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10 फरवरी 2022

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तीसरा पहर था। ज्ञानशंकर दीवानखाने में बैठे हुए एक किताब पढ़ रहे थे कि कहार ने आकर कहा, बाबू साहब पूछते हैं, कै बजे हैं? ज्ञानशंकर ने चिढ़कर कहा, जा कह दे, आपको नीचे बुलाते हैं? क्‍या सारे दिन सोते रहेंगे?
इन महाशय का नाम बाबू ज्वालासिंह था। ज्ञानशंकर के सहपाठी थे और आज ही इस जिले में डिप्टी कलेक्टर होकर आए। दोपहर तक दोनों मित्रों में बातचीत होती रही। ज्वालासिंह रात भर के जागे थे, सो गए। ज्ञानशंकर को नींद नहीं आई। इस समय उनकी छाती पर साँप सा लोट रहा था। सब के सब बाजी लिये जाते हैं और मैं कहीं का न हुआ। कभी अपने ऊपर क्रोध आता, कभी अपने पिता और चाचा के ऊपर। पुराना सौहार्द द्वेष का रूप ग्रहण करता जाता था। यदि इस समय अकस्मात्‌ ज्वालासिंह के पद-च्युत होने का समाचार मिल जाता तो शायद ज्ञानशंकर के हृदय को शान्ति होती। वह इस क्षुद्र भाव को मन में न आने देना चाहते थे। अपने को समझते थे कि यह अपना-अपना भाग्य है। अपना मित्र कोई ऊँचा पद पाए तो हमें प्रसन्‍न होना चाहिए, किन्तु उनकी विकलता इन सद्‌ विचारों से न मिटती थी और बहुत यत्न करने पर भी परस्पर सम्भाषण में उनकी लघुता प्रकट हो जाती थी। ज्वालापिंह को विदित हो रहा था कि मेरी यह तरक्की इन्हें जला रही है, किन्तु यह सर्वथा ज्ञानशंकर की ईर्ष्या-वृत्ति का ही दोष न था। ज्वालासिंह के बात-व्यवहार में वह पहले की सी स्नेहमय सरलता न थी; वरन्‌ उसकी जगह एक अज्ञात सहृदयता, एक कृत्रिम वात्सल्य, एक गौरव-युक्त सधुता पाई जाती थी, जो ज्ञानशंकर के घाव पर नमक का काम कर रही थी। इसमें सन्देह नहीं कि ज्वालासिंह का यह दुःस्वभाव इच्छित न था, वह इतनी नीच प्रकृति के पुरुष न थे, पर अपनी सफलता ने उन्हें उन्मत्त कर दिया था। इधर ज्ञानशंकर इतने उदार न थे कि इससे मानव चरित्र के अध्ययन का आनन्द उठाते।
कहान के जाने के क्षण भर पीछे ज्वालासिंह उतर पड़े और बोले, यार बताओ क्या समय है? जरा साहब से मिलने जाना है। ज्ञानशंकर ने कहा, अजी मिल लेना ऐसी क्या जल्दी है?
ज्वालासिंह- नहीं भाई, एक बार मिलना जरूरी है, जरा मालूम तो हो जाए किस ढंग का आदमी है, खुश कैसे होता है?
ज्ञान-वह इस बात से खुश होता है कि आप दिन में तीन बार उसके द्वार पर नाक रगड़ें।
ज्वालासिंह ने हँसकर कहा, तो कुछ मुश्किल नहीं, मैं पाँच बार सिजदे किया करूँगा।
ज्ञान-और वह इस बात से खुश होता है कि आप कायदे-कानून को तिलांजलि दीजिए, केवल उसकी इच्छा को कानून समझिए।
ज्वालासिंह-ऐसा ही करूँगा।
ज्ञान-इनकम टैक्स बढ़ाना पड़ेगा। किसी अभियुक्त को भूल कर भी छोड़ा तो बहुत बुरी तरह खबर लेगा।
ज्वाला-भाई, तुम बना रहे हो, ऐसा क्या होगा।
ज्ञान-नहीं, विश्वास मानिए, वह ऐसा ही विचित्र जीव है।
ज्वाला-तब तो उसके साथ मेरा निबाह कठिन है।
ज्ञान-जरा भी नहीं। आज आप ऐसी बातें कर रहे हैं, कल को उसके इशारों पर नाचेंगे। इस घमण्ड में न रहिए कि आपको अधिकार प्राप्त हुआ है, वास्तव में आपने गुलामी लिखाई है। यहाँ आपको आत्मा की स्वाधीनता से हाथ धोना पड़ेगा, न्याय और सत्य का गला घोंटना पड़ेगा, यही आपकी उन्नति और सम्मान के साधन हैं। मैं तो ऐसे अधिकार पर लात मारता हूँ। यहाँ तो अल्लाह-ताला भी आसमान से उतर आएँ और अन्याय करने को कहें तो उनका हुक्म न मानूँ।
ज्वालासिंह समझ गए कि यह जले हुए दिल के फफोले हैं बोले, अभी ऐसी दूर की ले रहे हो, कल को नामजद हो जाओ, तो यह बातें भूल जाएँ।
ज्ञानशंकर-हाँ बहुत सम्भव है, क्योंकि मैं भी तो मनुष्य हूँ, लेकिन संयोग से मेरे इस परीक्षा में पड़ने की कोई सम्भावना नहीं है और हो भी तो मैं आत्मा की रक्षा करना सर्वोपरि समझूँगा।
ज्वालासिंह गर्म होकर बोले–आपको यह अनुभव करने का क्या अधिकार है कि और लोग अपनी आत्मा का आपसे कम आदर करते हैं? मेरा विचार तो यह है कि संसार में रहकर मनुष्य आत्मा की जितनी रक्षा कर सकता है, उससे अधिकार उसे वंचित नहीं कर सकता। अगर आप समझते हों कि वकालत या डॉक्टरी विशेष रूप से आत्म-रक्षा के अनुकूल हैं तो आपकी भूल है। मेरे चाचा साहब वकील हैं, बड़े भाई साहब डॉक्टरी करते हैं, पर वह लोग केवल धन कमाने की मशीने हैं, मैंने उन्हें कभी असद-सद के झगड़े में पड़ते हुए नहीं पाया?
ज्ञानशंकर–वह चाहें तो आत्मा की रक्षा कर सकते हैं।
ज्वालासिंह–बस, उतनी ही जितनी कि एक सरकारी नौकर कर सकता है। वकील को ही ले लीजिए, यदि विवेक की रक्षा करे तो रोटियाँ चाहे भले खाये, समृद्घिशाली नहीं हो सकता। अपने पेशे में उन्नति करने के लिए उसे अधिकारियों का कृपा-पात्र बनना परमावश्यक है और डॉक्टरों का तो जीवन ही रईसों की कृपा पर निर्भर है, गरीबों से उन्हें क्या मिलेगा? द्वार पर सैकड़ों गरीब रोगी खड़े रहते हैं, लेकिन जहाँ किसी रईस का आदमी पहुँचा, वह उनको छोड़कर फिटन पर सवार हो जाते हैं। इसे मैं आत्मा की स्वाधीनता नहीं कह सकता।
