प्रेमशंकर की कृषिशाला अब नगर के रमणीय स्थानों की गणना में थी। यहाँ ऐसी सफाई और सजावट थी। कि प्रातः रसिकगण सैर करने आया करते। यद्यपि प्रेमशंकर केवल उसके प्रबन्धकर्ता थे, पर वस्तुतः असामियों की भक्ति और पूर्ण विश्वास ने उन्हें उसका स्वामी बना दिया था। अब अपनी इच्छानुसार नयी-नयी फसलें पैदा करते; नाना प्रकार की परीक्षाएँ करते, पर कोई जरा भी न बोलता। और बोलता ही क्यों, जब उनकी कोई परीक्षा असफल न होती थी! जिन खेतों में मुश्किल से पाँच-सात मन उपज होती थी, वहाँ अब पन्द्रह-बीस मन का औसत पड़ता था। उस पर बाग की आमदनी अलग थी। इन्हीं चार सालों में कलमी आम, बेर, नारंगी आदि के पेड़ों में फल लगने शुरू हो गये थे। शाक-भाजी की पैदावार घाटे में थी। प्रेमशंकर में व्यावसायिक संकीर्णता छू तक न गयी थी। जो सज्जन यहाँ आ जाते उन्हें फूल-फलों की डाली अवश्य भेंट की जाती थी। प्रेमशंकर की देखा-देखी हाजीपुर वालों ने भी अपने जीवन का कुछ ऐसा डौल कर लिया था कि उनकी सारी आवश्यकताएँ उसी बगीचे से पूरी हो जाती थीं। भूमि का आठवाँ भाग कपास के लिए अलग कर दिया गया था। अन्य प्रान्तों से उत्तम बीज मँगाकर बोये गये थे। गाँव के लोग स्वयं सूत कात लेते थे और गाँव का ही कोरी उसके कपड़े बुन देता था। नाम उसका मस्ता था। पहले वह जुआ खेला करता था और कई बार-चोरी में पकड़ा गया था। लेकिन अब उसने श्रम से गाँव में भले आदमियों में गिना जाता था। प्रेमशंकर के उद्योग से आसपास के गाँवों में भी कपास की खेती होने लगी थी और कितने ही कोरियों और जुलाहों के उजड़े हुए घर आबाद हो गये थे। देहातों के मुकदमेबाज ज़मींदार और किसान बहुधा इसी जगह ठहरा करते थे। यहाँ इन्हें ईंधन, शाक-भाजी, नमक-तेल के लिए पैसे खर्च करने पड़ते थे। प्रेमशंकर उनसे खूब बातें करते और उन्हें बगीचे की सैर कराते। साधु-सन्तों का तो मानों अखाड़ा ही था। दो-चार मूर्तियाँ नित्य ही पड़ी रहती थीं। न जाने उस भूमि में क्या बरकत थी कि इतनी आतिथ्य-सेवा करने पर भी किसी पदार्थ की कमी न थी। हाजीपुर वाले तो उन्हें देवता समझते थे और अपने भाग्य को सराहते थे कि ऐसे पुण्यात्मा ने हमें उबारने के लिए यहाँ निवास किया। उनके सदय, उदार, सरल स्वभाव ने मस्ता कोरी के अतिरिक्त गाँव के कई कुचरित्र मनुष्यों का उद्धार कर दिया था। भोला अहीर जिसके मारे खलियान में अनाज न बचता था, दमड़ी पासी जिसका पेशा ही लठैती था, अब गाँव के सबसे मेहनती और ईमानदार किसान थे।
प्रेमशंकर अक्सर कृषकों की आर्थिक दुरवस्था पर विचार किया करते थे। अन्य अर्थशास्त्रवेत्ताओं की भाँति वह कृषकों पर फजूलखर्ची, आलस्य, अशिक्षा या कृषि-विधान से अनभिज्ञता को दोष लगाकर इस प्रश्न को हल न करते थे। वह परोक्ष में कहा करते थे कि मैं कृषकों को शायद ही कोई ऐसी बात बता सकता हूँ जिसका उन्हें ज्ञान न हो। परिश्रमी तो इनसे अधिक कोई संसार में न होगा। मितव्ययिता में, आत्मसंयम में, गृह-प्रबन्ध में वे निपुण हैं। उनकी दरिद्रता का उत्तरदायित्व उन पर नहीं, बल्कि उन परिस्थितियों पर है जिनके अधीन उनका जीवन