हो जाता तो भी वह इतनी असावधान होकर अपने कमरे में भाग न जाती। वह तो भीतर जाकर एक कोने में खड़ी हो गई। भय से उसका एक-एक रोम काँप रहा था। प्रेमशंकर सन्नाटे में आ गये। कदाचित् आकाश सामने से लुप्त हो जाता तो भी उन्हें इतना विस्मय न होता। वह क्षण भर मूर्तिवत् खड़े रहे और एक ठण्डी सांस लेकर नीचे की ओर चले। श्रद्धा के कमरे में जाने, उससे कुछ पूछने या कहने का साहस उन्हें न हुआ इस दुरानुराग ने उनका उत्साह भंग कर दिया, उन काव्यमय स्वप्नों का नाश कर जो बरसों से उनकी चैतन्यावस्था के सहयोगी बने हुए थे। श्रद्धा ने किवाड़ की आड़ से उन्हें जीने की ओर जाते देखा। हा! इस समय उसके हृदय पर क्या बीत रही थी, कौन जान सकता है? उसका प्रिय पति जिसके वियोग में उसने सात वर्ष रो-रो कर काटे थे सामने से भग्न हृदय, हताश चला जा रहा था और वह इस भाँति सशंक खड़ी थी मानो आगे कोई जलागार है। धर्म पैरों को पढ़ने न देता था। प्रेम उन्मत्त तरंगों की भाँति बार-बार उमड़ता था, पर धर्म की शिलाओं से टकराकर लौट आता था। एक बार वह अधीर होकर चली कि प्रेमशंकर का हाथ पकड़कर फेर लाऊँ द्वार तक आई, पर आगे न बढ़ सकी। धर्म ने ललकारकर कहा, प्रेम नश्वर है, निस्सार है, कौन किसका पति और कौन किसकी पत्नी? यह सब माया जाल है। मैं अविनाशी हूँ, मेरी रक्षा करो। श्रद्घा स्तम्भित हो गयी। मन में स्थिर किया जो स्वामी सात समुन्दर पार गया, वहाँ न जाने क्या खाया, क्या पीया, न जाने किसके साथ रहा, अब उससे मेरा क्या नाता? किन्तु प्रेमंशकर जीने से नीचे उतर गये तब श्रद्धा मूर्छित होकर गिर पड़ी। उठती हुई लहरें टीले को न तोड़ सकीं, पर तटों की जल मग्न कर गयीं।
 

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रचनाएँ
प्रेमाश्रम
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प्रेमचंद आधुनिक हिन्दी कहानी के पितामह और उपन्यास सम्राट माने जाते हैं। यू तो उनके साहित्यिक जीवन का आरंभ १९०१ से हो चुका था पर बीस वर्षों की इस अवधि में उनकी कहानियों के अनेक रंग देखने को मिलते हैं। इस उपन्यास में प्रेमचंद व्यापक स्तर पर किसान के उत्पीड़न का चित्र अंकित करते हैं। अनगिनत शोषण और ज्ञानशंकर आततायी किसान को चूसकर सूखा देने के लिए जुट गए हैं। ज्ञानशंकर मानो अन्याय का मूर्तिमान रूप है, किन्तु प्रेमशंकर अपनी गहरी मानवीयता और सदगुणों के कारण असत्य और अधर्म पर पूरी तरह विजयी होते हैं। 'प्रेमाश्रम' भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है। गांधीजी के सत्याग्रह आन्दोलन की इस कथा पर विशिष्ट छाप है। इस उपन्यास में प्रेमचंद व्यापक स्तर पर किसान के उत्पीड़न का चित्र अंकित करते हैं।
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प्रेमाश्रम 1

10 फरवरी 2022
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सन्ध्या हो गई है। दिन भर के थके-माँदे बैल खेत से आ गये हैं। घरों से धुएँ के काले बादल उठने लगे। लखनपुर में आज परगने के हाकिम की परताल थी। गाँव के नेतागण दिनभर उनके घोड़े के पीछे-पीछे दौड़ते रहे थे। इस

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लखनपुर के जमींदारों का मकान काशी में औरंगाबाद के निकट था। मकान के दो खण्ड आमने-सामने बने हुए थे। एक जनाना मकान था, दूसरी मरदानी बैठक। दोनों खण्डों के बीच की जमीन बेल-बूटे से सजी हुई थी, दोनों ओर ऊँची

