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11 फरवरी 2022

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गायत्री बनारस पहुँच कर ऐसी प्रसन्न हुई जैसे कोई बालू पर तड़पती हुई मछली पानी में जा पहुँचे। ज्ञानशंकर पर राय साहब की धमकियों का ऐसा भय छाया हुआ था कि गायत्री के आने पर वह और भी सशंक हो गये। लेकिन गायत्री की सान्त्वनाओं ने शनैःशनैः उन्हें सावधान कर दिया। उसने स्पष्ट कह दिया कि मेरा प्रेम पिता की आज्ञा के अधीन नहीं हो सकता। वह ज्ञानशंकर को अन्याय-पीड़ित समझती थी और अपनी स्नेहमयी बातों से उनका क्लेश दूर करना चाहती थी। ज्ञानशंकर जब गायत्री की ओर से निश्चिन्त हो गये तो उसे बनारस के घाटों और मन्दिरों की सैर कराने लगे। प्रातःकाल उसे ले कर गंगा स्नान करने जाते, संध्या समय बजरे पर या नौका पर बैठा कर घाटों की बहार दिखाते। उनके द्वार पर पंडों की भीड़ लगी रहती। गायत्री की दानशीलता की सारे नगर में धूम मच गयी। एक दिन वह हिन्दू विश्वविद्यालय देखने गयी और बीस हजार दे आयी। दूसरे दिन ‘इत्तहादी यतीमखाने’ का मुआइना किया और दो हजार रुपये बिल्डिंग फंड को प्रदान किए। सनातन-धर्म के नेतागण गुरुकुलाश्रम के लिए चंदा माँगने आए। चार हजार उनके नजर किए। एक दिन गोपाल मंदिर में पूजा करने गयी और महन्त जी को दो हजार भेंट कर आयी। आधी रात तक कीर्तन का आनंद उठाती रही। उसका मन कीर्तन में सम्मिलित होने के लिए लालायित हो रहा था। पर ज्ञानशंकर को यह अनुचित जान पड़ता था। ऐसा कीर्तिन उसने कभी न सुना था।
इसी भाँति एक सप्ताह बीत गया। संध्या हो गई थी। गायत्री बैठी बनारसी साड़ियों का निरीक्षण कर रही थी। वह उनमें से एक साड़ी लेना चाहती थी, पर रंग का निश्चय न कर सकती थी। एक-एक साड़ी को सिर पर ओढ़ कर आईने में देखती और उसे तह करके रख देती। कौन रंग सबसे अधिक खिलता है, इसका फैसला न होता था। इतने में श्रद्धा आ गयी। गायत्री ने कहा, बहिन, भली आयीं। बताओ, इसमें से कौन सी साड़ी लूँ? मुझे तो सब एक सी लगती हैं।
श्रद्धा ने मुस्कुरा कर कहा– मैं गँवारिन इन बातों को क्या समझूँ।
गायत्री– चलो, बातें न बनाओ। मैं इसका फैसला तुम्हारे ही ऊपर छोड़ती हूँ। एक अपने लिए चुनो और एक मेरे लिए।
श्रद्धा– आप ले लीजिए, मुझे जरूरत नहीं है। यह फिरोजी साड़ी आप पर खूब खिलेगी।
गायत्री– मेरी खातिर से एक साड़ी ले लो।
श्रद्धा– लेकर क्या करूँगी? धरे-धरे कीड़े खा जायेंगे।
श्रद्धा ने यह बात कुछ ऐसे करुण भाव से कही कि गायत्री के हृदय पर चोट-सी लग गयी। बोली, कब तक यह जोग साधोगी। बाबू प्रेमशंकर को मना क्यों नहीं लेतीं?
श्रद्धा ने सजल नेत्रों से मुस्कुराकर कहा– क्या करूँ, मुझे मनाना नहीं आता।
गायत्री– मैं मना दूँ?
श्रद्धा– इससे बड़ा और कौन उपकार होगा, पर मुझे आपके सफल होने की आशा नहीं है। उन्हें अपनी टेक है और मैं धर्म-शास्त्र से टल नहीं सकती। फिर भला मेल क्योंकर होगा?
गायत्री– प्रेम से।
श्रद्धा– मुझे उनसे जितना प्रेम है वह प्रकट नहीं कर सकती, अगर उनका जरा भी इशारा पाऊँ तो आग में कूद पड़ूँ। और मुझे विश्वास है कि उन्हें भी मुझसे इतना ही प्रेम है, लेकिन प्रेम केवल हृदयों को मिलाता है, देह पर उसका बस नहीं है।
इतने में ज्ञानशंकर आ गये और गायत्री से बोले, मैं जरा गोपाल मन्दिर की ओर चला गया था। वहाँ कुछ भक्तों का विचार है कि आपके शुभागमन के उत्सव में कृष्ण लीला करें। मैंने उनसे कह दिया है कि इसी बँगले के सामनेवाले सहन में नाट्यशाला बनायी जाय। गायत्री का मुखकमल खिल उठा। बोली, यह जगह काफी होगी?
ज्ञान– हाँ, बहुत जगह है। उन लोगों की यह भी इच्छा है कि आप भी कोई पार्ट लें।
गायत्री– (मुस्करा कर) आप लेंगे तो मैं भी लूँगी।
ज्ञानशंकर दूसरे ही दिन रंगभूमि के बनाने में दत्तचित्त हो गये। एक विशाल मंडप बनाया गया। कई दिनों तक उसकी सजावट होती रही। फर्श, कुर्सियाँ, शीशे के सामान, फूलों के गमले, अच्छी-अच्छी तस्वीरें सभी यथास्थान शोभा देने लगीं। बाहर विज्ञापन बाँटे गये। रईसों के पास छपे हुए निमंत्रण-पत्र भेजे गये। चार दिन तक ज्ञानशंकर को बैठने का अवसर न मिला। एक पैर दीवानखाने में रहता था, जहाँ अभिनेतागण अपने-अपने पार्ट का अभ्यास किया करते थे, दूसरा पैर शामियाने में रहता था, जहाँ सैकड़ों मजदूर, बढ़ई, चित्रकार अपने-अपने काम कर रहे थे। स्टेज की छटा अनुपम थी। जिधर देखिए हरियाली की बहार थी। पर्दा उठते ही बनारस में ही वृन्दावन का दृश्य आँखों के सामने आ जाता था। यमुना तट के कुंज, उनकी छाया में विश्राम करती हुई गायें, हिरनों के झुंड़, कदम की डालियों पर बैठे हुए मोर और पपीहे-सम्पूर्ण दृश्य काव्य रस में डूबा हुआ था।
रात के आठ बजे थे। बिजली की बत्तियों से सारा मंडप ज्योतिर्मय हो रहा था। सदर फाटक पर बिजली का एक सूर्य बना हुआ था, जिसके प्रकाश में जमीन पर रेंगनेवाली चीटिंया भी दिखाई देती थीं, सात ही बजे से दर्शकों का समारोह होने लगा। लाला प्रभाशंकर अपना काला चोंगा पहने, एक केसरिया पाग बाँधे मेहमानों का स्वागत कर रहे थे। महिलाओं के लिए दूसरी ओर पर्दे डाल दिये गये थे। यद्यपि श्रद्धा को इन लीलाओं से विशेष प्रेम न था तथापि गायत्री के अनुरोध से उसने महिलाओं के आदर-सत्कार का भार अपने सिर ले लिया था। आठ बजते-बजते पंडाल दर्शकों से भर गया, जैसे मेले में रेलगाड़ियाँ ठस जाती हैं। मायाशंकर ने सबके आग्रह करने पर भी कोई पार्ट न लिया था। मंडप के द्वार पर खड़ा लोगों के जूतों की रखवाली कर रहा था। इस वक्त तक शामियाने के बाजार-सा लगा हुआ था, कोई हँसता था, कोई अपने सामनेवालों को धक्के देता था, कुछ लोग राजनीतिक प्रश्नों पर वाद-विवाद कर रहे थे, कहीं जगह के लिए लोगों में हाथापाई हो रही थी। बाहर सर्दी से हाथ-पाँव अकड़े जाते थे, पर मंडप में खासी गर्मी थी।
ठीक नौ बजे पर्दा उठा। राधिका हाथ में वीणा लिये, कदम के नीचे खड़ी सूरदास का एक पद गा रही थी। यद्यपि राधिका का पार्ट उस पर फबता न था। उसकी गौरवशीलता, उसकी प्रौढ़ता, उसकी प्रतिभा एक चंचल ग्वाल कन्या के स्वभावानुकूल न थी, किन्तु जगमगाहट ने सबकी समालोचक शक्तियों को वशीभूत कर लिया था। सारी सभा विस्मय और अनुराग में डूबी हुई थी, यह तो कोई स्वर्ग की अप्सरा है! उसकी मृदुल वाणी, उसका कोमल गान, उसके अलंकार और भूषण, उसके हाव-भाव उसके स्वर-लालित्य, किस-किस की प्रशंसा की जाये! वह एक थी, अद्वितीय थी, कोई उसका सानी, उसका जवाब न था।
राधा के पीछे तीन सखियाँ और आयी– ललिता, चन्द्रावली और श्यामा। सब अपनी-अपनी विरह-कथा सुनाने लगीं। कृष्ण की निष्ठुरता और कपट की चर्चा होने लगी। उस पर घरवालों की रोक-थाम, डाँट-डपट भी मारे डालती थी। एक बोली– मुझे तो पनघट पर जाने की रोक हो रही है, दूसरे बोली– मैं तो द्वार खड़ी हो कर झाँकने भी न पाती, तीसरी बोली– जब दही बेचने जाती हूँ तब बुढ़िया साथ हो लेती है। राधिका ने सजल नेत्र हो कर कहा, मैं तो बदनाम हो गयी, अब किसी से उनकी बात नहीं हो सकती। ललिता बोली– वह आप ही निर्दयी हैं, नहीं तो क्या मिलने का कोई उपाय ही न था?
चन्द्रावली– उन्हें हमको जलाने और तड़पाने में आनन्द मिलता है?
श्यामा– यह बात नहीं, वह हमारे घरवालों से डरते हैं।
राधा– चल, तू उनका यों ही पक्ष लिया करती है। बड़े चतुर तो बनते हैं? क्या इन बुद्धुओं को भी धता नहीं बता सकते? बात यह है कि उन्हें हमारी सुध ही नहीं है।
ललिता– चलो, आज हम सब उनको परखें।
इस पर सब सहमत हो गयीं। इधर-उधर चौकन्नी आँखों से ताक-ताक कर हाथों से बता-बता कर, भौंहे नचा-नचा कर आपस में सलाह होने लगी। परीक्षा का क्या रूप होगा, इसका निश्चय हो गया। चारों प्रसन्न हो कर एक गीत गाती हुई स्टेज से चली गईं। पर्दा गिर गया।
फिर पर्दा उठा है। वृक्षों के समूह में एक छोटा सा गाँव दिखाई दिया। फूस के कई झोंपड़े थे, बहुत ही साफ-सुथरे, फूल-पत्तियों से सजे हुए। उनमें कहीं-कहीं गायें बँधी हुई थीं, कहीं बछड़े किलोलें करते थे, कहीं दूध बिलोया जाता था। बड़ा सुरम्य दृश्य था! एक मकान में चंद्रावली पलंग पर पड़ी कराह रही थी। उसके सिरहाने कई आदमी बैठे पंखा झल रहे थे, कई स्त्रियाँ पैर की ओर खड़ी थीं। ‘बैद! बैद! की पुकार हो रही थी। दूसरी झोंपड़ी में ललिता पड़ी थी। उसके पास भी कई स्त्रियाँ बैठी टोना-टोटका कर रही थीं, कई कहती थी, आसेव है, और चुड़ैल का फेर बतलाती थीं। ओझा जी को बुलाने की बातचीत हो रही थी। एक युवक खड़ा कह रहा था– यह सब तुम्हारा ढकोसला है, इसे कोई हृदयरोग है, किसी चतुर वैद्य को बुलाना चाहिए। तीसरे झोंपड़े में श्यामा की खटोली थी। वहाँ भी यही वैद्य की पुकार थी। चौथा मकान बहुत बड़ा था। द्वार पर बड़ी-बड़ी गायें थी। एक ओर अनाज के ढेर लगे हुए थे, दूसरी ओर मटकों में दूध भरा रखा था। चारों तरफ सफाई थी। इसमें राधिका रुग्णावस्था में बेचैन पड़ी थी। उसके समीप एक पंडित जी आसन पर बैठे हुए पाठ कर रहे थे। द्वार पर भिक्षुकों को अन्नदान दिया जा रहा था। घर के लोग राधिका को चिन्तित नेत्रों से देखते थे और ‘बैद! बैद!’ पुकारते थे।
सहसा दूर से आवाज आयी– बैद! बैद! सब रोगों का बैद, काम का बैद, क्रोध का बैद, मोह का बैद, लोभ का बैद, धर्म का बैद, कर्म का बैद, मोक्ष का बैद! मन का मैल निकाले, अज्ञान का मैल निकाले, ज्ञान की सींगी लगाये, हृदय की पीर मिटाये! बैद! बैद!! लोगों ने बाहर निकल कर वैद्य जी को बुलाया। उसके काँधे पर झोली थी, सिर पर एक लाल गोल पगड़ी देह पर एक हरी, बनात की गोटेदार चपकन थी। आँखों में सुरमा, अधरों पर पान की लाली, चेहरे पर मुस्कराहट थी। चाल-ढाल से बाँकापन बरसता था। स्टेज पर आते ही उन्होंने झोली उतार कर रख दी और बाँसुरी बजा-बजा कर गाने लगे–  
मैं तो हरत विरह की पीर।
प्रेमदाह को शीतल करता जैसे अग्नि को नीर।
मैं तो हरत...
निर्मल ज्ञान की बूटी दे कर देत हृदय को धीर–
मैं तो हरत...
राधा के घर वाले उन्हें हाथों-हाथ अन्दर ले गये। राधिका ने उन्हें देखते ही मुस्करा कर मुँह छिपा लिया। वैद्य जी ने उसकी नाड़ी देखने के बहाने से उसकी गोरी-गोरी कलाई पकड़कर धीरे से दबा दी। राधा ने झिझक कर हाथ छुड़ा लिया तब प्रेम-नीति की भाषा में बातें होने लगीं।
राधा– नदी में अथाह जल है।
वैद्य– जिसके पास नौका है उसे जल का क्या भय?
राधा– आँधी है, भयानक लहरें हैं और बडे-बड़े भयंकर जलजन्तु हैं।
वैद्य– मल्लाह चतुर है।
राधा– सूर्य भगवान् निकल आये, पर तारे क्यों जगमगा रहे हैं?
वैद्य– प्रकाश फैलेगा तो वह स्वयं लुप्त हो जायेंगे।
वैद्य जी ने घरवालों को आँखों के इशारे से हटा दिया। जब एकान्त हो गया तब राधा ने मुस्करा कर कहा– प्रेम का धागा कितना दृढ़ है?
ज्ञानशंकर ने इसका कुछ उत्तर न दिया।
गायत्री फिर बोली– आग लकड़ी को जलाती है, पर लकड़ी जल जाती है तो आग भी बुझ जाती है।
ज्ञानशंकर ने इसका भी कुछ जवाब न दिया।
गायत्री ने उसके मुख की ओर विस्मय से देखा, यह मौन क्यों? अपना पार्ट भूल तो नहीं गये? तब तो बड़ी हँसी होगी।