व्यतीत होता है। और यह परिस्थितियाँ क्या हैं? आपस की फूट, स्वार्थपरता और एक ऐसी संस्था का विकास, जो उनके पाँव की बेड़ी बनी हुई है। लेकिन जरा और विचार कीजिए तो यह तीनों कहानियाँ एक ही शाखा से फूटी हुई प्रतीत होंगी और यह वही संस्था है जिसका अस्तित्व कृषकों के रक्त पर अवलम्बित है। आपस में विरोध क्यों? दुरवस्थाओं के कारण, जिनकी इस वर्तमान शासन ने सृष्टि की है। परस्पर प्रेम और विश्वास क्यों नहीं है? इसलिए कि यह शासन इन सद्भावों को अपने लिए घातक समझता है और उन्हें पनपने नहीं देता। इस परस्पर विरोध का सबसे दुःखजनक फल क्या है? भूमि का क्रमशः अत्यन्त अल्प भागों में विभाजित हो जाना और लगान की अपरिमित वृद्धि। प्रेमशंकर इस शासन के सुधार को तो मानव शक्ति से परे समझते थे, लेकिन भूमि पर के बँटवारे को रोकना उन्हें साध्य जान पड़ता था और यद्यपि किसी आन्दोलन में अगुआ बनना उन्हें पसन्द न था। किन्तु इस विषय में वह इतने उत्सुक थे कि समाचार-पत्रों में अपने मन्तव्यों को प्रकट करने से न रुक सके। इससे उनका उद्देश्य केवल यह था कि कोई मुझसे अधिक अनुभवशील, कुशल और प्रतिभाशाली व्यक्ति इस प्रश्न को अपने हाथ में ले ले।
एक दिन वह कई सहृदय मित्रों के साथ बैठे हुए इसी विषय पर बातचीत कर रहे थे कि एक सज्जन ने कहा, यदि आपका विचार है कि यह प्रथा कानून से बन्द की जा सकती है तो आपकी भ्रान्ति है। इस विष-युक्त पौधे की जड़ें मनुष्य के हृदय में हैं और जब तक इसे हृदय से खोदकर न निकालिएगा यह इसी प्रकार फूलता-फलता रहेगा।
प्रेमशंकर– कानून में कुछ-न-कुछ सुधार तो हो ही सकता है!
इस पर उन महाशयों ने जोर देकर कहा, कदापि नहीं। बल्कि स्वार्थ प्रत्यक्ष रूप से स्फुटित होने का अवसर न पाकर और भी भयंकर रूप धारण कर लेगा।
इस पर एक किसान जो बँटवारे की दरख्वास्त करके कचहरी से लौटा था और आज यहीं ठहरा हुआ था, बोल उठा, कहूँ कुछ न होई। हम तो आपे लोगन के पीछे-पीछे चलित हैं। जब आपके लोगन में भाई-भाई में निबाह नाहीं होय सकत है तो हमार कस होई? आपका नारायण सब कुछ दिये हैं, मुदा आपे अपने भाई से अलग रहत हो।
ये उच्छृंखल शब्द प्रेमशंकर के हृदय में तीर के समान चुभ गये। सिर झुका लिया। मुखश्री मलीन हो गयी। मित्रों ने कृषक की ओर तिरस्कार-पूर्ण नेत्रों से देखा। यह एक जगत् व्यापार था। यह व्यक्तियों को खींचना नितान्त न्याय-विरुद्ध था, पर वह अक्खड़ देहाती सभ्यता के रहस्यों को क्या जानें? मुँह में जो बात आयी कह डाली। एक महाशय ने कहा, निरे गँवार हो, जरा भी तमीज नहीं।
दूसरे महाशय बोले, अगर इतना ही ज्ञान होता तो देहाती क्यों कहलाते? न अवसर का ध्यान, न औचित्य का विचार, जो कुछ ऊँटपटाँग मुँह में आया, बक डाला।
बेचारे किसान को अब मालूम हुआ कि मुँह से कोई अनुचित बात निकल गयी। लज्जित होकर बोला, साहब, मैं गँवार मनई। ई सब फेरफान का जानौं। जौन कुछ भूल चूक हो गयी होय माफ की जाय।