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मनोहर अक्खड़पन की बातें तो कर बैठा; किन्तु जब क्रोध शान्त हुआ तो मालूम हुआ कि मुझसे बड़ी भूल हुई। गाँव वाले सब-के-सब मेरे दुश्मन हैं। वह इस समय चौपाल में बैठे मेरी निन्दा कर रहे होंगे। कारिंदा न जाने

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तीसरा पहर था। ज्ञानशंकर दीवानखाने में बैठे हुए एक किताब पढ़ रहे थे कि कहार ने आकर कहा, बाबू साहब पूछते हैं, कै बजे हैं? ज्ञानशंकर ने चिढ़कर कहा, जा कह दे, आपको नीचे बुलाते हैं? क्‍या सारे दिन सोते रहे

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एक महीना बीत गया, गौस खाँ ने असामियों की सूची न तैयार की और न ज्ञानशंकर ने ही फिर ताकीद की । गौस खाँ के स्वहित और स्वामिहित में विरोध हो रहा था और ज्ञानशंकर सोच रहे थे कि जब इजाफे से सारे परिवार का ला

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प्रेमाश्रम (भाग-2)

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7. जब तक इलाके का प्रबन्धन लाला प्रभाशंकर के हाथों में था, वह गौस खाँ को अत्याचार से रोकते रहते थे। अब ज्ञानशंकर मालिक और मुख्तार थे। उनकी स्वार्थप्रियता ने खाँ साहब को अपनी अभिलाषाएँ पूर्ण करने का अ

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जिस भाँति सूर्यास्त के पीछे विशेष प्रकार के जीवधारी; जो न पशु हैं न पक्षी, जीविका की खोज में निकल पड़ते हैं, अपनी लंबी श्रेणियों से आकाश मंडल को आच्छादित कर लेते हैं, उसी भाँति कार्तिक का आरम्भ होते ह

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अपनी पारिवारिक सदिच्छा का ऐसा उत्तम प्रमाण देने के बाद ज्ञानशंकर को बँटवारे के विषय में अब कोई असुविधा न रही, लाला प्रभाशंकर ने उन्हीं की इच्छानुसार करने का निश्चय कर लिया। दीवानखाना उनके लिए खाली कर

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 राय कमलानन्द बहादूर लखनऊ के एक बड़े रईस और तालुकेदार थे। वार्षिक आय एक लाख के लगभग थी। अमीनाबाद में उनका विशाल भवन था। शहर में उनकी और भी कई कोठियाँ थीं, पर वह अधिकांश नैनीताल या मसूरी में रहा करते थ

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आँधी का पहला वेग जब शान्त हो जाता है, तब वायु के प्रचण्ड झोंके, बिजली की चमक और कड़क बन्द हो जाती है और मूसलाधार वर्षा होने लगती है। गायत्री के चित्त की शान्ति भी द्रवीभूत हो गई थी। हृदय में रुधिर की

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गायत्री के जाने के बाद ज्ञानशंकर को भी वहाँ रहना दूभर हो गया। सौभाग्य उन्हें हवा के घोड़े पर बैठाये ऋद्धि और सिद्धि के स्वर्ग में लिए जाता था, किन्तु एक ही ठोकर में वह चमकते हुए नक्षत्र अदृश्य हो गये;

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यद्यपि गाँव वालों ने गौस खाँ पर जरा भी आँच न आने दी थी, लेकिन ज्वालासिंह का उनके बर्ताव के विषय में पूछ-ताछ करना उनके शान्ति-हरण के लिए काफी था। चपरासी, नाजिर मुंशी सभी चकित हो रहे थे कि इस अक्खड़ लौं

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राय साहब को नैनीताल आये हुए एक महीना हो गया। ‘‘एक सुरम्य झील के किनारे हरे-भरे वृक्षों के कुन्ज में उनका बँगला स्थित है, जिसका एक हजार रुपया मासिक किराया देना पड़ता है। कई घोड़े हैं, कई मोटर गाड़ियाँ,

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प्रातः काल था। ज्ञानशंकर स्टेशन पर गाड़ी का इन्तजार कर रहे थे। अभी गाड़ी के आने में आध घण्टे की देर थी। एक अँग्रेजी पत्र लेकर पढ़ना चाहा पर उसमें जी न लगा। दवाओं के विज्ञापन अधिक मनोरंजक थे। दस मिनट म

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प्रेमाश्रम (भाग-3)

