गायत्री उन महिलाओं में थी जिनके चरित्र में रमणीयता और लालित्य के साथ पुरुषों का साहस और धैर्य भी मिला होता है। यदि वह कंघी और आईने पर जान देती थी तो कच्ची सड़कों के गर्द और धूल से भी न भागती थी। प्यानों पर मोहित थी तो देहातियों के बेसुरे अलाप का आनन्द भी उठा सकती थी। सरस साहित्य पर मुग्ध होती थी तो खसरा और खितौनी से भी जी न चुराती थी। लखनऊ से आये हुए उसे दो साल हो गये। लेकिन एक दिन भी अपने विशाल भवन में आराम से न बैठी। कभी इस गाँव जाती, कभी उस छावनी में ठहरती, कभी तहसील आना पड़ता, कभी सदर जाना पड़ता, बार-बार अधिकारियों से मिलने की जरूरत पड़ती। उसे अनुभव हो रहा था कि दूसरों पर शासन करने के लिए स्वयं झुकना पड़ता है। उसके इलाके में सर्वत्र लूट मची हुई थी, कारिन्दे असामियों को नोचे खाते थे। सोचती, क्या इन सब मुख्तारों और कारिन्दों को जवाब दे दूँ? मगर काम कौन करेगा? और यही क्या मालूम है कि इनकी जगह जो नये लोग आयेंगे, वे इनसे ज्यादा नेकनीयत होंगे? मुश्किल तो यह है कि प्रजा को इस अत्याचार से उतना कष्ट भी नहीं होता, जितना मुझे होता है। कोई शिकायत नहीं करता, कोई फरियाद नहीं करता, उन्हें अन्याय सहने की ऐसा अभ्यास हो गया है कि वह इसे भी जीवन की एक साधारण दशा समझते हैं। उससे मुक्त होने का कोई यत्न भी हो सकता है, इसका उन्हें ध्यान भी नहीं होता।
इतना ही नहीं था। प्रजा गायत्री की सचेष्टाओं को सन्देह की दृष्टि से देखती थी। उनको विश्वास ही न होता था कि उनकी भलाई के लिए कोई ज़मींदार अपने नौकरों को दण्ड दे सकता है। वर्तमान अन्याय उनका ज्ञात विषय था, इसका उन्हें भय न था। सुधार के मन्तव्यों से भयभीत होते थे, यह उनके लिए अज्ञात विषय था। उन्हें शंका होती थी कि कदाचित् यह लोगों को निचोड़ने की कोई विधि है। अनुभव भी इस शंका को पुष्ट करता था। गायत्री का हुक्म था कि किसानों को नाम-मात्र सूद पर रुपये उधार दिये जायँ, लेकिन कारिन्दे महाजनों से भी ज्यादा सूद लेते थे। उनसे ताकीद कर दी थी कि बखारों से असामियों को अष्टांश पर अनाज दिया जाये। लेकिन वहाँ अष्टांश न देकर लोग दूसरों से सवाई-डेवढ़े पर अनाज लाते थे। वह अपने इलाके भर में सफाई का प्रबन्ध भी करना चाहती थी। गोबर बटोरने के लिए गाँव से बाहर खत्ते बनवा दिये थे। मोरियों को साफ करने के लिए भंगी लगा दिये थे। लेकिन प्रजा इसे ‘मुदाखतल बेजा’ समझती थी और डरती थी कि कहीं रानी साहिबा हमारे घूरों और खत्तों पर तो हाथ नहीं बढ़ रही हैं।
जाड़ों के दिन थे। गायत्री राप्ती नदी के किनारे के गाँव का दौरा कर रही थी। अबकी बाढ़ में कई गाँव डूब गये थे। कृषकों ने छूट की प्रार्थना की थी। सरकारी कर्मचारियों ने इधर-उधर देखकर लिख दिया था, छूट की जरूरत नहीं है। गायत्री अपनी आँखों से इन ग्रामों की दशा देखकर यह निर्णय करना चाहती थी कि कितनी छूट होनी चाहिए। सन्ध्या हो गयी थी। वह दिन-भर की थकी-माँदी बिन्दापुर की छावनी में उदास पड़ी हुई थी। सारा मकान खण्डहर हो गया था। इस छावनी की मरम्मत के लिए उसने कारिन्दों को सैकड़ों