ज्ञानशंकर के होठ बन्द ही थे, साँस बड़े वेग से चल रही थी। पाँव काँप रहे थे, नेत्रों में विषम प्रेरणा झलक रही थी और मुख से भयंकर संकल्प प्रकट होता था, मानो कोई हिंसक पशु अपने शिकार पर टूटने के लिए अपनी शक्तियों को एकाग्र कर रहा हो। वास्तव में ज्ञानशंकर ने छलाँग मारने को निश्चय कर लिया था। इसी एक छलाँ में वह सौभाग्य शिखर पर पहुँचना चाहते थे, इसके लिए महीनों से तैयार हो रहे थे, इसीलिए उन्होंने यह ड्रामा खेला था, इसीलिए उन्होंने यह स्वाँग भरा था। छलाँग मारने का यही अवसर था। इस वक्त चूकना पाप था। उन्होंने तोते का दाना खिला कर परचा लिया था, निःशंक हो कर उनके आँगन में दाना चुगता फिरता था। उन्हें विश्वास था कि दाने की चोट उसे पिंजरे में खींच ले जायेगी। उन्होंने पिंजरे का द्वार खोल दिया था। तोते ने पिंजरे को देखते ही चौंक कर पर खोले और मुँडेरे पर उड़ कर जा बैठा। दाने की चाट उसकी स्वेच्छावृत्ति का सर्वनाश न कर सकी थी। गायत्री की भी यही दशा थी। ज्ञानशंकर की यह अव्यवस्त प्रेरणा देख कर झिझकी। यह उसका इच्छित कर्म न था। वह प्रेम का रस-पान कर चुकी थी, उसकी शीतल दाह और सुखद पीड़ा का स्वाद चख चुकी थी, वशीभूत हो चुकी थी, पर सतीत्व-रक्षा की आन्तरिक प्रेरणा अभी शिथिल न हुई थी। वह झिझकी और उसी भाँति उठ खड़ी हुई जैसे किसी आकस्मिक आघात को रोकने के लिए हमारे हाथ स्वयं अनिच्छित रूप से उठ जाते हैं। वह घबरा कर उठी और वेग से स्टेज की पीछे की ओर निकल गयी। वहाँ पर चारपाई पड़ी हुई थी, वह उस पर जा कर गिर पड़ी। वह संज्ञा-शून्य सी हो रही थी जैसे रात के सन्नाटे से कोई गीदड़ बादल की आवाज सुने और चिल्ला कर गिर पड़े। उसे कुछ ज्ञान था तो केवल भय का।
लेकिन उसमें तोते की-सी स्वाभाविक शंका थी, तो इसी तोते का-सा अल्प-सम्मान भी था। जैसे तोता एक ही क्षण में फिर दाने पर गिरता है और अंत में पिंजर-बद्ध हो जाता है, उसी भाँति गायत्री भी एक ही क्षण में उसकी झिझक पर लज्जित हुई। उसकी मानसिक पवित्रता कब की विनष्ट हो चुकी थी। अब वह अनिच्छित प्रतिकार की शक्ति भी विलुप्त हो गयी। उसके मनोभाव का क्षेत्र अब बहुत विस्तृत हो गया था पति-प्रेम उसके एक कोने में पैर फैला कर बैठ सकता था, अब हृदयदेश पर उसका आधिपत्य न था। एक क्षण में वह फिर स्टेज पर आयी, शरमा रही थी कि ज्ञानशंकर मन में क्या कहते होंगे! हा! मैं भक्ति के वेग में अपने को न भूल सकी। यहाँ भी अहंकार को न मिटा सकी। दर्शक-वन्द मन में न जाने क्या विचार कर रहे होंगे! वह स्टेज पर पहुँची तो ज्ञानशंकर एक पद गाकर लोगों का मनोरंजन कर रहे थे। उसके स्टेज पर आते ही पर्दा गिर गया।
आध घंटे के बाद तीसरी बार पर्दा उठा। फिर वही कदम का वृक्ष था, वही सघन कुंज। चारों सखियाँ बैठी हुई कृष्ण के वैद्य रूप धारण की चर्चा कर रही थीं। वह कितने प्रेमी, कितने भक्तवत्सल हैं, स्वयं भक्तों के भक्त हैं।
इस वार्तालाप के उपरान्त एक पद्य-बद्ध सम्भाषण होने लगा। जिसमें ज्ञान और भक्ति की तुलना की गयी और अन्त में भक्ति पक्ष को ही सिद्ध किया गया। चारों सखियों ने आरती गायी और अभिनय समाप्त हुआ। पर्दा गिर गया। गायत्री के भाव-चित्रण, स्वर-लालित्य और अभिनय-कौशल की सभी प्रशंसा कर रहे थे। कितने ही सरल हृदय भक्तजनों को तो विश्वास हो गया कि गायत्री को राधिका का इष्ट है। सभ्य समाज इतना प्रगल्भ तो न था, फिर भी गायत्री की प्रतिभा, उसके तेजमय सौंदर्य, उसके विशाल गाम्भीर्य, उसकी अलौकिक मृदुलता का जादू सभी पर छाया हुआ था। ज्ञानशंकर के अभिनय-कौशल की भी सराहना हो रही थी। यद्यपि उनका गाना किसी को पसन्द न आया। उनकी आवाज में लोच का नाम भी न था, फिर भी वैद्य-लीला निर्दोष बताई जाती थी।
गायत्री अपने कमरे में आ कर कोच पर बैठी तो एक बज गया था। वह आनन्द से फूली न समाती थी, चारों तरफ उसकी वाह-वाह हो रही थी, शहर के कई रसिक सज्जनों ने चलते समय आ कर उसके मानव चरित्र-ज्ञान की प्रशंसा की थीं, यहाँ तक कि श्रद्धा भी उसके अभिनय नैपुण्य पर विस्मित हो रही। उसका गौरवशील हृदय इस विचार से उन्मत्त हो रहा था कि आज सारे नगर में मेरी ही चर्चा, मेरी ही धूम है और यह सब किसके सत्संग का, किसकी सत्प्रेरणा का फल था? गायत्री के रोम-रोम से ज्ञानशंकर के प्रति श्रद्धाध्वनि निकलने लगी। उसने ज्ञानशंकर पर अनुचित सन्देह करने के लिए अपने को तिरस्कृत किया। मुझे उनसे क्षमा माँगनी चाहिए, उनके पैरों पर गिरकर उनके हृदय से इस दुःख को मिटाना चाहिए। मैं उनकी पदरज हूँ, उन्होंने मुझे धरती से उठा कर आकाश पर पहुँचाया है। मैंने उन पर सन्देह किया! मुझसे बड़े कृतघ्न और कौन होगा? वह इन्हीं विचारों में मग्न थी कि ज्ञानशंकर आकर खड़े हो गये और बोले– आज आपने मजलिस पर जादू कर दिया।
गायत्री बोली– यह जादू आपका सिखाया हुआ है।
ज्ञानशंकर– सुना करता था कि मनुष्य का जैसा नाम होता है वैसे ही गुण भी उसमें आ जाते हैं, पर विश्वास न आता था। अब विदित हो रहा है कि यह कथन सर्वथा निस्सार नहीं है। मुझे दो बार से अनुभव हो रहा है जब अपना पार्ट खेलने लगता हूँ तब किसी दूसरे ही जगत् में पहुँच जाता हूँ। चित्त पर एक विचित्र आनन्द छा जाता है, ऐसा भ्रम होने लगता है कि मैं वास्तव में कृष्ण हूँ।
गायत्री– मैं भी यह कहनेवाली थी। मैं तो अपने को बिलकुल भूल ही जाती हूँ।
ज्ञान– सम्भव है उस आत्म-विस्मृति की दशा में मुझसे कोई अपराध हो गया हो तो उसे क्षमा कीजिएगा।
गायत्री सकुचाती हुई बोली– प्रेमोद्गार में अन्तःकरण निर्मल हो जाता है, वासनाओं का लेश भी नहीं रहता।
ज्ञानशंकर एक मिनट तक खड़े इन शब्दों के आशय पर विचार करते रहे और तब बाहर चले गये।
दूसरे दिन विद्यावती बनारस पहुँची। उसने अपने आने की सूचना न दी थी, केवल एक भरोसे के नौकर को साथ लेकर चली आयी थी ज्यों ही द्वार पर पहुँची उसे बृहत् पंडाल दिखायी दिया। अन्दर गयी तो श्रद्धा दौड़ कर उससे गले मिली। महरियाँ दौड़ी आयीं। वह सब-की-सब विद्या को करुणा-सूचक नेत्रों से देख रही थी। गायत्री गंगा स्नान करने गयीं थी। विद्या के कमरे में गायत्री का राज्य था। उसके सन्दूक और अन्य सामान चारों ओर भरे हुए थे। विद्या को ऐसा क्रोध आया कि गायत्री का सब सामान उठाकर बाहर फेंक दे, पर कुछ सोचकर रह गयी। गायत्री के साथ कई महरियाँ भी आयी थीं। वे वहाँ की महरियों पर रोब जमाती थीं। विद्या को देखकर सब इधर-उधर हट गयीं, कोई कुशल समाचार पूछने पर भी न आयी। विद्या इन परिस्थितियों को उसी दृष्टि से देख रही थी जैसे कोई पुलिस अफसर किसी घटना के प्रमाणों को देखता है! उसके मन में जो शंका आरोपित हुई थी उसकी पग-पग पर पुष्टि होती जाती थी। ज्यों ही एकान्त हुआ, विद्या ने श्रद्धा से पूछा– यह शामियाना कैसे तना हुआ है?
श्रद्धा– रात को वहाँ कृष्णलीला हुई थी।
विद्या– बहिन ने भी कोई पार्ट लिया?
श्रद्धा– वह राधिका बनी थी और बाबू जी ने कृष्ण का पार्ट लिया था।
विद्या– बहिन से खेलते तो न बना होगा?
श्रद्धा– वाह! वह इस कला में निपुण हैं। सारी सभा लट्टू हो गयी। आती होंगी, आप ही कहेंगी।
विद्या– क्या नित्य गंगा स्नान करने जाती हैं?
श्रद्धा– हाँ, प्रातःकाल गंगा स्नान होता है, संध्या को कीर्तन सुनने जाती हैं।
इतने में मायाशंकर ने आकर माता के चरण स्पर्श किए। विद्या ने उसे छाती से लगाया और बोली– बेटा, आराम से तो रहे?
माया– जी हाँ, खूब आराम से था।
विद्या– बहिन, देखो इतने ही दिनों में इसकी आवाज कितनी बदल गयी है! बिलकुल नहीं पहचानी जाती। मौसी जी के क्या रंग-ढंग हैं? खूब प्यार करती हैं न?
माया– हाँ, मुझे बहुत चाहती हैं, बहुत अच्छा मिजाज है।
विद्या– वहाँ भी कृष्णलीला होती थी कि नहीं?
माया– हाँ, वहाँ तो रोज ही होती रहती थी। कीर्तन नित्य होता था। मथुरा-वृन्दावन से रहस्वाले बुलाये जाते थे। बाबू जी भी कृष्ण का पार्ट खेलते हैं। उनके केश खूब बढ़ गये हैं। सूरत से महन्त मालूम होते हैं तुमने तो देखा होगा?
विद्या– हाँ, देखा क्यों नहीं! बहिन अब भी उदास रहती है?
माया– मैंने तो उन्हें कभी उदास नहीं देखा। हमारे घर में ऐसा प्रसन्नचित्त कोई है ही नहीं।
विद्या यह प्रश्न यों पूछ रही थी जैसे कोई वकील गवाह से जिरह कर रहा हो। प्रत्येक उत्तर सन्देह को दृढ़ करता था। दस बजे द्वार पर मोटर की आवाज सुनायी दी। सारे घर में हलचल मच गयी। कोई महरी गायत्री का पलँग बिछाने लगी, कोई उसके स्लीपरों को पोंछने लगी, किसी ने फर्श झाड़ना शुरू किया, कोई उसके जलपान की सामग्रियाँ निकाल कर तश्तरी में रखने लगी और एक ने लोटा-गिलास माँज कर रख दिया। इतने में गायत्री ऊपर आ पहुँची। पीछे-पीछे ज्ञानशंकर भी थे। विद्या अपने कमरे में से न निकली, लेकिन गायत्री लपक कर उसके गले से लिपट गयी और बोली– तुम कब आयीं? पहले से खत भी न लिखा?
विद्या गला छुड़ा कर अलग खड़ी हो गयी और रुखाई से बोली–  खत लिख कर क्या करती? यहाँ किसे फुरसत थी कि मुझे लेने जाता। दामोदर महाराज के साथ चली आयी।
ज्ञानशंकर ने विद्या के चेहरे की ओर प्रश्नात्मक दृष्टि से देखा। उत्तर मोटे अक्षरों में स्पष्ट लिखा हुआ था। विद्या भावों को छिपाने में कच्ची थी। सारी कथा उसके चेहरे पर अंकित थी। उसने ज्ञानशंकर को आँख उठा कर भी न देखा, कुशल-समाचार पूछने की बात ही क्या! नंगी तलवार बनी हुई थी। उसके तेवर साफ कह रहे थे कि वह भरी बैठी है और अवसर पाते ही उबल पड़ेगी। ज्ञानशंकर का चित्त उद्विग्न हो गया। वे शंकाएँ, वह परिणाम-चिन्ता जो गायत्री के आने से दब गयी थीं, फिर जाग उठी और उनके हृदय में काँटों के समान चुभने लगी। उन्हें निश्चय हो गया कि विद्या सब कुछ जान गयी, अब वह मौका पाते ही ईर्ष्यावेग में गायत्री से सब कुछ कह सुनायेगी। मैं उसे किसी भाँति नहीं रोक सकता। समझाता, डराना, धमकाना, विनय और चिरौरी करना सब निष्फल होगा। बस अगर अब प्राण-रक्षा का कोई उपाय है तो यही कि उसे गायत्री से बातचीत करने का अवसर ही न मिले। या तो आज ही शाम की गाड़ी से गायत्री को ले कर गोरखपुर चला जाऊँ या दोनों बहनों में ऐसा मनमुटाव करा दूँ कि एक-दूसरी से खुल कर मिल ही न सकें। स्त्रियों को लड़ा देना कौन-सा कठिन काम है! एक इशारे में तो उनके तेवर बदलते हैं। ज्ञानशंकर को अभी तक यह ध्यान भी न था कि विद्या मेरी भक्ति और प्रेम के मर्म तक पहुँची हुई है। वह केवल अभी तक राय साहब वाली दुर्घटनाओं को ही इस मनोमालिन्य का कारण समझ रहे थे।
विद्या ने गायत्री से अलग हट कर उसके नख-शिख को चुभती हुई दृष्टि से देखा। उसने उसे छह साल पहले देखा था। तब उसका मुखकमल मुर्झाया हुआ था, वह सन्ध्या-काल के सदृश उदास, मलिन, निश्चेष्ट थी। पर इस समय उसके मुख पर खिले हुए कमल की शोभा थी। वह उषा की भाँति विकिसत तेजोमय सचेष्ट स्फूर्ति से भरी हुई दीख पड़ती थी। विद्या इस विद्युत प्रकाश के सम्मुख दीपक के समान ज्योतिहीन मालूम होती थी।
गायत्री ने पूछा– संगीत सभा का तो खूब आनन्द उठाया होगा?
ज्ञानशंकर का हृदय धकधक करने लगा। उन्होंने विद्या की ओर बड़ी दीन दृष्टि से देखा पर उसकी आँखें जमीन की तरफ थीं, बोली– मैं तो कभी संगीत के जलसे में गई ही नहीं। हाँ, इतना जानती हूँ कि जलसा बड़ा फीका रहा। लाला जी बहुत बीमार हो गये और एक दिन भी जलसे में शरीक न हो सके।
गायत्री– मेरे न जाने से नाराज तो अवश्य ही हुए होंगे?
विद्या– तुम्हें उनके नाराज होने की क्या चिन्ता है? वह नाराज हो कर तुम्हारा क्या बिगाड़ सकते हैं?
यद्यपि यह उत्तर काफी तौर पर द्वेषमूलक था, पर गायत्री अपनी कृष्णलीला की चर्चा करने के लिए इतनी उतावली हो रही थी कि उसने इस पर कुछ ध्यान न दिया। बोली, क्या कहूँ तुम कल न आ गयीं, नहीं तो यहाँ कृष्णलीला का आनन्द उठातीं। भगवान की कुछ ऐसी दया हो गयी कि सारे शहर में इस लीला की वाह-वाह मच गयी। किसी प्रकार की त्रुटि न रही। रंगभूमि तो तुमको अभी दिखाऊँगी पर उसकी सजावट ऐसी मनोहर थी कि तुमसे क्या कहूँ! केवल पर्दों को बनवाने में हजारों रुपये खर्च हो गये। बिजली के प्रकाश से सारा मंडप ऐसा जगमगा रहा था कि उसकी शोभा देखते ही बनती थी। मैं इतनी बड़ी सभा के सामने आते ही डरती थी, पर कृष्ण भगवान् ने ऐसी कृपा की कि मेरा पार्ट सबसे बढ़ कर रहा। ‘पूछों बाबू जी से, शहर में उसकी कैसी चर्चा हो रही है? लोगों ने मुझसे एक-एक पद कई-कई बार गवाया।’
