डा० इर्फान अली बैठे सोच रहे थे कि मनोहर की आत्महत्या का शेष अभियुक्तों पर क्या असर पड़ेगा? कानूनी ग्रन्थों का ढेर सामने रखा हुआ था। बीच में विचार करने लगते थे; मैंने यह मुकदमा नाहक लिया। रोज १०० रुपये का नुकसान हो रहा है और अभी मालूम नहीं कितने दिन लगेंगे। लाहौल! फिर रुपये की तरफ ध्यान गया। कितना ही चाहता हूँ कि दिल को इधर न आने दूँ, मगर ख्याल आ ही जाता है। वकालत छोड़ते भी नहीं बनती। ज्ञानशंकर से प्रोफेसरी के लिए कह तो आया हूँ, लेकिन जो सचमुच यह जगह मिल गयी तो टेढ़ी खीर होगी! मैं अब ज्यादा दिनों तक इस पेशे में रह नहीं सकता, और न सही तो सेहत के लिए जरूर ही छोड़ देना पड़ेगा। बस, यही चाहता हूँ कि घर बैठे १००० रुपये माहवारी रकम मिल जाया करे। अगर प्रोफेसरी से १००० रुपये भी मिले तो काफी होगा। नहीं, अभी छोड़ने का वक्त नहीं आया। ३ साल तक सख्त मेहनत करने के बाद अलबत्ता छोड़ने का इरादा कर सकता हूँ। लेकिन इन तीन वर्षों तक मुझे चाहिए कि रियासत और मुरौवत को बालायताक रख दूँ। सबसे पूरा मेहताना लूँ, वरना आजकल की तरह फँसता रहा तो जिन्दगी भर छुटकारा न होगा।
हाँ, तो आज इस मुकदमे में बहस होगी। उफ! अभी तक तैयार नहीं हो सका। गवाहों के बयानों पर निगाह डालने का भी मौका न मिला। खैर, कोई मुजायका नहीं है कुछ न कुछ बातें तो याद ही हैं। बहुत-कुछ उधर के वकील की तकरीर से सूझ जायेंगी। जरा नमक-मिर्च और मिला दूँगा, खासी बहस हो जायेगी। यह तो रोज का ही काम है,इसकी क्या फिक्र...
इतने में अमौली के राजा साहब की मोटर आ पहुँची। डॉक्टर साहब ने बाहर निकल कर राजा साहब का स्वागत किया। राजा साहब अँग्रेजी में कोरे, लेकिन अँग्रेजी रहन-सहन रीति-नीति में पारंगत थे। उनके कपड़े विलायत से सिल कर आते थे। लड़कों को पढ़ाने के लिए लेडियाँ नौकर थीं और रियायत का मैनेजर भी अंग्रेज था। राजा साहब का अधिकांश समय अंग्रेजी दूकानों की सैर में कटता था। टिकट और सिक्के जमा करने का शौक था। थिएटर जाने में कभी नागा न करते थे। कुछ दिनों से उनके मैनेजर ने रियासत की आमदनी पर हाथ लपकाना शुरू किया था। इसलिए उन्हें हटाना चाहते थे, किन्तु अँग्रेज अधिकारियों के भय से साहस न होता था। मैनेजर स्वयं राजा को कुछ न समझता था, आमदनी का हिसाब देना तो दूर रहा। राजा साहब इस मामले को दीवानी में लाने का विचार कर रहे थे। लेकिन मैनेजर साहब की जज से गहरी मैत्री थी, इसलिए अदालत के और वकीलों ने इस मुकदमें को हाथ में लेने से इनकार कर दिया था। निराश हो कर राजा साहब ने इर्फान अली की शरण ली थी। डॉक्टर साहब देर तक उनकी बातें सुनते रहे। बीच-बीच में तस्कीन देते थे। आप घबरायें नहीं। मैं मैनेजर साहब से एक-एक कौड़ी वसूल कर लूँगा। यहाँ के वकील दब्बू हैं, खुशामगी टट्टू– पेशे को बदनाम करने वाले। हमारा पेशा आजाद है। हक की हिमायत करना हमारा काम है, चाहे बादशाह से ही क्यों न मुकाबला करना पड़े। आप जरा भी तरद्दुद न करें। मैं सब बातें ऐसी खूबसूरती से तय कर दूँगा कि आप पर छींटा भी न आने पायेगा। अकस्मात तार के चपरासी ने आ कर डॉक्टर साहब को एक तार का लिफाफा दिया। ज्ञानशंकर ने एक मुकदमें की पैरवी करने के लिए ५००) रुपये रोज पर बुलाया था।
डॉक्टर महोदय ने राजा साहब से कहा यह पेशा बड़ा मूजी है। कभी आराम से बैठना नसीब नहीं होता। रानी गायत्रीदेवी का तार है, गोरखपुर बुला रही हैं।
राजा– मैं अपने मुकदमें को मुलतवी नहीं कर सकता। मुमकिन है मैनेजर कोई और चाल खेल जाय।
