प्रभात का समय था। चैत का सुखद पवन प्रवाहित हो रहा था। बाबू ज्वालासिंह बरामदे में आरामकुर्सी पर लेटे हुए घोड़े का इन्तजार कर रहे थे। उन्हें आज मौका देखने के लिए लखनपुर जाना था, किन्तु मार्ग में एक बड़ी बाधा खड़ी हो रही थी। कल सन्ध्या समय शीलमणि ने उनसे ज्ञानशंकर के मुकदमें की बात कही की और तभी से वह बड़े असमंजस में पड़े हुए थे। सामने एक जटिल समस्या थी, न्याय या प्रणय, कर्त्तव्य या स्त्री की मान रक्षा। वह सोचते थे, मुझसे बड़ी भूल हुई कि इस मुकदमें को अपने इजलास में रखा। लेकिन मैं यह क्या जानता था कि ज्ञानशंकर यह कूटनीति ग्रहण करेंगे। बड़ा स्वार्थी मनुष्य है। इसी अभिप्राय से उसने स्त्रियों से मेल-जोल बढ़ाया।
शीलमणि यह चालें क्या जाने, शील में पड़कर वचन दे आयी। अब यदि उसकी बात नहीं रखता तो वह रो-रो कर जान ही दे देगी। उसे क्या मालूम कि इस अन्याय से मेरी आत्मा को कितना दुःख होगा। अभी तक जितनी गवाहियाँ सामने आयी हैं उनसे तो यही सिद्ध होता है कि ज्ञानशंकर ने असामियों को दबाने के लिए यह मुकदमा दायर किया है और कदाचित बात भी यही है। यह बड़ा ही बना हुआ आदमी है। लेख तो ऐसा लिखता है कि मानो दीन-रक्षा के भावों में पगा हुआ है, किन्तु पक्का मतलबी है। गायत्री की रियासत का मैनेजर हो जायगा तो अन्धेर मचा देगा। नहीं, मुझसे यह अन्याय न हो सकेगा, देखकर मक्खी नहीं निगली जायेगी। शीलमणि रूठेगी तो रूठे। उसे स्वयं समझाना चाहिए था कि मुझे ऐसा वचन देने का कोई अधिकार नहीं था। लेकिन मुश्किल तो यह है कि वह केवल रो रोकर ही मेरा पिण्ड न छोड़ेगी। बात-बात पर ताने देगी। कदाचित मैके की तैयारी भी करने लगे। यही उसकी बुरी आदत है कि या तो प्रेम और मृदुलता के देवी बन जायेगी या बिगड़ेगी तो भालों से छेदने लगेगी। ज्ञानशंकर ने मुझे ऐसे संकट में डाल रखा है कि उससे निकलने का कोई मार्ग ही नहीं दिखता।
ज्वालासिंह इसी हैस-बैस में पड़े हुए थे कि अचानक ज्ञानशंकर सामने पैरगाड़ी पर आते दिखायी दिये। ज्वालासिंह तुरन्त कुर्सी से उठ खड़े हुए और साईस को जोर से पुकारा कि घोड़ा ला। साईस घोड़े को कसे हुए तैयार खड़ा था। यह हुक्म पाते ही घोड़ा सामने लाकर खड़ा कर दिया। ज्वालासिंह उस पर कूदकर सवार हो गये। ज्ञानशंकर ने समीप आकर कहा– कहिए भाई साहब, आज सबेरे-सबेरे कहाँ चले?
ज्वाला– जरा लखनपुर जा रहा हूँ। मौका देखना है?
ज्ञान– धूप हो जायेगी।
ज्वाला– कोई परवाह नहीं।
ज्ञान– मैं भी साथ चलूँ?
ज्वाला– मुझे रास्ता मालूम है।
यह कहते हुए उन्होंने घोड़े को एड़ लगायी और हवा हो गये। ज्ञानशंकर समझ गये कि मेरा मन्त्र अपना काम कर रहा है। यह अकृपा इसी का लक्षण है। ऐसा न होता तो आज भी मीठी-मीठी बातें होतीं। चलूँ, जरा शीलमणि को और पक्का कर आऊँ। यह इरादा करके वह ज्वालासिंह के कमरे जा बैठे। अरदली ने कहा, सरकार बाहर गये हैं।
ज्ञान– मैं जानता हूँ। मुझसे मुलाकात हो गयी। जरा घर में मेरी इत्तला कर दो।
अरदली– सरकार का हुक्म नहीं है।
ज्ञान– मुझे पहचानते हो या नहीं?
