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10 फरवरी 2022

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मनोहर अक्खड़पन की बातें तो कर बैठा; किन्तु जब क्रोध शान्त हुआ तो मालूम हुआ कि मुझसे बड़ी भूल हुई। गाँव वाले सब-के-सब मेरे दुश्मन हैं। वह इस समय चौपाल में बैठे मेरी निन्दा कर रहे होंगे। कारिंदा न जाने कौन-से उपद्रव मचाए। बेचारे दुर्जन को बात-की-बात में मटियामेट कर दिया, तो फिर मुझे बिगाड़ते क्या देर लगती है। मैं अपनी जबान से लाचार हूँ। कितना ही उसे बस में रखना चाहता हूँ, पर नहीं रख सकता। यही न होता कि जहाँ और सब लेना-देना है वहाँ दस रुपये और हो जाते, नक्कू तो न बनता। लेकिन इन विचारों ने एक क्षण में फिर पलटा खाया। मनुष्य जिस काम को हृदय से बुरा नहीं समझता, उसके कुपरिणाम का भय एक गौरवपूर्ण धैर्य की शरण लिया करता है। मनोहर अब इस विचार से अपने को शान्ति देने लगा, मैं बिगड़ जाऊँगा तो बला से, पर किसी की धौंस तो न सहूँगा, किसी के सामने सिर तो नीचा नहीं करता। जमींदार भी देख लें कि गाँव में सब-के-सब भाँड़ ही नहीं हैं। अगर कोई मामला खड़ा किया तो अदालत में हाकिम के सामने सारा भण्डा फोड़ दूँगा, जो कुछ होगा, देखा जाएगा। इसी उधेड़बुन में वह भोजन करने लगा। चौके में एक मिट्टी के तेल का चिराग जल रहा था; किन्तु छत में धुआँ इतना भरा हुआ था कि उसका प्रकाश मन्द पड़ गया था। उसकी स्त्री बिलासी ने एक पीतल की थाली में बथुए की भाजी और जौं की कई मोटी-मोटी रोटियाँ परस दीं। मनोहर इस भाँति रोटियाँ तोड़-तोड़ मुँह में रखता था, जैसे कोई दवा खा रहा हो। इतनी ही रुचि से वह घास भी खाता। बिलासी ने पूछा, क्या साग अच्छा नहीं ? गुड़ दूँ
मनोहर – नहीं, साग तो अच्छा है।
बिलासी – क्या भूख नहीं ?
मनोहर – भूख क्यों नहीं है, खा तो रहा हूँ।
बिलासी – खाते तो नहीं हो, जैसे औंघ रहे हो। किसी से कुछ कहा-सुनी तो नहीं हुई है ?
मनोहर – नहीं, कहा-सुनी किससे होती ?
इतने में एक युवक कोठरी में आकर खड़ा हो गया। उसका शरीर खूब गठीला हृष्ठ-पुष्ठ था, छाती चौड़ी और भरी हुई थी। आँखों से तेज झलक रहा था। उसके गले में सोने का यन्त्र था और दाहिने बाँह में चाँदी का एक अनन्त। यह मनोहर का पुत्र बलराज था।
बिलासी – कहाँ घूम रहे हो ? आओ, खा लो, थाली परसूँ।
बलराज ने धुएँ से आँखें मलते हुए कहा, काहे दादा, आज गिरधर महाराज तुमसे क्यों बिगड़ रहे थे ? लोग कहते हैं कि बहुत लाल-पीले हो रहे थे ?
मनोहर – कुछ नहीं; तुमने कौन कहता था ?
बलराज – सभी लोग तो कह रहे हैं। तुमसे घी माँगते थे; तुमने कहा, मेरे पास घी नहीं है, बस इसी पर तन गए।
मनोहर – अरे तो कोई झगड़ा थोड़े ही हुआ। गिरधर महाराज ने कहा तुम्हें घी देना पड़ेगा, हमने कह दिया, जब घी हो जाएगा तब देंगे, अभी तो नहीं है। इसमें भला झगड़ने की कौन सी बात थी ?
बलराज – झगड़ने की बात क्यों नहीं है। कोई हमसे क्यों घी माँगे ? किसी का दिया खाते हैं कि किसी के घर माँगने जाते हैं ? अपना तो एक पैसा नहीं छोड़ते, तो हम क्यों धौंस सहें ? न हुआ मैं, नहीं तो दिखा देता। क्या हमको भी दुर्जन समझ लिया है ?
मनोहर की छाती अभिमान से फूली जाती थी, पर इसके साथ ही यह चिन्ता भी थी कि कहीं यह कोई उजड्डपन न कर बैठे। बोला, चुपके से बैठकर खाना खा लो, बहुत बहकना अच्छा नहीं होता। कोई सुन लेगा तो वहाँ जाकर एक की चार जड़ आएगा। यहाँ कोई मित्र नहीं है।
बलराज – सुन लेगा तो क्या किसी से छिपा के कहते हैं। जिसे बहुत घमण्ड हो आकर देख ले । एक-एक का सिर तोड़ के रख दें। यही न होगा, कैद होकर चला आऊँगा। इससे कौन डरता है ? महात्मा गांधी भी तो कैद हो आए हैं।
बिलासी ने मनोहर की ओर तिरस्कार के भाव से देखकर कहा, तुम्हारी कैसी आदत है कि जब देखो एक-न-एक बखेड़ा मचाए ही रहते हो। जब सारा गाँव घी दे रहा है तब हम क्या गाँव से बाहर हैं ? जैसा बन पड़ोगा देंगे। इसमें कोई अपनी हेठी थोड़े ही हुई जाती है। हेठा तो नारायण ने ही बना दिया है। तो क्या अकड़ने से ऊँचे हो जाएँगे ? थोड़ा-सा हाँड़ी में है, दो-चार दिन में और बटोर लूँगी, जाकर तौल आना।
बलराज – क्यों दे आएँ ? किसी के दबैल हैं।
बिलासी – नहीं, तुम तो लाट गर्वनर हो। घर में भूनी भाँग नहीं, उस पर इतना घमण्ड ?
बलराज – हम दरिद्र सही, किसी से माँगने तो नहीं जाते ?