विद्या ने व्यंग्य भाव से कहा– मेरा अभाग्य था कि कल न आयी।
गायत्री– एक बार फिर वही लीला करने का विचार है। अबकी तुम्हें भी कोई-न-कोई पार्ट दूँगी।
विद्या– नहीं, मुझे क्षमा करना। नाटक खेल कर स्वर्ग में जाने की मुझे आशा नहीं है।
गायत्री विस्मित हो कर विद्या का मुँह ताकने लगी। लेकिन ज्ञानशंकर मन में मुग्ध हुए जाते थे। दोनों बहिनों में वह जो भेद-भाव डालना चाहते थे, वह आप-ही-आप आरोपित हो रहा था। ये शुभ लक्षण थे। गायत्री से बोले– मेरे विचार में यहाँ अब आपको कष्ट होगा। क्यों न बँगले में एक कमरा आपके लिए खाली कर दूँ? वहाँ आप ज्यादा आराम से रह सकेंगी।
गायत्री ने विद्या की तरफ देखते हुए कहा– क्यों विद्या, बँगले में चली जाऊँ? बुरा तो न मानोगी? मेरे यहाँ रहने से तुम्हारे आराम में विघ्न पड़ेगा। मैं बहुधा भजन गाया करती हूँ।
विद्या– तुम मेरे आराम की चिन्ता मत करो, मैं इतनी नाजुक दिमाग नहीं हूँ। हाँ, अगर तुम्हें यहाँ कोई असमंजस हो तो शौक से बँगले में चली जाओ।
ज्ञानशंकर ने गायत्री का असबाब उठाकर बंगले में रखवा दिया। गायत्री ने भी विद्या से और कुछ न कहा। उसे मालूम हो गया कि यह समय ईर्ष्या के मारे मरी जाती है। और ऐसा कौन प्राणी होगा, जो ईर्ष्या की क्रीड़ा का आनन्द न उठाना चाहे? उसने एक बार विद्या को सगर्व नेत्रों से देखा और जीने की तरफ चली गयी।
रात के नौ बजे थे। गायत्री वीणा पर गा रही थी कि ज्ञानशंकर ने कमरे में प्रवेश किया। उन्होंने आज देवी से वरदान माँगने का निश्चय कर लिया था। लोहा लाल हो रहा था, अब आगा-पीछा करने का अवसर न था, ताबड़तोड़ चोटों की जरूरत थी। एक दिन की देर भी बरसों के अविरल उद्योग पर पानी फेर सकती थी, जीवन की समस्त आशाओं को मिट्टी में मिला सकती थी। विद्या की अनुचित बात सारी बाजी को पलट सकती थी, उसका एक द्वेषमूलक संकेत उनके सारे हवाई किलों को विध्वंस कर सकता था। कदाचित किसी सेनापति को रणक्षेत्र में इतना महत्त्वपूर्ण और निश्चयकारी अवसर न प्रतीत होगा, जितना इस समय ज्ञानशंकर को मालूम हो रहा था। उनकी अवस्था उस सिपाही की-सी थी जो कुछ दूर पर खड़ा शस्त्रशाला में आग की चिनगारी पड़ते देखे और उसको बुझाने के लिए बेतहाश दौड़े। उसका द्रुतवेग कितना महत्त्वपूर्ण, कितना मूल्यवान है! एक क्षण का विलम्ब सेना के सर्वनाश, दुर्ग के दमन, राज्य के विक्षेप और जाति के पददलित होने के कारण हो सकता है! ज्ञानशंकर आज दोपहर से इसी समस्या के हल करने में व्यस्त थे। क्योंकर विषय को छेड़ूँ? ऐसा अन्दाजा होना चाहिए कि मेरी निष्कामवृत्ति का पर्दा न खुलने पाये। उन्होंने अपने मन में विषय-प्रवेश का ऐसा क्रम बाँधा था कि मायाशकंर को गोद लेने का प्रस्ताव गायत्री की ओर से हो और उसके गुण-दोषों की निःस्वार्थ भाव से व्याख्या करूँ। मेरी हैसियत एक तीसरे आदमी की-सी रहे, एक शब्द से भी पक्षपात प्रकट न हो। उन्होंने अपनी बुद्धि, विचार, दूरदर्शिता और पूर्व-चिन्ता से कभी इतना काम न लिया था। सफलता में जो बाधाएँ उपस्थित होने की कल्पना हो सकती थी उन सबों की उन्होंने योजना कर ली थी। अपने मन में एक-एक शब्द, एक-एक इशारे, एक-एक भाव का निश्चय कर लिया था। वह एक केसरिया रंग की रेशमी चादर ओढ़े हुए थे, लम्बे केश चादर पर बिखरे पड़े थे, आँखों से भक्ति का आनन्द टपक रहा था और मुखारविन्द प्रेम की दिव्यज्योति से आलोकित था।
उन्होंने गायत्री को अनुरागमय दृष्टि से देख कर कहा– आपके पदों में गजब का जादू है। हृदय में प्रेम की तरंगे उठने लगती हैं, चित्त भक्ति से उन्मत्त हो जाता है।
गायत्री ने मुस्करा कर कहा, यह जादू मेरे पदों में नहीं है। आपके कोमल हृदय में है। बाहर की फीकी नीरस ध्वनि भी अन्दर जा कर सुरीली और रसमयी हो जाती है। साधारण दीपक भी मोटे शीशे के अन्दर बिजली का लैम्प बन जाता है।
ज्ञानशंकर– मेरे चित्त की आजकल एक विचित्र दशा हो गयी है। मुझे अब विश्वास हो गया है कि मनुष्य में एक ही साथ दो भिन्न-भिन्न प्रवृत्तियों का समावेश नहीं हो सकता, एक आत्मा दो रूप धारण नहीं कर सकती।
गायत्री ने उनकी और जिज्ञासा भाव से देखा और वीणा को मेज पर रख कर उनका मुँह देखने लगी।
ज्ञानशंकर ने कहा– हम जो रूप धारण करते हैं। उसका हमारी बातचीत और आचार-व्यवहार पर इतना असर पड़ता है कि हमारी वास्तविक स्थिति लुप्त-सी हो जाती है। अब मुझे अनुभव हो रहा है कि लोग क्यों लड़कों को नाटकों में स्त्रियों का रूप धरने, नाचने, और भाव बताने पर आपत्ति करते हैं। एक दयालु प्रकृति का मनुष्य सेना में रह कर कितना उद्दंड और कठोर हो जाता है। परिस्थितियाँ उसकी दयालुता का नाश कर देती हैं। मेरे कानों में अब नित्य वंशी की मधुर-ध्वनि गूँजा करती है और आँखों के सामने गोकुल और बरसाने की छटा फिरा करती है। मेरी सत्ता कृष्ण में विलीन हो जाती है, राधा अब, एक क्षण के लिए मेरे ध्यान से नहीं उतरती। कुछ समझ में नहीं आता कि मेरा मन मुझे किधर लिये जाता है?
यह कहते-कहते ज्ञानशंकर की आँखों से ज्योति-सी निकलने लगी, मुखमंडल पर अनुराग छा गया और वाणी माधुर्य रस में डूब गयी। बोले– गायत्री देवी, चाहे यह छोटा मुँह और बड़ी बात हो, पर सच्ची बात यह है कि इसे आत्मोत्सर्ग की दशा में तुम्हारा उच्च पद, तुम्हारा धन-वैभव, तुम्हारा नाता सब मेरी आँखों में लुप्त हो जाता है और तुम मुझे वही राधा, वही वृन्दावन की अलबेली, तिरछी चितवन वाली, मीठी मुस्कान वाली, मृदुलभावों वाली, चंचल-चपल राधा मालूम होती हो। मैं इन भावनाओं को हृदय से मिटा देना चाहता हूँ, लाखों यत्न यन्त करता हूँ पर वह मेरी नहीं मानता। मैं चाहता हूँ कि तुम्हें रानी गायत्री समझूँ जिसका मैं एक तुच्छ सेवक हूँ, पर बार-बार भूल जाता हूँ। तुम्हारी एक आवाज, तुम्हारी एक झलक तुम्हारे पैरों की आहट, यहाँ तक कि केवल तुम्हारी याद मुझे इस बाह्य जगत् ने उठाकर किसी दूसरे जगत में पहुँचा देती है। मैं अपने को बिल्कुल भूल जाता हूँ, अब तक इस चित्त वृत्ति को गुप्त रखा था, लेकिन जैसे मिजराव की चोट से सितार ध्वनित हो जाता है। उसी भाँति प्रेम की चोट से हृदय स्वरयुक्त हो जाता है। मैंने आप से अपने चित्त की दशा कह सुनायी, सन्तोष हो गया। इस प्रीति का अन्त क्या होगा, इसे उसके सिवा और कौन जानता है जिसने हृदय में यह ज्वाला प्रदीप्त की है।
जिस प्रकार प्यास से तड़पता हुआ मनुष्य ठंडा पानी पी कर तृप्त हो जाता है, एक-एक घूँट उसकी आँखों में प्रकाश और चेहरे पर विकास उत्पन्न कर देता है, उसी प्रकार यह प्रेम वृत्तान्त सुना कर गायत्री का मुख चन्द्र उज्ज्वल हो गया, उसकी आँखें उन्मत्त हो गयीं, उसे अपने जीवन में एक स्फूर्ति का अनुभव होने लगा। उसके विचारों में यह आध्यात्मिक प्रेम था, इसमें वासना का लेश भी न था। इसके प्रेरक कृष्ण थे। वही ज्ञानशंकर के दिल में बैठे हुए उनके कंठ से यह प्रेम-स्वर अलाप रहे थे। उसके मन में भी ऐसे भाव पैदा होते थे, लेकिन लज्जा-वश उन्हें प्रकट न कर सकती थी। राधा का पार्ट खेल चुकने के बाद वह फिर गायत्री हो जाती थी, किन्तु इस समय ये बातें सुन कर उस पर नशा-सा छा गया। उसे ज्ञात हुआ कि राधा मेरे हृदय-स्थल में विराज रही है, उसकी वाणी लज्जा के बन्धन से मुक्त हो गयी। इस आध्यात्मिक रत्न के सामने समग्र संसार, यहाँ तक कि अपना जीवन भी तुच्छ प्रतीत होने लगा। आत्म-गौरव से आँखें चमकने लगीं। बोली– प्रियतम, मेरी भी यही दशा है। मैं भी इसी ताप से फूँक रही हूँ! यह तन और मन अब तुम्हारी भेंट है। तुम्हारे प्रेम जैसा रत्न पाकर अब मुझे कोई आकांक्षा, लालसा नहीं रही। इस आत्म-ज्योति ने माया और मोह के अन्धकार को मिटा दिया, सांसारिक पदार्थों से जी भर गया। अब यही अभिलाषा है कि यह मस्तक तुम्हारे चरणों पर हो और तुम्हारे कीर्ति-गान में जीवन समाप्त हो जाये। मैं रानी नहीं हूँ, गायत्री नहीं हूँ, मैं तुम्हारे प्रेम की भिखारिनी, तुम्हारे प्रेम की मतवाली, तुम्हारी चेरी राधा हूँ! तुम मेरे स्वामी, मेरे प्राणाधार, मेरे इष्टदेव हो। मैं तुम्हारे साथ बरसाने की गलियों में विचरूँगी, यमुना तट पर तुम्हारे प्रेम-राग गाऊँगी। मैं जानती हूँ कि मैं तुम्हारे योग्य नहीं हूँ, अभी मेरा चित्त भोग-विलास का दास है। अभी मैं धर्म और समाज के बन्धनों को तोड़ नहीं सकी हूँ पर जैसी कुछ हूँ अब तुम मेरी सेवाओं को स्वीकार करो। तुम्हारे ही सत्संग ने इस स्वर्गीय सुख का रस चखाया है, क्या वह मन के विकारों को शान्त न कर देगा?
यह कहते-कहते गायत्री के लोचन सजल हो गये। वह भक्ति से आवेग में ज्ञानशंकर के पैरों में गिर पड़ी। ज्ञानशंकर ने उसे तुरन्त उठा कर छाती से लगा लिया। अकस्मात् कमरे का द्वार धीरे से खुला और विद्या ने अन्दर कदम रखा। ज्ञानशंकर और गायत्री दोनों ने चौंक कर द्वार की ओर देखा और झिझक कर अलग खड़े हो गये। दोनों की आँखें जमीन की तरफ झुक गयीं, चेहरे पर हवाइयाँ उड़ने लगीं। ज्ञानशंकर तो सामने की आलमारी में से एक पुस्तक निकाल कर पढ़ने लगे किन्तु गायत्री ज्यों की त्यों अवाक् और अचल, पाषाण मूर्ति से सदृश खड़ी थी। माथे पर पसीना आ गया। जी चाहता था, धरती फट जाय और मैं उसमें समा जाऊँ। वह कोई बहाना, कोई हीला न कर सकी। आत्मग्लानि ने दुस्साहस का स्थान ही न छोड़ा था। उसे फर्श पर मोटे अक्षरों में यह शब्द लिखे हुए दीखते थे, ‘‘अब तू कहीं की न रही, तेरे मुख में कालिख पुत गयी!’’ यही विचार उसके हृदय को आन्दोलित कर रहा था, यही ध्वनि कानों में आ रही थी। वह बिलख-बिलख कर रोने लगी। अभी एक क्षण पहले उसकी आँखों से आत्माभिमान बरस रहा था, पर इस वक्त उससे दीन, उससे दलित प्राणी संसार में न था। क्षण मात्र में उसकी भक्ति के स्वच्छ जल के नीचे कीचड़ था, मेरे प्रेम के सुरम्य पर्वत शिखर के नीचे निर्मल अन्धकारमय गुफा थी। मैं स्वच्छ जल में पैर रखते ही कीचड़ में आ फँसी, शिखर पर चढ़ते ही अँधेरी गुफा में आ गिरी। हा! इस उज्जवल, कंचनमय, लहराते हुए जल ने मुझे धोखा दिया, इन मनोरम शुभ्र शिखरों ने मुझे ललचाया और अब मैं कहीं की न रही। अपनी दुर्बलता और क्षुद्रता पर उसे इतना खेद हुआ, लज्जा और तिरस्कार के भावों ने उसे इतना मर्माहत किया कि वह चीख मार कर रोने लगी। हा! विद्या मुझे अपने मन में कितना कुटिल समझ रही होगी! वह मेरा कितना आदर करती थी, कितना लिहाज करती थी, अब मैं उसकी दृष्टि में छिछोरी हूँ, कुलकलंकिनी हूँ। उसके सामने सत्य और व्रत की कैसी डींगें मारती थी, सेवा और सत्कर्म की कितनी सराहना करती थी। मैं उसके सामने साध्वी सती बनती थी, अपने पातिव्रत्य पर घमंड करती थी, पर अब उसे मुँह दिखाने के योग्य नहीं हूँ। हाय! वह मुझे अपनी सौत समझ रही होगी, मुझे आँखों की किरकिरी, अपने हृदय का काँटा ख्याल करती होगी! मैं उसकी गृह-विनाशिनी अग्नि, उसकी हाँडी में मुँह डालने वाली कुतिया हूँ! भगवान! मैं कैसी अन्धी हो गयी थी। यह मेरी छोटी बहिन है, मेरी कन्या के समान है। इस विचार ने गायत्री के हृदय को इतने जोर से मसोसा कि वह कलेजा थाम कर बैठ गयी। सहसा वह रोती हुई उठी और विद्या के पैरों पर गिर पडी।