रुपये दिए थे। लेकिन उसकी दशा देखने से ज्ञात होता था कि बरसों से खपरैल भी नहीं बदला गया। दीवारें गिर गयी थीं, कड़ियों के टूट जाने से जगह-जगह छत बैठ गई थी। आँगन में कूड़े के ढेर लगे हुए थे। यहाँ के कारिन्दों को वह बहुत ईमानदार समझती थी। उसके कुटिल व्यवहार पर चित्त बहुत खिन्न हो रहा था। सामने चौकी पर पूजा के लिए आसन बिछा हुआ था, लेकिन उसका उठने का जी न चाहता था कि इतने में एक चपरासी ने आकर कहा– सरकार, कानूनगो साहब आये हैं।
गायत्री उठकर आसन पर जा बैठी और इस भय से की कहीं कानूनगो साहब चले न जाये, शीघ्रता से सन्ध्या समाप्त की और परदा कराके कानूनगो साहब को बुलाया।
गायत्री– कहिए खाँ साहब! मिजाज तो अच्छा है? क्या आजकल पड़ताल हो रही है?
कानूनगो– जी हाँ, आजकल हुजूर के ही इलाके का दौरा कर रहा हूँ।
गायत्री– आपके विचार में बाढ़ से खेती को कितना नुकसान हुआ?
कानूनगो– अगर सरकारी तौर पर पूछती हैं तो रुपये में एक आना, निज के तौर पर पूछती हैं तो रुपये में बारह आने।
गायत्री– आप लोग यह दोरंगी चाल क्यों चलते हैं? आप जानते नहीं कि इसमें प्रजा का कितना नुकसान होता है?
कानूनगो– हुजूर यह न पूछें? दो रंगी चाल न चलें और असली बात लिख दें तो एक दिन में नालायक बनाकर निकाल दिये जायँ। हम लोगों से सच्चा हाल जानने के लिए तहकीकात नहीं करायी जाती, बल्कि उसको छिपाने के लिए। पेट की बदौलत सब कुछ करना पड़ता है।
गायत्री– पेट को गरीबों की हाय से भरना तो अच्छा नहीं। अगर आप अपनी तरफ से प्रजा की कुछ भलाई न कर सकें तो कम से कम अपने हाथों उनका अहित तो न करना चाहिए। इलाके का क्या हाल है?
कानूनगो– आपको सुनकर रंज होगा। सारन में हुजूर की कई बीघे सीर असामियों ने जोत ली है, जगराँव के ठाकुरों ने हुजूर के नये बाग को जोतकर खेत बना लिया है, और मेड़े खोद डाली हैं। जब तक फिर से पैमाइश न हो कुछ पता नहीं चल सकता कि आपकी कितनी जमीन उन्होंने खायी है।
गायत्री– क्या वहाँ का कारिन्दा सो रहा है? मेरा तो इन झगड़ों से नाकोदम है।
कानूनगो– हुजूर की जानिब से पैमाइश की एक दरख्वास्त पेश हो जाये, बस, बाकी काम मैं कर लूँगा। हाँ, सदर कानूनगो साहब की कुछ खातिर करनी पड़ेगी। मैं तो हुजूर का गुलाम हूँ, ऐसी सलाह हरगिज न दूँगा जिससे हुजूर को नुकसान हो। इतनी अर्ज और करूँगा कि हुजूर एक मैनेजर रख लें। गुस्ताखी माफ, इतने बड़े इलाके का इन्तजाम करना हुजूर का काम नहीं है।
गायत्री– मैनेजर रखने की तो मुझे फिक्र है, लेकिन लाऊ कहाँ से? कहीं वह महाशय भी कारिन्दों से मिल गये तो रही-सही बात भी बिगड़ जायेगी। उनका यह अन्तिम आदेश था कि मेरी प्रजा को कोई कष्ट न होने पाये। उसी आज्ञा का पालन करने के लिए मैं यों अपनी जान खपा रही हूँ। आपकी दृष्टि में कोई ऐसा ईमानदार और चतुर आदमी हो, जो मेरे सिर यह भार उतार ले तो बतलाइए।
कानूनगो– बहुत अच्छा, मैं खयाल रखूँगा। मेरे एक दोस्त हैं। ग्रेजुएट, बड़े लायक और तजुरबेकार। खानदानी आदमी हैं। मैं उनसे जिक्र करूँगा। तो मुझे क्या हुक्म होता है? सदर कानूनगो साहब से बातचीत करूँ?