अरदली– पहचानता क्यों नहीं हूँ।
ज्ञान– तो चौखट पर जाकर कहते क्यों नहीं?
अरदली– सरकार ने मना कर दिया है।
ज्ञानशंकर को अब विश्वास हो गया कि मेरी चाल ठीक पड़ी, ज्वालासिंह ने अपने को पक्षपात-रहित सिद्ध करने के लिए ही यह षड्यन्त्र रचा है। यह सोच ही रहे थे कि शीलमणि से क्योंकर मिलूँ कि इतने में महरी किसी काम से बाहर आयी और ज्ञानशंकर को देखते ही जाकर शीलमणि से कहा। शीलमणि ने तुरन्त उनके लिए पान भेजा और उन्हें दीवानखाने में बैठाया। एक क्षण के बाद वह खुद जाकर पर्दे की आड़ में खड़ी हो गयी और महरी से कहलाया, मैंने बाबू जी से आपकी सिफारिश कर दी है।
ज्ञानशंकर ने धन्यवाद देते हुए कहा– मुझे अब आप ही का भरोसा है।
शीलमणि बोली– आप घबरायें नहीं, मैं उन्हें एकदम चैन न लेने दूँगी। ज्ञानशंकर ने ज्यादा ठहरना उचित न समझा। खुशी-खुशी विदा हुए।
उधर बाबू ज्वालासिंह ने घोड़ा दौड़ाया तो चार मील पर रुके। उन्हें एक सिगार पीने की इच्छा हुई। जेब से सिगार-केस निकाला, लेकिन देखा तो दियासलाई न थी। उन्हें सिगार से बड़ा प्रेम था। अब क्या हो? इधर-उधर निगाह दौड़ायी तो सामने कुछ दूरी पर एक बहली जाती हुई दिखाई थी। घोड़े को बढ़ाकर बहली के पास आ पहुँचे। देखा तो उस पर प्रेमशंकर बैठे हुए थे। ज्वालासिंह का उनसे परिचय था। कई बार उनकी कृषि शाला की सैर करने गये थे और उनके सरल, सन्तोषमय जीवन का आदर करते थे। पूछा, कहिए महाशय, आज इधर कहाँ चले?
प्रेम– जरा लखनपुर जा रहा हूँ, और आप?
ज्वाला– मैं भी वही चलता हूँ।
प्रेम– अच्छा साथ हुआ। क्या कोई मुकदमा है?
ज्वालासिंह ने सिगार जलाकर मुकदमें का वृत्तान्त कह सुनाया।
प्रेमशंकर गौर से सुनते रहे, फिर बोले– आपने उन्हें समझाया नहीं कि गरीबों को क्यों तंग करते हो?
ज्वाला– मैं इस विषय में उनसे क्योंकर कुछ कहता? हाँ, स्त्रियों में जो बातें हुई उनसे मालूम होता है कि वह अपने जरूरतों से मजबूत हैं, उनका खर्च नहीं चलता।
प्रेम– दो हजार साल की आमदनी तीन-चार प्राणियों के लिए तो कम नहीं होती।
ज्वाला– लेकिन इसमें आधा तो आपका है।
प्रेम– जी नहीं, मेरा कुछ नहीं है। मैंने उनसे साफ-साफ कह दिया है कि मैं इस जायदाद में हिस्सा नहीं लेना चाहता।
ज्वालासिंह– (आश्चर्य से) क्या आपने उनके नाम हिब्बा कर दिया?