बिलासी – अरे जा बैठ, आया है बड़ा जोधा बनके। ऊँट जब तक पहाड़ पर नहीं चढ़ता तब तक समझता है कि मुझसे ऊँचा और कौन ? जमींदार से बैर कर गाँव में रहना सहज नहीं है। (मनोहर से) सुनते हो महापुरुष; कल कारिंदा के पास जाके कह सुन आओ।
मनोहर – मैं तो अब नहीं जाऊँगा।
बिलासी – क्यों ?
मनोहर – क्यों क्या, अपनी खुशी है। जाएँ क्या, अपने ऊपर तालियाँ लगवाएँ ?
बिलासी – अच्छा, तो मुझे जाने दोगे ?
मनोहर – तुम्हें भी नहीं जाने दूँगा। कारिन्दा हमारा कर ही क्या सकता है ? बहुत करेगा अपना सिकमी खेत छोड़ा लेगा। न दो हल चलेंगे, एक ही सही।
यद्यपि मनोहर बढ़-बढ़ कर बातें कर रहा था, पर वास्तव में उसका इन्कार अब परास्त तर्क के समान था। यदि बिना दूसरों की दृष्टि में अपमान उठाए बिगड़ा हुआ खेल बन जाए तो उसे कोई आपत्ति नहीं थी। हाँ, वह स्वयं क्षमा प्रार्थना करने में अपनी हेठी समझता था। एक बार तनकर फिर झुकना उसके लिए बड़ी लज्जा की बात थी। बलराज की उद्दण्डता उसे शान्त करने में हानि के भय से भी अधिक सफल हुई थी।
प्रात: काल बिलासी चौपाल जाने को तैयार हुई; पर न मनोहर साथ चलने को राजी होता था, न बलराज। अकेली जाने की उसकी हिम्मत न पड़ती थी। इतने में कादिर मियाँ ने घर में प्रवेश किया। बूढ़ा आदमी थे, ठिंगना डील, लंबी दाढ़ी, घुटने के ऊपर तक धोती, एक गाढे की मिरजई पहने हुए थे। गाँव के नाते वह मनोहर के बड़े भाई होते थे बिलासी ने उन्हें देखते ही थोड़ा-सा घूँघट निकाल लिया।
कादिर ने चिन्तापूर्ण भाव से कहा, अरे मनोहर, कल तुम्हें क्या सूझ गई ? जल्दी जाकर कारिन्दा साहब को मना लो, नहीं तो फिर कुछ करते-धरते न बनेगी। सुना है वह तुम्हारी शिकायत करने मालिकों के पास जा रहे हैं। सुक्खू भी साथ जाने को तैयार है। नहीं मालूम, दोनों में क्या साँठ-गाँठ हुई है।
बिलासी – भाई जी, यह बूढ़े हो गए; लेकिन इनका लड़कपन अभी नहीं गया। कितना समझाती हूँ, बस अपने ही मन की करते हैं। इन्हीं की देखा-देखी एक लड़का है वह भी हाथ से निकला जाता है। जिससे देखो उसी से उलझ पड़ता है। भला इनसे पूछा जाए कि सारे गाँव ने घी के रुपये लिये तो तुम्हें नाहीं करने में क्या पड़ी थी ?
कादिर – इनकी भूल है और क्या ? दस रुपये हमें भी लेने पड़े, क्या करते ? और यह कोई नयी बात थोड़ी ही है ? बड़े सरकार थे तब भी तो एक-न-एक बेगार लगी ही रहती थी।
मनोहर-भैया, तब की बातें जाने दो तब साल-दो-साल की देन बाकी पड़ जाती थी। मुदा मालिक कभी कुड़की बेदखली नहीं करते थे। जब कोई काम-काज पड़ता था, तब हमको नेवता मिलता था। लड़कियों के ब्याह के लिए उनके यहाँ से लकड़ी, चारा और 25 रु. बंधा हुआ था। यह सब जानते हो कि नहीं? जब वह अपने लड़कों की तरह पालते थे तो रैयत भी हँसी-खुशी उनकी बेगार करती थी। अब यह बातें तो गईं, बस एक-न-एक पच्चड़ लगा ही रहता है। तो जब उनकी ओर से यह कड़ाई है तो हम भी कोई मिट्टी के लोंदे थोड़े ही हैं?
कादिर-तब की बातें छोड़ो, अब जो सामने है उसे देखो । चलो, जल्दी करो, मैं इसीलिए तुम्हारे पास आया हूँ। मेरे बैल खेत में खड़े हैं।
मनोहर-दादा, मैं तो न जाऊँगा।
बिलासी-इनकी चूड़ियाँ मैली हो जायेंगी, चलो मैं चलती हूँ।
कादिर और बिलासी दोनों चौपाल चले। वहाँ इस वक्‍त बहुत से आदमी जमा थे। कुछ लोग लगान के रुपये दाखिल करने आए। कुछ घी के रुपये लेने के लिए और केवल तमाशा देखने और ठकुरसुहाती करने के लिए। कारिन्दे का नाप गुलाम गौस खौँ था। वह बृहदाकार मनुष्य थे, सावला रंग, लम्बी दाढ़ी, चेहरे से कठोरता झलकती थी। अपनी जवानी में वह पलटन में नौकर थे और हवलदार के दरजे तक पहुँचे थे। जब सीमा प्रान्त में कुछ छेड़छाड़ हुई तब बीमारी की छुट्टी लेकर घर भाग आए और यहीं से इस्तीफा पेश कर दिया। वह अब भी अपने सैनिक जीवन की कथाएँ मजे ले-ले कर कहते थे। इस समय वह तख्त पर बैठे हुए हुक्‍्का पी रहे थे। सुक्खू और दुखरन तख्त के नीचे बैठे हुए थे।
सुक्खू ने कहा, हम मजदूर ठहरे, हम घमण्ड करें तो हमारी भूल है। जमींदार की जमीन में बसते हैं, उसका दिया खाते हैं, उससे बिगड़ कहाँ जाएँगे-क्यों दुखरन?
दुखरन-हाँ, ठीक ही है।
सुक्खू-नारायण हमें चार पैसे दें, दस मन अनाज दें तो क्या हम अपने मालिकों से लड़ें, मारे घमण्ड के धरती पर पैर न रखें?
दुखरन-यही मद तो आदमी को खराब करता है। इसी मद ने रावण को मिटाया, इसी के कारण जरासंध और दुरयोधन का सर्वनाश हो गया। तो भला हमारी-तुम्हारी कौन बात है?
