ज्ञानशंकर लगभग दो बरस से लखनपुर पर इजाफा लगान करने का इरादा कर रहे थे, किन्तु हमेशा उनके सामने एक-न-एक बाधा आ खड़ी होती थी। कुछ दिन तो अपने चचा से अलग होने में लगे। जब उधर से बेफिक्र हुए तो लखनऊ जाना पड़ा। इधर प्रेमशंकर के आ जाने से एक नई समस्या उपस्थित हो गयी। इतने दिनों के बाद अब उन्हें मनोनीत सुअवसर हाथ लगा। कागज-पत्र पहले से ही तैयार थे। नालिशों के दायर होने में विलम्ब न हुआ।
लखनपुर के लोग मुचलके के कारण बिगड़े हुए थे ही, यह नयी विपत्ति सिर पर पड़ी तो और झल्ला उठे। मुचलके की मियाद इसी महीने से समाप्त होने वाली थी। वह स्वछन्दता से जवाबदेही कर सकते थे। सारे गाँव में एका हो गया। आग-सी लग गयी। बूढ़े कादिर खाँ भी, जो अपनी सहिष्णुता के लिए बदनाम थे, धीरता से काम न ले सके। भरी हुई पंचायत में, जो जमींदारी का विरोध करने के उद्देश्य से बैठी थी, बोले– इसी धरती पर सब कुछ होता है और सब कुछ इसी में समा जाता है। हम भी इसी धरती पर पैदा हुए हैं और एक दिन इसी में समा जायेंगे। फिर यह चोट क्यों सहें? धरती के लिए ही छत्रधारियों के सिर गिर जाते हैं, हम भी अपना सिर गिरा देंगे। इस काम में सहायता करना गाँव के सब प्राणियों का धर्म है, जिससे जो कुछ हो सके, दे। सब लोगों ने एक स्वर से कहा, हम सब तुम्हारे साथ हैं, जिस रास्ते कहोगे चलेंगे और इस धरती पर अपना सर्वस्व न्यौछावर कर देंगे।
निस्सन्देह गाँव वालों को मालूम था कि ज़मींदार को इजाफा करने का पूरा अधिकार है, लेकिन वह यह भी जानते थे यह अधिकार उसी दशा में होता है, जब ज़मींदार अपने प्रयत्न से भूमि की उत्पादक शक्ति बढ़ा दे। इस निर्मूल इजाफे को सभी अनर्थ समझते थे।
ज्ञानशंकर ने गाँव में यह एका देखा तो चौंके; लेकिन कुछ तो अपने दबाव और कुछ हाकिम परगना मिस्टर ज्वालासिंह के सहवासी होने के कारण उन्हें अपनी सफलता में विशेष संशय न था। लेकिन जब दावे की सुनवाई हो चुकने के बाद जवाबदेही शुरू हुई तो ज्ञानशंकर को विदित हुआ कि मैं अपनी सफलता को जितना सुलभ समझता था उससे कहीं अधिक कष्टसाध्य है। ज्वालासिंह कभी-कभी ऐसे प्रश्न कर बैठते और आसामियों के प्रति ऐसा दया-भावप्रकट करते कि उनकी अभिरुचि का साफ पता चल जाता था। दिनों-दिन अवस्था ज्ञानशंकर के विपरीत होती जाती थी। वह स्वयं तो कचहरी न जाते, लेकिन प्रतिदिन का विवरण बड़े ध्यान से सुनते थे। ज्वालासिंह पर दाँत पीसकर रह जाते थे। ये महापुरुष मेरे सहपाठियों में है। हम यह बरसों तक साथ-साथ खेले हैं। हँसी दिल्लगी, धौल-धप्पा सभी कुछ होता था। आज जो जरा अधिकार मिल गया तो ऐसे तोते की भाँति आँखें फेर लीं मानों कभी का परिचय ही नहीं है।