इतने में गौस खाँ, गिरधर महाराज और सुक्खू ने कमरे में प्रवेश किया। गौस तो सलाम करके फर्श पर बैठ गये, शेष दोनों आदमी खड़े रहे। लाला प्रभाशंकर बरामदे में बैठे हुए थे। पूछा, आदमियों को घी के रुपये बाँट दिए?
गौस खाँ–जी हाँ, हुजूर के इकबाल से सब रुपये तकसीम हो गये, मगर इलाके में चन्द आदमी ऐसे सरकश हो गये हैं कि खुदा की पनाह। अगर उनकी तंबीह न की गई तो एक दिन मेरी इज्जत में फर्क आ जायेगा और क्या अजब है जान से भी हाथ धोऊँ!
ज्ञानशंकर–(विस्मित होकर) देहात में भी यह हवा चली?
गौस खाँ ने रोती सूरत बनाकर कहा–हूजूर, कुछ न पूछिए, गिरधर महाराज भाग न खड़े हों तो इनके जान की खैरयित नहीं थी।
ज्ञान–उन आदमियों को पकड़ के पिटवाया क्यों नहीं?
गौस–तो थानेदार साहब के लिए थैली कहाँ से लाता?
ज्ञान–आप लोगों को तो सैकड़ों हथकण्डे मालूम हैं, किसी भी शिकंजे में कस लीजिए?
गौस–हुजूर, मौरूसी असामी हैं, यह सब ज़मींदार को कुछ नहीं समझते। उनमें एक का नाम मनोहर है। बीस बीघे जोतता है और कुल ५०) लगान देता है। आज उसी आसानी का किसी दूसरे असामी से बन्दोबस्त हो सकता तो १०० रुपये कहीं नहीं गये थे।
ज्ञानशंकर ने चचा की ओर देखकर पूछा, आपके अधिकांश असामी दखलदार क्यों कर हो गये?
प्रभाशंकर ने उदासीनता से कहा–जो कुछ किया इन्हीं कारिन्दों ने किया होगा, मुझे क्या खबर?
ज्ञानशंकर–(व्यंग्य से) तभी तो इलाका चौपट हो गया।
प्रभाशंकर ने झुँझलाकर कहा–अब तो भगवान् की दया से तुमने हाथ-पैर सँभाले, इलाके का प्रबन्ध क्यों नहीं करते?
ज्ञान–आपके मारे जब मेरी कुछ चले तब तो।
प्रभा–मुझसे कसम ले लो, जो तुम्हारे बीच कुछ बोलूँ, यह काम करते बहुत दिन हो गये, इसके लिए लोलुप नहीं हूँ।
ज्ञान–तो फिर मैं भी दिखा दूँगा कि सुप्रबन्ध से क्या हो सकता है?
इसी समय कादिर खाँ और मनोहर आकर द्वार पर खड़े हो गये। गौस खाँ ने कहा, हुजूर यह वही असामी है, जिसका अभी मैं जिक्र कर रहा था।
ज्ञानशंकर ने मनोहर की ओर क्रोध से देखकर कहा–क्यों रे, जिस पत्तल पर खाता है उसी में छेद करता है? १०० रुपये की जमीन ५० रुपये में जोतता है, उस पर जब थोड़ा–सा बल खाने का अवसर पड़ा तो जामे से बाहर हो गया?
मनोहर की जबान बन्द हो गई। रास्ते में जितनी बातें कादिर खाँ ने सिखाई थीं, वह सब भूल गया।
ज्ञानशंकर ने उसी स्वर में कहा–दुष्ट कहीं का! तू समझता होगा कि मैं दखलदार हूँ, ज़मींदार मेरा कर ही क्या सकता है? लेकिन मैं तुझे दिखा दूँगा कि ज़मींदार क्या कर सकता है! तेरा इतना हियाव है कि तू मेरे आदमियों पर हाथ उठाये?
मनोहर निर्बल क्रोध से काँप और सोच रहा था, मैंने घी के रुपये नहीं दिये, वह कोई पाप नहीं है। मुझे लेना चाहिए था, दबाव के भय से नहीं, केवल इसलिए कि बड़े सरकार हमारे ऊपर दया रखते थे। उसे लज्जा आयी कि मैंने ऐसे दयालू स्वामी की आत्मा के साथ कृतघ्नता की, किन्तु इसका दण्ड गाली और अपमान नहीं है। उसका अपमानाहत हृदय उत्तर देने के लिए व्यग्र होने लगा! किन्तु कादिर ने उसे बोलने का अवसर नहीं दिया। बोला, हुजूर, हम लोगों की मजाल ही क्या है कि सरकार के आदमियों के सामने सिर उठा सकें? हाँ, अपढ़ गँवार ठहरे बातचीत करने का सहूर नहीं है, उजड्डपन की बातें मुँह से निकल आती हैं। क्या हम नहीं जानते कि हुजूर चाहें तो आज हमारा कहीं ठिकाना न लगे! तब तो यही विनती है कि जो खता हुई, माफी दी जाये।
लाला प्रभाशंकर को मनोहर पर दया आ गई, सरल प्रकृति के मनुष्य थे। बोले–तुम लोग हमारे पुराने असामी हो, क्या नहीं जानते हो कि असामियों पर सख्ती करना हमारे यहाँ का दस्तूर नहीं है? ऐसा ही कोई काम आ पड़ता है तो तुमसे बेगार ली जाती है और तुम हमेशा उसे हँसी-खुशी देते रहे हो। अब भी उसी तरह निभाते चलो। नहीं तो भाई, अब जमाना नाजुक है, हमने तो भली-बुरी तरह अपना निभा दिया, मगर इस तरह लड़कों से न निभेगी। उनका खून गरम ठहरा, इसलिए सब सँभलकर रहो, चार बातें सह लिया करो, जाओ, फिर ऐसा काम न करना। घर से कुछ खाकर चले न होगे। दिन भी चढ़ आया, यहीं खा-पी कर विश्राम करो, दिन ढले चले जाना।
प्रभाशंकर ने अपने निर्द्वन्द्व स्वभाव के अनुसार इस मामले को टालना चाहा; किन्तु ज्ञानशंकर ने उनकी ओर तीव्र नेत्रों से देखकर कहा–आप मेरे बीच में क्यों बोलते हैं? इस नरमी ने तो इन आदमियों को शेर बना दिया है। अगर आप इस तरह तेरे कामों में हस्तक्षेप करते रहेंगे तो मैं इलाके का प्रबन्ध कर चुका। अभी आपने वचन दिया है कि इलाके से कोई सरोकार न रखूँगा। अब आपको बोलने का कोई अधिकार नहीं है।
प्रभाशंकर यह तिरस्कार न सह सके, रुष्ट होकर बोले–अधिकार क्यों नहीं है? क्या मैं मर गया हूँ?
ज्ञानशंकर–नहीं, आपको कोई अधिकार नहीं है। आपने सारा इलाका चौपट कर दिया, अब क्या चाहते हैं कि बचा-खुचा है, उसे धूल में मिला दें।
प्रभाशंकर के कलेजे में चोट लग गई। बोले–बेटा! ऐसी बातें करके क्यों दिल दुखाते हो? तुम्हारे पूज्य पिता मर गये, लेकिन कभी मेरी बात नहीं दुलखी। अब तुम मेरी जबान बन्द कर देना चाहते हो, किन्तु यह नहीं हो सकता कि अन्याय देखा करूँ और मुँह न खोलूँ। जब तक जीवित हूँ, तुम यह अधिकार मुझसे नहीं छीन सकते।