प्रेमशंकर– नहीं-नहीं, तुमने कोई अनुचित बात नहीं कही। मेरे लिए इस स्पष्ट कथन की आवश्यकता थी। तुमने अच्छी शिक्षा दे दी। कोई सन्देह नहीं कि शिक्षित जनों में भी विरोध और वैमनस्य का उतना ही प्रकोप है जितना अशिक्षित लोगों में है और मैं स्मयं इस विषय में दोषी हूँ। मुझे किसी को समझाने का अधिकार नहीं।
मित्रगण कुछ देर तक और बैठे रहे, लेकिन प्रेमशंकर कुछ ऐसे दब गये कि फिर जबान ही न खुली। अन्त में सब एक-एक करके चले गये।
सूर्यास्त हो रहा था। प्रेमशंकर घोर चिन्ता की दशा में अपने झोंपड़े के सामने टहल रहे थे। उनके सामने अब यह समस्या थी कि ज्ञानशंकर से कैसे मेल हो। वह जितना ही विचार करते थे उतना ही अपने को दोषी पाते थे। यह सब मेरी ही करनी है। जब असामियों से उनकी लड़ाई ठनी हुई थी तो मुझे उचित नहीं था कि असामियों का पक्ष ग्रहण करता। माना कि ज्ञानशंकर का अत्याचार था! ऐसी दशा में मुझे अलग रहना चाहिए था या उन्हें भ्रातृवत् समझाना चाहिए था। यह तो मुझसे न हुआ। उल्टे उन्हीं से लड़ बैठा। माना कि उनके और मेरे सिद्धान्तों में घोर अन्तर है, लेकिन सिद्धान्त-विरोध परस्पर भ्रातृ-प्रेम को क्यों दूषित करे? यह भी माना कि जब से मैं आया हूँ उन्होंने मेरी अवहेलना ही की है, यहाँ तक कि मुझे पत्नी-प्रेम से वंचित कर दिया, पर मैंने भी तो कभी उनसे मिले रहने की, उनसे कटु व्यवहार को भूल जाने की, उसकी अप्रिय बातों को सह लेने की चेष्टा नहीं की। वह मुझसे एक अंगुल खसके तो मैं उनसे हाथ भर हट गया। सिद्धान्त-प्रियता का यह आशय नहीं है कि आत्मीय जनों से विरोध कर लिया जाय। सिद्धान्तों को मनुष्यों से अधिक मान्य समझना अक्षम्य है। उनके हृदय को अपनी तरफ से साफ करने का यह अच्छा अवसर है।
सन्ध्या हो गयी थी। ज्ञानशंकर अपने सुरम्य बँगले के सामने मौलवी ईजाद हुसेन के साथ बैठे बातें कर रहे थे। मौलवी साहब ने सरकारी नौकरी में मनोनुकूल सफलता न देख इस्तीफा दे दिया था और कुछ दिनों से जाति-सेवा में लीन हो गये थे। उन्होंने ‘‘अंजुमन इत्तहाद’’ नाम की एक संस्था खोल, ली थी, जिसका उद्देश्य हिन्दू-मुसलमानों में परस्पर प्रेम और मैत्री बढ़ाना था। यह संस्था चन्दे से चलती थी और इसी हेतु से सैयद साहब यहाँ पधारे थे।
ज्ञानशंकर ने कहा, मुझे एक दिन-दिन का तजरबा हो रहा है कि ज़मींदारी करने के लिए बड़ी सख्ती की जरूरत है। ज़मींदार नजर-नजराना, हरी, बेगार, डाँड़-बाँध सब कुछ छोड़ सकता है, लेकिन लगान तो नहीं छोड़ सकता है। वह भी अब बगैर अदालती कार्यवाई के नहीं वसूल होता।
ईजाद हुसेन– जनाब बजा फरमाते हैं, लेकिन गुलाम ने ऐसे रईसों को भी देखा है जो कभी अदालत के दरवाजे तक न गये। जहाँ किसी असामी ने सरकशी की, उसकी मरम्मत कर दी और लुत्फ यह कि कभी डण्डे या हण्टर से काम नहीं लिया। गरमी में झुलसती हुई धूप और जाड़े में बर्फ का-सा ठण्डा पानी। बस, इसी लटके से उनकी सारी मालगुजारी वसूल हो जाती है। मई और जून की धूप जरा देर सिर पर लगी और असामी ने कमर ढीली की।
ज्ञानशंकर– मालूम नहीं, ऐसे आदमी कहाँ हैं? यहाँ तो ऐसे बदमाशों से पाला पड़ा है जो बात-बात पर अदालत का रास्ता लेते हैं। मेरे ही मौजे को देखिए, कैसा तूफान उठ गया और महज चरावर को रोक देने के पीछे।