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16. प्रेमशंकर यहाँ दो सप्ताह ऐसे रहे, जैसे कोई जल्द छूटने वाला कैदी। जरा भी जी न लगता था। श्रद्धा की धार्मिकता से उन्हें जो आघात पहुँचा था उसकी पीड़ा एक क्षण के लिए भी शान्त न होती थी। बार-बार इरादा

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गायत्री उन महिलाओं में थी जिनके चरित्र में रमणीयता और लालित्य के साथ पुरुषों का साहस और धैर्य भी मिला होता है। यदि वह कंघी और आईने पर जान देती थी तो कच्ची सड़कों के गर्द और धूल से भी न भागती थी। प्यान

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ज्ञानशंकर को गायत्री का पत्र मिला तो फूले न समाये। हृदय में भाँति-भाँति की मनोहर सुखद कल्पनाएँ तरंगे मारने लगीं। सौभाग्य देवी जीवन-संकल्प की भेंट लिये उनका स्वागत करने को तैयार खड़ी थी। उनका मधुर स्वप

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ज्ञानशंकर लगभग दो बरस से लखनपुर पर इजाफा लगान करने का इरादा कर रहे थे, किन्तु हमेशा उनके सामने एक-न-एक बाधा आ खड़ी होती थी। कुछ दिन तो अपने चचा से अलग होने में लगे। जब उधर से बेफिक्र हुए तो लखनऊ जाना

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प्रभात का समय था। चैत का सुखद पवन प्रवाहित हो रहा था। बाबू ज्वालासिंह बरामदे में आरामकुर्सी पर लेटे हुए घोड़े का इन्तजार कर रहे थे। उन्हें आज मौका देखने के लिए लखनपुर जाना था, किन्तु मार्ग में एक बड़ी

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एक पखवारा बीत गया। सन्ध्या समय था। शहर में बर्फ की दूकानों पर जमघट होने लगा था। हुक्के और सिगरेट से लोगों को अरुचि होती जाती थी। ज्वालासिंह लखनपुर से मौके की जाँच करके लौटे थे और कुर्सी पर बैठे ठंडा श

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ज्ञानशंकर को अपील के सफल होने का पूरा विश्वास था। उन्हें मालूम था कि किसानों में धनाभाव के कारण अब बिल्कुल दम नहीं है। लेकिन जब उन्होंने देखा, काश्तकारों की ओर से भी मुकदमें की पैरवी उत्तम रीति से की

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अपील खारिज होने के बाद ज्ञानशंकर ने गोरखपुर की तैयारी की। सोचा, इस तरह तो लखनपुर से आजीवन गला न छूटेगा, एक-न-एक उपद्रव मचा ही रहेगा। कहीं गोरखपुर में रंग जम गया तो दो-तीन बरसों में ऐसे कई लखनपुर हाथ आ

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आय में वृद्धि और व्यय में कमी, यह ज्ञानशंकर के सुप्रबन्ध का फल था। यद्यपि गायत्री भी सदैव किफायत कर निगाह रखती थी, पर उनकी किफायत अशर्फियों की लूट और कोयलों पर मोहर को चरितार्थ करती थी। ज्ञानशंकर ने स

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जिस समय ज्ञानशंकर की अपील खारिज हुई, लखनपुर के लोगों पर विपत्ति की घटा छायी हुई थी। कितने ही घर प्लेग से उजड़ गये। कई घरों में आग लग गयी। कई चोरियाँ हुईं। उन पर दैविक घटना अलग हुई, कभी आँधी आती कभी पा

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पहला अंक

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राजा– हाय! हाय! बैद्यों ने जबाव दिया, हकीमों ने जवाब दिया, डाकदरों ने जवाब दिया, किसी ने रोग को न पहचाना। सब-के-सब लुटेरे थे। अब जिन्दगानी की कोई आशा नहीं। यह सारा राज-पाट छूटता है। मेरे पीछे परजा पर

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दूसरा अंक

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(राजा एक साधारण नागिरक के रूप में आप-ही-आप) समय कम है, ऐसे तीन सज्जनों के पास चलना चाहिए जो मेरे भक्त थे। पहले सेठ के पास चलूँ। वह परोपकार के प्रत्येक काम में मेरी सहायता करता था। मैंने उसकी कितनी बा

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प्रेमाश्रम (भाग-4)