विद्यावती इस वक्त केवल संयोग से आ गयी थी। वह ऊपर अपने कमरे में बैठी सोच रही थी कि गायत्री बहिन को क्या हो गया है? उसे क्योंकर समझाऊँ कि यह महापुरुष (ज्ञानशंकर) तुझे प्रेम और भक्ति के सब्ज बाग दिखा रहे हैं। यह सारा स्वाँग तेरी जायदाद के लिए भरा जा रहा है। न जाने क्यों धन-सम्पत्ति के पीछे इतने अन्धे हो रहे हैं कि धर्म विवेक को पैरों तले कुचले डालते हैं। हृदय का कितना काला, कितना धूर्त, कितना लोभी, कितना स्वार्थान्ध मनुष्य है कि अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए किसी की जान, किसी की आबरू की भी परवाह नहीं करता। बातें तो ऐसी करता है मानों ज्ञानचक्षु खुल गये हों। मानों ऐसा साधु-चरित्र, ऐसा विद्वान, परमार्थी पुरुष संसार में न होगा। अन्तःकरण में कूट-कूट कर पशुता, कपट और कुकर्म भरा हुआ है। बस, इसे यही धुन है कि गायत्री किसी तरह माया को गोद ले ले, उसकी लिखा-पढ़ी हो जाय और इलाके पर मेरा प्रभुत्व जम जाये, उसका सम्पूर्ण अधिकार मेरे हाथों में आ जाये। इसीलिए इसने यह ज्ञान और भक्ति का जाल फैला रखा है। भगत बन गया है, बाल बढ़ा लिए हैं, नाचता है, गाता है, कन्हैया बनता है। कितनी भयंकर धूर्त्तता है, कितना घृणित व्यवहार, कितनी आसुरी प्रवृत्ति!
वह इन्हीं विचारों में मग्न थी कि उसके कानों में गायत्री के गाने की आवाज आयी। वह वीणा पर सूरदास का एक पद गा रही थी। राग इतना सुमधुर और भावमय था, ध्वनि इतनी करुणा और आकांक्षा भरी हुई थी, स्वर में इतना लालित्य और लोच था कि विद्या का मन सुनने के लिए लोलुप हो गया, वह विवश हो गयी, स्वर-लालित्य ने उसे मुग्ध कर दिया। उसने सोचा, अनुराग और हार्दिक वेदना के बिना गाने में यह असर, यह विरक्ति असम्भव है। इसकी लगन सच्ची है, इसकी भक्ति सच्ची है। इस पर मन्त्र डाल दिया गया है। मैं इस मन्त्र को उतार दूँ, हो सके तो उसे गार में गिरने से बचा लूँ, उसे जता दूँ, जगा दूँ। निःसन्देह यह महोदय मुझ से नाराज होंगे, मुझे वैरी समझेंगे, मेरे खून के प्यासे हो जायँगे, कोई चिन्ता नहीं। इस काम में अगर मेरी जान भी जाय तो मुझे विलम्ब न करना चाहिए। जो पुरुष ऐसा खूनी, ऐसा विघातक, ऐसा रँगा हुआ सियार हो, उससे मेरा कोई नाता नहीं। उसका मुँह देखना, उसके घर में रहना, उसकी पत्नी कहलाना पाप है।
वह ऊपर से उतरी और धीरे-धीरे गायत्री के कमरे में आयी; किन्तु पहला ही पग अन्दर रखा था कि ठिठक गयी। सामने गायत्री और ज्ञानशंकर आलिंगन कर रहे थे। वह इस समय बड़ी शुभ इच्छाओं के साथ आयी थी, निर्लज्जता का यह दृश्य देख कर उसका खून खौल उठा, आँखों में चिनगारियाँ-सी उड़ने लगीं, अपमान और तिरस्कार के शब्द मुँह से निकलने के लिए जोर मारने लगे। उसने आग्नेय नेत्रों से पति को देखा। उसके शाप में यदि इतनी शक्ति होती कि वह उन्हें जला कर भस्म कर देता तो वह अवश्य शाप दे देती। उसके हाथ में यदि इतनी शक्ति होती कि वह एक ही वार में उनका काम तमाम कर दे तो अवश्य वार करती। पर उसके वश में इसके सिवाय और कुछ न था कि वह वहाँ से टल जाये। इस उद्विग्न दशा में वहाँ ठहर न सकती थी। वह उल्टे पाँव लौटना चाहती थी। खलिहान में आग लग चुकी थी, चिड़िया के गले पर छुरी चल चुकी थी, अब उसे बचाने का उद्योग करना व्यर्थ था। गायत्री से उसे एक क्षण पहले जो हमदर्दी हो गयी थी वह लुप्त हो गयी, अब वह सहानुभूति की पात्र न थी। हम सफेद कपड़ों को छींटो से बचाते हैं, लेकिन जब छींटे पड़ गये हों तो दूर फेंक देते हैं, उसे छूने से घृणा होती है। उसके विचार में गायत्री अब इसी किये का फल भोगे। मैं इस भ्रम में थी कि इस दुरात्मा ने तुझे बहका दिया, तेरा अन्तःकरण शुद्ध है, पर अब यह विश्वास जाता रहा। कृष्ण की भक्ति और प्रेम का नशा इतना गाढ़ा नहीं हो सकता कि सुकर्म और कुकर्म का विवेक न रहे। आत्मपतन की दशा में ही इतनी बेहयाई हो सकती है। हा अभागिनी! आधी अवस्था बीत जाने पर तुझे यह सूझी! जिस पति को तू देवता समझती थी, जिसकी पवित्र स्मृति की तू उपासना करती थी, जिसका नाम लेते ही आत्मा-गौरव से तेरे मुख पर लाली छा जाती थी, उसकी आत्मा को तूनें यों भ्रष्ट किया, उसकी मिट्टी यों खराब की।
किन्तु जब उसने गायत्री को सिर झुका कर चीख-चीख कर रोते देखा तो उसका हृदय नम्र हो गया, और जब गायत्री आकर पैरों पर गिर पड़ी तब स्नेह और भक्ति के आवेश से आतुर होकर वह बैठ गयी और गायत्री का सिर उठा कर अपने कन्धे पर रख लिया। दोनों बहिनें रोने लगीं, एक ग्लानि दूसरी प्रेमोद्रेक से।
अब तक ज्ञानशंकर दुविधा में खड़े थे, विद्या पर कुपित हो रहे थे, पर जबान से कुछ कहने का साहस न था। उन्हें शंका हो रही थी कि कहीं यह शिकार फन्दा तोड़ कर भाग न जाये। गायत्री के रोने-धोने पर उन्हें बड़ा क्रोध आ रहा था। जब तक गायत्री अपनी जगह पर खड़ी रोती रही, तब तक उन्हें आशा थी कि इस चोट की दवा हो सकती है; लेकिन जब गायत्री जा कर विद्या के पैरों में गिर पड़ी और दोनों बहिने गले मिलकर रोने लगीं तब वह अधीर हो गये। अब चुप रहना जीती-जितायी बाजी को हाथ से खोना, जाल में फँसे हुये शिकार को भगाना था। उन्होंने कर्कश स्वर से विद्या से कहा– तुमको बिना आज्ञा किसी के कमरे में आने का क्या अधिकार है?
विद्या कुछ न बोली। गायत्री ने उसकी गर्दन और जोर से पकड़ ली मानों डूबने से बचने का यही एकमात्र सहारा है।
ज्ञानशंकर ने और सरोष हो कर कहा– तुम्हारे यहाँ आने की कोई जरूरत नहीं और तुम्हारा कल्याण इसी में है कि तुम इसी दम यहाँ से चली जाओ नहीं तो मैं तुम्हारा हाथ पकड़ कर बाहर निकाल देने पर मजबूर हो जाऊँगा। तुम कई बार मेरे मार्ग का काँटा बन चुकी हो, ‘‘लेकिन अबकी बार मैं तुम्हें हमेशा के लिए रास्ते से हटा देना चाहता हूँ।
विद्या ने त्यौरियाँ बदल कर कहा– मैं अपनी बहिन के पास आयी हूँ, जब तक वह मुझे जाने को न कहेगी, मैं न जाऊँगी।
ज्ञानशंकर ने गरज कर कहा– चली जा, नहीं तो अच्छा न होगा।
विद्या ने निर्भीकता से उत्तर दिया– कभी नहीं, तुम्हारे कहने से नहीं!
ज्ञानशंकर क्रोध से काँपते हुए तड़िद्वेग से विद्या के पास आये और चाहा कि झपट कर उसका हाथ पकड़ लूँ कि गायत्री खड़ी हो गयी और गर्व से बोली– मेरी समझ में नहीं आता कि आप इतने क्रुद्ध क्यों हो रहे हैं? मुझसे मिलने आयी है और मैं अभी न जाने दूँगी।
गायत्री की आँखों में अब भी आँसू थे, गला अभी तक थरथरा रहा था, सिसकियाँ ले रही थी, पर यह विगत जलोद्वेग के लक्षण थे, अब सूर्य निकल आया था। वह फिर अपने आपे में आ चुकी थी, उसका स्वाभाविक अभिमान फिर जाग्रत हो गया!
ज्ञानशंकर ने कहा– गायत्री देवी, तुम अपने को बिलकुल भूली जाती हो। मुझे अत्यन्त खेद है कि बरसों की भक्ति और प्रेम की वेदी पर आत्मसमर्पण करके भी तुम ममत्व के बन्धनों में जकड़ी हुई हो। याद करो तुम कौन हो? सोचो, मैं कौन हूँ? सोचा, मेरा और तुम्हारा क्या सम्बन्ध है? क्या तुम इस पवित्र सम्बन्ध को इतना जीर्ण समझ रही हो कि उसे वायु और प्रकाश से भी बचाया जाये? वह एक आध्यात्मिक सम्बन्ध है, अटल और अचल है। कोई पार्थिक शक्ति उसे तोड़ नहीं सकती। कितने शोक की बात है कि हमारे आत्मिक ऐक्य से भली-भाँति परिचित होकर भी तुम मेरी इतनी अवहेलना कर रही हो। क्या मैं यह समझ लूँ कि तुम इतने दिनों तक केवल गुड़ियों का खेल– खेल रही थीं? अगर वास्तव में यही बात है तो तुमने मुझे कहीं का न रखा। मैं अपना तन और मन, धर्म और कर्म सब प्रेम की भेंट कर चुका हूँ। मेरा विचार था कि तुमने भी सोच-समझ कर प्रेम-पथ पर पग रखा है और उसकी कठिनाइयों को जानती हो। प्रेम का मार्ग कठिन है, दुर्गम और अपार। यहाँ बदनामी है, कलंक है। यहाँ लोकनिन्दा और अपमान है, लांछन है– व्यंग्य है। यहाँ वही धाम पर पहुँचता है जो दुनिया से मुँह मोड़े, संसार से नाता तोड़े। इस मार्ग में सांसारिक सम्बन्ध पैरों की बेड़ी है, उसे तोड़े बिना एक पग भी रखना असम्भव है। यदि तुमने परिणाम का विचार नहीं किया और केवल मनोविनोद के लिए चल खड़ी हुई तो तुमने मेरे साथ घोर अन्याय किया। इसका अपराध तुम्हारी गर्दन पर होगा।
यद्यपि ज्ञानशंकर मनोभावों को गुप्त रखने में सिद्धहस्त थे, पर इस समय उनका खिसियाया हुआ चेहरा उनकी इस सारगर्भित प्रेमव्याख्या का पर्दा खोल देता था। मुलम्मे की अँगूठी ताव खा चुकी थी।
इससे पहले ज्ञानशंकर के मुँह से ये बातें सुनकर कदाचित् गायत्री रोने लगती और ज्ञानशंकर के पैरों पर गिर क्षमा माँगती, नहीं, बल्कि ज्ञानशंकर की अभक्ति पर ये शब्द स्वयं उसके मुँह से निकलते। लेकिन वह नशा हिरन हो चुका था। उसने ज्ञानशंकर के मुँह की तरफ उड़ती हुई निगाह से देखा। वहाँ भक्ति का रोगन न था। नट के लम्बे केश और भड़कीले वस्त्र उतर चुके थे। वह मुखश्री जिसपर दर्शकगण लट्टू हो जाते थे और जिसका रंगमंच पर करतल-ध्वनि से स्वागत किया जाता था क्षीण हो गयी थी। जिस प्रकार कोई सीधा-सादा देहाती एक बार ताशवालों के दल में आकर फिर उसके पास खड़ा भी नहीं होता कि कहीं उनके बहकावे में न आ जाये, उसी प्रकार गायत्री भी यहाँ से दूर भागना चाहती थी। उसने ज्ञानशंकर को कुछ उत्तर न दिया और विद्या का हाथ पकड़े हुए द्वार की ओर चली। ज्ञानशंकर को ज्ञात हो गया कि मेरा मंत्र न चला। उन्हें क्रोध आया, मगर गायत्री पर नहीं, अपनी विफलता और दुर्भाग्य पर। शोक! मेरी सात वर्षों की अविश्रान्त तपस्याएँ निष्फल हुई जाती हैं। जीवन की आशाएँ सामने आकर रूठी जाती हैं– क्या करूँ। उन्हें क्योंकर मनाऊँ? मैंने अपनी आत्मा पर कितना अत्याचार किया, कैसे-कैसे षड्यंत्र रचे? इसी एक अभिलाषा पर अपना दीन-ईमान न्योछावर कर दिया। वह सब कुछ किया जो न करना चाहिए था। नाचना सीखा, नकल की, स्वाँग भरे, पर सारे प्रयत्न निष्फल हो गये। राय साहब ने सच कहा था कि सम्पति तेरे भाग्य में नहीं है। मेरा मनोरथ कभी पूरा न होगा। यह अभिलाषा चिता पर मेरे साथ जलेगी। गायत्री की निष्ठुरता भी कुछ कम हृदयविदारक न थी। ज्ञानशंकर को गायत्री से सच्चा प्रेम न सही, पर वह उसके रूप-लावण्य पर मुग्ध थे। उसकी प्रतिभा, उदारता स्नेहशीलता, बुद्धिमत्ता, सरलता उन्हें अपनी ओर खींचती थी। अगर एक ओर गायत्री होती और दूसरी ओर उसकी जायदाद और ज्ञानशंकर से कहा जाता तुम इन दोनों में से जो चाहे ले लो तो अवश्यम्भावी था कि वह उसकी जायदाद पर ही लपकते लेकिन उसकी जात से अलग हो कर उसकी जायदाद लवण-हीन भोजन के समान थी। वही गायत्री उनसे मुँह फेर कर चली जाती थी।
इन क्षोभयुक्त विचारों ने ज्ञानशंकर के हृदय को मसोमा कि उनकी आँखें भर आयीं। वह कुर्सी पर बैठ गये और दीवार की तरफ मुँह फेर कर रोने लगे। अपनी विवशता पर उन्हें इतना दुःख कभी न हुआ था। वे अपनी याद में इतने शोकातुर कभी न हुई थे। अपनी स्वार्थपरता अपनी इच्छा-लिप्सा अपनी क्षुद्रता पर इतनी ग्लानि कभी न हुई थी। जिस तरह बीमारी में मनुष्य को ईश्वर याद आता है उसी तरह अकृतकार्य होने पर उसे अपने दुस्साध्यों पर पश्चात्ताप होता है। पराजय का आध्यात्मिक महत्त्व विजय से कहीं अधिक होता है।
गायत्री ने ज्ञानशंकर को रोते देखा तो द्वार पर जा कर ठिठक गयी। उसके पग बाहर न पड़ सके। स्त्रियों के आँसू पानी हैं, वे धैर्य और मनोबल के ह्रास के सूचक हैं। गायत्री को अपनी निठुरता और अश्रद्धा पर खेद हुआ। आत्मरक्षा की अग्नि जो एक क्षण पहले प्रदीप्त हुई थी इन आँसुओं से बुझ गयी। वे भावनाएँ सजीव हो गयीं जो सात बरसों से मन को लालायित कर रही थीं, वे सुखद वार्तायें वे मनोहर क्रीड़ाएँ, वे आनन्दमय कीर्तन, वे प्रीति की बातें, वे वियोग-कल्पनाएँ नेत्रों के सामने फिरने लगीं। लज्जा और ग्लानि के बादल फट गये, प्रेम का चाँद चमकने लगा। वह ज्ञानशंकर के पास आकर खड़ी हो गयी और रूमाल से उनके आँसू पोंछने लगी। प्रेमानुराग से विह्नल हो कर उसने उनका मस्तक अपनी गोद में रख लिया। उन अश्रुप्लावित नेत्रों में उसे प्रेम का अथाह सागर लहरें मारता हुआ नजर आया। यह मुख-कमल प्रेम-सूर्य की किरणों से विकसित हो रहा था। उसने उनकी तरफ सतृष्ण नेत्रों से देखा, उनमें क्षमा प्रार्थना भरी हुई थी मानो वह कह रही थी, हा! मैं कितनी दुर्बल, कितनी श्रद्धाहीन हूँ। कितनी जड़भक्त हँ  कि रूप और गुण का निरूपण न कर सकी। मेरी अभक्ति ने इनके विशुद्ध और कोमल हृदय को व्यथित किया होगा। तुमने मुझे धरती से उठाकर आकाश पर पहुँचाया, तुमने मेरे हृदय में शक्ति का अंकुर जमाया, तुम्हारे ही सदुपदेशों से मुझे सत्प्रेम का स्वर्गीय आनन्द प्राप्त हुआ। एकाएक मेरी आँखों पर पर्दा कैसे पड़ गया? मैं इतनी अन्धी कैसे हो गयी? निस्सन्देह कृष्ण भगवान् मेरी परीक्षा ले रहे थे और मैं उसमें अनुत्तीर्ण हो गयी। उन्होंने मुझे प्रेम-कसौटी पर कसा और मैं खोटी निकली। शोक! मेरी सात वर्षों की तपस्या एक क्षण में भंग हो गयी। मैंने उस पुरुष पर सन्देह किया जिसके हृदय में कृष्ण का निवास है, जिसके कंठ में मुरली की ध्वनि है। राधा! तुमने क्यों मेरे दिल पर से अपना जादू खींच लिया? मेरे हृदय में आकर बैठो और मुझे धर्म का अमृत पिलाओ।