इतने में कादिर मियाँ चौपाल में आए। उनके पीछे-पीछे बिलासी भी आई। कादिर ने कहा, खाँ साहब, यह मनोहर की घरवाली आई है, जितने रुपये चाहें घी के लिए दे दें। बेचारी डर के मारे आती न थी।
गौस खाँ ने कटु स्वर से कहा, वह कहाँ है मनोहर, क्या उसे आते शरम आती थी?
बिलासी ने दीनता पूर्वक कहा, सरकार उनकी बातों का कुछ ख्याल न करें आपकी गुलामी करने को मैं तैयार हूँ?
कादिर-यूँ तो गऊ है, किन्तु आज न जाने उसके सिर कैसे भूत सवार हो गया। क्यों सुक्खू महतो, आज तक गाँव में किसी से लड़ाई हुई है?
कादिर-अब बैठा रो रहा है। कितना समझाया कि चल के खाँ साहब से कसूर माफ करा ले; लेकिन शरम से आता नहीं है।
गौस खाँ-शर्म नहीं, शरारत है। उसके सिर पर जो भूत चढ़ा हुआ है उसका उतार मेरे पास है। उसे गरूर हो गया।
कादिर-अरे खाँ साहब, बेचारा मजूर गरूर किस बात पर करेगा? मूरख उजड्ड आदमी है, बात करने का सहूर नहीं है।
गौस खाँ-तुम्हें वकालत करने की जरूरत नहीं। मैं अपना काम खूब जानता हूँ। इस तरह दबने लगा तब तो मुझसे कारिन्दागिरी हो चुकी। आज एक ने तेवर बदले हैं, कल उसके दूसरे भाई शेर हो जाएँगे। फिर जमींदारी को कौन पूछता है। अगर पलटन में किसी ने ऐसी शरारत की होती तो उसे गोली मार दी जाती। जमींदार से आँखें बदलना खाला जी का घर नहीं है।
यह कहकर गौस खाँ टाँगन पर सवार होने चले। बिलासी रोती हुई उनके सामने हाथ बाँधकर खड़ी हो गई और बोली, सरकार कहीं की न रहूँगी। जो डाँड़ चाहें लगा दीजिए, जो सजा चाहे दीजिए, मालिकों के कान में यह बात न डालिए। लेकिन खाँ साहब ने सुक्खू महतो को हत्थे पर चढ़ा लिया था। वह सूखी करुणा को अपनी कपट-चाल में बाधक बनाना नहीं चाहते थे। तुरन्त घोड़े पर सवार हो गए और सुक्खू को आगे-आगे चलने का हुक्म दिया। कादिर मियां ने धीरे से गिरधर महाराज के कान में कहा, क्या महाराज, बेचारे मनोहर का सत्यानाश करके ही दम लोगे?
गिरधर ने गौरवयुक्त भाव से कहा, जब तुम हमसे आँखें दिखलाओगे तो हम भी अपनी-सी करके रहेंगे। हमसे कोई एक अंगुल दबे तो हम उससे हाथ भर दबने को तैयार हैं। जो हमसे जौ भर तनेगा हम उससे गज भर तन जाएँगे।
कादिर- यह तो सुपद ही है, तुम हक से दबने लगोगे तो तुम्हें कौन पूछेगा? मुदा अब मनोहर के लिए कोई राह निकालो। उसका सुभाव तो जानते हो। गुस्सैल आदमी है। पहले बिगड़ जाता है, फिर बैठकर रोता है। बेचारा मिट्टी में मिल जाएगा।
गिरधर-भाई, अब तो तीर हमारे हाथ से निकल गया।
कादिर-मनोहर की हत्या तुम्हारे ऊपर ही पड़ेगी।
गिरधर-एक उपाय मेरी समझ में आता है। जाकर मनोहर से कह दो कि मालिक के पास जाकर हाथ-पैर पड़े। वहाँ मैं भी कुछ कह-सुन दूँगा। तुम लोगों के साथ नेकी करने का जी तो नहीं चाहता, काम पड़ने पर घिघियाते हो, काम निकल गया तो सीधे ताकते भी नहीं। लेकिन अपनी-अपनी करनी अपने साथ है। जाकर उसे भेज दो।
कादिर और बिलासी मनोहर के पास गए। वह शंका और चिन्ता की मूर्ति बना हुआ उसी रास्ते की ओर ताक रहा था। कादिर ने जाते ही यहाँ का समाचार कहा और गिरधर महाराज का आदेश भी सुना दिया। मनोहर क्षण भर सोचकर बोला, वहाँ मेरी और भी दुर्गति होगी। अब तो सिर पर पड़ी ही है। जो कुछ भी होगा देखा जाएगा।
कादिर-नहीं, तुम्हें जाना चाहिए। मैं भी चलूँगा।
मनोहर-मेरे पीछे तुम्हारी भी ले-दे होगी।
बिलासी ने कादिर की ओर अत्यन्त विनीत भाव से देखकर कहा, दादा जी, वह न जाएँगे, मैं ही तुम्हारे साथ चली चलूँगी।
कादिर-तुम क्‍या चलोगी, वहाँ बड़े आदमियों के सामने मुँह तो खुलना चाहिए।
बिलासी-न कुछ कहते बनेगा, रो तो लूँगी।
कादिर-यह न जाने देंगे?
बिलासी-जाने क्यों न देंगे, कुछ माँगती हूँ? इन्हें अपना बुरा-भला न सूझता हो, मुझे तो सूझता है।
कादिर-तो फिर देर न करनी चाहिए, नहीं तो वह लोग पहले से ही मालिकों का कान भर देंगे।
मनोहर ज्यों का त्यों मूरत की तरह बैठा रहा | बिलासी घर में गई, अपने गहने निकालकर पहने, चादर ओढ़ी और बाहर निकलकर खड़ी हो गई। कादिर मियाँ संकोच में पड़े हुए थे। उन्हें आशा थी कि अब भी मनोहर उठेगा; किन्तु जब वह अपनी जगह से जरा भी न हिला तब धीरे-धीरे आगे चले। बिलासी भी पीछे-पीछे चली। पर रह कर कातर नेत्रों से मनोहर की ओर ताकती जाती थी। जब वह गाँव के बाहर निकल गए, तो मनोहर कुछ सोचकर उठा और लपका हुआ कादिर मियाँ के समीप आकर बिलासी से बोला, जा घर बैठ, मैं जाता हूँ। 