अन्त में जब उन्होंने देखा कि अब यत्न न किया तो काम बिगड़ जायेगा। तब उन्होंने एक दिन ज्वालासिंह से मिलने का निश्चय किया। कौन जाने मुझ पर रोब जमाने के लिए ही यह जाल फैला रहे हों। यद्यपि यह जानते थे कि ज्वालासिंह किसी मुकदमे की जाँच की अवधि में वादियों से बहुत कम मिलते थे तथापि स्वार्थपरता की धुन में उन्हें इसका भी ध्यान न रहा। सन्ध्या समय उनके बँगले पर जा पहुँचे।
ज्वालासिंह को इन दिनों सितार का शौक हुआ था। उन्हें अपनी शिक्षा में यह विशेष त्रुटि जान पड़ती थी। एक गत बजाने की बार-बार चेष्टा करते, पर तारों का स्वर न मिलता था। कभी यह कील घुमाते, कभी वह कील ढीली करते कि ज्ञानशंकर ने कमरे में प्रवेश किया। ज्वालासिंह ने सितार रख दिया और उनसे गले मिलकर बोले– आइए, भाई जान, आइए। कई दिनों से आपकी याद आ रही थी। आजकल तो आपका लिटलेरी उमंग बढ़ा हुआ है। मैंने गायत्री देवी पर आपका लेख देखा। बस, यही जी चाहता था। आपकी कलम चूम लूँ। यहाँ सारी कचहरी में उसी की चर्चा है। ऐसा ओज, ऐसा प्रसादगुण, इतनी प्रतिभा, इतना प्रवाह बहुत कम किसी लेख में दिखाई देता है। कल मैं साहब बहादुर से मिलने गया था। उनकी मेज पर वही पत्रिका पड़ी थी। जाते-ही-जाते, उसी लेख की चर्चा छेड़ दी। वे लोग बड़े गुणग्राही होते हैं। यह कहाँ से ऐसे चुने हुए शब्द और मुहावरे लाकर रख देते हैं, मानो किसी ने सुन्दर फूलों का गुलदस्ता सजा दिया हो!
ज्वालासिंह की प्रशंसा उस रईस की प्रशंसा थी जो अपने कलावन्त के मधुर गान पर मुग्ध हो गया हो। ज्ञानशंकर ने सकुचाते हुए पूछा– साहब क्या कहते थे?
ज्वाला– पहले तो पूछने लगे, यह है कौन आदमी? जब मैंने कहा, यह मेरे सहपाठी और साथ के खिलाड़ी हैं तब उसे और भी दिलचस्पी हुई। पूछे क्या करते हैं, कहाँ रहते हैं? मेरी समझ में देहातों के बैंकों के सम्बन्ध में आपने जो रिमार्क किये हैं उनका उन पर बड़ा असर हुआ।
ज्ञान– (मुस्कराकर) भाई जान, आपसे क्या छिपाएँ। वह टुकड़ा मैंने एक अँगरेजी पत्रिका से कुछ काँट-छाँट कर नकल कर लिया था। (सावधन होकर) कम-से-कम यह विचार मेरे न थे।
ज्वाला– आपको हवाला देना चाहिए था।
ज्ञान– विचारों पर किसी का अधिकार नहीं होता। शब्द तो अधिकांश मेरे ही थे।
ज्वाला– गायत्री देवी तो बहुत प्रसन्न हुई होंगी। कुछ वरदान देंगी या नहीं?
ज्ञान– उनका एक पत्र आया है। अपने इलाके का प्रबन्ध मेरे हाथों में देना चाहती है।
ज्वाला– वाह, क्या कहने! वेतन भी ५०० रु. से कम न होगा।
ज्ञान– वेतन का तो जिक्र न था। शायद इतना न दे सकें।
ज्वाला– भैया, अगर वहाँ ३०० रु. भी मिलें तो आप हम लोगों से अच्छे रहेंगे। खूब सैर-सपाटे कीजिए, मोटर दौड़ाते फिरिए, और काम ही क्या है? हम लोगों की भाँति कागज का पुलिन्दा तो सिर पर लादकर न लाना पड़ेगा। वहाँ कब तक जाने का विचार है?