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26. प्रभात का समय था और कुआर का महीना। वर्षा समाप्त हो चुकी थी। देहातों में जिधर निकल जाइए, सड़े हुए सन की सुगन्ध उड़ती थी। कभी ज्येष्ठ को लज्जित करने वाली धूप होती थी, कभी सावन को सरमाने वाले बादल घ

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प्रेमशंकर की कृषिशाला अब नगर के रमणीय स्थानों की गणना में थी। यहाँ ऐसी सफाई और सजावट थी। कि प्रातः रसिकगण सैर करने आया करते। यद्यपि प्रेमशंकर केवल उसके प्रबन्धकर्ता थे, पर वस्तुतः असामियों की भक्ति और

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श्रद्घा की बातों से पहले तो ज्ञानशंकर को शंका हुई, लेकिन विचार करने पर यह शंका निवृत्त हो गयी, क्योंकि इस मामले में प्रेमशंकर का अभियुक्त हो जाना अवश्यम्भावी था। ऐसी अवस्था में श्रद्धा के निर्बल क्रोध

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इस मुकदमें ने सारे शहर मे हलचल मचा दी। जहाँ देखिए, यह चर्चा थी सभी लोग प्रेमशंकर के आत्म-बलिदान की प्रंशसा सौ-सौ मुँह से कर रहे थे। यद्यपि प्रेमशंकर ने स्पष्ट कह दिया था कि मेरे लिए किसी वकील की जरूर

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रात के १० बजे थे। ज्वालासिंह तो भोजन करके प्रभाशंकर के दीवानखाने में ही लेटे, लेकिन प्रेमशंकर को मच्छरों ने इतना तंग किया कि नींद न आयी। कुछ देर तक तो वह पंखा झलते रहे, अन्त को जब भीतर न रहा गया तो व्

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डाक्टर इर्फान अली की बातों से प्रभाशंकर को बड़ी तसकीन हुई। मेहनताने के सम्बन्ध में उनसे कुछ रिआयत चाहते थे, लेकिन संकोचवश कुछ न कह सकते थे। इतने में हमारे पूर्व-परिचित सैयद ईजाद हुसैन ने कमरे में प्रव

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जब मुकदमा सेशन सुपुर्द हो गया और ज्ञानशंकर को विश्वास हो गया कि अब अभियुक्तों का बचना कठिन है तब उन्होंने गौस खाँ की जगह पर फैजुल्लाह को नियुक्त किया और खुद गोरखपुर चले आए। यहाँ से गायत्री की कई चिट्ठ

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सेशन जज के इजलास में एक महीने से मुकदमा चल रहा है। अभियुक्त ने फिर सफाई दी। आज मनोहर का बयान था। इजलास में एक मेला सा लगा हुआ था। मनोहर ने बड़ी निर्भीक दृढ़ता के साथ सारी घटना आदि से अन्त तक बयान की औ

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फैजुल्लाह खाँ का गौस खाँ के पद पर नियुक्त होना गाँव के दुखियारों के घाव पर नमक छिड़कना था। पहले ही दिन से खींच-तान होने लगी और फैजू ने विरोधाग्नि को शान्त करने की जरूरत न समझी। अब वह मुसल्लम गाँव के स

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प्रातःकाल ज्योंही मनोहर की आत्महत्या का समाचार विदित हुआ, जेल में हाहाकार मच गया। जेल के दारोगा, अमले, सिपाही, पहरेदार-सब के हाथों के तोते उड़ गये। जरा देर में पुलिस को खबर मिली, तुरन्त छोटे-बड़े अधिक

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डा० इर्फान अली बैठे सोच रहे थे कि मनोहर की आत्महत्या का शेष अभियुक्तों पर क्या असर पड़ेगा? कानूनी ग्रन्थों का ढेर सामने रखा हुआ था। बीच में विचार करने लगते थे; मैंने यह मुकदमा नाहक लिया। रोज १०० रुपये

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सैयद ईजाद हुसेन का घर दारानगर की एक गली में था। बरामदे में दस-बारह वस्त्रविहीन बालक एक फटे हुए बोरिये पर बैठे करीमा और खालिकबारी की रट लगया करते थे। कभी-कभी जब वे उमंग में आ कर उच्च स्वर से अपने पाठ य

