इस मुकदमें ने सारे शहर मे हलचल मचा दी। जहाँ देखिए, यह चर्चा थी सभी लोग प्रेमशंकर के आत्म-बलिदान की प्रंशसा सौ-सौ मुँह से कर रहे थे।
यद्यपि प्रेमशंकर ने स्पष्ट कह दिया था कि मेरे लिए किसी वकील की जरूरत नहीं है, पर लाला प्रभाशंकर का जी न माना। उन्हें भय था कि वकील के बिना काम बिगड़ जायेगा। नहीं, यह कदापि नहीं हो सकता। कहीं मामला बिगड़ गया तो लोग यहीं कहेंगे कि लोभ के मारे वकील नहीं किया, उसी का फल है। अपने मन में यही पछतावा होगा। अतएव वह सारे शहर के नामी वकीलों के पास गये। लेकिन कोई भी इस मुकदमे की पैरवी करने पर तैयार न हुआ। किसी ने कहा, मुझे अवकाश नहीं है, किसी ने कोई और ही बहाना करके टाल दिया। सबको विश्वास था कि अधिकारी वर्ग प्रेमशंकर से कुपित हो रहे हैं, उनकी वकालत करना स्वार्थ-नीति के विरुद्ध है। प्रभाशंकर का यह प्रयास सफल न हुआ तो उन्होंने अन्य अभियुक्तों के लिए कोई प्रयत्न नहीं किया। उनकी सहानुभूति अपने परिवार तक ही सीमित थी।
अभियोग तैयार हो गया और मैजिस्ट्रेट के इजलाश में पेशियाँ होने लगीं। थानेदार का बयान हुआ, फैजू का बयान हुआ, तहसीलदार चपरासियों और चौकीदारों के इजहार लिए गये। आठवें दिन ज्ञानशंकर इजलास के सामने आकर खड़े हुए। प्रभाशंकर को ऐसा दुःख हुआ कि वह कमरे के बाहर चले गये और एक वृक्ष के नीचे बैठकर रोने लगे। सगे भाइयों में यह वैमनस्य! पुलिस का पक्ष सिद्ध करने के लिए एक भाई दूसरे भाई के विरुद्ध साक्षी बने! दर्शकों को भी कौतूहल हो रहा था कि देखें इनका क्या बयान होता है। सब टकटकी लगाये उनकी ओर ताक रहे थे। पुलिस को विश्वास था कि इनका बयान प्रेमशंकर के लिए ब्रह्मफाँस बन जायेगा, लेकिन उनको और उनसे अधिक दर्शकों को कितना विस्मय हुआ जब ज्ञानशंकर ने लखनपुर वालों पर अपने दिल का बुखार निकाला, प्रेमशंकर का नाम तक न लिया।
सरकारी वकील ने पूछा, आपको मालूम है कि प्रेमशंकर उस गाँव में अक्सर आया-जाया करते थे।
ज्ञान-उनका उस गाँव में आधा हिस्सा है।
वकील– आप जानते हैं कि जब इन्स्पेक्टर जनरल पुलिस का दौरा हुआ था तब प्रेमशंकर ने लखनपुरवालों की बेगार बन्द करने की कोशिश की थी और तहसीलदार से लड़ने पर आमादा हो गये थे?
ज्ञान– मुझे इसकी खबर नहीं।
वकील– आप यह तो जानते ही हैं कि जब आपने बेशी लगान का दावा किया था तब प्रेमशंकर ने गाँववालों को ५०० रुपये मुकदमें की पैरवी करने के लिए दिये थे?