ज्वालासिंह ने दिलासा दिया–नहीं साहब, आप घर के मालिक हैं, यह आपकी गोद के पाले हुए लड़के हैं, इनकी अबोध बातों पर ध्यान न दीजिए। इसकी भूल है जो कहते हैं कि आपका कोई अधिकार नहीं है। आपको सब कुछ अधिकार है, आप घर के स्वामी हैं।
गौस खाँ ने कहा–हुजूर का फर्माना बहुत दुरुस्त है। आप खानदान के सरपस्त और मुरब्बी हैं। आपके मन्सब से किसे इनकार हो सकता है?
ज्ञानशंकर समझ गये कि ज्वालासिंह ने मुझसे बदला ले लिया। उन्हें यह खेद हुआ कि ऐसी अविनय मैंने क्यों की! खेद केवल यह था कि ज्वालासिंह यहाँ बैठे थे और उनके सामने वह सज्जनता नहीं प्रकट करना चाहते थे। बोले–अधिकार से मेरा यह आशय नहीं था जो आपने समझा। मैं केवल यह कहना चाहता था कि जब आपने इलाके का प्रबन्ध मेरे सुपुर्द कर दिया है तो मुझी को करने दीजिए। यह शब्द अनायास मेरे मुँह से निकल गया। मैं इसके लिए बहुत लज्जित हूँ। भाई ज्वालासिंह, मैं चचा साहब का जितना अदब करता हूँ उतना अपने पिता का भी नहीं किया। मैं स्वयं गरीब आदमियों पर सख्ती करने का विरोधी हूँ। इस विषय में आप मेरे विचारों से भली-भाँति परिचित हैं। किन्तु इसका यह आशय नहीं है कि हम दीन-पालन की धुन में इलाके से ही हाथ धो बैठें? पुराने जमाने की बात और थी। तब जीवन संग्राम इतना भयंकर न था हमारी आवश्यकताएँ परिमित थीं, सामाजिक अवस्था इतनी उन्नत न थी और सबसे बड़ी बात तो यह है कि भूमि का मूल्य इतना चढ़ा हुआ न था। मेरे कई गाँव जो दो-दो हजार पर बिक गये हैं, उनके दाम आज बीस-बीस हजार लगे हुए हैं। उन दिनों असामी मुश्किल से मिलते थे, अब एक टुकड़े कि लिए सौ-सौ आदमी मुँह फैलाए हुए हैं। यह कैसे हो सकता है कि इस आर्थिक दशा का असर ज़मींदार पर न पड़े?
लाला प्रभाशंकर को अपने अप्रिय शब्दों का बहुत दुःख हुआ, जिस भाई को वे देवतुल्य समझते थे, उसी के पुत्र से द्वेष करने पर उन्हें बड़ी ग्लानि हुई। बोले–भैया, इन बातों को तुम जितना समझोगे, मैं बूढ़ा आदमी उतना क्या समझूँगा? तुम घर के मालिक हो। मैंने भूल की कि बीच में कूद पड़ा। मेरे लिए एक टुकड़ा रोटी के सिवा और किसी चीज की आवश्यकता नहीं है। तुम जैसे चाहो वैसे घर को सँभालो।
थोड़ी देर सब लोग चुपचाप बैठे रहे। अन्त में गौस खाँ ने पूछा–हुजूर, मनोहर के बारे में क्या हुक्म होता है?
ज्ञानशंकर–इजाफा लगान का दावा कीजिए?
कादिर–सरकार, बड़ा गरीब आदमी है, मर जायेगा?
ज्ञानशंकर–अगर इसकी जोत में कुछ सिकमी जमीन हो तो निकाल लीजिए?
कादिर–सरकार, बेचारा बिना मारे मर जायेगा।
ज्ञानशंकर–उसकी परवाह नहीं, असामियों की कमी नहीं है।
कादिर–सरकार जरा…
ज्ञानशंकर–बस कह दिया कि जबान मत खोलो।
मनोहर अब तक चुपचाप खड़ा था। प्रभाशंकर की बात सुनकर उसे आशा हुई थी कि यहाँ आना निष्फल नहीं हुआ। उनकी विनयशीलता ने वशीभूत कर लिया था ज्ञानशंकर के कटु व्यवहार के सामने प्रभाशंकर की नम्रता उसे देवोचित प्रतीत होती थी। उसके हृदय में उत्कण्ठा हो रही थी कि अपना सर्वस्व लाकर इनके सामने रख दूँ और कह दूँ कि यह मेरी ओर से बड़े सरकार की भेंट है। लेकिन ज्ञानशंकर के अन्तिम शब्दों ने इन भावनाओं को पद-दलित कर दिया। विशेषतः कादिर मियाँ का अपमान उसे असह्य हो गया। तेवर बदल कर बोला–दादा, इस दरबार से अब दया-धर्म उठ गया। चलो, भगवान की जो इच्छा होगी, वह होगा। जिसने मुँह चीरा वह खाने को भी देगा। भीख नहीं तो परदेश तो कहीं नहीं गया है?
यह कहकर उसने कादिर का हाथ पकड़ा और उसे जबरदस्ती खींचता दीवानखाने से बाहर निकल गया। ज्ञानशंकर को इस समय इतना क्रोध आ रहा था कि यदि कानून का भय न होता तो वह उसे जीता चुनवा देते। अगर इसका कुछ अंश मनोहर को डाँटने-फटकारने में निकल जाता तो कदाचित् उनकी ज्वाला कुछ शान्त हो जाती, किन्तु अब हृदय में खौलने के सिवा उनके निकलने का कोई रास्ता न था। उनकी दशा उस बालक की-सी हो रही थी, जिसका हमजोली उसे दाँत काटकर भाग गया हो। इस ज्ञान से उन्हें शान्ति न होती थी कि मैं इस मनुष्य के भाग का विधाता हूँ आज इसे पैरों तले कुचल सकता हूँ। क्रोध को दुर्वचन से विशेष रुचि होती है।
ज्वालासिंह मौनी बने बैठे थे। उन्हें आश्चर्य हो रहा था कि ज्ञानशंकर में इतनी दयाहीन स्वार्थपरता कहाँ से आ गई? अभी क्षण-भर पहले यह महाशय न्याय और लोक-सेवा का कैसा महत्वपूर्ण वर्णन कर रहे थे। इतनी ही देर में यह कायापलट। विचार और व्यवहार में इतना अन्तर? मनोहर चला गया तो ज्ञानशंकर से बोले–इजाफा लगान का दावा कीजिएगा तो क्या उसकी ओर से उज्रदारी न होगी? आप केवल एक असामी पर दावा नहीं कर सकते।
ज्ञानशंकर–हाँ, यह आप ठीक कहते हैं। खाँ साहब, आप उन असामियों की एक सूची तैयार कीजिए, जिन पर कायदे के अनुसार इजाफा हो सकता है। क्या हरज है, लगे हाथ सारे गाँव पर दावा हो जाये?
ज्वालासिंह ने मनोहर की रक्षा के लिए यह शंका की थी। उसका यह विपरीत फल देखकर उन्हें फिर कुछ कहने का साहस न हुआ। उठकर ऊपर चले गये। 