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महाशय ज्ञानशंकर का धर्मानुराग इतना बढ़ा कि सांसारिक बातों से उन्हें अरुचि सी होने लगी, दुनिया से जी उचाट हो गया। वह अब भी रियासत का प्रबन्ध उतने ही परिश्रम और उत्साह से करते थे, लेकिन अब सख्ती की जगह

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जलसा बड़ी सुन्दरता से समाप्त हुआ रानी गायत्री के व्याख्यान पर समस्त देश में वाह-वाह मच गयी। उसमें सनातन-धर्म संस्था का ऐतिहासिक दिग्दर्शन कराने के बाद उसकी उन्नति और पतन, उसके उद्धार और सुधार उसकी विर

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प्रेमाश्रम (भाग-5)

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41. राय कमलानन्द को देखे हुए हमें लगभग सात वर्ष हो गये, पर इस कालक्षेप का उनपर कोई चिन्ह नहीं दिखाई देता। बाल-पौरुष, रंग-ढंग सब कुछ वही है। यथापूर्व उनका समय सैर और शिकार पोलो और टेनिस, राग और रंग मे

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दो दिन हो गये और ज्ञानशंकर ने राय साहब से मुलाकात न की। रायसाहब उन निर्दय पुरुषों में न थे जो घाव लगाकर उस पर नमक छिड़कते हैं। वह जब किसी पर नाराज होते तो यह मानी हुई बात थी कि उसका नक्षत्र बलवान है,

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सन्ध्या का समय था। बनारस के सेशन जज के इजलास में हजारों आदमी जमा थे। लखनपुर के मामले से जनता को अब एक विशेष अनुराग हो गया था। मनोहर की आत्महत्या ने उसकी चर्चा सारे शहर में फैला दी थी। प्रत्येक पेशी के

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डाक्टर इर्फान अली उस घटना के बाद हवा खाने न जा सके, सीधे घर की ओर चले। रास्ते भर उन्हें संशय हो रहा था कि कहीं उन उपद्रवियों से फिर मुठभेड़ न हो जाये नहीं तो अबकी जान के लाले पड़े जायेंगे। आज बड़ी खैर

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कई महीने बीत चुके, लेकिन प्रेमशंकर अपील दायर करने का निश्चय न कर सके। जिस काम में उन्हें किसी दूसरे से मदद मिलने की आशा न होती थी, उसे वह बड़ी तत्परता के साथ करते थे, लेकिन जब कोई उन्हें सहारा देने के

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ज्ञानशंकर लखनऊ से सीधे बनारस पहुँचे, किन्तु मन उदार और खिन्न रहते। न हवा खाने जाते, न किसी से मिलते-जुलते। उनकी दशा इस समय उस पक्षी की-सी थी जिसके दोनों पंख कट गये हों, या उस स्त्री की-सी जो किसी दैवी

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ज्ञानशंकर को बनारस आये दो सप्ताह से अधिक बीत चुके थे। संगीत-परिषद् समाप्त हो चुकी थी और अभी सामयिक पत्रों में उस पर वाद-विवाद हो रहा था। यद्यपि अस्वस्थ होने के कारण राय साहब उसमें उत्साह के साथ भाग न

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गायत्री बनारस पहुँच कर ऐसी प्रसन्न हुई जैसे कोई बालू पर तड़पती हुई मछली पानी में जा पहुँचे। ज्ञानशंकर पर राय साहब की धमकियों का ऐसा भय छाया हुआ था कि गायत्री के आने पर वह और भी सशंक हो गये। लेकिन गायत

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रात के आठ बजे थे। ज्ञानशंकर के दीवानखाने में शहर के कई प्रतिष्ठित सज्जन जमा थे। बीच में एक लोहे का हवनकुण्ड रखा हुआ था, उसमें हवन हो रहा था। हवनकुण्ड के एक तरफ गायत्री बैठी थी, दूसरी तरफ ज्ञानशंकर और

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प्रेमाश्रम (भाग-6)

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50. श्रद्धा और गायत्री में दिनों-दिन मेल-जोल बढ़ने लगा। गायत्री को अब ज्ञात हुआ कि श्रद्धा में कितना त्याग, विनय, दया और सतीत्व है। मेल-जोल से उनमें आत्मीयता का विकास हुआ, एक-दूसरी से अपने हृदय की ब

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बाबू ज्ञानशंकर गोरखपुर आये, लेकिन इस तरह जैसे लड़की ससुराल आती है। वह प्रायः शोक और चिन्ता में पड़े रहते। उन्हें गायत्री से सच्चा प्रेम न सही, लेकिन वह प्रेम अवश्य था जो शराबियों को शराब से होता है। उ