यह सोचते-सोचते गायत्री की आँखें अनुरक्त हो गयीं। वह कम्पित स्वर से बोली– भगवन! तुम्हारी चेरी तुम्हारे सामने हाथ बाँधे खड़ी अपने अपराधों की क्षमा माँगती है।
ज्ञानशंकर ने उसे चुभती हुई दृष्टि से देखा और समझ गये कि मेरे आँसू काम कर गये। इस तरह चौंक पड़े मानों नींद से जगे हो और बोले– राधा?
गायत्री– मुझे क्षमा दान दीजिए।
ज्ञान– तुम मुझसे क्षमा दान माँगती हो? यह तुम्हारा अन्याय है! तुम प्रेम की देवी हो, वात्सल्य की मूर्ति, निर्दोष, निष्कलंक। यह मेरा दुर्भाग्य है कि तुम इतनी अस्थिर चित्त हो! प्रेमियों के जीवन में सुख कहाँ? तुम्हारी अस्थिरता ने मुझे संज्ञाहीन कर दिया है। मुझे अब भी भ्रम हो रहा कि गायत्री देवी से बातें कर रहा हूँ या राधा रानी से। मैं अपने आपको भूल गया हूँ। मेरे हृदय को ऐसा आघात पहुँचा है कि कह नहीं सकता यह घाव कभी भरेगा या नहीं? जिस प्रेम और भक्ति को मैं अटल समझता था, वह बालू की भीत से भी ज्यादा पोली निकली। उस पर मैंने जो आशालता आरोपित की थी, जो बाग लगाया था वह सब जलमग्न हो गया। आह! मैं कैसे-कैसे मनोहर स्वप्न देख रहा था? सोचा था, यह प्रेम वाटिका कभी फूलों से लहरायेगी, हम और तुम सांसारिक मायाजाल को हटा कर वृन्दावन के किसी शान्तिकुंज में बैठे हुए भक्ति का आनन्द उठायेंगे। अपनी प्रेम-ध्वनि से वृक्ष कुंजों को गुंजित कर देंगे। हमारे प्रेम-गान से कालिन्दी की लहरें प्रतिध्वनित हो जायेंगी। मैं कृष्ण का चाकर बनूँगा, तुम उनके लिए पकवान बनाओगी। संसार से अलग, जीवन के अपवादों से दूर हम अपनी प्रेम-कुटी बनायेंगे और राधाकृष्ण की अटल भक्ति में जीवन के बचे हुए दिन काट देंगे अथवा अपने ही कृष्ण मन्दिर में राधाकृष्ण के चरणों से लगे हुए इस असार संसार से प्रस्थान कर जायेंगे। इसी सदुद्देश्य से मैंने आपकी रियासत की और यहाँ की पूरी व्यवस्था की। पर अब ऐसा प्रतीत हो रहा है कि वह सब शुभ कामनायें दिल में ही रहेंगी और मैं शीघ्र ही संसार से हताश और भग्न-हृदय विदा हूँगा।
गायत्री प्रेमोन्मत हो कर बोली– भगवान् ऐसी बातें मुँह से न निकालो। मैं दीन अबला हूँ, अज्ञान के अन्धकार में डूबी हुई मिथ्या भ्रम में पड़ जाती हूँ, पर मैंने तुम्हारा दामन पकड़ा है, तुम्हारी शरणागत हूँ, तुम्हें मेरी क्षुद्रताएँ, मेरी दुर्बलताएँ सभी क्षमा करनी पड़ेंगी। मेरी भी यह अभिलाषा है कि तुम्हारे चरणों से लगी रहूँ। मैं भी संसार से मुँह मोड़ लूँगी, सबसे नाता तोड़ लूँगी और तुम्हारे साथ बरसाने और वृन्दावन की गलियों में विचरूँगी। मुझे अगर कोई सांसारिक चिन्ता है तो वह यह है कि मेरे पीछे मेरे इलाके का प्रबन्ध सुयोग्य हाथों में रहे, मेरी प्रजा पर अत्याचार न हो और रियासत की आमदनी परमार्थ में लगे। मेरा और तुम्हारा निर्वाह दस-बारह हजार रुपयों में हो जायेगा। मुझे और कुछ न चाहिए। हाँ, यह लालसा अवश्य है कि मेरी स्मृति बनी रहे, मेरा नाम अमर हो जाये, लोग मेरे यश और कीर्ति की चर्चा करते रहें। यही चिन्ता है जो अब तक मेरे पैरों की बेड़ी बनी हुई है। आप इस बेड़ी को काटिए। यह भार मैं आपके ही ऊपर रखती हूँ। ज्यों ही आप इन दोनों बातों की व्यवस्था कर देंगे मैं निश्चिन्त हो जाऊँगी और फिर यावज्जीवन हम में वियोग न होगा। मेरी तो यह राय है कि एक ‘ट्रस्ट’ कायम कर दीजिए। मेरे पतिदेव की भी यह इच्छा थी।
ज्ञानशंकर– ट्रस्ट कायम करना तो आसान है, पर मुझे आशा नहीं है कि उससे आपका उद्देश्य पूरा हो। मैं पहले भी दो-एक बार ट्रस्ट के विषय में अपने विचार प्रकट कर चुका हूँ। आप अपने विचार में कितनी ही निःस्पृह सत्यवादी ट्रस्टियों को नियुक्त करें, लेकिन अवसर पाते ही वे अपने घर भरने पर उद्यत हो जायेंगे। मानव स्वभाव बड़ा ही विचित्र है। आप किसी के विषय में विश्वस्त रीति से नहीं कह सकतीं कि उसकी नीयत कभी डाँवाडोल न होगी, वह सन्मार्ग से कभी विचलित न होगा। हम तो वृन्दावन में बैठे रहेंगे, यहाँ प्रजा पर नाना प्रकार के अत्याचार होंगे। कौन उनकी फरियाद सुनेगा? सदाव्रत की रकम नाच-मुजरे में उड़ेगी, रासलीला की रकम गार्डन-पार्टियों में खर्च होगी, मन्दिर की सजावट के सामान ट्रस्टियों के दीवानखाने में नजर आयेंगे, साधु-महात्माओं के सत्कार के बदले यारों की दावतें होंगी, आपको यश की जगह अपयश मिलेगा। यों तो कहिए आपकी आज्ञा का पालन कर दूँ लेकिन ट्रस्टियों पर मेरा जरा भी विश्वास नहीं है। आपका उद्देश्य उसी दशा में पूरा होगा जब रियासत किसी ऐसे व्यक्ति के हाथों में हो जो आपको अपना पूज्य समझता हो, जिसे आपसे श्रद्धा हो, जो आपका उपकार माने, जो दिल से आपकी शुभेच्छाओं का आदर करता हो, जो स्वयं आपके ही रंग मे रंगा हुआ हो, जिसके हृदय में दया और प्रेम हो, और यह सब गुण उसी मनुष्य में हो सकते हैं जिसे आपसे पुत्रवत् प्रेम हो, जो आपको अपनी माता समझता हो। अगर आपको ऐसा कोई लड़का नजर आये तो मैं सलाह दूँगा उसे गोद ले लीजिए। उससे उत्तम मुझे और कोई व्यवस्था नहीं सूझती। संभव है कुछ दिनों तक हमको उसकी देख-रेख करनी पड़े, किन्तु इसके बाद हम स्वच्छन्द हो जायेंगे। तब हमारे आनन्द और विहार के दिन होंगे। मैं अपनी प्यारी राधा के गले में प्रेम का हार डालूँगा, उसे प्रेम के राग सुनाऊँगा, दुनिया की कोई चिन्ता, कोई उलझन, कोई झोंका हमारी शान्ति में विघ्न न डाल सकेगा।
गायत्री पुलकित हो गयी। उस आनन्दमय जीवन का दृश्य उसकी कल्पना में सचित्र हो गया। उसकी तबियत लहराने लगी। इस समय उसे अपने पति की वह वसीयत याद न रही जो उन्होंने जायदाद का प्रबन्ध के विषय में की थी और जिसका विरोध करने के लिए वह ज्ञानशंकर से कई बार गर्म हो पड़ी थी। वह ट्रस्ट के गुण-दोष पर स्वयं कुछ विचार न कर सकी। ज्ञानशंकर का कथन निश्चयवाचक था। ट्रस्ट पर से उसका विश्वास उठ गया। बोली– आपका कहना यथार्थ है। ट्रस्टियों का क्या विश्वास है। आदमी किसी के मन में तो बैठ नहीं सकता, अन्दर का हाल कौन जाने?
वह दो-तीन मिनट तक विचार में मग्न रही। सोच रही थी कि ऐसा कौन लड़का है जिसे मैं गोद ले सकूँ। मन ही मन अपने सम्बन्धियों और कुटुम्बियों का दिग्दर्शन किया, लेकिन यह समस्या हल न हुई। लड़के थे, एक नहीं अनेक, लेकिन किसी न किसी कारण से वह गायत्री को न जँचते थे। सोचते-सोचते सहसा वह चौंक पड़ी और मायाशंकर का नाम उसकी जबान पर आते-आते रह गया। ज्ञानशंकर ने अब तक अपनी मनोवांछा को ऐसा गुप्त रखा था और अपने आत्मसम्मान की ऐसी धाक जमा रखी थी कि पहले तो मायाशंकर की ओर गायत्री का ध्यान ही न गया और जब गया तो उसे अपना विचार प्रकट करते हुए भय होता था कि कहीं ज्ञानशंकर के मर्यादाशील हृदय को चोट न लगे। हालाँकि ज्ञानशंकर का इशारा साफ था, पर गायत्री पर इस समय वह नशा था जो शराब और पानी में भेद नहीं कर सकता। उसने कई बार हिम्मत की कि जिक्र छेड़ूँ किन्तु ज्ञानशंकर के चेहरे से ऐसा निष्काम भाव झलक रहा था कि उसकी जबान न खुल सकी। मायाशंकर की विचारशीलता, सच्चरित्रता, बुद्धिमत्ता आदि अनेक गुण उसे याद आने लगे। उससे अच्छे उत्तराधिकारी की वह कल्पना भी न कर सकती थी। ज्ञानशंकर उसको असमंजस में देख कर बोले– आया कोई लड़का ध्यान में?
गायत्री सकुचाती हुई बोली– जी हाँ, आया तो, पर मालूम नहीं आप भी उसे पसंद करेंगे या नहीं? मैं इससे अच्छा चुनाव नहीं कर सकती।
ज्ञानशंकर– सुनूँ कौन है?
गायत्री– वचन दीजिए कि आप उसे स्वीकार करेंगे।
ज्ञानशंकर के हृदय में गुदगुदी होने लगी। बोले– बिना जाने-बूझे मैं यह वचन कैसे दे सकता हूँ?
गायत्री– मैं जानती हूँ कि आपको उसमें आपत्ति होगी और विद्या तो किसी प्रकार राजी ही न होगी, लेकिन इस बालक के सिवा मेरी नजर और किसी पर पड़ती नहीं।
ज्ञानशंकर अपने मनोल्लास को छिपाए हुए बोले– सुनूँ तो किसका भाग्य सूर्य उदय हुआ है।
गायत्री– बता दूँ? बुरा तो न मानिएगा न?
ज्ञान– जरा भी नहीं, कहिये।
गायत्री– मायाशंकर।
ज्ञानशंकर इस तरह चौंक पड़े मानों कानों के पास कोई बन्दूक छूट गयी हो। विस्मित नेत्रों से देखा और इस भाव से बोले मानों उसने दिल्लगी की है– मायाशंकर!
गायत्री– हाँ, आप वचन दे चुके हैं, मानना पड़ेगा।
ज्ञानशंकर– मैंने कहा था कि नाम सुन कर राय दूँगा। अब नाम सुन लिया और विवशता से कहता हूँ मैं आप से सहमत नहीं हो सकता।
गायत्री– मैं यह बात पहले से ही जानती थी, पर मुझमें और आप में जो सम्बन्ध है उसे देखते हुए आपको आपत्ति न होती चाहिए।
ज्ञानशंकर– मुझे स्वयं कोई आपत्ति नहीं है। मैं अपना सर्वस्व आप पर समर्पण कर चुका हूँ, लड़का भी आप की भेंट है, लेकिन आपको मेरी कुल-मर्यादा का हाल मालूम है। काशी में सम्मानित और कोई घराना नहीं है। सब तरह से पतन होने पर भी उसका गौरव अभी तक बचा हुआ है। मेरे चाचा और सम्बन्धी इसे कभी मंजूर न करेंगे और विद्या तो सुनकर विष खाने को उतारू हो जायेगी। इसके अतिरिक्त मेरी बदनामी भी है। सम्भव है लोग यह समझेंगे कि मैंने आपकी सरलता और उदारता से अनुचित लाभ उठाया है और और आपके कुटुम्ब के लोग तो मेरी जान के गाहक ही हो जायेंगे।
गायत्री– मेरे कुटुम्बियों की ओर से तो आप निश्चिन्त रहिए, मैं उन्हें आपस में लड़ा कर मारूँगी। बदनामी और लोक-निन्दा आपको मेरी खातिर से सहनी पड़ेगी। रही विद्या, उसे मैं मना लूँगी।
ज्ञान– नहीं, यह आशा न रखिए। आप उसे मनाना जितना सुगम समझ रही हैं उससे कहीं कठिन है। आपने उसके तेवर नहीं देखे। वह इस समय सौतिया डाह से जल रही है। उसे अमृत भी दीजिए तो विष समझेगी। जब तक लिखा-पढ़ी न हो जाये और प्रथानुसार सब संस्कार पूरे न हो जायें उसके कानों में इसकी भनक भी न पड़नी चाहिए। यह तो सच होगा मगर उन लोगों की हाय किस पर पड़ेगी जो बरसों से रियासत पर दाँत लगाये बैठे है? उनके घरों में तो कुहराम मच जायगा। सब के सब मेरे खून के प्यासे हो जायेंगे। यद्यपि मुझे उनसे कोई भय नहीं है, लेकिन शत्रु को कभी तुच्छ न समझना चाहिए। हम जिससे धन और धरती लें उससे कभी निःशंक नहीं रह सकते।
गायत्री– आप इन दुष्टों का ध्यान ही न कीजिए। ये कुत्ते हैं, एक छीछड़े पर लड़ मरेंगे।
ज्ञानशंकर कुछ देर तक मौन रूप से जमीन की ओर ताकते रहे, जैसे कोई महान् त्याग कर रहे हों। फिर सजल नेत्रों से बोले, जैसी आपकी मरजी, आपकी आज्ञा सिर पर है। परमात्मा से प्रार्थना है कि यह लड़का आपको मुबारक हो और उससे आपकी जो आशाएँ हैं, वह पूरी हों। ईश्वर उसे सद्बुद्धि प्रदान करे कि वह आपके आदर्श को चरितार्थ करे। वह आज से मेरा लड़का नहीं, आपका है। यद्यपि अपने एक मात्र पुत्र को छाती से अलग करते हुए दिल पर जो कुछ बीत रही है वह मैं ही जानता हूँ, लेकिन वृन्दावनबिहारी ने आपके अन्तःकरण में यह बात डाल कर मानो हमारे लिए भक्ति-पथ का द्वार खोल दिया है। वह हमें अपने चरणों की ओर बुला रहे हैं। हमारा परम सौभाग्य है।
गायत्री ने ज्ञानशंकर का हाथ पकड़ कर कहा– कल ही किसी पंडित से शुभ मुहूर्त पूछ लीजिए।
 