ज्ञान– मुझे इस विषय में कुछ नहीं मालूम है।
ज्ञानशंकर की गवाही हो गयी। सरकारी वकील का मुँह लटक गया। लेकिन दर्शक गण एक स्वर से कहने लगे, भाई फिर भी भाई ही है, चाहे एक दूसरे के खून का प्यासा क्यों न हो।
इसके बाद मिस्टर ज्वालासिंह इजलास पर आये। उन्होंने कहा, मैं यहाँ कई साल तक हाकिम बना रहा। लखनपुर मेरे ही इलाके में था। कई बार वहाँ दौरा करने गया। याद नहीं आता कि वहाँ गाँववालों से रसद या बेगार के बारे में उससे ज्यादा झंझट हुआ हो जितना दूसरे गाँव में होता है। मेरे इजलास में एक बार बाबू ज्ञानशंकर ने इजाफा लगान का दावा किया था, लेकिन मैंने उसे खारिज कर दिया था।
सरकारी वकील– आपको मालूम है कि उस मामले की पैरवी के लिए प्रेमशंकर ने लखनपुर वालों को ५०० रुपये दिये थे।
ज्वालासिंह– मालूम है। लेकिन जहाँ तक मैं समझता हूँ, उनको यह रुपये किसी दूसरे आदमी ने गाँववालों की मदद के लिए दिये थे।
वकील– आपको यह तो मालूम ही होगा कि प्रेमशंकर की उस गाँव में बहुत आमदरफ्त रहती थी।
ज्वाला– हाँ, वह ताऊन या दूसरी बीमारियों के अवसर पर अक्सर वहाँ जाते थे। यह गवाही भी पूरी हो गयी। सरकारी वकील के सभी प्रश्न व्यर्थ सिद्ध हुए।
तब बिसेसर साह इजलास पर आये। उनका बयान बहुत विस्तृत क्रमबद्ध और सारगर्भित था, मानो किसी उपन्यासकार ने इस परिस्थिति की कल्पनापूर्ण रचना की हो। सबको आश्चर्य हो रहा था कि अपढ़ गँवार में इतना वाक-चातुर्य कहाँ से आ गया? उसके घटना-प्रकाश में इतनी वास्तविकता का रंग था कि उस पर विश्वास न करना कठिन था। गौस खाँ के साथ गाँववालों का शत्रु-भाव, बेगार के अवसरों पर उससे हुज्जत और तकरार, चरावर को रोक देने पर गाँववालों का उत्तेजित हो जाना, रात को सब आदमियों का मिलकर गौस खाँ का वध करने की तदवीरें सोचना, इन सब बातों की अत्यन्त विशद विवेचना की गयी थी। मुख्यतः षड्यन्त्र-रचना का वर्णन ऐसा मूर्तिमान और मार्मिक था कि उस पर चाणक्य भी मुग्ध हो जाता। रात को नौ बजे मनोहर ने आ कर कादिर खाँ से कहा, बैठे क्या हो? चरावर रोक दी, चुप लगाने से काम न चलेगा, इसका कुछ उपाय करो। कादिर खाँ चौकी पर बैठे नमाज पढ़ने के लिए वजू कर रहे थे, बोले बैठ जाओ, अकेले हम-तुम क्या बना लेगें? जब मुसल्लम गाँव की राय हो तभी कुछ हो सकता है, नहीं तो इसी तरह कारिन्दा हमको दबाता जायेगा। एक दिन खेत से भी बेदखल कर देगा, जाके दुखरन भगत को बुला लाओ। मनोहर दुखरन के घर गये। मैं भी मनोहर के साथ गया। दुखरन ने कहा, मेरे पैर में काँटा लग गया है, मैं चल नहीं सकता। खाँ साहब को यहीं बुला लाओ। मैं जाकर कादिर खाँ को बुला लाया। मनोहर, डपटसिंह और कल्लू को बुला लाये। कादिर खाँ ने कहा, हम लोग गँवार हैं, अपने मन में कोई बातें करेंगे तो न जाने चित्त पड़े या पट, चल कर बाबू प्रेमशंकर से सलाह लो। डपटसिंह बोले उनके पास जाने की क्या जरूरत है? मैं जा कर उन्हें बुला लाऊँगा। दूसरे दिन साँझ को बाबू प्रेमशंकर एक्के पर सवार हो आये। मैं दुकान बढ़ा रहा था। मनोहर ने आ कर कहा चलो बाबू साहब आये हैं। मैं मनोहर के साथ कादिर के घर गया। प्रेमशंकर ने कहा, ज्ञान बाबू मेरे भाई हैं तो क्या, ऐसे भाई की गर्दन काट लेनी चाहिए। कादिर ने कहा, हमारी उनसे कोई दुश्मनी नहीं है, हमारा बैर तो गौस खाँ से है। इस हत्यारे ने इस गाँव में हम लोगों का रहना मुश्किल कर दिया है। अब आप बताइए, हम क्या करें? मनोहर ने कहा, यह बेइज्जती नहीं सही जाती। प्रेमशंकर बोले, मर्द हो करके इतना अपमान क्यों सहते हो? एक हाथ में तो काम तमाम होता है। कादिर खाँ ने कहा, कर तो डालें, पर सारा गाँव बँध जायेगा। प्रेमशंकर बोले, ऐसी नादानी क्यों करो? सब मिल कर नाम किसी एक आदमी का ले लो। अकेले आदमी का यह काम भी नहीं है। तीन-तीन प्यादे हैं! गौस खाँ खुद बलवान आदमी है। कादिर खाँ बोले, जो कहीं सारा गाँव फँस जाय तो? प्रेमशंकर ने कहा ऐसा क्या अन्धेर है? वकील लोग किस मर्ज की दवा हैं? इसी बीच में मैं खाना खाने घर चला आया।
प्रेमशंकर रात को ही एक्के पर लौट गये। रात को १२-१ बजे मुझे कुछ खटका हुआ। घर के चारों ओर घूमने लगा कि इतने में कई आदमी जाते दिखायी दिये। मैं समझ गया कि हमारे ही साथी हैं। कादिर का नाम ले कर पुकारा। कादिर ने कहा, सामने से हट जाओ, टोंक मत मारो, चुपके से जाकर पड़ रहो। कादिर खाँ से अब न रहा गया। बिसेसर साह की ओर कठोर नेत्रों से देख कर कहा, बिसेसर ऊपर अल्लाह है, कुछ उनका भी डर है?