गायत्री– जी हाँ, कह तो रही हूँ। वही लाला साहब हैं न? लेकिन वह तो बेतरह मुँह फैलाते हैं।
कानूनगो– हुजूर खातिर जमा रखें, मैं उन्हें सीधा कर लूँगा। औरों के साथ चाहे वह कितना मुँह फैलाएँ, यहाँ उनकी दाल न गलने पायेगी। बस हुजूर के पाँच सौ रुपये खर्च होंगे। इतने में ही दोनों गाँवों की पैमाइश करा दूँगा।
गायत्री– (मुस्कुराकर) इसमें कम-से-कम आधा तो आपके हाथ जरूर लगेगा।
कानूनगो– मुआजल्लाह, जनाब यह क्या फरमाती हैं? मैं मरते दम तक हुजूर को मुगालता न दूँगा। हाँ, काम पूरा हो जाने पर हुजूर जो कुछ अपनी खुशी से अदा करेंगी वह सिर आँखों पर रखूँगा।
गायत्री– तो यह कहिए, पाँच सौ के ऊपर कुछ और भी आपको भेंट करना पड़ेगा। मैं इतना महँगा सौदा नहीं करती।
यही बातें हो रही थीं कि पण्डित लेखराज जी का शुभागमन हुआ। रेशमी अचकन, रेशमी पगड़ी, रेशमी चादर, रोशमी धोती, पाँव में दिल्ली का सलेमशाही कामदार जूता, माथे पर चन्द्रबिन्दु, अधरों पर पान की लाली, आँखों पर सुनहरी ऐनक; केवड़ों में बसे हुए आकर कुर्सी पर बैठ गये।
गायत्री– पण्डित जी महाराज को पालागन करती हूँ।
लेखराज– आशीर्वाद! आज तो सरकार को बहुत कष्ट हुआ।
गायत्री– क्या करूँ, मेरे पुरखों ने भी बिना खेत की खेती, बिना जमीन की जमींदारी बिना धन की महाजनी प्रथा निकाली होती, तो मैं आपकी ही तरह चैन करती।
लेखराज– (हँसकर) कानूनगो साहब! आप सुनते हैं सरकार की बातें ऐसी चुन कर कह देती हैं कि उसका जवाब ही न बन पड़े। सरकार को परमात्मा ने रानी बनाया है, हम तो सरकार के द्वार के भिक्षुक हैं। सरकार ने धर्मशाला के शिलारोपण का शुभमुहूर्त पूछा था वह मैंने विचार कर लिया है। इसी पक्ष की एकादशी को प्रातःकाल सरकार के हाथ से नींव पर जानी चाहिए।
गायत्री– यह सुकीर्ति मेरे भाग्य में नहीं लिखी है। आपने किसी रईस को अपने हाथों सार्वजनिक इमारतों का आधार रखते देखा है? लोग अपने रहने के मकानों की नींव अधिकारियों से रखवाते हैं। मैं इस प्रथा को क्योंकर तोड़ सकती हूँ? जिलाधीश को शिलारोपण के लिए निमंत्रित करूँगी। उन्हीं के नाम पर नामकरण होगा। किसी ठीकेदार से भी आपने बातचीत की?
लेखराज– जी हाँ, मैंने एक ठीकेदार को ठीक कर लिया है। सज्जन पुरुष है। इस शुभ कार्य को बिना लाभ के करना चाहता है। केवल लागत-मात्र लेगा।
गायत्री– आपने उसे नक्शा दिखा दिया है न? कितने पर काम का ठीका लेना चाहता है?