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रचनाएँ
प्रेमाश्रम
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प्रेमचंद आधुनिक हिन्दी कहानी के पितामह और उपन्यास सम्राट माने जाते हैं। यू तो उनके साहित्यिक जीवन का आरंभ १९०१ से हो चुका था पर बीस वर्षों की इस अवधि में उनकी कहानियों के अनेक रंग देखने को मिलते हैं। इस उपन्यास में प्रेमचंद व्यापक स्तर पर किसान के उत्पीड़न का चित्र अंकित करते हैं। अनगिनत शोषण और ज्ञानशंकर आततायी किसान को चूसकर सूखा देने के लिए जुट गए हैं। ज्ञानशंकर मानो अन्याय का मूर्तिमान रूप है, किन्तु प्रेमशंकर अपनी गहरी मानवीयता और सदगुणों के कारण असत्य और अधर्म पर पूरी तरह विजयी होते हैं। 'प्रेमाश्रम' भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है। गांधीजी के सत्याग्रह आन्दोलन की इस कथा पर विशिष्ट छाप है। इस उपन्यास में प्रेमचंद व्यापक स्तर पर किसान के उत्पीड़न का चित्र अंकित करते हैं।
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प्रेमाश्रम 1

10 फरवरी 2022
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सन्ध्या हो गई है। दिन भर के थके-माँदे बैल खेत से आ गये हैं। घरों से धुएँ के काले बादल उठने लगे। लखनपुर में आज परगने के हाकिम की परताल थी। गाँव के नेतागण दिनभर उनके घोड़े के पीछे-पीछे दौड़ते रहे थे। इस

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लखनपुर के जमींदारों का मकान काशी में औरंगाबाद के निकट था। मकान के दो खण्ड आमने-सामने बने हुए थे। एक जनाना मकान था, दूसरी मरदानी बैठक। दोनों खण्डों के बीच की जमीन बेल-बूटे से सजी हुई थी, दोनों ओर ऊँची

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मनोहर अक्खड़पन की बातें तो कर बैठा; किन्तु जब क्रोध शान्त हुआ तो मालूम हुआ कि मुझसे बड़ी भूल हुई। गाँव वाले सब-के-सब मेरे दुश्मन हैं। वह इस समय चौपाल में बैठे मेरी निन्दा कर रहे होंगे। कारिंदा न जाने