प्रेम– जी नहीं, लेकिन हिब्बा ही समझिए। मेरा सिद्धान्त है कि मनुष्य को अपनी मेहनत की कमाई खानी चाहिए। यही प्राकृतिक नियम है। किसी को यह अधिकार नहीं है कि वह दूसरों की कमाई को अपनी जीवन-वृत्ति का आधार बनाये।
ज्वाला– तो यह कहिए कि आप जमींदारी के पेशे को ही बुरा समझते हैं।
प्रेम– हाँ, मैं इसका भक्त नहीं हूँ। भूमि उसकी है जो उसको जोते। शासक को उसकी उपज में भाग लेने का अधिकार इसलिए है कि वह देश में शान्ति और रक्षा की व्यवस्था करता है, जिसके बिना खेती हो ही नहीं सकती। किसी तीसरे वर्ग का समाज में कोई स्थान नहीं है।
ज्वाला– महाशय इन विचारों से तो आप देश में क्रान्ति मचा देंगे। आपके सिद्धान्त के अनुसार हमारे बड़े-बड़े जमींदारों, ताल्लुकेदारों और रईसों का समाज में कोई स्थान ही नहीं दिया। सब के सब डाकू हैं।
प्रेम– इसमें इनका कोई दोष नहीं, प्रथा का दोष है। इस प्रथा के कारण देश की कितनी आत्मिक और नैतिक अवनति हो रही है, इसका अनुमान नहीं किया जा सकता। हमारे समाज का वह भाग जो बल, बुद्धि, विद्या में सर्वोपरि है, जो हृदय और मस्तिष्क के गुणों से अलंकृत है, केवल इसी प्रथा के वश आलस्य विलास और अविचार के बन्धनों में जकड़ा हुआ है।
ज्वालासिंह– कहीं आप इन्हीं बातों का प्रचार करने तो लखनपुर नहीं जा रहे हैं कि मुझे पुलिस की सहायता न माँगनी पड़े।
प्रेम– हाँ, शान्ति भंग कराने का अपराध मुझ पर हो तो जरूर पुलिस की सहायता लीजिए।
ज्वालासिंह– मुझे अब आप पर कड़ी निगाह रखनी पड़ेगी। मैं भी छोटा-मोटा ज़मींदार हूँ। आपसे डरना चाहिए। इस समय लखनपुर ही जाइएगा या आगे जाने का इरादा है?
प्रेम– इरादा तो यहीं से लौट आने का है, आगे जैसी जरूरत हो। इधर-आस-पास के देहातों में एक महीने से प्लेग का प्रकोप हो रहा है। कुछ दवाएँ साथ लेता आया हूँ जरूरत होगी तो उसे बाँट दूँगा, कौन जाने मेरे ही हाथों दो-चार जानें बच जायें।
इसी प्रकार बातें करते हुए दोनों आदमी लखनपुर पहुँचे। गाँव खाली पड़ा था। लोग बागों में झोंपड़ियाँ डाले पड़े थे। इस छोटी-सी बस्ती में खूब चहल-पहल थी। उन दारुण दुःखों का चिह्न कहीं न दिखाई देता था, जिनसे लोगों के हृदय विदीर्ण हो गये थे। छप्परों के सामने महुए सुखाये जा रहे थे। चक्कियों की गरज, छाछ की तड़प, ओखली और मूसल की धमक उस जीवन-संग्राम की सूचना दे रही थी जो प्लेग के भीषण हत्याकांड की भी परवाह न करता था। लड़के आमों पर ढेले चला रहे थे। कोई स्त्री बरतन माँजती थी, कोई पड़ोसी के घर से आग लिये आती थी। कोई आदमी निठल्ला बैठा नजर न आता था।
प्रेमशंकर तो बस्ती में आते ही बहली से उतर पड़े और एक झोपड़े के सामने खाट पर बैठ गये। ज्वालासिंह घोड़े से न उतरे। खाट पर बैठना अपमान की बात थी। जोर से बोले– कहाँ है मुखिया? जाकर पटवारी को बुला लाये; हम मौका देखना चाहते हैं।
यह हुक्म सुनते ही कई आदमी झोंपड़ी से मरीजों को छोड़-छोड़कर निकल आये। चारों ओर भगदड़-सी पड़ गयी। दो-तीन आदमी चौपाल की तरफ कुर्सी लेने दौड़े दो-तीन आदमी पटवारी की तलाश में भागे और गाँव के मान्य गण जवालासिंह को घेरकर खड़े हो गये। प्रेमशंकर की ओर किसी ने ध्यान भी न दिया। इतने में कादिर खाँ अपनी झोपड़ी से निकले और सुक्खू के कान में कुछ कहा। सुक्खू ने दुखरन भगत से कानाफूसी की, तब बिसेसर साह से सायँ-सायँ बातें हुईं, मानों लोग किसी महत्त्वपूर्ण प्रश्न पर विचार कर रहे हों दस मिनट के बाद सूक्खू चौधरी एक थाल लिये हुए आये। उसमें अक्षत, दही और कुछ रुपये रखे हुए थे। गाँव के पुरोहित जी ने प्रेमशंकर के माथे पर दही-चावल का टीका लगाया और थाल उनके सामने रख दिया।
ज्वालासिंह कुर्सी पर बैठते हुए बोले– लीजिए, आपकी तो बोहनी हो गयी, घाटे में तो हम ही रहे। उस पर भी आप जमींदारी पेशे की निन्दा करते हैं।
प्रेमशंकर ने कहा– देवी के नाम से ईट-पत्थर भी तो पूजे जाते हैं।
कादिर खाँ– हम लोगों के धन भाग थे कि दोनों मालिकों के एक साथ दर्शन हो गये।
प्रेम– यहाँ बीमारी कुछ कम हुई या अभी वही हाल है?