लेखराज– वह कहता है दूसरा ठीकेदार जितना माँगे उससे मुझे सौ रुपये कम दिये जायँ।
गायत्री– तो अब एक-दूसरा ठीकेदार लगाना पड़ा। वह कितना तखमीना करता है?
लेखराज– उसके हिसाब से ६० हजार पड़ेंगे। माल-मसाला अब अव्वल दर्जे का लगायेगा। ६ महीने में काम पूरा कर लेगा।
गायत्री ने इस मकान का नक्शा लखनऊ में बनवाया था। वहाँ इसका तखमीना ४० हजार किया गया था। व्यंग भाव से बोली– तब तो वास्तव में आपका ठीकेदार बड़ा सज्जन पुरुष है। इसमें कुछ-न-कुछ तो आपके ठाकुर जी पर जरूर ही चढ़ाये जायेंगे।
लेखराज– सरकार तो दिल्लगी करती हैं। मुझे सरकार से यूँ ही क्या कम मिलता है कि ठीकेदार से कमीशन ठहराता? कुछ इच्छा होगी तो माँग लूँगा, नीयत क्यों बिगाड़ूँ?
गायत्री– मैं इसका जवाब एक सप्ताह में दूँगी।
कानूनगो– और मुझे क्या हुक्म होता है? पण्डितजी, आपने भी तो देखा होगा, सारन और जगराँव में हुजूर की कितनी जमीन दब गयी है?
पण्डित– जी हाँ, क्यों नहीं, सौ बीघे से कम न दबी होगी।
गायत्री– मैं जमीन देखकर आपको इत्तला दूँगी। अगर आपस में समझौते से काम चल जाये तो रार बढ़ाने की जरूरत नहीं।
दोनों महानुभाव निराश होकर विदा हुए। दोनों मन-ही-मन गायत्री को कोस रहे थे। कानूनगो ने कहा– चालाक औरत है, बड़ी मुश्किल से हत्थे पर चढ़ती है। लेखराज बोले, एक-एक पैसा दाँत से पकड़ती है। न जाने बटोरकर क्या करेगी? कोई आगे पीछे भी तो नहीं है।
अँधेरा हो चला था। गायत्री सोच रही थी, इन लुटेरों से क्योंकर बचूँ? इनका बस चले तो दिनदहाड़े लूट लें। इतने नौकर हैं, लेकिन ऐसा कोई नहीं, जिसे इलाके की उन्नति का ध्यान हो। ऐसा सुयोग्य आदमी कहाँ मिलेगा? मैं अकेली ही कहाँ-कहाँ दौड़ सकती हूँ। ठीके पर दे दूँ तो इससे अधिक लाभ हो सकता है। सब झंझटों से मुक्त हो जाऊँगी, लेकिन असामी मर मिटेंगे। ठीकेदार इन्हें पीस डालेगा। कृष्णार्पण कर दूँ, तो भी वही हाल होगा, कहीं ज्ञानशंकर राजी हो जाये तो इलाके के भाग जग उठें। कितने अनुभवशील पुरुष हैं, कितने मर्मज्ञ, कितने सूक्ष्मदर्शी। वह आ जायें तो इन लुटेरों से मेरा गला छूट जाये। सारा इलाका चमन हो जाये। लेकिन मुसीबत तो यह है कि उनकी बातें सुनकर मेरी भक्ति और धार्मिक विश्वास डावाँडोल हो जाते हैं। अगर उनके साथ मुझे दो-चार महीने और लखनऊ रहने का अवसर मिलता तो मैं अब तक फैशनेबुल लेडी बन गई होती। उनकी वाणी में विचित्र प्रभाव है। मैं तो उनके सामने बावली-सी हो जाती हूँ। वह मेरा इतना अदब करते थे। उनके स्वभाव में थोड़ी सी उच्छृंखलता अवश्य है, लेकिन मैं भी तो भी तो परछाईं की तरह उनके पीछे-पीछे लगी रहती थी, छेड़-छाड़ किया करती थी। न जाने उनके मन में मेरी ओर से क्या-क्या भावनाएँ उठीं