इतने में डॉक्टर इर्फान अली बार-ए-ट्ला की मोटर आ पहुँची। ज्ञानशंकर ने उनका स्वागत किया।
डॉक्टर– अबकी आपने बड़ा इन्तजार कराया। मैं तो आपसे मिलने के लिए गोरखपुर आने वाला था।
ज्ञानशंकर– रियासत का काम इतना फैला हुआ है कि कितना ही समेटूँ, नहीं सिमटता।
डॉक्टर– आपको मालूम तो होगा, यहाँ युनिवर्सिटी में इकनोमिक्स की जगह खाली है। अब तो आप सिण्डिकेट में भी आ गये हैं।
ज्ञानशंकर– जी हाँ, सिण्डिकेट में तो लोगों ने जबरदस्ती धर घसीटा लेकिन यहाँ रियासत के कामों में फुर्सत कहाँ कि इधर तवज्जह करूँ। कुछ कागजात गये थे, लेकिन मुझे उनके देखने का मौका ही न मिला।
डॉक्टर– डॉक्टर दास के चले जाने से यह जगह खाली हो गयी है और मैं इसका उम्मीदवार हूँ।
ज्ञानशंकर ने आश्चर्य से कहा, आप!
डॉक्टर– जी हाँ, अब मैंने यही फैसला किया है। मेरी तबीयत रोज-ब-रोज वकालत से बेजार होती जाती है।
ज्ञानशंकर– आखिर क्यों? आपकी वकालत तो तीन-चार हजार से कम की नहीं। हुक्काम की खुशामद तो नहीं खलती? या काँसेन्स (आत्मा) का खयाल है?
डॉक्टर– जी नहीं, सिर्फ इसलिए कि इस पेशे में इन्सान की तबियत बेजा जरपरस्ती की तरफ मायल हो जाती है। कोई ‘वकील कितना ही हकशिनास क्यों न हो, उसे हमदर्दी और इन्सानियत से खुशी नहीं होती जो एक शरीफ आदमी को होनी चाहिए। इसके खिलाफ आपस की लड़ाइयों और दगाबाजियों से एक खास दिलचस्पी हो जाती है, वह एक दूसरी ही दुनिया में पहुँच जाता है, जो लतीफ जज़बात से खाली है। मैं महानों से इसी कशमकश में पड़ा हुआ हूँ और अब भी यह इरादा है कि जितनी जल्द मुमकिन हो इस पेशे को सलाम करूँ।
यही बातें हो रही थीं कि फैजू और कर्तार सिंह ने सामने आकर सलाम किया। ज्ञानशंकर ने पूछा, कहो खैरियत तो है।
फैजू– हुजूर, खैरियत क्या कहें! रात को किसी ने खाँ साहब को मार डाला।
ईजाद हुसेन और इर्फान अली चौंक पड़े, लेकिन ज्ञानशंकर लेश-मात्र भी विचलित न हुए, मानो उन्हें यह बात पहले ही मालूम थी। बोले, तुम लोग कहाँ थे? कहीं सैर-सपाटे करने चले दिये थे या अफीम की पिनक में पड़े हुए थे।
फैजू– हुजूर, थे तो चौपाल में ही, पर किसी को क्या खबर कि यह वारदात होगी?
ज्ञान– क्यों, खबर क्यों न थी? जो आदमी साँप को पैरों से कुचल रहा हो उसे यह मालूम होना चाहिए कि साँप के दाँत जहरीले होते हैं। ज़मींदारी करना साँप को नचाना है। वह सँपेरा अनाड़ी है जो साँप को काटने का मौका दे! खैर, कातिल का कुछ पता चला?
फैज– जी हाँ, वही मनोहर अहीर है। उसने सवेरे ही थाने में जा कर एकबाल कर दिया। दोपहर को थानेदार साहब आ गये और तहकीकात कर रहे हैं। खाँ साहब का तार हुजूर को मिल गया था? जिस दिन खाँ साहब ने चरावर को रोकने का हुक्म दिया उसी दिन गाँव वालों में एका हो गया। खाँ साहब ने घबड़ाकर हुजूर को तार दिया। मैं तीन बजे तारघर से लौटा तो गाँव में मुकदमा लड़ने के लिए चन्दे का गुट्ट हो रहा था। रात को यह वारदात हो गयी।
अकस्मात् प्रेमशंकर लाला प्रभाशंकर के साथ आ गए। ज्ञानशंकर को देखते ही प्रेमशंकर टूटकर उनसे गले मिले और पूछे, कब आए? सब कुशल है न?