ज्ञान– जाने को तो मैं तैयार हूँ, लेकिन जब आप गला छोड़ें।
ज्वालासिंह ने बात काटकर कहा, फैमिली को भी साथ ले जाइएगा न? अवश्य ले जाइए। मैंने भी एक सप्ताह हुए स्त्री को बुला लिया है। इस ऊजड़ में भूत की तरह अकेला पड़ा रहता था।
ज्ञान– अच्छा तो भाभी आ गयीं? बड़ा आनन्द रहेगा। कॉलेज में तो आप परदे के बड़े विरोधी थे?
ज्वाला– अब भी हूँ, पर विपत्ति यह है कि अन्य पुरुष के सामने आते हुए उनके प्राण निकल से जाते हैं। अरदली और नौकर से निस्संकोच बाते करती हैं, लेकिन मेरे मित्रों की परछाई से भी भागती हैं। खींच-खाँच के लाऊँ भी तो सिर झुकाकर अपराधियों की भाँति खड़ी रहेंगी।
ज्ञान– अरे, तो क्या मेरी गिनती उन्हीं मित्रों में है?
ज्वाला– अभी तो आपसे भी झिझकेंगी। हाँ, आपसे दो-चार बार मुलाकात हो, आपके घर की स्त्रियाँ भी आने लगें तो सम्भव है संकोच न रहे। क्यों न मिसेज ज्ञानशंकर को यहाँ भेज दीजिए? गाड़ी भेज दूँगा। आपकी वाइफ को तो कोई आपत्ति न होगी?
ज्ञान– जी नहीं, वह बड़े शौक से आयेंगी।
ज्ञानशंकर को अपने मुकदमें के सम्बन्ध में और कुछ कहने का अवसर न मिला, लेकिन वहाँ से चले तो बहुत खुश थे। स्त्रियों के मेल-जोल से इन महाशय की नकेल मेरे हाथों में आ जायगी। जिस कल को चाहूँ घुमा सकता हूँ। उन्हें अब अपनी सफलता पर कोई संशय न रहा। लेकिन जब घर पर आकर उन्होंने विद्या से यह चर्चा की तो वह बोली, मुझे तो वहाँ जाते झेंप होती है, न कभी की जान-पहचान, न रीति न व्यवहार। मैं वहाँ जाकर क्या बातें करूँगी। गूँगी बनी बैठी रहूँगी। तुमने मुझसे न पूछा न ताछा वादा कर आये!
ज्ञान– मिसेज ज्वालासिंह बड़ी मिलनसार हैं। तुम्हें बड़ा आनन्द आयेगा।
विद्या– अच्छा, और मुन्नी को( छोटी लड़की का नाम था) क्या करूँगी? यह वहाँ रोये-चिल्लाये और उन्हें बुरा लगे तो?
ज्ञान– महरी को साथ लेते जाना। वह लड़की को बाहर बगीचे में बहलाती रहेगी।
विद्या बहुत कहने-सुनने के अन्त में जाने पर राजी हो गयी। प्रातःकाल ज्वालासिंह की गाड़ी आ गयी। विद्या बड़े ठाट से उनके घर गयी। दस बजते-बजते लौटी। ज्ञानशंकर ने बड़ी उत्सुकता से पूछा, कैसी मिलीं?
विद्या– बहुत अच्छी तरह! स्त्री क्या हैं देवी हैं। ऐसी हँसमुख, स्नेहमयी स्त्री तो मैंने देखी ही नहीं। छोड़ती ही न थीं। बहुत जिद की तो आने दिया। मुझे विदा करने लगीं तो उनकी आँखों से आँसू निकलने लगे। मैं भी रो पड़ी। उर्दू, अँगरेजी सब पढ़ी हुई थीं। बड़ा सरल स्वभाव है। महरियों तक को तो तू नहीं कहतीं। शीलमणि नाम है।
ज्ञान– कुछ मेरी भी चर्चा हुई?
विद्या– हाँ, हुई क्यों नहीं? कहती थीं, मेरे बाबू जी के पुराने दोस्त हैं। तुम्हें उस दिन चिक की आड़ से देखा था। तुम्हारी अचकन उन्हें पसन्द नहीं। हँसकर बोली, अचकन क्या पहनते हैं, मुसलमानों का पहनावा है। कोट क्यों नहीं पहनते?