हों। पुरुषों में बड़ा अवगुण है कि हास्य और विनोद की कुवृत्तियों से अलग नहीं रख सकते। इसका पवित्र आनन्द उठाना उन्हें आता ही नहीं। स्त्री ज़रा हँसकर बोली और उन्होंने समझा कि मुझ पर लट्टू हो गयी। उन्हें जरा-सी उँगली पकड़ने को मिल जाये फिर तो पहुँचा पकड़ते देर नहीं लगती। अगर ज्ञानशंकर यहाँ आने पर तैयार हो गये तो उन्हें यहीं रखूँगी। यहीं से वह इलाके का प्रबन्ध करेंगे। जब कोई विशेष काम होगा तो शहर जायेंगे। वहाँ भी मैं उनसे दूर-दूर रहूँगी। भूल कर भी घर में न बुलाऊँगी। नहीं अब उन्हें उतनी धृष्टता का साहस ही न होगा। बेचारा कितना लज्जित था, मेरे सामने ताक न सकता था। स्टेशन पर मुझे विदा करने आया था, मगर दूर बैठा रहा, जबान तक न खोली।
गायत्री इन्हीं विचारों में मग्न थी कि एक चपरासी ने आज की डाक उसके सामने रख दी। डाक घर यहाँ से तीन कोस पर था। प्रतिदिन एक बेगार डाक लेने जाया करता था।
गायत्री ने पूछा– वह आदमी कहाँ है? क्यों रे अपनी मजूरी पा गया?
बेगार– हाँ सरकार, पा गया।
गायत्री– कम तो नहीं है?
बेगार– नहीं सरकार, खूब खाने को मिल गया।
गायत्री– कल तुम जाओगे कि कोई दूसरा आदमी ठीक किया जाये?
बेगार– सरकार मैं तो हाजिर ही हूँ, दूसरा क्यों जायेगा?
गायत्री चिट्ठियाँ खोलने लगी। अधिकांश चिट्ठियाँ सुगन्धित तेल और अन्य औषधियों के विज्ञापनों की थीं। गायत्री ने उन्हें उठाकर रद्दी को टोकरी में डाल दिया। एक पत्र राय कमलाचन्द का था। इसे उसने बड़ी उत्सुकता से खोला और पढ़ते ही उसकी आँखें आनन्दपूर्ण गर्व से चमक उठीं, मुखमण्डल नव पुष्प के समान खिल गया। उसने तुरन्त वह पैकेट खोला जिसे वह अब तक किसी औषधालय का सूची-पत्र समझ रही थी। पूर्व पृष्ठ खोलते ही। उसे अपना चित्र दिखाई दिया। पहले लेख का शीर्षक था ‘गायत्री देवी’। लेखक का नाम था ज्ञानशंकर बी० ए०। गायत्री अंग्रेजी कम जानती थी। लेकिन स्वाभाविक बुद्धिमता से वह साधारण पुस्तकों का आशय समझ लेती थी। उसने बड़ी उत्सुकता से लेख को पढ़ना शुरू किया और यद्यपि बीस पृष्ठों से कम न थे, पर उसे आध ही घण्टें में ही सारा लेख समाप्त कर दिया और तब गौरवोन्मत्त नेत्रों से इधर-उधर देखकर एक लम्बी साँस ली। ऐसा आनन्दोन्माद उसे अपने जीवन में शायद ही प्राप्त हुआ हो। उसका मान-प्रेम कभी इतना उल्लसित न हुआ था। ज्ञानशंकर ने गायत्री के चरित्र, उसके सद्गुणों और सत्कार्यों की इतनी कुशलता से उल्लेख किया था कि शक्ति की जगह लेख में ऐतिहासिक गम्भीरता का रंग आ गया था। इसमें सन्देह नहीं कि एक-एक शब्द से श्रद्धा टपकती थी, किन्तु वाचक को यह विवेक-हीन प्रशंसा नहीं, ऐतिहासिक उदारता प्रतीत होती थी। इस शैली पर वाक्य नैपुण्य सोने में सुगन्ध हो गया