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रचनाएँ
प्रेमाश्रम
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प्रेमचंद आधुनिक हिन्दी कहानी के पितामह और उपन्यास सम्राट माने जाते हैं। यू तो उनके साहित्यिक जीवन का आरंभ १९०१ से हो चुका था पर बीस वर्षों की इस अवधि में उनकी कहानियों के अनेक रंग देखने को मिलते हैं। इस उपन्यास में प्रेमचंद व्यापक स्तर पर किसान के उत्पीड़न का चित्र अंकित करते हैं। अनगिनत शोषण और ज्ञानशंकर आततायी किसान को चूसकर सूखा देने के लिए जुट गए हैं। ज्ञानशंकर मानो अन्याय का मूर्तिमान रूप है, किन्तु प्रेमशंकर अपनी गहरी मानवीयता और सदगुणों के कारण असत्य और अधर्म पर पूरी तरह विजयी होते हैं। 'प्रेमाश्रम' भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है। गांधीजी के सत्याग्रह आन्दोलन की इस कथा पर विशिष्ट छाप है। इस उपन्यास में प्रेमचंद व्यापक स्तर पर किसान के उत्पीड़न का चित्र अंकित करते हैं।
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प्रेमाश्रम 1

10 फरवरी 2022
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सन्ध्या हो गई है। दिन भर के थके-माँदे बैल खेत से आ गये हैं। घरों से धुएँ के काले बादल उठने लगे। लखनपुर में आज परगने के हाकिम की परताल थी। गाँव के नेतागण दिनभर उनके घोड़े के पीछे-पीछे दौड़ते रहे थे। इस