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रचनाएँ
प्रेमाश्रम
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प्रेमचंद आधुनिक हिन्दी कहानी के पितामह और उपन्यास सम्राट माने जाते हैं। यू तो उनके साहित्यिक जीवन का आरंभ १९०१ से हो चुका था पर बीस वर्षों की इस अवधि में उनकी कहानियों के अनेक रंग देखने को मिलते हैं। इस उपन्यास में प्रेमचंद व्यापक स्तर पर किसान के उत्पीड़न का चित्र अंकित करते हैं। अनगिनत शोषण और ज्ञानशंकर आततायी किसान को चूसकर सूखा देने के लिए जुट गए हैं। ज्ञानशंकर मानो अन्याय का मूर्तिमान रूप है, किन्तु प्रेमशंकर अपनी गहरी मानवीयता और सदगुणों के कारण असत्य और अधर्म पर पूरी तरह विजयी होते हैं। 'प्रेमाश्रम' भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है। गांधीजी के सत्याग्रह आन्दोलन की इस कथा पर विशिष्ट छाप है। इस उपन्यास में प्रेमचंद व्यापक स्तर पर किसान के उत्पीड़न का चित्र अंकित करते हैं।
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प्रेमाश्रम 1

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सन्ध्या हो गई है। दिन भर के थके-माँदे बैल खेत से आ गये हैं। घरों से धुएँ के काले बादल उठने लगे। लखनपुर में आज परगने के हाकिम की परताल थी। गाँव के नेतागण दिनभर उनके घोड़े के पीछे-पीछे दौड़ते रहे थे। इस