ज्ञानशंकर ने रुखाई से उत्तर दिया, कुशल का हाल इन आदमियों से पूछिए जो अभी लखनपुर से आये हैं। गाँव वालों ने गौस खाँ का काम तमाम कर दिया।
प्रेमशंकर स्तम्भित हो गये। मुँह से निकला, अरे! यह कब?
ज्ञान– आज ही रात को।
प्रेम– बात क्या है?
ज्ञान– गाँव वालों की बदमाशी और सरकशी के सिवा और क्या बात हो सकती है। मैंने चरावर को रोकने का हुक्म दिया था। वहाँ एक बाग लगाने का विचार था। बस, इतना बहाना पाकर सब खून-खच्चर पर उद्यत हो गए।
प्रेम– कातिल का कुछ पता चला?
ज्ञान– अभी तो मनोहर ने थाने में जाकर एक बाल किया है।
प्रेम– मनोहर तो बड़ा सीधा, गम्भीर पुरुष है।
ज्ञान– (व्यंग्य से) जी हाँ, देवता था।
डॉक्टर साहब ने मार्मिक भाव से देखकर कहा, यह किसी एक आदमी का खेल हार्गिज नहीं है।
ज्ञान– वही मेरा भी ख्याल है। मनोहर की इतनी मजाल नहीं है कि वह अकेला यह काम कर सके। निस्सन्देह सारा गाँव मिला हुआ है। मनोहर को सबने तबेले का बन्दर बना रखा है। देखिए थानेदार की तहकीकात का क्या नतीजा होता है। कुछ भी हो, अब मैं इस मौजे को वीरान करके ही छोड़ूँगा। क्यों फैजू, तुम्हारा क्या खयाल है? मनोहर अकेले यह काम कर सकता है?
फैजू– नहीं हुजूर, साठ बरस का बुड्ढा भला क्या हिम्मत करता! और कोई चाहे उसका मददगार न हो, लेकिन उसका लड़का तो जरूर ही साथ रहा होगा।
कर्तार– वह बुड्ढा है तो क्या, बड़े जीवट का आदमी है। उसके सिवा गाँव में किसी का इतना कलेजा नहीं है।
ज्ञान– तुम गँवार आदमी हो, इन बातों को क्या समझो। तुम्हें भंग का गोला चाहिए। डॉक्टर साहब, मुआमले में मुद्दई तो सरकार होगी, लेकिन आप भी मेरी तरफ से पैरवी कीजिएगा। मैंने फैसला कर लिया है कि गाँव के किसी बालिग आदमी को बेदाग न छोड़ूँगा।
प्रेमशंकर ने दबी जबान से कहा, अगर तुम्हें विश्वास हो कि यह एक आदमी का काम है तो सारे गाँव को समेटना उचित नहीं। ऐसा न हो कि गेहूँ के साथ घुन भी पिस जाय।
ज्ञानशंकर क्रुद्ध होकर बोले, बहुत अच्छा हो अगर आप इस विषय में अपने सत्य और न्याय के नियमों का स्वाँग न रचें। यह इन्हीं की बरकत है कि आज इन दुष्टों को इतना साहस हुआ है। आप मुझे साफ-साफ कहने पर मजबूर कर रहे हैं। ये सब आपके ही बल पर कूद रहे हैं। आपने प्रत्येक अवसर पर मेरे विपक्ष में उनकी सहायता की है, उनसे भाईचारा किया है। और उनके सिर पर हाथ रखने के लिए हमेशा तैयार रहते हैं। आपके इसी भ्रातृ-भाव ने उनके सिर फिरा दिये। मेरा भय उनके दिल से जाता रहा। आपके सिद्धान्तों और विचारों का मैं आदर करता हूँ, लेकिन आप कड़वी नीम को दूध से सींच रहे हैं। और आशा करते हैं कि मीठे फल लगेंगे। ऐसे कुपात्रों के साथ ऊँचे नियमों का व्यवहार करना दीवाने के हाथ में मशाल दे देना है।
