प्रातःकाल ज्योंही मनोहर की आत्महत्या का समाचार विदित हुआ, जेल में हाहाकार मच गया। जेल के दारोगा, अमले, सिपाही, पहरेदार-सब के हाथों के तोते उड़ गये। जरा देर में पुलिस को खबर मिली, तुरन्त छोटे-बड़े अधिकारियों का दल आ पहुँचा। मौके की जाँच होने लगी, जेल कर्मचारियों के बयान लिखे जाने लगे। एक घंटे में सिविल सर्जन और डॉक्टर प्रियनाथ भी आ गये। मजिस्ट्रेट, कमिश्नर और सिटी मजिस्ट्रेट का आगमन हुआ। दिन-भर तहकीकात होती रही। दूसरे दिन भी यही जमघट रही और यही कार्यवाही होती रही, लेकिन साँप मर चुका था, उसकी बाँबी को लाठी से पीटना व्यर्थ था। हाँ, जेल-कर्मचारियों पर बन आयी, जेल दारोगा ६ महीने के लिए मुअत्तल कर दिये गये, रक्षकों पर कड़े जुर्माने हुए। जेल के नियमों में सुधार किया गया, खिड़कियों पर दोहरी छड़ें लगा दी गयीं। शेष अभियुक्तों के हाथों में हथकड़ियाँ न डाली गयी थीं, अब दोहरी हथकड़ियाँ डाल दी गयीं। प्रेमशंकर यह खबर पाते ही दौड़े हुए जेल आये, पर अधिकारियों ने उन्हें फाटक के सामने से ही भगा दिया। अब तक जेल कर्मचारियों ने उनके साथ सब प्रकार की रियायत की थी। अभियुक्तों से उनकी मुलाकात करा देते थे, उनके यहाँ से आया हुआ भोजन अभियुक्तों तक पहुँचा देते थे। पर आज उन सबका रुख बदला हुआ था। प्रेमशंकर जेल के सामने खड़े सोच रहे थे, अब क्या करूँ कि पुलिस का प्रधान अफसर जेल से निकला और उन्हें देख कर बोला, यह तुम्हारे ही उपदेशों का फल है, तुम्हीं ने शेष अपराधियों को बचाने के लिए यह आत्म-हत्या करायी है। जेल के दारोगा ने भी उनसे इसी तरह की बातें की। इन तिरस्कारों से प्रेमशंकर को बड़ा दुःख हुआ। जीवन उन्हें नये-नये अनुभवों की पाठशाला-सा जान पड़ता था। यह पहला ही अवसर था कि उनकी दयार्द्रता और सदिच्छा की अवहेलना की गयी। वह आध घंटे तक चिन्ता में डूबे वहीं खड़े रहे, तब अपने झोंपड़े की ओर चले, मानो अपने किसी प्रियबन्धु की दाह-क्रिया करके आ रहे हों।
घर पहुँच कर वह फिर उन्हीं विचारों में मग्न हुए। कुछ समझ में न आता था कि जीवन का क्या लक्ष्य बनाया जाय। क्षुद्र लौकिकता से चित्त को घृणा होती थी और उत्कृष्ट नियमों पर चलने के नतीजे उल्टे होते थे। उन्हें अपनी विवशता का ऐसा निराशाजनक अनुभव कभी न हुआ था। मानव-बुद्धि कितनी भ्रमयुक्त है, उसकी दृष्टि कितनी संकीर्ण! इसका ऐसा स्पष्ट प्रमाण कभी न मिला था। यद्यपि वह अहंकार को अपने पास न आने देते थे, पर वह किसी गुप्त मार्ग से उनके हृदयस्थल में पहुँच जाता था। अपने सदकार्यों तो सफल होते देख कर उनका चित्त उल्लसित हो जाता था और हृदय-कणों में किसी ओर से मन्द स्वरों में सुनायी देता था– मैंने कितना अच्छा काम किया! लेकिन ऐसे प्रत्येक अवसर पर ही क्षण के उपरान्त उन्हें कोई ऐसी चेतावनी मिल जाती थी, जो उनके अहंकार को चूर-चूर कर देती थी। मूर्ख! तुझे अपनी सिद्धान्त-प्रियता का अभिमान है! देख, वह कितने कच्चे हैं। तुझे अपनी बुद्धि और विद्या का घमंड है? देख, वह कितनी भ्रान्तिपूर्ण है। तुझे अपने ज्ञान और सदाचार का गरूर है! देख, वह कितना अपूर्ण और भ्रष्ट है। क्या तुम्हें निश्चय है कि तुम्हारी ही उत्तेजनाएँ गौस खाँ की हत्या का कारण नहीं हुई? तुम्हारे ही कटु उपदेशों ने मनोहर की जान नहीं ली? तुम्हारे ही वक्र नीति-पालन ने ज्ञानशंकर की श्रद्धा को तुमसे विमुख नहीं किया?