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लखनपुर के जमींदारों का मकान काशी में औरंगाबाद के निकट था। मकान के दो खण्ड आमने-सामने बने हुए थे। एक जनाना मकान था, दूसरी मरदानी बैठक। दोनों खण्डों के बीच की जमीन बेल-बूटे से सजी हुई थी, दोनों ओर ऊँची

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मनोहर अक्खड़पन की बातें तो कर बैठा; किन्तु जब क्रोध शान्त हुआ तो मालूम हुआ कि मुझसे बड़ी भूल हुई। गाँव वाले सब-के-सब मेरे दुश्मन हैं। वह इस समय चौपाल में बैठे मेरी निन्दा कर रहे होंगे। कारिंदा न जाने

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तीसरा पहर था। ज्ञानशंकर दीवानखाने में बैठे हुए एक किताब पढ़ रहे थे कि कहार ने आकर कहा, बाबू साहब पूछते हैं, कै बजे हैं? ज्ञानशंकर ने चिढ़कर कहा, जा कह दे, आपको नीचे बुलाते हैं? क्‍या सारे दिन सोते रहे

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एक महीना बीत गया, गौस खाँ ने असामियों की सूची न तैयार की और न ज्ञानशंकर ने ही फिर ताकीद की । गौस खाँ के स्वहित और स्वामिहित में विरोध हो रहा था और ज्ञानशंकर सोच रहे थे कि जब इजाफे से सारे परिवार का ला

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प्रेमाश्रम (भाग-2)

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7. जब तक इलाके का प्रबन्धन लाला प्रभाशंकर के हाथों में था, वह गौस खाँ को अत्याचार से रोकते रहते थे। अब ज्ञानशंकर मालिक और मुख्तार थे। उनकी स्वार्थप्रियता ने खाँ साहब को अपनी अभिलाषाएँ पूर्ण करने का अ

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जिस भाँति सूर्यास्त के पीछे विशेष प्रकार के जीवधारी; जो न पशु हैं न पक्षी, जीविका की खोज में निकल पड़ते हैं, अपनी लंबी श्रेणियों से आकाश मंडल को आच्छादित कर लेते हैं, उसी भाँति कार्तिक का आरम्भ होते ह

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अपनी पारिवारिक सदिच्छा का ऐसा उत्तम प्रमाण देने के बाद ज्ञानशंकर को बँटवारे के विषय में अब कोई असुविधा न रही, लाला प्रभाशंकर ने उन्हीं की इच्छानुसार करने का निश्चय कर लिया। दीवानखाना उनके लिए खाली कर

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 राय कमलानन्द बहादूर लखनऊ के एक बड़े रईस और तालुकेदार थे। वार्षिक आय एक लाख के लगभग थी। अमीनाबाद में उनका विशाल भवन था। शहर में उनकी और भी कई कोठियाँ थीं, पर वह अधिकांश नैनीताल या मसूरी में रहा करते थ

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आँधी का पहला वेग जब शान्त हो जाता है, तब वायु के प्रचण्ड झोंके, बिजली की चमक और कड़क बन्द हो जाती है और मूसलाधार वर्षा होने लगती है। गायत्री के चित्त की शान्ति भी द्रवीभूत हो गई थी। हृदय में रुधिर की

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गायत्री के जाने के बाद ज्ञानशंकर को भी वहाँ रहना दूभर हो गया। सौभाग्य उन्हें हवा के घोड़े पर बैठाये ऋद्धि और सिद्धि के स्वर्ग में लिए जाता था, किन्तु एक ही ठोकर में वह चमकते हुए नक्षत्र अदृश्य हो गये;

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यद्यपि गाँव वालों ने गौस खाँ पर जरा भी आँच न आने दी थी, लेकिन ज्वालासिंह का उनके बर्ताव के विषय में पूछ-ताछ करना उनके शान्ति-हरण के लिए काफी था। चपरासी, नाजिर मुंशी सभी चकित हो रहे थे कि इस अक्खड़ लौं

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राय साहब को नैनीताल आये हुए एक महीना हो गया। ‘‘एक सुरम्य झील के किनारे हरे-भरे वृक्षों के कुन्ज में उनका बँगला स्थित है, जिसका एक हजार रुपया मासिक किराया देना पड़ता है। कई घोड़े हैं, कई मोटर गाड़ियाँ,

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प्रातः काल था। ज्ञानशंकर स्टेशन पर गाड़ी का इन्तजार कर रहे थे। अभी गाड़ी के आने में आध घण्टे की देर थी। एक अँग्रेजी पत्र लेकर पढ़ना चाहा पर उसमें जी न लगा। दवाओं के विज्ञापन अधिक मनोरंजक थे। दस मिनट म

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प्रेमाश्रम (भाग-3)

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16. प्रेमशंकर यहाँ दो सप्ताह ऐसे रहे, जैसे कोई जल्द छूटने वाला कैदी। जरा भी जी न लगता था। श्रद्धा की धार्मिकता से उन्हें जो आघात पहुँचा था उसकी पीड़ा एक क्षण के लिए भी शान्त न होती थी। बार-बार इरादा