डॉक्टर– आप मुतलक अन्देशा न करें, मैंने मुकदमे को हाथ में ले लिया। अपने दीवान साहब को भेज दीजिएगा, वकालतनामा तैयार हो जायेगा। मैं कागजात देखकर फौरन दावा दायर कर दूँगा। गोरखपुर गया तो आपके कागजात लेता जाऊँगा।
घड़ी में दस बजे खानसामा ने दस्तरखान बिछाया। भोजनालय इस दफ्तर के बगल ही में था। मसाले की सुगन्ध कमरे में फैल गयी, लेकिन डॉक्टर साहब अपना शिकार फंसाने में तल्लीन थे। भय होता था मैं भोजन करने चला जाऊँ और शिकार हाथ से निकल न जाय। लगभग आध घंटे तक वह राजा साहब से मुकदमे के सम्बन्ध में बातें करते रहे। राजा साहब के जाने के बाद वह दस्तरखान पर बैठे। खाना ठंडा हो गया था। दो-चार ही कौर खाने पाये थे कि ११ बज गये दस्तरखान से उठ बैठे। जल्दी-जल्दी कपड़े पहने और कचहरी चले। रास्ते में पछताते जाते थे कि भरपेट खाने भी नहीं पाया। आज पुलाव कैसा लजीज बना था। इस पेशे का बुरा हो, खाने की फुर्सत नहीं। हाँ, रानी को क्या जवाब दूँ? नीति तो यही है कि जब तक किसानों का मामला तय न हो जाय, कहीं न जाऊँ। लेकिन यह ५०० रुपये रोज का नुकसान कैसे बर्दाश्त करूँ? फिर एक बड़ी रियासत से ताल्लुक हो रहा है। साल में सैकड़ों मुकदमें होते होंगे, सैकड़ों अपीले होती होंगी। वहाँ अपना रंग जरूर जमाना चाहिए। मुहर्रिर साहब सामने ही बैठे थे, पूछा– क्यों मुंशीजी, रानी साहब को क्या जवाब दूँ? आपके ख्याल में इस वक्त वहाँ मेरा जाना मुनासिब है?
मुहर्रिर– हुजूर किसी के ताबेदार नहीं हैं। शौक से जायें। सभी वकील यही करते हैं! ऐसे मौके को न छोड़ें।
डॉक्टर– बदनामी होती है।
मुहर्रिर– जरा भी नहीं। जब यही आम रिवाज है तो कौन किसे बदनाम कर सकता है।
इन शब्दों ने इर्फान अली की दुविधाओं को दूर कर दिया। औंधते को ठेलने का बहाना मिल गया। ज्यों ही मोटर कचहरी में पहुँची, प्रेमशंकर दौड़े हुए आये और बोले, मैं तो बड़ी चिन्ता में था। पेशी हो गई।
डॉक्टर– अमौली के राजा साहब आ गये, इससे जरा-देर हो गयी, खाना भी नहीं नसीब हुआ। इस पेशे की न जाने क्यों लोग इतनी तारीफ करते हैं? असल में इससे बदतर कोई पेशा नहीं। थोड़े दिनों में आदमी कोल्हू का बैल बन जाता है।
प्रेमशंकर– आप उधर कहाँ तशरीफ लिये जाते हैं?
डॉक्टर– जरा सब-जज के इजलास में एक बात पूछने। आप चले, मैं अभी आता हूँ।
प्रेम– सरकारी वकील ने बहस शुरू कर दी है।
डॉक्टर– कोई मुजायका नहीं, करने दीजिए। मैं उसका जवाब पहले ही तैयार कर चुका हूँ।
प्रेमशंकर उनके साथ सब-जज के इजलास तक गये। डॉक्टर साहब लगभग एक घंटे तक दफ्तरवालों से बातें करते रहे। अन्त में निकले तो बड़े संकोच भाव से बोले आप को यहाँ खड़े-खड़े बेहद तकलीफ हुई, मुआफ फरमाइएगा। मुझे यह कहते हुए आपसे बहुत नादिम होना पड़ता है कि मैं तीन-चार दिन इस मुकदमे की पैरवी न कर सकूँगा।
प्रेम– यह तो आपने बुरी खबर सुनायी। आप खुद अन्दाज कर सकते हैं कि ऐसे नाजुक मौके पर आपका न रहना कितना जुल्म है।
डॉक्टर– मजबूर हूँ, आपके भाई साहब ने तार से गोरखपुर बुलाया है।
प्रेम– इस खबर से मेरी तो रूह ही फना हो गयी। आप इन बेचारे किसानों को मझधार में छोड़े देते हैं। ख्याल फरमाइए इनकी क्या हालत होगी? यहाँ इतने तंग वक्त में कोई दूसरा वकील भी तो नहीं मिल सकता।