सरकारी वकील ने कहा, चुप रहो, नहीं तो गवाह पर बेजा दबाव डालने का दूसरा दफा लग जायेगा।
सन्ध्या का समय यह लोग हिरासत में बैठे हुए इधर-उधर की बातें कर रहें थे। मनोहर अलग एक कोठरी में रखा गया था। कादिर ने प्रेमशंकर से कहा, मालिक आप तो हक-नाहक इस आफत में फँसे। हम लोग ऐसे अभागे हैं कि जो हमारी मदद करता है उस पर भी आँच आ जाती है। इतनी उमिर गुजर गयी, सैकड़ों पढ़े-लिखे आदमियों को देखा, पर आपके सिवा और कोई ऐसा न मिला, जिसने हमारी गरदन पर छूरी न चलायी हो। विद्या की दुनिया बड़ाई करती है। हमें तो ऐसा जान पड़ता है कि विद्या पढ़कर आदमी और भी छली-कपटी हो जाता है। वह गरीब का गला रेतना सिखा देती है। आपको अल्लाह ने सच्ची विद्या दी थी। उसके पीछे लोग आपके भी दुश्मन हो गये।
दुखरन– यह सब मनोहर की करनी है। गाँव-भर को डूबा दिया।
बलराज– न जाने उनके सिर कौन सा भूत सवार हो गया? गुस्सा हमें भी आया था, लेकिन उनको तो जैसे नशा चढ़ जाय।
डपट– चरावर की बिसात ही क्या थी। उसके पीछे यह तूफान।
कादिर– यारो? ऐसी बातें न करो। बेचारे ने तुम लोगों के लिए, तुम्हारे हक की रक्षा करने के लिए यह सब कुछ किया। उसकी हिम्मत और जीवन की तारीफ तो नहीं करते और उसकी बुराई करते हो। हम सब-के-सब कायर हैं, वही एक मर्द है।
कल्लू– बिसेसर की मति ही उल्टी हो गयी।
दुखरन– बयान क्या देता है जैसे तोता पढ़ रहा है।
डपट– क्या जाने किसके लिए इतना डरता है? कोई आगे पीछे भी तो नहीं है।
कल्लू– अगर यहाँ से छूटा तो बच्चू के मुँह में कालिख लगा के गाँव भर में घुमाऊँगा।
डपट– ऐसा कंजूस है कि भिखमंगे को देखता है तो छुछूँदर की तरह घर में जाकर दबक जाता है।
कल्लू– सहुआइन उसकी भी नानी है। बिसेसर तो चाहे एक कौड़ी फेंक भी दे, वह अकेली दूकान पर रहती है तो गालियाँ छोड़ और कुछ नहीं देती। पैसे का सौदा लेने जाओ तो धेले का देती है। ऐसी डाँडी मारती है कि कोई परख ही नहीं सकता?
बलराज– क्यों कादिर दादा, कालेपानी जा कर लोग खेती-बारी करते हैं न?