यह सोचते-सोचते उनका ध्यान अपनी आर्थिक कठिनाइयों की ओर गया। अभी न जाने यह मुकदमा कितने दिनों चलेगा। इर्फान अली कोई तीन हजार ले चुके और शायद अभी उनका इतना ही बाकी है। गन्ने तैयार हैं, लेकिन हजार रुपये से ज्यादा न ला सकेंगे। बेचारे गाँववालों को कहाँ तक दबाऊँ? फलों से जो कुछ मिला वह सब खर्च हो गया। किसी को अभी हिसाब तक नहीं दिखाया। न जाने यह सब अपने मन में क्या समझते हों। लखनपुर की कुछ खबर न ले सका। मालूम नहीं, उन दुखियों पर क्या बीत रही है।
अकस्मात भोला की स्त्री बुधिया आ कर बोली बाबू, दो दिन से घर में चूल्हा नहीं जला और आपका हलवाहा मेरी जान खाये जाता है। बताइये; मैं क्या करूँ? क्या चोरी करूँ? दिन भर चक्की पीसती हूँ और जो कुछ पाती हूँ, वह सब गृहस्थी में झोंक देती हूँ, तिस पर भी भरपेट दाना नसीब नहीं होता। आप उसके हाथ में तलब न दिया करें। सब जुए में उड़ा देता है। आप उसे न डाँटते हैं, न समझाते हैं। आप समझते हैं कि मजदूरी बढ़ाते ही वह ठीक हो जायेगा। आप उसे हजार का महीना भी दें तो उसके लिए पूरे न पड़ेंगे। आज से आप तलब मेरे हाथ में दिया करें!
प्रेमशंकर– जुआ खेलना तो उसने छोड़ दिया था?
बुधिया– वही दो-एक महीने नहीं खेला था। बीच-बीच में कभी छोड़ देता है, लेकिन उसकी तो लत पड़ गयी है। आप तलब मुझे दे दिया करें, फिर देखूँ कैसे खेलता है। आपका सीधा सुभाव है, जब माँगता है तभी निकाल कर दे देते हैं।
प्रेम– मुझसे तो वह यही कहता है कि मैंने जुआ छोड़ दिया। जब कभी रुपये माँगता है, तो सहज कहता है कि खाने को नहीं है। न दूँ तो क्या करूँ?
बुधिया– तभी तो उसके मिजाज नहीं मिलते। कुछ पेशगी तो नहीं ले गया है?
प्रेम– उसी से पूछो, ले गया होगा तो बतायेगा न।
बुधिया– आपके यहाँ हिसाब-किताब नहीं है क्या?
प्रेम– मुझे कुछ याद नहीं है।
बुधिया– आपको याद नहीं है तो वह बता चुका! शराबियों- जुआरियों के भी कहीं ईमान होता है?
प्रेम– क्यों, क्या शराब से ईमान धुल जाता है?
बुधिया– धुल नहीं जाता तो और क्या? देखिए, बुलाके आपके मुँह पर पूछती हूँ। या नारायण निगोड़ा तलब की तलब उड़ा देता है, उस पर पेशगी ले कर खेल डालता है। अब देखूँ, कहाँ से भरता है?