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गायत्री उन महिलाओं में थी जिनके चरित्र में रमणीयता और लालित्य के साथ पुरुषों का साहस और धैर्य भी मिला होता है। यदि वह कंघी और आईने पर जान देती थी तो कच्ची सड़कों के गर्द और धूल से भी न भागती थी। प्यान

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ज्ञानशंकर को गायत्री का पत्र मिला तो फूले न समाये। हृदय में भाँति-भाँति की मनोहर सुखद कल्पनाएँ तरंगे मारने लगीं। सौभाग्य देवी जीवन-संकल्प की भेंट लिये उनका स्वागत करने को तैयार खड़ी थी। उनका मधुर स्वप

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ज्ञानशंकर लगभग दो बरस से लखनपुर पर इजाफा लगान करने का इरादा कर रहे थे, किन्तु हमेशा उनके सामने एक-न-एक बाधा आ खड़ी होती थी। कुछ दिन तो अपने चचा से अलग होने में लगे। जब उधर से बेफिक्र हुए तो लखनऊ जाना

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प्रभात का समय था। चैत का सुखद पवन प्रवाहित हो रहा था। बाबू ज्वालासिंह बरामदे में आरामकुर्सी पर लेटे हुए घोड़े का इन्तजार कर रहे थे। उन्हें आज मौका देखने के लिए लखनपुर जाना था, किन्तु मार्ग में एक बड़ी

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एक पखवारा बीत गया। सन्ध्या समय था। शहर में बर्फ की दूकानों पर जमघट होने लगा था। हुक्के और सिगरेट से लोगों को अरुचि होती जाती थी। ज्वालासिंह लखनपुर से मौके की जाँच करके लौटे थे और कुर्सी पर बैठे ठंडा श

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ज्ञानशंकर को अपील के सफल होने का पूरा विश्वास था। उन्हें मालूम था कि किसानों में धनाभाव के कारण अब बिल्कुल दम नहीं है। लेकिन जब उन्होंने देखा, काश्तकारों की ओर से भी मुकदमें की पैरवी उत्तम रीति से की

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अपील खारिज होने के बाद ज्ञानशंकर ने गोरखपुर की तैयारी की। सोचा, इस तरह तो लखनपुर से आजीवन गला न छूटेगा, एक-न-एक उपद्रव मचा ही रहेगा। कहीं गोरखपुर में रंग जम गया तो दो-तीन बरसों में ऐसे कई लखनपुर हाथ आ

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आय में वृद्धि और व्यय में कमी, यह ज्ञानशंकर के सुप्रबन्ध का फल था। यद्यपि गायत्री भी सदैव किफायत कर निगाह रखती थी, पर उनकी किफायत अशर्फियों की लूट और कोयलों पर मोहर को चरितार्थ करती थी। ज्ञानशंकर ने स

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जिस समय ज्ञानशंकर की अपील खारिज हुई, लखनपुर के लोगों पर विपत्ति की घटा छायी हुई थी। कितने ही घर प्लेग से उजड़ गये। कई घरों में आग लग गयी। कई चोरियाँ हुईं। उन पर दैविक घटना अलग हुई, कभी आँधी आती कभी पा

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पहला अंक

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राजा– हाय! हाय! बैद्यों ने जबाव दिया, हकीमों ने जवाब दिया, डाकदरों ने जवाब दिया, किसी ने रोग को न पहचाना। सब-के-सब लुटेरे थे। अब जिन्दगानी की कोई आशा नहीं। यह सारा राज-पाट छूटता है। मेरे पीछे परजा पर

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दूसरा अंक

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(राजा एक साधारण नागिरक के रूप में आप-ही-आप) समय कम है, ऐसे तीन सज्जनों के पास चलना चाहिए जो मेरे भक्त थे। पहले सेठ के पास चलूँ। वह परोपकार के प्रत्येक काम में मेरी सहायता करता था। मैंने उसकी कितनी बा

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प्रेमाश्रम (भाग-4)

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26. प्रभात का समय था और कुआर का महीना। वर्षा समाप्त हो चुकी थी। देहातों में जिधर निकल जाइए, सड़े हुए सन की सुगन्ध उड़ती थी। कभी ज्येष्ठ को लज्जित करने वाली धूप होती थी, कभी सावन को सरमाने वाले बादल घ

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प्रेमशंकर की कृषिशाला अब नगर के रमणीय स्थानों की गणना में थी। यहाँ ऐसी सफाई और सजावट थी। कि प्रातः रसिकगण सैर करने आया करते। यद्यपि प्रेमशंकर केवल उसके प्रबन्धकर्ता थे, पर वस्तुतः असामियों की भक्ति और

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श्रद्घा की बातों से पहले तो ज्ञानशंकर को शंका हुई, लेकिन विचार करने पर यह शंका निवृत्त हो गयी, क्योंकि इस मामले में प्रेमशंकर का अभियुक्त हो जाना अवश्यम्भावी था। ऐसी अवस्था में श्रद्धा के निर्बल क्रोध

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इस मुकदमें ने सारे शहर मे हलचल मचा दी। जहाँ देखिए, यह चर्चा थी सभी लोग प्रेमशंकर के आत्म-बलिदान की प्रंशसा सौ-सौ मुँह से कर रहे थे। यद्यपि प्रेमशंकर ने स्पष्ट कह दिया था कि मेरे लिए किसी वकील की जरूर

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रात के १० बजे थे। ज्वालासिंह तो भोजन करके प्रभाशंकर के दीवानखाने में ही लेटे, लेकिन प्रेमशंकर को मच्छरों ने इतना तंग किया कि नींद न आयी। कुछ देर तक तो वह पंखा झलते रहे, अन्त को जब भीतर न रहा गया तो व्