कादिर– सुना है वहाँ ऊख बहुत होती है।
बलराज– तब तो चाँदी है। खूब ऊख बोयेंगे।
कल्लू– लेकिन दादा, तुम चौदह बरस थोड़े ही जियोगे। तुम्हारी कबर कालेपानी में ही बनेगी।
कादिर– हम तो लौट आना चाहते हैं, जिसमे अपनी हड़ावर यहीं दफन हो। वहाँ तुम लोग न जाने मिट्टी की क्या गत करो।
दुखरन– भाई, मरने-जीने की बात मत करो। मनाओ कि भगवान सबको जीता-जागता फिर अपने बाल-बच्चों में ले आये।
बलराज– कहते हैं, वहाँ पानी बहुत लगता है।
दुखरन– यह सब तुम्हारे बाप की करनी है, मारा, गाँव-भर का सत्यानश कर दिया। अकस्मात् कमरे का द्वार खुला और जेल के दारोगा ने आ कर कहा, बाबू प्रेमशंकर, आपके ऊपर से सरकार ने मुकदमा उठा लिया। आप बरी हो गये। आपके घरवाले बाहर खड़े हैं।
प्रेमशंकर को ग्रामीणों के सरल वार्तालाप में बड़ा आनन्द आ रहा था। चौंक पड़े। ज्ञानशंकर और ज्वालासिंह के बयान उनके अनुकूल हुए थे, लेकिन यह आशय न था कि वह इस आधार पर निर्दोष ठहराये जायँगे। वह तुरन्त ताड़ गये कि यह चचा साहब की करामात है, और वास्तव में था भी यही। प्रभाशंकर को जब वकीलों से कोई आशा न रही तो उन्होंने कौशल से काम लिया और दो-ढाई हजार रुपयों का बलिदान करके यह वरदान पाया था। रिश्वत, खुशामद, मिष्टालाप यह सभी उनकी दृष्टि में हिरासत से बचने के लिए क्षम्य था।
प्रेमशंकर ने जेलर से कहा, यदि नियमों के विरुद्ध न हो तो कम-से-कम मुझे रात भर और यहाँ रहने की आज्ञा दीजिए। जेलर ने विस्मित हो कर कहा, यह आप क्या कहते हैं? आपका स्वागत करने के लिए सैकड़ों आदमी बाहर खड़े हैं!
प्रेमशंकर ने विचार किया, इन गरीबों को मेरे यहाँ रहने की कितना ढाँढ़स था। कदाचित उन्हें आशा थी कि इनके साथ हम लोग भी बरी हो जायँगे। मेरे चले जाने से ये सब निराश हो जायँगे। उन्हें तसल्ली देते हुए बोले, भाइयों मुझे विवश हो कर तुम्हारा साथ छोड़ना पड़ रहा है, पर मेरा हृदय आपके ही साथ रहेगा। सम्भव है बाहर आ कर मैं आपकी कुछ सेवा कर सकूँ। मैं प्रति दिन आपसे मिलता रहूँगा।
साथियों से बिदा होकर ज्यों ही वह फाटक पर पहुँचे कि लाला प्रभाशंकर ने दौड़कर उन्हें छाती से लगा लिया। जेल के चपरासियों ने उन्हें चारों ओर, से घेर लिया और इनाम माँगने लगे। प्रभाशंकर ने हर एक को दो-दो रुपये दिये। बग्घी चलने ही वाली थी कि बाबू ज्वालासिंह अपनी मोटर साइकिल पर आ पहुँचे और प्रेमशंकर के गले लिपट गये। प्रेमशंकर ने पहले हाजीपुर जाकर फिर लौटने का निश्चय किया। ज्योंही बग्घी बगीचे में पहुँची, हलवाहे और माली सब दौड़े और प्रेमशंकर के चारों ओर खड़े हो गये।
प्रेम– क्यों जी, दमड़ी जुताई हो रही है न?
दमड़ी ने लज्जित होकर कहा, मालिक, औरों की तो नहीं कहता, पर मेरा मन काम करने में जरा भी नहीं लगता। यही चिन्ता लगी रहती थी कि आप न जाने कैसे होंगे (निकट आकर) भोला कल एक टोकरी आमरूद तोड़ कर बेच लाया है।
भोला– दमड़ी तुमने सरकार के कान में कुछ कहा तो ठीक न होगा। मुझे जानते हो कि नहीं? यहाँ जेहल से नहीं डरते! जो कुछ कहना हो मुँह पर बुरा-भला कहो।
दमड़ी– तो तुम नाहक जामे से बाहर हो गये। तुम्हें कोई कुछ थोड़े ही कहता है।
भोला– तुमने कानाफूसी की क्यों? मेरी बात न कही होगी, किसी और की कही होगी तुम कौन होते हो किसी की चुगली खानेवाले?