कादिर– सरकार, कुछ न पूछिए, कम तो न हुई और बढ़ती जाती है। कोई दिन नागा नहीं जाता कि एक न एक घर पर विजली न गिरती हो। नदी यहाँ से छह कोस है। कभी-कभी तो दिन में दो-दो तीन-तीन बेर जाना पड़ता है। उस पर कभी आँधी, कभी पानी, कभी आग। खेतों में अनाज सड़ा जाता है। कैसे काटें कहाँ रखे? बस, भोर को घरों में एक बेर चूल्हा जलता है। फिर दिन भर कहीं आग नहीं जलती। चिलम को तरसकर रह जाते हैं हुजूर, रोते नहीं बनता, दुर्दशा हो रही थी। उस पर मालिकों की निगाह भी टेढ़ी हो गयी है। सौ काम छोड़कर कचहरी दौड़ना पड़ता है। कभी-कभी तो घर में लाश छोड़कर जाना पड़ता है। क्या करें, जो सिर पर पड़ी है उसे झेलते हैं। हुजूर का एक गुलाम था। अच्छा पट्ठा था। सारी गृहस्थी सँभाले हुए था। तीन घड़ी में चल बसा। मुँह से बोल तक न निकली। सूक्खू चौधरी का तो घर ही सत्यानाश हो गया। बस, अब अकेले इन्हीं का दम रहा गया है। बेचारे डपटसिंह का छोटा लड़का कल मरा है, आज बड़ा लड़का बीमार है। अल्ला ही बचाये तो बचे। जुबान बन्द हो गयी है। लाल-लाल आँखें निकाले खाट पर पड़ा हाथ-पैर पटक रहा है। कहाँ तक गिनायें, खुदा रसूल, देवी-देवता सभी की मन्नतें मानते हैं पर कोई नहीं सुनता। अब तक तो जैसे बन पड़ा मुकदमें बाजी की उजरदारी की। अब वह हिम्मत भी नहीं रही किसके लिए यह सब करें? इतने पर भी मालिकों को दया नहीं आती।
प्रेमशंकर-जरा मैं डपटसिंह के लड़के को देखना चाहता हूँ।
कादिर– हाँ हुजूर, चलिए मैं चलता हूँ।
ज्वालासिंह– जरा सावधान रहिएगा, यह रोग संक्रामक होता है।
प्रेमशंकर ने इसका कुछ उत्तर न दिया। औषधियों का बैग उठाया और कादिर खाँ के पीछे-पीछे चले। डपटसिंह के झोंपड़े पर पहुँचे तो आदमियों की बड़ी भीड़ लगीं हुई थी। एक आम के पेड़ के नीचे रोगी की खाट पड़ी हुई थी। डपटसिंह और उनके छोटे भाई झपटसिंग सिरहाने खड़े पंखे झल रहे थे। दो स्त्रियाँ पायते की ओर खड़ी रो रही थीं। प्रेमशंकर को देखते ही दोनों अन्दर चली गयीं। दोनों भाइयों ने उनकी ओर दीन भाव से देखा और अलग हट गये। उन्होंने उष्णता-मापक यन्त्र से देखा तो रोग का ज्वर १०७ दरजे पर था। त्रिदोष के लक्षण प्रकट थे। समझ गये कि यह अब दम भर का मेहमान है। अभी वह बेग से औषधि निकाल ही रहे थें। कि मरीज एक बार जोर से चीख मार कर उठा और फिर खाट पर गिर पड़ा। आँखें पथरा गयीं। स्त्रियों में पिट्टस पड़ गयी। डपटसिंह शोकातुर होकर मृत शरीर से लिपट गया और रोकर बोला– बेटा! हाय बेटा!