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डाक्टर इर्फान अली की बातों से प्रभाशंकर को बड़ी तसकीन हुई। मेहनताने के सम्बन्ध में उनसे कुछ रिआयत चाहते थे, लेकिन संकोचवश कुछ न कह सकते थे। इतने में हमारे पूर्व-परिचित सैयद ईजाद हुसैन ने कमरे में प्रव

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जब मुकदमा सेशन सुपुर्द हो गया और ज्ञानशंकर को विश्वास हो गया कि अब अभियुक्तों का बचना कठिन है तब उन्होंने गौस खाँ की जगह पर फैजुल्लाह को नियुक्त किया और खुद गोरखपुर चले आए। यहाँ से गायत्री की कई चिट्ठ

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सेशन जज के इजलास में एक महीने से मुकदमा चल रहा है। अभियुक्त ने फिर सफाई दी। आज मनोहर का बयान था। इजलास में एक मेला सा लगा हुआ था। मनोहर ने बड़ी निर्भीक दृढ़ता के साथ सारी घटना आदि से अन्त तक बयान की औ

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फैजुल्लाह खाँ का गौस खाँ के पद पर नियुक्त होना गाँव के दुखियारों के घाव पर नमक छिड़कना था। पहले ही दिन से खींच-तान होने लगी और फैजू ने विरोधाग्नि को शान्त करने की जरूरत न समझी। अब वह मुसल्लम गाँव के स

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प्रातःकाल ज्योंही मनोहर की आत्महत्या का समाचार विदित हुआ, जेल में हाहाकार मच गया। जेल के दारोगा, अमले, सिपाही, पहरेदार-सब के हाथों के तोते उड़ गये। जरा देर में पुलिस को खबर मिली, तुरन्त छोटे-बड़े अधिक

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डा० इर्फान अली बैठे सोच रहे थे कि मनोहर की आत्महत्या का शेष अभियुक्तों पर क्या असर पड़ेगा? कानूनी ग्रन्थों का ढेर सामने रखा हुआ था। बीच में विचार करने लगते थे; मैंने यह मुकदमा नाहक लिया। रोज १०० रुपये

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सैयद ईजाद हुसेन का घर दारानगर की एक गली में था। बरामदे में दस-बारह वस्त्रविहीन बालक एक फटे हुए बोरिये पर बैठे करीमा और खालिकबारी की रट लगया करते थे। कभी-कभी जब वे उमंग में आ कर उच्च स्वर से अपने पाठ य

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महाशय ज्ञानशंकर का धर्मानुराग इतना बढ़ा कि सांसारिक बातों से उन्हें अरुचि सी होने लगी, दुनिया से जी उचाट हो गया। वह अब भी रियासत का प्रबन्ध उतने ही परिश्रम और उत्साह से करते थे, लेकिन अब सख्ती की जगह

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जलसा बड़ी सुन्दरता से समाप्त हुआ रानी गायत्री के व्याख्यान पर समस्त देश में वाह-वाह मच गयी। उसमें सनातन-धर्म संस्था का ऐतिहासिक दिग्दर्शन कराने के बाद उसकी उन्नति और पतन, उसके उद्धार और सुधार उसकी विर

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प्रेमाश्रम (भाग-5)

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41. राय कमलानन्द को देखे हुए हमें लगभग सात वर्ष हो गये, पर इस कालक्षेप का उनपर कोई चिन्ह नहीं दिखाई देता। बाल-पौरुष, रंग-ढंग सब कुछ वही है। यथापूर्व उनका समय सैर और शिकार पोलो और टेनिस, राग और रंग मे

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दो दिन हो गये और ज्ञानशंकर ने राय साहब से मुलाकात न की। रायसाहब उन निर्दय पुरुषों में न थे जो घाव लगाकर उस पर नमक छिड़कते हैं। वह जब किसी पर नाराज होते तो यह मानी हुई बात थी कि उसका नक्षत्र बलवान है,

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सन्ध्या का समय था। बनारस के सेशन जज के इजलास में हजारों आदमी जमा थे। लखनपुर के मामले से जनता को अब एक विशेष अनुराग हो गया था। मनोहर की आत्महत्या ने उसकी चर्चा सारे शहर में फैला दी थी। प्रत्येक पेशी के

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डाक्टर इर्फान अली उस घटना के बाद हवा खाने न जा सके, सीधे घर की ओर चले। रास्ते भर उन्हें संशय हो रहा था कि कहीं उन उपद्रवियों से फिर मुठभेड़ न हो जाये नहीं तो अबकी जान के लाले पड़े जायेंगे। आज बड़ी खैर

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कई महीने बीत चुके, लेकिन प्रेमशंकर अपील दायर करने का निश्चय न कर सके। जिस काम में उन्हें किसी दूसरे से मदद मिलने की आशा न होती थी, उसे वह बड़ी तत्परता के साथ करते थे, लेकिन जब कोई उन्हें सहारा देने के

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ज्ञानशंकर लखनऊ से सीधे बनारस पहुँचे, किन्तु मन उदार और खिन्न रहते। न हवा खाने जाते, न किसी से मिलते-जुलते। उनकी दशा इस समय उस पक्षी की-सी थी जिसके दोनों पंख कट गये हों, या उस स्त्री की-सी जो किसी दैवी

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ज्ञानशंकर को बनारस आये दो सप्ताह से अधिक बीत चुके थे। संगीत-परिषद् समाप्त हो चुकी थी और अभी सामयिक पत्रों में उस पर वाद-विवाद हो रहा था। यद्यपि अस्वस्थ होने के कारण राय साहब उसमें उत्साह के साथ भाग न