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तीसरा पहर था। ज्ञानशंकर दीवानखाने में बैठे हुए एक किताब पढ़ रहे थे कि कहार ने आकर कहा, बाबू साहब पूछते हैं, कै बजे हैं? ज्ञानशंकर ने चिढ़कर कहा, जा कह दे, आपको नीचे बुलाते हैं? क्‍या सारे दिन सोते रहे

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एक महीना बीत गया, गौस खाँ ने असामियों की सूची न तैयार की और न ज्ञानशंकर ने ही फिर ताकीद की । गौस खाँ के स्वहित और स्वामिहित में विरोध हो रहा था और ज्ञानशंकर सोच रहे थे कि जब इजाफे से सारे परिवार का ला

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प्रेमाश्रम (भाग-2)

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7. जब तक इलाके का प्रबन्धन लाला प्रभाशंकर के हाथों में था, वह गौस खाँ को अत्याचार से रोकते रहते थे। अब ज्ञानशंकर मालिक और मुख्तार थे। उनकी स्वार्थप्रियता ने खाँ साहब को अपनी अभिलाषाएँ पूर्ण करने का अ

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जिस भाँति सूर्यास्त के पीछे विशेष प्रकार के जीवधारी; जो न पशु हैं न पक्षी, जीविका की खोज में निकल पड़ते हैं, अपनी लंबी श्रेणियों से आकाश मंडल को आच्छादित कर लेते हैं, उसी भाँति कार्तिक का आरम्भ होते ह

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अपनी पारिवारिक सदिच्छा का ऐसा उत्तम प्रमाण देने के बाद ज्ञानशंकर को बँटवारे के विषय में अब कोई असुविधा न रही, लाला प्रभाशंकर ने उन्हीं की इच्छानुसार करने का निश्चय कर लिया। दीवानखाना उनके लिए खाली कर

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 राय कमलानन्द बहादूर लखनऊ के एक बड़े रईस और तालुकेदार थे। वार्षिक आय एक लाख के लगभग थी। अमीनाबाद में उनका विशाल भवन था। शहर में उनकी और भी कई कोठियाँ थीं, पर वह अधिकांश नैनीताल या मसूरी में रहा करते थ

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आँधी का पहला वेग जब शान्त हो जाता है, तब वायु के प्रचण्ड झोंके, बिजली की चमक और कड़क बन्द हो जाती है और मूसलाधार वर्षा होने लगती है। गायत्री के चित्त की शान्ति भी द्रवीभूत हो गई थी। हृदय में रुधिर की

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गायत्री के जाने के बाद ज्ञानशंकर को भी वहाँ रहना दूभर हो गया। सौभाग्य उन्हें हवा के घोड़े पर बैठाये ऋद्धि और सिद्धि के स्वर्ग में लिए जाता था, किन्तु एक ही ठोकर में वह चमकते हुए नक्षत्र अदृश्य हो गये;

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यद्यपि गाँव वालों ने गौस खाँ पर जरा भी आँच न आने दी थी, लेकिन ज्वालासिंह का उनके बर्ताव के विषय में पूछ-ताछ करना उनके शान्ति-हरण के लिए काफी था। चपरासी, नाजिर मुंशी सभी चकित हो रहे थे कि इस अक्खड़ लौं

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राय साहब को नैनीताल आये हुए एक महीना हो गया। ‘‘एक सुरम्य झील के किनारे हरे-भरे वृक्षों के कुन्ज में उनका बँगला स्थित है, जिसका एक हजार रुपया मासिक किराया देना पड़ता है। कई घोड़े हैं, कई मोटर गाड़ियाँ,

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प्रातः काल था। ज्ञानशंकर स्टेशन पर गाड़ी का इन्तजार कर रहे थे। अभी गाड़ी के आने में आध घण्टे की देर थी। एक अँग्रेजी पत्र लेकर पढ़ना चाहा पर उसमें जी न लगा। दवाओं के विज्ञापन अधिक मनोरंजक थे। दस मिनट म

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प्रेमाश्रम (भाग-3)

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16. प्रेमशंकर यहाँ दो सप्ताह ऐसे रहे, जैसे कोई जल्द छूटने वाला कैदी। जरा भी जी न लगता था। श्रद्धा की धार्मिकता से उन्हें जो आघात पहुँचा था उसकी पीड़ा एक क्षण के लिए भी शान्त न होती थी। बार-बार इरादा

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गायत्री उन महिलाओं में थी जिनके चरित्र में रमणीयता और लालित्य के साथ पुरुषों का साहस और धैर्य भी मिला होता है। यदि वह कंघी और आईने पर जान देती थी तो कच्ची सड़कों के गर्द और धूल से भी न भागती थी। प्यान

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ज्ञानशंकर को गायत्री का पत्र मिला तो फूले न समाये। हृदय में भाँति-भाँति की मनोहर सुखद कल्पनाएँ तरंगे मारने लगीं। सौभाग्य देवी जीवन-संकल्प की भेंट लिये उनका स्वागत करने को तैयार खड़ी थी। उनका मधुर स्वप

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ज्ञानशंकर लगभग दो बरस से लखनपुर पर इजाफा लगान करने का इरादा कर रहे थे, किन्तु हमेशा उनके सामने एक-न-एक बाधा आ खड़ी होती थी। कुछ दिन तो अपने चचा से अलग होने में लगे। जब उधर से बेफिक्र हुए तो लखनऊ जाना