था। गायत्री बार-बार आईने में अपना स्वरूप देखती थी, उसके हृदय में एक असीम उत्साह प्रवाहित हो रहा था; मानों वह विमान पर बैठी हुई स्वर्ग को जा रही हो। उसकी धमनियों में रक्त की जगह उच्च भावों का संचार होता हुआ जान पड़ता था। इस समय उसके द्वार पर भिक्षुओं की एक सेना भी होती तो निहाल हो जाती। कानूनगो साहब अगर आ जाते तो पाँच सौ के बदले पाँच हजार ले भागते और पण्डित लेखराज का तखमीना दूना भी होता तो स्वीकार कर लिया जाता। उसने कई दिन से यहाँ कारिन्दे से बात न की थी, उससे रूठी हुई थी। इस समय उसे अपराधियों की भाँति खड़े देखा तो प्रसन्न मुख होकर बोली, कहिए, मुंशीजी आजकल तो कच्चे घड़े की खूब छनती होगी।
मुंशीजी धीरे-धीरे सामने आकर बोले– हुजूर जनेऊ की सौगन्ध है, जब से सरकार ने मना कर दिया मैंने उसकी सूरत तक न देखी।
यह कहते हुए उन्होंने अपने साहित्य प्रेम का परिचय देने के लिए पत्रिका उठा ली और पन्ने उलटने लगे। अकस्मात् गायत्री का चित्र देखकर उछल पड़े। बोले– सरकार, यह तो आपकी तस्वीर है। कैसा बनाया है कि अब बोली, अब बोली, क्या कुछ सरकार का हाल भी लिखा है?
गायत्री ने बेपरवाही से कहा, हाँ तस्वीर है तो हाल क्यों न होगा? करिन्दा दौड़ा हुआ बाहर गया और खबर सुनायी। कई कारिन्दे और चपरासी भोजन बना रहे थे, कोई भंग पीस रहा था, कोई गा रहा था। सब-के-सब आकार तस्वीर पर टूट पड़े। छीना-झपटी होने लगी, पत्रिका के कई पन्ने फट गये। यों गायत्री किसी को अपनी किताबें छूनें नहीं देती थी, पर इस समय जरा भी न बोली।
एक मुँह लगे चपरासी ने कहा– सरकार कुछ हम लोगों को भी सुना दें।
गायत्री– यह मुझसे न होगा। सारा पोथा भरा हुआ है, कहाँ तक सुनाऊँगी? दो-चार दिन में इसका अनुवाद हिन्दी पत्र में छप जायेगा, तब पढ़ लेना।
लेकिन जब आदमियों ने एक स्वर होकर आग्रह करना शुरू किया तो गायत्री विवश हो गयी। इधर-उधर से कुछ अनुवाद करके सुनाया। यदि उसे अँग्रेजी की अच्छी योग्यता होती तो कदाचित् वह अक्षरशः सुनाती।
एक कारिन्दे ने कहा, पत्रवालों के न जाने यह सब हाल कैसे मिल जाते हैं।
दूसरे कारिन्दे ने कहा– उनके गोइन्दे सब जगह बिचरते रहते हैं। कहीं कोई बात हो, चट उनके पास पहुँच जाती है।
गायत्री को इन वार्ताओं में असीम आनन्द आ रहा था। प्रातःकाल उसने ज्ञानशंकर को एक विनयपूर्ण पत्र लिखा। इस लेख की चर्चा न करके केवल अपनी विडम्बनाओं का वृत्तान्त लिखा और साग्रह निवेदन किया कि आप आकर मेरे इलाके का प्रबन्ध अपने हाथ में लें, इस डूबती हुई नौका को पार लगाएँ। उसका मनोमालिन्य मिट गया था। खुशामद अभिमान का सिर नीचा कर देती है। गायत्री अभिमान की पुतली थी। ज्ञानशंकर ने अपने श्रद्धावास से उसे वशीभूत कर लिया।