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लखनपुर के जमींदारों का मकान काशी में औरंगाबाद के निकट था। मकान के दो खण्ड आमने-सामने बने हुए थे। एक जनाना मकान था, दूसरी मरदानी बैठक। दोनों खण्डों के बीच की जमीन बेल-बूटे से सजी हुई थी, दोनों ओर ऊँची

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मनोहर अक्खड़पन की बातें तो कर बैठा; किन्तु जब क्रोध शान्त हुआ तो मालूम हुआ कि मुझसे बड़ी भूल हुई। गाँव वाले सब-के-सब मेरे दुश्मन हैं। वह इस समय चौपाल में बैठे मेरी निन्दा कर रहे होंगे। कारिंदा न जाने

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तीसरा पहर था। ज्ञानशंकर दीवानखाने में बैठे हुए एक किताब पढ़ रहे थे कि कहार ने आकर कहा, बाबू साहब पूछते हैं, कै बजे हैं? ज्ञानशंकर ने चिढ़कर कहा, जा कह दे, आपको नीचे बुलाते हैं? क्‍या सारे दिन सोते रहे

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एक महीना बीत गया, गौस खाँ ने असामियों की सूची न तैयार की और न ज्ञानशंकर ने ही फिर ताकीद की । गौस खाँ के स्वहित और स्वामिहित में विरोध हो रहा था और ज्ञानशंकर सोच रहे थे कि जब इजाफे से सारे परिवार का ला

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प्रेमाश्रम (भाग-2)

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7. जब तक इलाके का प्रबन्धन लाला प्रभाशंकर के हाथों में था, वह गौस खाँ को अत्याचार से रोकते रहते थे। अब ज्ञानशंकर मालिक और मुख्तार थे। उनकी स्वार्थप्रियता ने खाँ साहब को अपनी अभिलाषाएँ पूर्ण करने का अ