ज्ञानशंकर की आशा उद्दीत्त हुई, लेकिन जब मुकदमा फिर तारीख पर पेशी हुआ तो ज्वालासिंह के व्यवहार में जरा भी अन्तर न था। बार-बार मुद्दई के गवाहों से अविश्वास सूचक प्रश्न करते, मुद्दई के वकील के प्रश्नों पर शंकाएँ करते। ज्ञानशंकर ने यह समाचार सुना तो चकित हो गये। यह तो विचित्र आदमी है। इधर भी चलता है, उधर भी मुझे नचाना चाहता है। यह पद पाकर दोरंगी चाल चलना सीख गया है। जी में आया, चल कर साफ-साफ कह दूँ, मित्रों से यह कपट अच्छा नहीं। या तो दुश्मन बन जाओ या दोस्त बने रहो। यह क्या कि मन में कुछ और मुख में कुछ और। इसी असमंजस में एक सप्ताह गुजर गया। दूसरी तारीख निकट आती जाती थी। ज्ञानशंकर का मन बहुत उद्विग्न था। उन्होंने मन में निश्चय कर लिया था कि इन्होंने फिर दोरंगी चाल चली तो अपना मुकदमा किसी दूसरे इजलास में उठा ले जाऊँगा। दबूँ क्यों?
लेकिन जब दूसरी तारीख को ज्वालासिंह ने लखनपुर जाकर मौके की जाँच करने के लिए फिर तारीख बढ़ा दी तो ज्ञानशंकर झुँझला उठे। क्रोघ में भरे हुए विद्या से बोले– देखी तुमने इनकी शरारत? अब मौके की जाँच करने जा रहे हैं! अब नहीं रहा जाता। जाता हूँ, जरा दो-दो बातें कर आऊँ।
विद्या– तुम इतना अधीर क्यों हो रहे हो? क्या जाने वह दूसरों को दिखाने के लिए यह स्वाँग भर रहे हों। अपनी बदनामी को सभी डरते हैं।
ज्ञान– तो आखिर कब तक मैं फैसले का इन्तजार करता रहूँ? यहाँ बैठे-बैठे कई सौ रुपये महीने की हानि हो रही है।
ज्ञानशंकर ने कभी तक विद्या से गायत्री के अनुरोध की जरा भी चर्चा न की थी। इस समय सहसा मुँह से बात निकल गयी। विद्या ने चौंककर पूछा– हानि कैसी हो रही है?
ज्ञानशंकर ने देखा, अब बातें बनाने से काम न चलेगा और फिर कब तक छिपाऊँगा। बोले– मुझे याद आता है, मैंने तुमसे गायत्री देवी के पत्र का जिक्र किया था। उन्होंने मुझे अपनी रियासत का मैनेजर बनाने का प्रस्ताव किया है और जल्द बुलाया है।
विद्या– तुमने स्वीकार भी कर लिया?
ज्ञान– क्यों न करता, क्या कोई हानि थी?
विद्या– जब तुम्हें स्वयं इतनी मोटी-सी बात भी नहीं सूझती तो मैं और क्या कहूँ। भला सोचो तो दुनिया क्या कहेगी। लोग यही समझेंगे कि अबला विधवा है, नातेदार जमा होकर लूट खाते हैं। तुम चाहे कितने ही निःस्पृह भाव से काम करो, लेकिन बदनामी से न बच सकोगे, अभी वह तुम्हारी बड़ी साली हैं, तुमसे कितना प्रेम करती हैं, तुम्हारा कितना सत्कार करती हैं। कितनी ही बार तुम्हारी चारपाई तक बिछा दी है। इस उच्चासन से गिरकर अब तुम उनके नौकर हो जाओगे और मुझे भी बहिन के पद से गिराकर नौकरानी बना दोगे। मान लिया कि वह भी तुम्हारी खातिर करेंगी, लेकिन मृदुभाव कहाँ? लोग तुम्हारी जा-बेजा शिकायते करेंगे। मुलाहिजे के मारे वह तुमसे कुछ न कह सकेंगी। मैं तुम्हें नौकरी के विचार से जाने की सलाह न दूँगी।
ज्ञान– कह चुकीं या और कहना है?