प्रेमशंकर ने फिर जबान न खोली और न सिर उठाया। लाला प्रभाशंकर को ये बातें ऐसी बुरी लगीं कि वह तुरन्त उठकर चले गये। लेकिन प्रेमशंकर आत्म-परीक्षा में मौन मूर्तिवत् बैठे रहे। दीन देहातियों के साथ साधारण सज्जनता का बर्ताव करने का परिणाम ऐसा भयंकर होगा यह एक बिलकुल नया अनुभव था। केवल एक आदमी की जान ही नहीं गयी, वरन् और भी कितने ही प्राणों के बलिदान होने की आशंका थी। भगवान् उन गरीबों पर दया करो। मैंने सच्चे हृदय से उनकी सेवा नहीं की। द्वेष का भाव मुझे प्रेरित करता रहा। मैं ज्ञानशंकर को नीचा दिखाना चाहता था। यह समस्या उसी द्वेष भाव का दंड है। क्या एक लखनपुर ही अपने ज़मींदार के अत्याचारों से पीड़ित था? ऐसा कौन-सा इलाका है कि ज़मींदार के हाथों रक्त के आँसू न बहा रहा हो। तो लखनपुर के ही प्रति मेरी इतनी सहानुभूति क्यों प्रचंड हो गयी और फिर ऐसे अत्याचार क्या इससे पहले न होते थे? यह तो आये दिन ही होता रहता था; लेकिन कभी असामियों को चूँ करने की हिम्मत न पड़ती थी। इस बार वह क्यों मार-काट पर उद्यत हो गये! इन शंकाओं का उन्हें एक ही उत्तर मिलता था। और वही उस उत्तरदायित्व के भार को और गुरुतर बना देता था। हाय! मैंने कितने प्राणों को अपनी ईर्ष्याग्नि के कुंड में झोंक दिया! अब मेरा कर्त्तव्य क्या है? क्या यह आग लगाकर दूर से खड़ा तमाशा देखूँ? यह सर्वथा निंद्य है। अब तो इन अभागों की यथा योग्य सहायता करनी ही पड़ेगी, चाहे ज्ञानशंकर को कितना ही बुरा लगे। इसके सिवा मेरे लिए कोई दूसरा मार्ग नहीं है।
प्रेमशंकर इन्हीं विचारों में डूबे हुए थे कि मायाशंकर ने आकर कहा, चाचा जी, अम्मा कहती हैं अब तो बहुत देर हो गयी, हाजीपुर में कैसे जाइएगा? यहीं भोजन कर लीजिए, और आज यहीं रह जाइए।
प्रेमशंकर शोकमय विचारों की तरंग में भूल गये कि अभी मुझे हाजीपुर लौटना है। माया को प्यार करके बोले, नहीं बेटा, मैं चला जाऊँगा, अभी ज्यादा रात नहीं गयी है। यहाँ रह जाऊँ, तो वहाँ बड़ा हर्ज होगा।
यह कहकर वह उठ खड़े हुए। ज्ञानशंकर की ओर करुण नेत्रों से देखा और बिना कुछ कहे ही चले गये। ज्ञानशंकर ने उनकी तरफ ताका भी नहीं।
उनके जाने के बाद डॉक्टर महोदय बोले, मैं तो इनकी बड़ी तारीफ सुना करता था पर पहली ही मुलाकात में तबीयत आसूदा हो गयी। कुछ क्रुद्ध से मालूम होते हैं।
ज्ञान– बड़े भाई हैं, उनकी शान मैं क्या कहूँ! कुछ दिनों अमेरिका क्या रह आये हैं गोया हक और इन्साफ का ठेका ले लिया है। हालाँकि अभी तक अमेरिका में भी यह खयालात अमल के मैदान से कोसों दूर हैं। दुनिया में इन ख्यालों के चर्चे हमेशा रहे हैं और हमेशा रहेंगे। देखना सिर्फ यह है कि यह कहाँ तक अमल में लाये जा सकते हैं। मैं खुद इन उसूलों का कायल हूँ, पर मेरे खयाल में अभी बहुत दिनों तक इस जमीन में यह बीज सरसब्ज नहीं हो सकता है।
इसके बाद कुछ देर इस दुर्घटना के सम्बन्ध में बातचीत होती रही। जब डॉक्टर साहब और ईजाद हुसेन चले गये तब ज्ञानशंकर घर में जाकर बोले, देखा भाई साहब ने लखनपुर में क्या गुल खिलाया? अभी खबर आयी है कि गौस खाँ को लोगों ने मारा डाला।