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गायत्री बनारस पहुँच कर ऐसी प्रसन्न हुई जैसे कोई बालू पर तड़पती हुई मछली पानी में जा पहुँचे। ज्ञानशंकर पर राय साहब की धमकियों का ऐसा भय छाया हुआ था कि गायत्री के आने पर वह और भी सशंक हो गये। लेकिन गायत

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रात के आठ बजे थे। ज्ञानशंकर के दीवानखाने में शहर के कई प्रतिष्ठित सज्जन जमा थे। बीच में एक लोहे का हवनकुण्ड रखा हुआ था, उसमें हवन हो रहा था। हवनकुण्ड के एक तरफ गायत्री बैठी थी, दूसरी तरफ ज्ञानशंकर और

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प्रेमाश्रम (भाग-6)

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50. श्रद्धा और गायत्री में दिनों-दिन मेल-जोल बढ़ने लगा। गायत्री को अब ज्ञात हुआ कि श्रद्धा में कितना त्याग, विनय, दया और सतीत्व है। मेल-जोल से उनमें आत्मीयता का विकास हुआ, एक-दूसरी से अपने हृदय की ब

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बाबू ज्ञानशंकर गोरखपुर आये, लेकिन इस तरह जैसे लड़की ससुराल आती है। वह प्रायः शोक और चिन्ता में पड़े रहते। उन्हें गायत्री से सच्चा प्रेम न सही, लेकिन वह प्रेम अवश्य था जो शराबियों को शराब से होता है। उ

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बाबू ज्वालासिंह को बनारस से आये आज दूसरा दिन था। कल तो वह थकावट के मारे दिन भर पड़े रहे, पर प्रातःकाल ही उन्होंने लखनपुरवालों की अपील का प्रश्न छेड़ दिया। प्रेमशंकर ने कहा– मैं तो आप ही की बाट जोह रहा

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ज्यों ही दशहरे की छुट्टियों के बाद हाईकोर्ट खुला, अपील दायर हो गयी और समाचार पत्रों के कालम उसकी कार्यवाही से भरे जाने लगे। समस्या बड़ी जटिल थी। दंड प्राप्तों में उन साक्षियों को फिर पेश किये जाने की

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गायत्री की दशा इस समय उस पथिक की सी थी जो साधु भेषधारी डाकुओं के कौशल जाल में पड़ कर लुट गया हो। वह उस पथिक की भाँति पछताती थी कि मैं कुसमय चली क्यों? मैंने चलती सड़क क्यों छोड़ दी? मैंने भेष बदले हुए

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‘‘लाला प्रभाशंकर ने भविष्य-चिन्ता का पाठ न पढ़ा था। ‘कल’ की चिन्ता उन्हें कभी न सताती थी। उनका समस्त जीवन विलास और कुल मर्यादा की रक्षा में व्यतीत हुआ था। खिलाना, खाना और नाम के लिए मर जाना– यही उनके

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बाल्यावस्था के पश्चात् ऐसा समय आता है जब उद्दण्डता की धुन सिर पर सवार हो जाती है। इसमें युवाकाल की सुनिश्चित इच्छा नहीं होती, उसकी जगह एक विशाल आशावादिता है जो दुर्लभ को सरल और असाध्य को मुँह का कौर स

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इस शोकाघात ने लाला प्रभाशंकर को संज्ञा-विहीन कर दिया। दो सप्ताह बीत चुके थे, पर अभी तक घर से बाहर न निकले थे। दिन-के-दिन चारपाई पर पड़े छत की ओर देखा करते, रातें करवटें बदलने में कट जातीं। उन्हें अपना

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होली का दिन था। शहर में चारों तरफ अबीर और गुलाल उड़ रही थी, फाग और चौताल की धूम थी, लेकिन लाला प्रभाशंकर के घर पर मातम छाया हुआ था। श्रद्धा अपने कमरे में बैठी हुई गायत्री देवी के गहने और कपड़े सहेज रह

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मानव-चरित्र न बिलकुल श्यामल होता है न बिलकुल श्वेत। उसमें दोनों ही रंगों का विचित्र सम्मिश्रण होता है। स्थिति अनुकूल हुई तो वह ऋषितुल्य हो जाता है, प्रतिकूल हुई तो नराधम। वह अपनी परिस्थितियों का खिलौन

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गायत्री के आदेशानुसार ज्ञानशंकर २००० रुपये महीना मायाशंकर के खर्च के लिए देते जाते थे। प्रेमशंकर की इच्छा थी कि कई अध्यापक रखे जायें, सैर करने के लिए गाड़ियाँ रखी जायँ, कई नौकर सेवा-टहल के लिए लगाये ज

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लाला प्रभाशंकर को रुपये मिले तो वह रोये। गाँव तो बच गया, पर उसे कौन बिलसेगा? दयाशंकर का चित्त फिर घर से उचाट हो चला था। साधु-सन्तों के सत्संग के प्रेमी हो गये थे। दिन-दिन वैराग्य में रह होते जाते थे।

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महाशय ज्ञानशंकर का भवन आज किसी कवि-कल्पना की भाँति अलंकृत हो रहा है। आज वह दिन आ गया है जिसके इन्तजार में एक युग बीत गया। प्रभुत्व और ऐश्वर्य का मनोहर स्वप्न पूरा हो गया है। मायाशंकर के तिलकोत्सव का श

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उपसंहार

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दो साल हो गये हैं। सन्ध्या का समय है। बाबू मायाशंकर घोड़े पर सवार लखनपुर में दाखिल हुए। उन्हें वहाँ रौनक और सफाई दिखायी दी। प्रायः सभी द्वारों पर सायबान थे। उनमें बड़े-बड़े तख्ते बिछे हुए थे। अधिकांश

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