यह कहते-कहते उसकी आँखें रक्त वर्ण हो गयीं उन्माद-सा छा गया, गीली लकड़ी पहली आँच में रसती है दूसरी आँच में जलकर भस्म हो जाती है। डपटसिंह शोक-सन्ताप से विह्वल हो गया। खड़े होकर बोला– कोई इस घर में आग क्यों नहीं लगा देता? अब इसमें क्या रखा है? कैसी दिल्लगी है! बाप बैठा रहे और बेटा चल दे! इन्हीं हाथों से मैंने इसे गोद में खिलाया था। इन्हीं हाथों से चिता की गोद में कैसे बैठा दूँ, कैसा रुलाकर चल दिया मानो हमसे कोई नाता ही नहीं है। कहता था, दादा तुम बूढ़ें हुए, अब बैठे-बैठे राम-राम करो, हम तुम्हारी परवस्ती करेंगे। मगर दोनों के दोनों चल दिये। किसी के मुँख पर दया न आयी! लो राम-राम करता हूँ। अब परवस्ती करो कि बातों के ही धनी थे?
यह कहते-कहते वह शव के पास से हटकर दूसरे पेड़ के नीचे जा बैठे। एक क्षण के बाद फिर बोले– अब इस माया-जाल को तोड़ दूँगा। बहुत दिन इसने मुझे उँगलियों पर नचाया। अब मैं इसे नचाऊँगा। तुम दोनों चल दिये बहुत अच्छा हुआ। मुझे माया-जाल से छुड़ा दिया। इस माया के कारण कितने पाप किये, कितने झूठ बोले, कितनों का गला दबाया, कितनों के खेत काटे। अब सब पाप दोष का कारण मिट गया। वह मरी हुई माया सामने पड़ी है। कौन कहता है मेरा बेटा था? नहीं, मेरा दुश्मन था, मेरे गले का फन्दा था, मेरे पैरों की बेड़ी था फन्दा छूट गया, बेड़ी कट गयी। लाओ, इस घर में आग लगा दो, सब कुछ भस्म कर दो। बलराज, खड़ा आँसू क्या बहाता है? कहीं आग नहीं है? लाके लगा दे।
सब लोग खड़े रो रहे थे। प्रेमशंकर भी करुणातुर हो गये। डपटसिंह के पास जाकर बोले– ठाकुर धीरज धरो। संसार का यही दस्तूर है। तुम्हारी यह दशा देखकर बेचारी स्त्रियाँ और भाई रो रहे हैं। उन्हें समझाओ।
डपटसिंह ने प्रेमशंकर को उन्मत्त नेत्रों से देखा और व्यंग्य भाव से बोले– ओहो, आप तो हमारे मालिक हैं। क्या जाफा वसूल करने आये हैं? उसी से लीजिए जो वहाँ धरती पर पड़ा हुआ है, वह आपकी कौड़ी-कौड़ी चुका देगा। गौस खाँ से कह दीजिए, उसे पकड़ ले जायें, बाँधे, मारें मैं न बोलूँगा। मेरा खेती-बारी से घर द्वार से इस्तीफा है।
कादिर खाँ ने कहा– भैया डपट, दिल मजबूत करो। देखते हो, घर-घर यही आग लगी हुई है मेरे सिर भी तो यही विपत्ति पड़ी है। इस तरह दिल छोटा करने से काम न चलेगा, उठो। कुछ कफन-कपड़े की फिकिर करो, दोपहर हुआ जाता है।
डपटसिंह को होश आ गया। होश के साथ आँसू भी आये। रोकर बोले, दादा, तुम्हारा-सा कलेजा कहाँ ले लायें? किसी तरह धीरज नहीं होता। हाय! दोनों के दोनों चल दिये, एक भी बुढ़ापे का सहारा न रहा। सामने यह लाश देखकर ऐसा जी चाहता है गले पर गँडासा मार लूँ। दादा, तुम जानते हो कि कितना सुशील लड़का था। अभी उस दिन मुग्दर की जोड़ी के लिए हठ कर रहा था। मैंने सैकड़ों गालियाँ दीं मारने उठा। बेचारे ने जबान तक न हिलायी। हाँ, खाने-पीने को तरसता रह गया। उसकी कोई मुराद पूरी न हुई। न भर पेट खा सका, न तन-भर पहन सका। धिक्कार है मेरी जिन्दगानी पर! अब यह घर नहीं देखा जा सकता। झपट, अपना घर-द्वार सँभालो, मेरे भाग्य में ठोकर खाना लिखा हुआ है। भाई लोग! राम-राम मालिक को राम, सरकार को राम-राम! अब यह अभागा देश से जाता है, कही-सुनी माफ करना!