यह कह कर वह झल्लायी हुई गयी और जरा देर से भोला को साथ लिये आयी। भोला की आँखें लाल थीं। लज्जा से सिर झुकाये हुए था। बुधिया ने पूछा, बताओ तुमने बाबू जी से कितने रुपये पेशगी लिये हैं?
भोला– ने स्त्री की ओर सरोष नेत्रों से देख कर कहा– तू कौन होती है पूछने वाली? बाबू जी जानते नहीं क्या?
बुधिया– बाबूजी ही तो पूछते हैं, नहीं तो मुझे क्या पड़ी थी?
भोला– इनके मेरे ऊपर लाख आते हैं और मैं इनका जन्म भरका गुलाम हूँ।
बुधिया– देखा बाबूजी! कहती न थी, वह कुछ न बतायेगा? जुआरी कभी ईमान के सच्चे हुए हैं कि यही होगा?
भोला– तू समझती है कि मैं बातें बना रहा हूँ। बातें उनसे बनायी जाती हैं जो दिल के खोटे होते हैं, जो एक धेला दे कर पैसे का काम कराना चाहते हैं। देवताओं से बात नहीं बनायी जाती। यह जान इनकी है, यह तन इनका है, इशारा भर मिल जाय।
बुधिया– अरे जा, जालिए कहीं के! बाबू जी बीसों बार समझा के हार गये। तुझसे एक जुआ तो छोड़ा जाता नहीं, तू और क्या करेगा? जान पर खेलने वाले और होते हैं।
भोला– झूठी कहीं की, मैं कब जुआ खेलता हूँ?
प्रेम– सच कहना भोला, क्या तुम अब भी जुआ खेलते हो? तुम मुझसे कई बार कह चुके हो कि मैंने बिलकुल छोड़ दिया।
भोला का गला भर आया। नशे में हमारे मनोभाव अतिशयोक्तिपूर्ण हो जाते हैं। वह जोर से रोने लगा। जब ग्लानि का वेग कम हुआ तो सिसकियाँ लेता हुआ बोला– मालिक, यह आपका एक हुकूम है, जिसे मैंने टाला है। और कोई बात न टाली। आप मुझे यहीं बैठा कर सिर पर १०० जूते गिन कर लगायें, तब यह भूत उतरेगा। मैं रोज सोचता हूँ कि अब कभी न खेलूँगा, पर साँझ होते ही मुझे जैसे कोई ढकेल कर फड़ की ओर ले जाता है। हा! मैं आप से झूठ बोला, आप से कपट किया! भगवान् मेरी क्या गति करेंगे? यह कह कर वह फिर फूट-फूट कर रोने लगा!
लज्जा-भाव की यह पवित्रता देख कर प्रेमशंकर की आँखें भर आयीं। वह शराबी और जुआरी भोला, जिसे वह नीच समझते थे, ऐसा पवित्रात्मा, ऐसा निर्मल हृदय था! उन्होंने उसे गले लगा लिया, तुम रोते क्यों हो? मैं तुम्हें कुछ कहता थोड़े ही हूँ।
भोला– आपका कुछ न कहना ही तो मुझे मार डालता है मुझे गालियाँ दीजिए कोडे़ से मारिए, तब यह नशा उतरेगा। हम लातों के देवता बातों से नहीं मानते।
प्रेम– तुम्हारी तलब बुधिया को दे दिया करूँ?
भोला– जी हाँ, आज से मुझे एक कौड़ी भी न दिया करें।
प्रेम– (बुधिया से) लेकिन जो यह जुए से भी बुरी कोई आदत पकड़ ले तो?
बुधिया– जुएँ से बुरी चोरी है, जिस दिन इसे चोरी करते देखूँगी, जहर दे दूँगी। मुझे राँड़ बनना मंजूर है, चोर की लुगाई नहीं बन सकती।
उसने भोला का हाथ पकड़ कर घर चलने का इशारा किया और प्रेमशंकर के लिए एक जटिल समस्या छोड़ गयी।