विद्या– कहने-सुनने की बात नहीं है, मुझे तुम्हारा वहाँ जाना सर्वथा अनुचित जान पड़ता है।
ज्ञान– अच्छा तो अब मेरी बात सुनो। मुझे वर्तमान और भविष्य की अवस्था का विचार करके यही उचित जान पड़ता है कि इस असवर को हाथ से न जाने दूँ। जब मैं जी तोड़कर काम करूँगा, दो की जगह एक खर्च करूँगा, एक ही जगह दो जमा करके दिखाऊँगा, तो गायत्री बावली नहीं है कि अनायास मुझ पर संदेह करने लगें। और फिर मैं केवल नौकरी के इरादे से नहीं जाता, मेरे विचार कुछ और ही हैं।
विद्या ने सशंक दृष्टि से ज्ञानशंकर को देखकर पूछा– और क्या विचार है?
ज्ञान– मैं इस समृद्धिपूर्ण रियासत को दूसरे के हाथ में नहीं देखना चाहता। गायत्री के बाद जब उस पर दूसरों का ही अधिकार होगा तो मेरा क्यों न हो?
विद्या ने कुतूहल से देखकर कहा– तुम्हारा क्या हक है?
ज्ञान– मैं अपना हक जमाना चाहता हूँ। अब मैं चलता हूँ, ज्वालासिंह से निबटता आऊँ।
विद्या– उनसे क्या निबटोगे? उन्होंने कोई रिश्वत ली है?
ज्ञान– तो फिर इतना मित्रभाव क्यों दिखाते हैं?
विद्या– यह उनकी सज्जनता है। यह आवश्यक नहीं कि वह आपके मित्र हों तो आपके लिए दूसरों पर अन्याय करें।
ज्ञान– यही बात मैं उनके मुँह से सुनना चाहता हूँ। इसका मुँहतोड़ जवाब मेरे पास है।
विद्या– अच्छा तो जाओ, जो जी में आये करो। फिर मुझसे क्यों सलाह लेते हो?
ज्ञान– तुमसे सलाह नहीं लेता, तुममें इतनी ही बुद्धि होती तो फिर रोना काहे का था? स्त्रियाँ बड़े-बड़े काम कर दिखाती हैं। तुमसे इतना भी न हो सका कि शीलमणि से इस मुकदमें के सम्बन्ध में कुछ बाचचीत करतीं, तुम्हारी तो जरा-जरा सी बात में मान हानि होने लगती है।
विद्या– हाँ, मुझसे यह सब नहीं हो सकता। अपना स्वभाव ही ऐसा नहीं है।
ज्ञान– क्यों, इसमें क्या हर्ज था, अगर तुम एक बार हँसी-हँसी में कह देतीं कि तुम्हारे बाबूजी हमारी हजारों रुपयें साल की क्षति कराये देते हैं। जरा उनको समझा क्यों नहीं देतीं?
विद्या– मुझे यह बातें बनानी नहीं आतीं, क्या करूँ? मैं इस विषय में शीलमणि से कुछ नहीं कह सकती।
ज्ञान– चाहे दावा खारिज हो जाय?