यह कहकर डपटसिंह उठकर कदम बढ़ाते हुए एक तरफ चले। जब कई आदमियों ने उन्हें पकड़ना चाहा तो वह भागे। लोगों ने उनका पीछा किया, पर कोई उनकी गर्द को भी न पहुँचा। जान पड़ता था हवा में उड़े जाते हैं। लोगों के दम फूल गये, कोई यहाँ रहा, कोई वहाँ गिरा अकेले बलराज ने उनका पीछा न छोड़ा, यहाँ तक कि डपटसिंह बेदम होकर जमीन पर गिर पड़े। बलराज दौड़कर उनकी छाती से लिपट गया और तब अपने अँगोछे से उन्हें हवा करने लगा। जब उन्हें होश आया तो हाथ पकड़े हुए घर लाया।
ज्वालासिंह की करुणा भी जाग्रत हो गयी। प्रेमशंकर से बोले– बाबू साहब, बड़ा शोकमय दृश्य है।
प्रेमशंकर– कुछ न पूछिए, कलेजा मुँह को आया जाता है
कई आदमी बाँस काटने लगे, लेकिन तीसरे पहर तक लाश न उठी। प्रेमशंकर ने कादिर से पूछा– देर क्यों हो रही है!
कादिर– हुजूर, क्या कहें? घर में रुपये नहीं है। बेचारा डपट रुपये के लिए इधर-उधर दौड़ रहा है, लेकिन कहीं नहीं मिलते। हमारी जो दशा है सरकार, हमीं जानते हैं। जाफा लगान के मुकदमें ने पहली ही हाँडी तावा गिरों रखवा लिया था। इस बीमारी ने रही सही कसर पूरी कर दी। अब किसी के घर में कुछ नहीं रहा। प्रेमशंकर ने ठंडी साँस लेकर ज्वालासिंह से कहा– देखी आपने इनकी हालत? घर में कौड़ी कफन को नहीं।
ज्वालासिंह– मुझे अफसोस आता है कि इनसे पिछले साल मुचलका क्यों लिया! मैं अब तक न जानता था कि इनकी दशा इतनी हीन है।
प्रेम– मुझे खेद है कि मकान से कुछ रुपये लेकर न चला।
ज्वाला– रुपये मेरे पास हैं, पर मुझे देते हुए संकोच होता है। शायद इन्हें बुरा लगे? आप लेकर दे दे, तो अच्छा हो।
प्रेमशंकर ने २० रुपये का नोट ले लिया और कादिर खाँ को चुपके से दे दिया एक आदमी तुरन्त कफन लेने को दौड़ा। लाश उठाने की तैयारी होने लगी। स्त्रियों में फिर कोहराम मचा। जब तक शव घर में रहता है, घरवालों को कदाचित कुछ आशा लगी रहती है। उसका घर से उठना पार्थिव वियोग का अन्त है। वह आशा के अन्तिम सूत्र को तोड़ देता है।
तीसरे पहर लाश उठी। सारे गाँव के पुरुष साथ चले। पहले कादिर खाँ ने कन्धा दिया। ज्वालासिंह को सरकारी काम था, वह लौट पड़े। लेकिन प्रेमशंकर ने दो-चार दिन वहाँ रहने का निश्चय किया।