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बाबू ज्वालासिंह को बनारस से आये आज दूसरा दिन था। कल तो वह थकावट के मारे दिन भर पड़े रहे, पर प्रातःकाल ही उन्होंने लखनपुरवालों की अपील का प्रश्न छेड़ दिया। प्रेमशंकर ने कहा– मैं तो आप ही की बाट जोह रहा

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ज्यों ही दशहरे की छुट्टियों के बाद हाईकोर्ट खुला, अपील दायर हो गयी और समाचार पत्रों के कालम उसकी कार्यवाही से भरे जाने लगे। समस्या बड़ी जटिल थी। दंड प्राप्तों में उन साक्षियों को फिर पेश किये जाने की

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गायत्री की दशा इस समय उस पथिक की सी थी जो साधु भेषधारी डाकुओं के कौशल जाल में पड़ कर लुट गया हो। वह उस पथिक की भाँति पछताती थी कि मैं कुसमय चली क्यों? मैंने चलती सड़क क्यों छोड़ दी? मैंने भेष बदले हुए

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‘‘लाला प्रभाशंकर ने भविष्य-चिन्ता का पाठ न पढ़ा था। ‘कल’ की चिन्ता उन्हें कभी न सताती थी। उनका समस्त जीवन विलास और कुल मर्यादा की रक्षा में व्यतीत हुआ था। खिलाना, खाना और नाम के लिए मर जाना– यही उनके

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बाल्यावस्था के पश्चात् ऐसा समय आता है जब उद्दण्डता की धुन सिर पर सवार हो जाती है। इसमें युवाकाल की सुनिश्चित इच्छा नहीं होती, उसकी जगह एक विशाल आशावादिता है जो दुर्लभ को सरल और असाध्य को मुँह का कौर स

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इस शोकाघात ने लाला प्रभाशंकर को संज्ञा-विहीन कर दिया। दो सप्ताह बीत चुके थे, पर अभी तक घर से बाहर न निकले थे। दिन-के-दिन चारपाई पर पड़े छत की ओर देखा करते, रातें करवटें बदलने में कट जातीं। उन्हें अपना

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होली का दिन था। शहर में चारों तरफ अबीर और गुलाल उड़ रही थी, फाग और चौताल की धूम थी, लेकिन लाला प्रभाशंकर के घर पर मातम छाया हुआ था। श्रद्धा अपने कमरे में बैठी हुई गायत्री देवी के गहने और कपड़े सहेज रह

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मानव-चरित्र न बिलकुल श्यामल होता है न बिलकुल श्वेत। उसमें दोनों ही रंगों का विचित्र सम्मिश्रण होता है। स्थिति अनुकूल हुई तो वह ऋषितुल्य हो जाता है, प्रतिकूल हुई तो नराधम। वह अपनी परिस्थितियों का खिलौन

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गायत्री के आदेशानुसार ज्ञानशंकर २००० रुपये महीना मायाशंकर के खर्च के लिए देते जाते थे। प्रेमशंकर की इच्छा थी कि कई अध्यापक रखे जायें, सैर करने के लिए गाड़ियाँ रखी जायँ, कई नौकर सेवा-टहल के लिए लगाये ज

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लाला प्रभाशंकर को रुपये मिले तो वह रोये। गाँव तो बच गया, पर उसे कौन बिलसेगा? दयाशंकर का चित्त फिर घर से उचाट हो चला था। साधु-सन्तों के सत्संग के प्रेमी हो गये थे। दिन-दिन वैराग्य में रह होते जाते थे।

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महाशय ज्ञानशंकर का भवन आज किसी कवि-कल्पना की भाँति अलंकृत हो रहा है। आज वह दिन आ गया है जिसके इन्तजार में एक युग बीत गया। प्रभुत्व और ऐश्वर्य का मनोहर स्वप्न पूरा हो गया है। मायाशंकर के तिलकोत्सव का श

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उपसंहार

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दो साल हो गये हैं। सन्ध्या का समय है। बाबू मायाशंकर घोड़े पर सवार लखनपुर में दाखिल हुए। उन्हें वहाँ रौनक और सफाई दिखायी दी। प्रायः सभी द्वारों पर सायबान थे। उनमें बड़े-बड़े तख्ते बिछे हुए थे। अधिकांश

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