मस्ता कोरी ने समझाया– भोला, तुम खामखा झगड़ा करने लगते हो। तुमसे क्या मतलब? जिसके जी मैं आता है मालिक कहता है। तुम्हें क्यों बुरा लगता है।
भोला– चुगली खाने चले हैं, कुछ काम करें न धन्धा सारे दिन नशा खाये पड़े रहते हैं, इनका मुँह है कि दूसरों की शिकायत करें।
इतने में भवानीसिंह आ पहुँचे, जो मुखिया थे। यह विवाद सुना तो बोले– क्यों लड़े मरते हो यारो, क्या फिर दिन न मिलेगा? मालिक से कुशल-क्षेम पूछना तो दूर रहा, कुछ सेवा-टहल तो हो न सकी, लगे आपस में तकरार करने।
इस सामयिक चेतावनी ने सबको शान्त कर दिया। कोई दौड़कर झोंपड़े में झाडू लगाने लगा, किसी ने पलँग डाल दिया, कोई मोढ़े निकाल लाया, कोई दौड़ कर पानी लाया, कोई लालटेन जलाने लगा। भवानीसिंह अपने घर से दूध लाये। जब तीनों सज्जन जलपान करके आराम से बैठे तो ज्वालासिंह ने कहा, इन आदमियों से आप क्योंकर काम लेते हैं? मुझे तो सभी निकम्मे जान पड़ते हैं।
प्रेमशंकर– जी नहीं, यह सब लड़ते हैं तो क्या, खूब मन लगा कर काम करते हैं। दिन-भर के लिए जितना काम बता देता हूँ उतना दोपहर तक ही कर डालते हैं।
लाला प्रभाशंकर जी से डर रहे थे कि कहीं प्रेमशंकर अपने बरी हो जाने के विषय में कुछ पूछ न बैठें। वह इस रहस्य को गुप्त ही रखना चाहते थे। इसलिए वह ज्वालासिंह से बातें करने लगे। जब से इनकी बदली हो गयी थी, इन्हें शान्ति नसीब न हुई थी। ऊपर वाले नाराज, नीचे वाले नाराज, ज़मींदार नाराज। बात-बात पर जवाब तलब होते थे। एक बार मुअत्तल भी होना पड़ा था। कितना ही चाहा कि वहाँ से कहीं और भेज दिया जाऊँ, पर सफल न हुए। नौकरी से तंग आ गये थे और अब इस्तीफा देने का विचार कर रहे थे। प्रभाशंकर ने कहा, भूल कर भी इस्तीफा देने का इरादा न करना, यह कोई मामूली ओहदा नहीं है। इसी ओहदे के लिए बड़े-बड़े रईसों और अमीरों के माथे घिसे जाते हैं, और फिर भी कामना पूरी नहीं होती। यह सम्मान और अधिकार आपको और कहाँ प्राप्त हो सकता है?
ज्वाला– लेकिन इस सम्मान और अधिकार के लिए अपनी आत्मा का कितना हनन करना पड़ता है? अगर निःस्पृह भाव से अपना काम कीजिए तो बड़े-बड़े लोग पीछे पड़ जाते हैं। अपने सिद्धान्तों का स्वाधीनता से पालन कीजिए तो हाकिम लोग त्योरियाँ बदलते हैं। यहाँ उसी की सफलता होती है जो खुशामदी और चलता हुआ है, जिसे सिद्घान्तों की परवाह नहीं। मैंने तो आज तक किसी सहृदय पुरुष को फलते-फूलते नहीं देखा। बस, शतरंजबाजों की चाँदी है। मैंने अच्छी तरह आजमा कर देख लिया। यहाँ मेरा निर्वाह नहीं है। अब तो यही विचार है कि इस्तीफा देकर इस बगीचे में आ बसूँ और बाबू प्रेमशंकर के साथ जीवन व्यतीत करूँ, अगर इन्हें कोई आपत्ति न हो।
प्रेमशंकर– आप शौक से आइए, लेकिन खूब दृढ़ होकर आइएगा।
ज्वालासिंह– अगर कुछ कोर-कसर होगी तो यहाँ पूरी हो जायेगी।
प्रेमशंकर ने अपने आदमियों से खेती-बारी के सम्बन्ध में कुछ बातें की और ८ बजते-बजते लाला प्रभाशंकर के घर चले।