दोनों स्त्रियाँ हक्की-बक्की होकर एक-दूसरे का मुँह ताकने लगीं।
ज्ञानशंकर ने फिर कहा, वह वर्षों से वहाँ जा-जाकर असामियों से जाने क्या कहते थे, न जाने क्या सिखाते थे, जिसका यह नतीजा निकला है। मैंने जब इनके वहाँ आने-जाने की खबर पायी तो उसी वक्त मेरे कान खड़े हुए और मैंने इनसे विनय की थी कि आप गँवारों को अधिक सिर न चढ़ायें। उन्होंने मुझे भी वचन दिया कि उनसे कोई सम्बन्ध न रखूँगा। लेकिन अपने आगे किसी की समझते ही नहीं। मुझे भय है कि कहीं इस मामले में वह भी न फँस जायँ। पुलिवाले एक कट्टर होते हैं। वह किसी-न-किसी मोटे असामी को जरूर फाँसेंगें। गाँववालों पर जहाँ सख्ती की कि सब-के-सब खुल पड़ेंगे और सारा अपराध भाई साहब के सिर डाल देंगे।
श्रद्धा ने ज्ञानशंकर की ओर कातर नजरों से देखा और सिर झुका लिया। अपने मन के भावों को प्रकट न कर सकी। विद्या ने कहा, तुम जरा थानेदार के पास क्यों नहीं चले जाते? जैसे बने, उन्हें राजी कर लो।
ज्ञान– हाँ कुछ-न-कुछ तो करना ही पड़ेगा; लेकिन एक छोटे आदमी की खुशामद करना, उसके नखरे उठाना कितने अपमान की बात है! भाई साहब को ऐसा न समझता था।
श्रद्धा ने सिर झुकाये हुए सरोष स्वर में कहा, पुलिसवाले उन पर जो अपराध लगायें; वह ऐसे आदमी नहीं हैं कि गाँववालों को बहकाते फिरें, बल्कि अगर गाँववालों की नीयत उन्हें पहले मालूम हो जाती तो यह नौबत ही न आती। तुम्हें थानेदार की खुशामद करने की कोई जरूरत नहीं। वह अपनी रक्षा आप कर सकते हैं।
विद्या– मैं तुम्हें बराबर समझाती आती थी कि देहातियों से रार न बढ़ाओ। बिल्ली भी भागने को सह नहीं पाती तो शेर हो जाती है। लेकिन तुमने कभी कान ही न दिये।
ज्ञान– कैसी बेसिर पैर की बातें करती हो? मैं इन टकड़गदे किसानों से दबता फिरूँ? ज़मींदार न हुआ कोई चरकटा हुआ। उनकी मजाल थी कि मेरे मुकाबले में खडे़ होते? हाँ, जब अपने ही घर में आग लगाने वाले मौजूद हों, तो जो कुछ न हो जाय वह थोड़ा है। मैं एक नहीं सौ बार कहूँगा कि अगर भाई साहब ने इन्हें सिर न चढ़ाया होता तो आज इनके हौसले इतने न बढ़ते।
विद्या– (दबी जबान से) सारा शहर जिसकी पूजा करता है उसे तुम घर में आग लगानेवाले कहते हो?
ज्ञान– यही लोक-सम्मान तो सारे उपद्रवों का कारण है।
श्रद्धा और ज्यादा न सुन सकी। उठकर अपने कमरे में चली गयी। तब ज्ञानशंकर ने कहा, मुझे तो इनके फँसने में जरा सन्देह नहीं है।
विद्या– तुम अपनी ओर से उनके बचाने में कोई बात उठा न रखना, यह तुम्हारा धर्म है। आगे विधाता ने जो लिखा है वह तो होगा ही।
ज्ञान– भाभी की तबियत का कुछ और ही रंग दिखाई देता है।
विद्या– तुम उनका स्वभाव जानते नहीं। वह चाहे दादा जी के साये से भी भागें, पर उनके नाम पर जान देती हैं, हृदय से उनकी पूजा करती हैं।
ज्ञान– इधर भी चलती हैं, उधर भी।
विद्या– इधर लोक लाज से चलती हैं, हृदय उधर ही है।
ज्ञान– तो फिर मुझे कोई और ही उपाय सोचना पडे़गा।
विद्या– ईश्वर के लिए ऐसी बातें न किया करो।