विद्या– चाहे जो कुछ हो।
ज्ञानशंकर बाहर आये तो सामने एक नयी समस्या आ खड़ी हुई। विद्या को कैसे राजी करूँ? मानता हूँ कि सम्बन्धियों के यहाँ नौकरी से कुछ हेठी अवश्य होती है। लेकिन इतनी नहीं कि उसके लिए कोई चिरकाल के मंसूबों को मिटा दे। विद्या की यह बुरी आदत है कि जिस बात पर अड़ जाती है उसे किसी तरह से नहीं छोड़ती। मैं उधर चला जाऊँ और इधर यह रायसाहब से मेरी शिकायत कर दे तो बना-बनाया काम बिगड़ जाय। अब यह पहले की-सी सरला नहीं है। इसमें दिनों-दिन आत्म-सम्मान की मात्रा बढ़ती जाती है। इसे नाराज करने का यह अवसर नहीं।
यह इस चिन्ता में बैठे हुए थे कि शीलमणि की सवारी आ पहुँची। ज्ञानशंकर ने निश्चय किया, स्वयं चलकर उससे अपना समाचार कहूँ। अभी तीनों महिलाएँ कुशल समाचार ही पूछ रही थीं कि वह कुछ झिझकतें हुए ऊपर आये और कमरे के द्वार पर चिलमन के सामने खड़े होकर शीलमणि से बोले– भाभी जी को प्रणाम करता हूँ।
विद्या उनका आशय समझ गयी। लज्जा से उसका मुखमण्डल अरुण वर्ण हो गया। वह वहाँ से उठकर ज्ञानशंकर को अवेहलनापूर्ण नेत्रों से देखते हुए दूसरे कमरे में चली गयी। श्रद्धा, मध्यस्थ का काम देने के लिए रह गयी।
ज्ञानशंकर बोले– भाई साहब तो पर्दे के भक्त नहीं हैं, और जब हम लोगों में इतनी घनिष्ठता हो गयी है तो यह हिसाब उठ जाना चाहिए। मुझे आपसे कितनी ही बातें कहनी हैं। परमात्मा ने आपको शील और विनय के गुणों से विभूषित किया है, इसीलिए मुझे आपसे निज के मामलों में जबान खोलने का साहस हुआ है। मुझे विश्वास है कि आप उसकी अवज्ञा न करेंगी। मेरा इजाफा लगान का मुकदमा भाई साहब के इजलास में दो महीनों से पेश है। उनका इतना अदब करता हूँ कि इस विषय में उनसे कुछ कहते हुए संकोच होता है। यद्यपि मुझे वह भाई समझते हैं, लेकिन किसी कारण से उन्हें भ्रम होता हुआ जान पड़ता है कि मेरा दावा झूठा है और मुझे भय है कि कहीं वह खारिज न कर दें। इसमे सन्देह नहीं कि दावे को खारिज करने का उन्हें बहुत दुःख होगा, लेकिन शायद उन्हें अब तक मेरी वास्तविक दशा का ज्ञान नहीं है। वह यह नहीं जानते कि इससे मेरा कितना अपमान और कितना अनिष्ट होगा। आजकल की जमींदारी एक बला है। जीवन की सामग्रियाँ दिनों-दिन महँगी होती जाती हैं और मेरी आमदनी आज भी वही है जो तीस वर्ष पहले थी। ऐसी अवस्था में मेरे उद्धार का इसके सिवा और क्या उपाय है कि असामियों पर इजाफा लगान करूँ। अन्न मोतियों के मोल बिक रहा है। कृषकों की आमदनी दुगनी, बल्कि तिगुनी हो गयी है। यदि मैं उनकी बढ़ी हुई आमदनी में से एक हिस्सा माँगता हूँ तो क्या अन्याय करता हूँ? अगर मेरी जीत हुई तो सहज में ही मेरी आमदनी एक हजार बढ़ जायेगी। हार हुई तो असामियों की निगाह में गिर जाऊँगा। वह शेर हो जायेंगे और बात-बात पर मुझसे उलझेंगे। तब मेरे लिए इसके सिवा और मार्ग न रहेगा कि जमींदारी से इस्तीफा दे दूँ और मित्रों के सिर जा पड़ूँ। (मुस्कराकर) आप ही के द्वार पर अड्डा जमाऊँगा और यदि आप मार-मार कर हटायें, तो हटने का नाम न लूँगा।
शीलमणि ने यह विवरण ध्यानपूर्वक सुना और श्रद्धा से बोली– आप बाबू जी से कह दें, मुझे यह सुनकर बड़ा खेद हुआ। आपने पहले इसका जिक्र क्यों नहीं किया? विद्या ने भी इसकी चर्चा नहीं की, नहीं तो अब तक आपकी डिगरी हो गयी होती। किन्तु आप निश्चिन्त रहें। मैं आपको विश्वास दिलाती हूँ कि अपनी ओर से आपकी सिफारिश करने में कोई बात उठा न रखूँगी।
ज्ञान– मुझे आपसे ऐसी ही आशा थी। दो-चार दिन में भाई साहब मौका देखने जायेंगे। इसलिए उनसे जल्द ही इसकी चर्चा कर दें।
शील– मैं आज जाते ही कहूँगी। आप इत्मीनान रखें।