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प्रभात का समय था। चैत का सुखद पवन प्रवाहित हो रहा था। बाबू ज्वालासिंह बरामदे में आरामकुर्सी पर लेटे हुए घोड़े का इन्तजार कर रहे थे। उन्हें आज मौका देखने के लिए लखनपुर जाना था, किन्तु मार्ग में एक बड़ी

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एक पखवारा बीत गया। सन्ध्या समय था। शहर में बर्फ की दूकानों पर जमघट होने लगा था। हुक्के और सिगरेट से लोगों को अरुचि होती जाती थी। ज्वालासिंह लखनपुर से मौके की जाँच करके लौटे थे और कुर्सी पर बैठे ठंडा श

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ज्ञानशंकर को अपील के सफल होने का पूरा विश्वास था। उन्हें मालूम था कि किसानों में धनाभाव के कारण अब बिल्कुल दम नहीं है। लेकिन जब उन्होंने देखा, काश्तकारों की ओर से भी मुकदमें की पैरवी उत्तम रीति से की

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अपील खारिज होने के बाद ज्ञानशंकर ने गोरखपुर की तैयारी की। सोचा, इस तरह तो लखनपुर से आजीवन गला न छूटेगा, एक-न-एक उपद्रव मचा ही रहेगा। कहीं गोरखपुर में रंग जम गया तो दो-तीन बरसों में ऐसे कई लखनपुर हाथ आ

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आय में वृद्धि और व्यय में कमी, यह ज्ञानशंकर के सुप्रबन्ध का फल था। यद्यपि गायत्री भी सदैव किफायत कर निगाह रखती थी, पर उनकी किफायत अशर्फियों की लूट और कोयलों पर मोहर को चरितार्थ करती थी। ज्ञानशंकर ने स

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जिस समय ज्ञानशंकर की अपील खारिज हुई, लखनपुर के लोगों पर विपत्ति की घटा छायी हुई थी। कितने ही घर प्लेग से उजड़ गये। कई घरों में आग लग गयी। कई चोरियाँ हुईं। उन पर दैविक घटना अलग हुई, कभी आँधी आती कभी पा

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पहला अंक

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राजा– हाय! हाय! बैद्यों ने जबाव दिया, हकीमों ने जवाब दिया, डाकदरों ने जवाब दिया, किसी ने रोग को न पहचाना। सब-के-सब लुटेरे थे। अब जिन्दगानी की कोई आशा नहीं। यह सारा राज-पाट छूटता है। मेरे पीछे परजा पर

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दूसरा अंक

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(राजा एक साधारण नागिरक के रूप में आप-ही-आप) समय कम है, ऐसे तीन सज्जनों के पास चलना चाहिए जो मेरे भक्त थे। पहले सेठ के पास चलूँ। वह परोपकार के प्रत्येक काम में मेरी सहायता करता था। मैंने उसकी कितनी बा

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प्रेमाश्रम (भाग-4)

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26. प्रभात का समय था और कुआर का महीना। वर्षा समाप्त हो चुकी थी। देहातों में जिधर निकल जाइए, सड़े हुए सन की सुगन्ध उड़ती थी। कभी ज्येष्ठ को लज्जित करने वाली धूप होती थी, कभी सावन को सरमाने वाले बादल घ

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प्रेमशंकर की कृषिशाला अब नगर के रमणीय स्थानों की गणना में थी। यहाँ ऐसी सफाई और सजावट थी। कि प्रातः रसिकगण सैर करने आया करते। यद्यपि प्रेमशंकर केवल उसके प्रबन्धकर्ता थे, पर वस्तुतः असामियों की भक्ति और

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श्रद्घा की बातों से पहले तो ज्ञानशंकर को शंका हुई, लेकिन विचार करने पर यह शंका निवृत्त हो गयी, क्योंकि इस मामले में प्रेमशंकर का अभियुक्त हो जाना अवश्यम्भावी था। ऐसी अवस्था में श्रद्धा के निर्बल क्रोध

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इस मुकदमें ने सारे शहर मे हलचल मचा दी। जहाँ देखिए, यह चर्चा थी सभी लोग प्रेमशंकर के आत्म-बलिदान की प्रंशसा सौ-सौ मुँह से कर रहे थे। यद्यपि प्रेमशंकर ने स्पष्ट कह दिया था कि मेरे लिए किसी वकील की जरूर

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रात के १० बजे थे। ज्वालासिंह तो भोजन करके प्रभाशंकर के दीवानखाने में ही लेटे, लेकिन प्रेमशंकर को मच्छरों ने इतना तंग किया कि नींद न आयी। कुछ देर तक तो वह पंखा झलते रहे, अन्त को जब भीतर न रहा गया तो व्

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डाक्टर इर्फान अली की बातों से प्रभाशंकर को बड़ी तसकीन हुई। मेहनताने के सम्बन्ध में उनसे कुछ रिआयत चाहते थे, लेकिन संकोचवश कुछ न कह सकते थे। इतने में हमारे पूर्व-परिचित सैयद ईजाद हुसैन ने कमरे में प्रव

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जब मुकदमा सेशन सुपुर्द हो गया और ज्ञानशंकर को विश्वास हो गया कि अब अभियुक्तों का बचना कठिन है तब उन्होंने गौस खाँ की जगह पर फैजुल्लाह को नियुक्त किया और खुद गोरखपुर चले आए। यहाँ से गायत्री की कई चिट्ठ