डॉक्टर– मुझे खुद निहायत अफसोस है। मगर जब तक दूकान है तब तक खरीदारों की खातिर करनी ही पड़ेगी। यह पेशा ऐसा मनहूस है कि इसमें आईन पर कायम रहना दुश्वार है। मुझे इन मुसीबतजदों का खुद ख्याल है, लेकिन मिस्टर ज्ञानशंकर को नाराज भी तो नहीं कर सकता। और जनाब, साफ बात तो यह है कि जब काफिर हुए तो शराब से क्यों तौबा करें? जब वकालत का सियाह जामा पहना तो उस पर शराफत का सुफेद दाग क्यों लगायें? जब लूटने पर आये तो दोनो हाथों से क्यों न समेटें? दिल में दौलत का अरमान क्यों रह जायें? बनियों को लोग ख्वामख्वाह लालची कहते हैं। इस लकब का हक हमको है। दौलत हमारा दीन है, ईमान है। यह न समझिए कि इस पेशे के जो लोग चोटी पर पहुँच गये हैं, वे ज्यादा रोशन ख्याल हैं। नहीं जनाब, वे बगुले भगत हैं। ऐसे खामोश बैठे रहते हैं, गोया दुनिया से कोई वास्ता नहीं लेकिन शिकार नजर आते ही आप उनकी झपट और फुरती देखकर दंग हो जायेंगे। जिस तरह कमाई बकरे को सिर्फ वजन के एतबार से देखता है उसी तरह हम इंसान को महज इस एतबार से देखते हैं कि वह, कहाँ तक आँख का अन्धा और गाँठ का पूरा है। लोग इसे आजाद पेशा कहते हैं, मैं इसे इन्तहा दरजे की गुलामी कहता हूँ। अभी चन्द महीने हुए मेरे भाई की शादी दरपेश थी। सादात के कस्बे में बारात गयी थी। तीन दिन बारात वहाँ मुकीम रही। मैं रोज सवेरे यहाँ चला आता था और रात की गाड़ी से लौट जाता था। सभी रस्में मेरी गैर-हाजिरी में अदा हुईं। एक दिन भी कचहरी का नागा नहीं किया। मैं अपनी इस हवस को मकरूह समझता हूँ। और जिन्दगी भर उस आदमी का शुक्रगुजार रहूँगा जो मुझे इस मर्ज से नजात दे दे।
यह कह कर डॉक्टर साहब मोटर पर आ बैठे और एक क्षण में घर पहुँच गये। एक बजे गाड़ी जाती थी। सफर का सामान होने लगा। दो चमड़े के सन्दूक, एक हैण्ड बेग, हैट रखने का सन्दूक, ऑफिस बक्स, भोजन सामग्रियों का सन्दूक आदि सभी सामान बग्घी पर लादा गया। प्रत्येक वस्तु पर डॉक्टर साहब का नाम लिखा हुआ था। समय बहुत कम था, डॉक्टर साहब घर में न गये। मोटर पर बैठना ही चाहते थे कि महरी ने आ कर कहा, हुजूर, जरा अन्दर चलें, बेगम साहिबा बुला रही हैं। मुनीरा को कई दस्त और कै आये हैं।
डॉक्टर साहब– तो जरा कपूर का अर्क क्यों नहीं पिला देती? खाने में कोई बदपरहेजी हुई होगी। चीखने-चिल्लाने की क्या जरूरत है?
महरी– हुजूर, दवा तो पिलायी है। जरा आप चल कर देख लें! बेगम साहिबा डॉक्टर बुलाने को कहती हैं।
इर्फान अली झल्लाये हुए अन्दर गये और बेगम से बोले, तुमने क्या जरा-सी बात का तूफान मचा रखा है?
बेगम– मुनीरा की हालत अच्छी नहीं मालूम होती। जरा चल कर देखो तो। उसके हाथ-पाँव अकड़े जाते हैं मुझे तो खौफ होता है, कहीं कालरा न हो।
इर्फान– यह सब तुम्हारा बहम है। सिर्फ खाने-पीने की बेएहतियाती है और कुछ नहीं। अर्क-काफूर दो-दो घंटे बाद पिलाती रहो। शाम तक सारी शिकायत दूर हो जायेगी। घबड़ाने की जरूरत नहीं। मैं इस ट्रेन से जरा गोरखपुर जा रहा हूँ। तीन-चार दिन में वापस आऊँगा। रोजाना खैरियत की इत्तला देती रहना। मैं रानी गायत्री के बँगले में ठहरूँगा।
बेगम ने उन्हें तिरस्कार भाव से देखकर कहा, लड़की की यह हालत है और आप इसे छोड़ चले जाते हैं। खुदा न करे उसकी हालत ज्यादा खराब हुई तो?
इर्फान– तो मैं रह कर क्या करूँगा? उसकी तीमारदारी तो मुझसे होगी ही नहीं और न बीमारी से मेरी दोस्ती है कि मेरे साथ रियायत करे।
बेगम– लड़की की जान को खुदा के हवाले करते हो, लेकिन रुपये खुदा के हवाले नहीं किये जाते! लाहौल बिलाकूबत आदमी में इन्सानियत न हो, औलाद की मुहब्बत तो हो! दौलत की हवस औलाद के लिए होती है। जब औलाद ही न रही, तो रुपयों का क्या अलाव लगेगा?
इर्फान– तुम अहमक हो, तुमसे कौन सिर-मगज करे?
यह कह कर वह बाहर चले आये, मोटर पर बैठे और स्टेशन की तरफ चल पड़े।