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सेशन जज के इजलास में एक महीने से मुकदमा चल रहा है। अभियुक्त ने फिर सफाई दी। आज मनोहर का बयान था। इजलास में एक मेला सा लगा हुआ था। मनोहर ने बड़ी निर्भीक दृढ़ता के साथ सारी घटना आदि से अन्त तक बयान की औ

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फैजुल्लाह खाँ का गौस खाँ के पद पर नियुक्त होना गाँव के दुखियारों के घाव पर नमक छिड़कना था। पहले ही दिन से खींच-तान होने लगी और फैजू ने विरोधाग्नि को शान्त करने की जरूरत न समझी। अब वह मुसल्लम गाँव के स

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प्रातःकाल ज्योंही मनोहर की आत्महत्या का समाचार विदित हुआ, जेल में हाहाकार मच गया। जेल के दारोगा, अमले, सिपाही, पहरेदार-सब के हाथों के तोते उड़ गये। जरा देर में पुलिस को खबर मिली, तुरन्त छोटे-बड़े अधिक

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डा० इर्फान अली बैठे सोच रहे थे कि मनोहर की आत्महत्या का शेष अभियुक्तों पर क्या असर पड़ेगा? कानूनी ग्रन्थों का ढेर सामने रखा हुआ था। बीच में विचार करने लगते थे; मैंने यह मुकदमा नाहक लिया। रोज १०० रुपये

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सैयद ईजाद हुसेन का घर दारानगर की एक गली में था। बरामदे में दस-बारह वस्त्रविहीन बालक एक फटे हुए बोरिये पर बैठे करीमा और खालिकबारी की रट लगया करते थे। कभी-कभी जब वे उमंग में आ कर उच्च स्वर से अपने पाठ य

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महाशय ज्ञानशंकर का धर्मानुराग इतना बढ़ा कि सांसारिक बातों से उन्हें अरुचि सी होने लगी, दुनिया से जी उचाट हो गया। वह अब भी रियासत का प्रबन्ध उतने ही परिश्रम और उत्साह से करते थे, लेकिन अब सख्ती की जगह

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जलसा बड़ी सुन्दरता से समाप्त हुआ रानी गायत्री के व्याख्यान पर समस्त देश में वाह-वाह मच गयी। उसमें सनातन-धर्म संस्था का ऐतिहासिक दिग्दर्शन कराने के बाद उसकी उन्नति और पतन, उसके उद्धार और सुधार उसकी विर

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प्रेमाश्रम (भाग-5)

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41. राय कमलानन्द को देखे हुए हमें लगभग सात वर्ष हो गये, पर इस कालक्षेप का उनपर कोई चिन्ह नहीं दिखाई देता। बाल-पौरुष, रंग-ढंग सब कुछ वही है। यथापूर्व उनका समय सैर और शिकार पोलो और टेनिस, राग और रंग मे

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दो दिन हो गये और ज्ञानशंकर ने राय साहब से मुलाकात न की। रायसाहब उन निर्दय पुरुषों में न थे जो घाव लगाकर उस पर नमक छिड़कते हैं। वह जब किसी पर नाराज होते तो यह मानी हुई बात थी कि उसका नक्षत्र बलवान है,

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सन्ध्या का समय था। बनारस के सेशन जज के इजलास में हजारों आदमी जमा थे। लखनपुर के मामले से जनता को अब एक विशेष अनुराग हो गया था। मनोहर की आत्महत्या ने उसकी चर्चा सारे शहर में फैला दी थी। प्रत्येक पेशी के

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डाक्टर इर्फान अली उस घटना के बाद हवा खाने न जा सके, सीधे घर की ओर चले। रास्ते भर उन्हें संशय हो रहा था कि कहीं उन उपद्रवियों से फिर मुठभेड़ न हो जाये नहीं तो अबकी जान के लाले पड़े जायेंगे। आज बड़ी खैर

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कई महीने बीत चुके, लेकिन प्रेमशंकर अपील दायर करने का निश्चय न कर सके। जिस काम में उन्हें किसी दूसरे से मदद मिलने की आशा न होती थी, उसे वह बड़ी तत्परता के साथ करते थे, लेकिन जब कोई उन्हें सहारा देने के

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ज्ञानशंकर लखनऊ से सीधे बनारस पहुँचे, किन्तु मन उदार और खिन्न रहते। न हवा खाने जाते, न किसी से मिलते-जुलते। उनकी दशा इस समय उस पक्षी की-सी थी जिसके दोनों पंख कट गये हों, या उस स्त्री की-सी जो किसी दैवी

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ज्ञानशंकर को बनारस आये दो सप्ताह से अधिक बीत चुके थे। संगीत-परिषद् समाप्त हो चुकी थी और अभी सामयिक पत्रों में उस पर वाद-विवाद हो रहा था। यद्यपि अस्वस्थ होने के कारण राय साहब उसमें उत्साह के साथ भाग न

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गायत्री बनारस पहुँच कर ऐसी प्रसन्न हुई जैसे कोई बालू पर तड़पती हुई मछली पानी में जा पहुँचे। ज्ञानशंकर पर राय साहब की धमकियों का ऐसा भय छाया हुआ था कि गायत्री के आने पर वह और भी सशंक हो गये। लेकिन गायत

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रात के आठ बजे थे। ज्ञानशंकर के दीवानखाने में शहर के कई प्रतिष्ठित सज्जन जमा थे। बीच में एक लोहे का हवनकुण्ड रखा हुआ था, उसमें हवन हो रहा था। हवनकुण्ड के एक तरफ गायत्री बैठी थी, दूसरी तरफ ज्ञानशंकर और

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प्रेमाश्रम (भाग-6)

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50. श्रद्धा और गायत्री में दिनों-दिन मेल-जोल बढ़ने लगा। गायत्री को अब ज्ञात हुआ कि श्रद्धा में कितना त्याग, विनय, दया और सतीत्व है। मेल-जोल से उनमें आत्मीयता का विकास हुआ, एक-दूसरी से अपने हृदय की ब

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बाबू ज्ञानशंकर गोरखपुर आये, लेकिन इस तरह जैसे लड़की ससुराल आती है। वह प्रायः शोक और चिन्ता में पड़े रहते। उन्हें गायत्री से सच्चा प्रेम न सही, लेकिन वह प्रेम अवश्य था जो शराबियों को शराब से होता है। उ

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बाबू ज्वालासिंह को बनारस से आये आज दूसरा दिन था। कल तो वह थकावट के मारे दिन भर पड़े रहे, पर प्रातःकाल ही उन्होंने लखनपुरवालों की अपील का प्रश्न छेड़ दिया। प्रेमशंकर ने कहा– मैं तो आप ही की बाट जोह रहा

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ज्यों ही दशहरे की छुट्टियों के बाद हाईकोर्ट खुला, अपील दायर हो गयी और समाचार पत्रों के कालम उसकी कार्यवाही से भरे जाने लगे। समस्या बड़ी जटिल थी। दंड प्राप्तों में उन साक्षियों को फिर पेश किये जाने की

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गायत्री की दशा इस समय उस पथिक की सी थी जो साधु भेषधारी डाकुओं के कौशल जाल में पड़ कर लुट गया हो। वह उस पथिक की भाँति पछताती थी कि मैं कुसमय चली क्यों? मैंने चलती सड़क क्यों छोड़ दी? मैंने भेष बदले हुए

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‘‘लाला प्रभाशंकर ने भविष्य-चिन्ता का पाठ न पढ़ा था। ‘कल’ की चिन्ता उन्हें कभी न सताती थी। उनका समस्त जीवन विलास और कुल मर्यादा की रक्षा में व्यतीत हुआ था। खिलाना, खाना और नाम के लिए मर जाना– यही उनके

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बाल्यावस्था के पश्चात् ऐसा समय आता है जब उद्दण्डता की धुन सिर पर सवार हो जाती है। इसमें युवाकाल की सुनिश्चित इच्छा नहीं होती, उसकी जगह एक विशाल आशावादिता है जो दुर्लभ को सरल और असाध्य को मुँह का कौर स

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इस शोकाघात ने लाला प्रभाशंकर को संज्ञा-विहीन कर दिया। दो सप्ताह बीत चुके थे, पर अभी तक घर से बाहर न निकले थे। दिन-के-दिन चारपाई पर पड़े छत की ओर देखा करते, रातें करवटें बदलने में कट जातीं। उन्हें अपना

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होली का दिन था। शहर में चारों तरफ अबीर और गुलाल उड़ रही थी, फाग और चौताल की धूम थी, लेकिन लाला प्रभाशंकर के घर पर मातम छाया हुआ था। श्रद्धा अपने कमरे में बैठी हुई गायत्री देवी के गहने और कपड़े सहेज रह

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मानव-चरित्र न बिलकुल श्यामल होता है न बिलकुल श्वेत। उसमें दोनों ही रंगों का विचित्र सम्मिश्रण होता है। स्थिति अनुकूल हुई तो वह ऋषितुल्य हो जाता है, प्रतिकूल हुई तो नराधम। वह अपनी परिस्थितियों का खिलौन

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गायत्री के आदेशानुसार ज्ञानशंकर २००० रुपये महीना मायाशंकर के खर्च के लिए देते जाते थे। प्रेमशंकर की इच्छा थी कि कई अध्यापक रखे जायें, सैर करने के लिए गाड़ियाँ रखी जायँ, कई नौकर सेवा-टहल के लिए लगाये ज

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लाला प्रभाशंकर को रुपये मिले तो वह रोये। गाँव तो बच गया, पर उसे कौन बिलसेगा? दयाशंकर का चित्त फिर घर से उचाट हो चला था। साधु-सन्तों के सत्संग के प्रेमी हो गये थे। दिन-दिन वैराग्य में रह होते जाते थे।

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महाशय ज्ञानशंकर का भवन आज किसी कवि-कल्पना की भाँति अलंकृत हो रहा है। आज वह दिन आ गया है जिसके इन्तजार में एक युग बीत गया। प्रभुत्व और ऐश्वर्य का मनोहर स्वप्न पूरा हो गया है। मायाशंकर के तिलकोत्सव का श

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उपसंहार

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दो साल हो गये हैं। सन्ध्या का समय है। बाबू मायाशंकर घोड़े पर सवार लखनपुर में दाखिल हुए। उन्हें वहाँ रौनक और सफाई दिखायी दी। प्रायः सभी द्वारों पर सायबान थे। उनमें बड़े-बड़े तख्ते बिछे हुए थे। अधिकांश

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