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जिस भाँति सूर्यास्त के पीछे विशेष प्रकार के जीवधारी; जो न पशु हैं न पक्षी, जीविका की खोज में निकल पड़ते हैं, अपनी लंबी श्रेणियों से आकाश मंडल को आच्छादित कर लेते हैं, उसी भाँति कार्तिक का आरम्भ होते ह

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अपनी पारिवारिक सदिच्छा का ऐसा उत्तम प्रमाण देने के बाद ज्ञानशंकर को बँटवारे के विषय में अब कोई असुविधा न रही, लाला प्रभाशंकर ने उन्हीं की इच्छानुसार करने का निश्चय कर लिया। दीवानखाना उनके लिए खाली कर

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 राय कमलानन्द बहादूर लखनऊ के एक बड़े रईस और तालुकेदार थे। वार्षिक आय एक लाख के लगभग थी। अमीनाबाद में उनका विशाल भवन था। शहर में उनकी और भी कई कोठियाँ थीं, पर वह अधिकांश नैनीताल या मसूरी में रहा करते थ

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आँधी का पहला वेग जब शान्त हो जाता है, तब वायु के प्रचण्ड झोंके, बिजली की चमक और कड़क बन्द हो जाती है और मूसलाधार वर्षा होने लगती है। गायत्री के चित्त की शान्ति भी द्रवीभूत हो गई थी। हृदय में रुधिर की

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गायत्री के जाने के बाद ज्ञानशंकर को भी वहाँ रहना दूभर हो गया। सौभाग्य उन्हें हवा के घोड़े पर बैठाये ऋद्धि और सिद्धि के स्वर्ग में लिए जाता था, किन्तु एक ही ठोकर में वह चमकते हुए नक्षत्र अदृश्य हो गये;

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यद्यपि गाँव वालों ने गौस खाँ पर जरा भी आँच न आने दी थी, लेकिन ज्वालासिंह का उनके बर्ताव के विषय में पूछ-ताछ करना उनके शान्ति-हरण के लिए काफी था। चपरासी, नाजिर मुंशी सभी चकित हो रहे थे कि इस अक्खड़ लौं

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राय साहब को नैनीताल आये हुए एक महीना हो गया। ‘‘एक सुरम्य झील के किनारे हरे-भरे वृक्षों के कुन्ज में उनका बँगला स्थित है, जिसका एक हजार रुपया मासिक किराया देना पड़ता है। कई घोड़े हैं, कई मोटर गाड़ियाँ,

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प्रातः काल था। ज्ञानशंकर स्टेशन पर गाड़ी का इन्तजार कर रहे थे। अभी गाड़ी के आने में आध घण्टे की देर थी। एक अँग्रेजी पत्र लेकर पढ़ना चाहा पर उसमें जी न लगा। दवाओं के विज्ञापन अधिक मनोरंजक थे। दस मिनट म

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प्रेमाश्रम (भाग-3)

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16. प्रेमशंकर यहाँ दो सप्ताह ऐसे रहे, जैसे कोई जल्द छूटने वाला कैदी। जरा भी जी न लगता था। श्रद्धा की धार्मिकता से उन्हें जो आघात पहुँचा था उसकी पीड़ा एक क्षण के लिए भी शान्त न होती थी। बार-बार इरादा

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गायत्री उन महिलाओं में थी जिनके चरित्र में रमणीयता और लालित्य के साथ पुरुषों का साहस और धैर्य भी मिला होता है। यदि वह कंघी और आईने पर जान देती थी तो कच्ची सड़कों के गर्द और धूल से भी न भागती थी। प्यान

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ज्ञानशंकर को गायत्री का पत्र मिला तो फूले न समाये। हृदय में भाँति-भाँति की मनोहर सुखद कल्पनाएँ तरंगे मारने लगीं। सौभाग्य देवी जीवन-संकल्प की भेंट लिये उनका स्वागत करने को तैयार खड़ी थी। उनका मधुर स्वप

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ज्ञानशंकर लगभग दो बरस से लखनपुर पर इजाफा लगान करने का इरादा कर रहे थे, किन्तु हमेशा उनके सामने एक-न-एक बाधा आ खड़ी होती थी। कुछ दिन तो अपने चचा से अलग होने में लगे। जब उधर से बेफिक्र हुए तो लखनऊ जाना

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प्रभात का समय था। चैत का सुखद पवन प्रवाहित हो रहा था। बाबू ज्वालासिंह बरामदे में आरामकुर्सी पर लेटे हुए घोड़े का इन्तजार कर रहे थे। उन्हें आज मौका देखने के लिए लखनपुर जाना था, किन्तु मार्ग में एक बड़ी

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एक पखवारा बीत गया। सन्ध्या समय था। शहर में बर्फ की दूकानों पर जमघट होने लगा था। हुक्के और सिगरेट से लोगों को अरुचि होती जाती थी। ज्वालासिंह लखनपुर से मौके की जाँच करके लौटे थे और कुर्सी पर बैठे ठंडा श

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ज्ञानशंकर को अपील के सफल होने का पूरा विश्वास था। उन्हें मालूम था कि किसानों में धनाभाव के कारण अब बिल्कुल दम नहीं है। लेकिन जब उन्होंने देखा, काश्तकारों की ओर से भी मुकदमें की पैरवी उत्तम रीति से की

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अपील खारिज होने के बाद ज्ञानशंकर ने गोरखपुर की तैयारी की। सोचा, इस तरह तो लखनपुर से आजीवन गला न छूटेगा, एक-न-एक उपद्रव मचा ही रहेगा। कहीं गोरखपुर में रंग जम गया तो दो-तीन बरसों में ऐसे कई लखनपुर हाथ आ

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आय में वृद्धि और व्यय में कमी, यह ज्ञानशंकर के सुप्रबन्ध का फल था। यद्यपि गायत्री भी सदैव किफायत कर निगाह रखती थी, पर उनकी किफायत अशर्फियों की लूट और कोयलों पर मोहर को चरितार्थ करती थी। ज्ञानशंकर ने स

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जिस समय ज्ञानशंकर की अपील खारिज हुई, लखनपुर के लोगों पर विपत्ति की घटा छायी हुई थी। कितने ही घर प्लेग से उजड़ गये। कई घरों में आग लग गयी। कई चोरियाँ हुईं। उन पर दैविक घटना अलग हुई, कभी आँधी आती कभी पा

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पहला अंक

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राजा– हाय! हाय! बैद्यों ने जबाव दिया, हकीमों ने जवाब दिया, डाकदरों ने जवाब दिया, किसी ने रोग को न पहचाना। सब-के-सब लुटेरे थे। अब जिन्दगानी की कोई आशा नहीं। यह सारा राज-पाट छूटता है। मेरे पीछे परजा पर

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दूसरा अंक

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(राजा एक साधारण नागिरक के रूप में आप-ही-आप) समय कम है, ऐसे तीन सज्जनों के पास चलना चाहिए जो मेरे भक्त थे। पहले सेठ के पास चलूँ। वह परोपकार के प्रत्येक काम में मेरी सहायता करता था। मैंने उसकी कितनी बा

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प्रेमाश्रम (भाग-4)

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26. प्रभात का समय था और कुआर का महीना। वर्षा समाप्त हो चुकी थी। देहातों में जिधर निकल जाइए, सड़े हुए सन की सुगन्ध उड़ती थी। कभी ज्येष्ठ को लज्जित करने वाली धूप होती थी, कभी सावन को सरमाने वाले बादल घ

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प्रेमशंकर की कृषिशाला अब नगर के रमणीय स्थानों की गणना में थी। यहाँ ऐसी सफाई और सजावट थी। कि प्रातः रसिकगण सैर करने आया करते। यद्यपि प्रेमशंकर केवल उसके प्रबन्धकर्ता थे, पर वस्तुतः असामियों की भक्ति और

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श्रद्घा की बातों से पहले तो ज्ञानशंकर को शंका हुई, लेकिन विचार करने पर यह शंका निवृत्त हो गयी, क्योंकि इस मामले में प्रेमशंकर का अभियुक्त हो जाना अवश्यम्भावी था। ऐसी अवस्था में श्रद्धा के निर्बल क्रोध

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इस मुकदमें ने सारे शहर मे हलचल मचा दी। जहाँ देखिए, यह चर्चा थी सभी लोग प्रेमशंकर के आत्म-बलिदान की प्रंशसा सौ-सौ मुँह से कर रहे थे। यद्यपि प्रेमशंकर ने स्पष्ट कह दिया था कि मेरे लिए किसी वकील की जरूर

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रात के १० बजे थे। ज्वालासिंह तो भोजन करके प्रभाशंकर के दीवानखाने में ही लेटे, लेकिन प्रेमशंकर को मच्छरों ने इतना तंग किया कि नींद न आयी। कुछ देर तक तो वह पंखा झलते रहे, अन्त को जब भीतर न रहा गया तो व्

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डाक्टर इर्फान अली की बातों से प्रभाशंकर को बड़ी तसकीन हुई। मेहनताने के सम्बन्ध में उनसे कुछ रिआयत चाहते थे, लेकिन संकोचवश कुछ न कह सकते थे। इतने में हमारे पूर्व-परिचित सैयद ईजाद हुसैन ने कमरे में प्रव

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जब मुकदमा सेशन सुपुर्द हो गया और ज्ञानशंकर को विश्वास हो गया कि अब अभियुक्तों का बचना कठिन है तब उन्होंने गौस खाँ की जगह पर फैजुल्लाह को नियुक्त किया और खुद गोरखपुर चले आए। यहाँ से गायत्री की कई चिट्ठ

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सेशन जज के इजलास में एक महीने से मुकदमा चल रहा है। अभियुक्त ने फिर सफाई दी। आज मनोहर का बयान था। इजलास में एक मेला सा लगा हुआ था। मनोहर ने बड़ी निर्भीक दृढ़ता के साथ सारी घटना आदि से अन्त तक बयान की औ

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फैजुल्लाह खाँ का गौस खाँ के पद पर नियुक्त होना गाँव के दुखियारों के घाव पर नमक छिड़कना था। पहले ही दिन से खींच-तान होने लगी और फैजू ने विरोधाग्नि को शान्त करने की जरूरत न समझी। अब वह मुसल्लम गाँव के स

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प्रातःकाल ज्योंही मनोहर की आत्महत्या का समाचार विदित हुआ, जेल में हाहाकार मच गया। जेल के दारोगा, अमले, सिपाही, पहरेदार-सब के हाथों के तोते उड़ गये। जरा देर में पुलिस को खबर मिली, तुरन्त छोटे-बड़े अधिक

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डा० इर्फान अली बैठे सोच रहे थे कि मनोहर की आत्महत्या का शेष अभियुक्तों पर क्या असर पड़ेगा? कानूनी ग्रन्थों का ढेर सामने रखा हुआ था। बीच में विचार करने लगते थे; मैंने यह मुकदमा नाहक लिया। रोज १०० रुपये

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सैयद ईजाद हुसेन का घर दारानगर की एक गली में था। बरामदे में दस-बारह वस्त्रविहीन बालक एक फटे हुए बोरिये पर बैठे करीमा और खालिकबारी की रट लगया करते थे। कभी-कभी जब वे उमंग में आ कर उच्च स्वर से अपने पाठ य

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महाशय ज्ञानशंकर का धर्मानुराग इतना बढ़ा कि सांसारिक बातों से उन्हें अरुचि सी होने लगी, दुनिया से जी उचाट हो गया। वह अब भी रियासत का प्रबन्ध उतने ही परिश्रम और उत्साह से करते थे, लेकिन अब सख्ती की जगह

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जलसा बड़ी सुन्दरता से समाप्त हुआ रानी गायत्री के व्याख्यान पर समस्त देश में वाह-वाह मच गयी। उसमें सनातन-धर्म संस्था का ऐतिहासिक दिग्दर्शन कराने के बाद उसकी उन्नति और पतन, उसके उद्धार और सुधार उसकी विर

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प्रेमाश्रम (भाग-5)

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41. राय कमलानन्द को देखे हुए हमें लगभग सात वर्ष हो गये, पर इस कालक्षेप का उनपर कोई चिन्ह नहीं दिखाई देता। बाल-पौरुष, रंग-ढंग सब कुछ वही है। यथापूर्व उनका समय सैर और शिकार पोलो और टेनिस, राग और रंग मे

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दो दिन हो गये और ज्ञानशंकर ने राय साहब से मुलाकात न की। रायसाहब उन निर्दय पुरुषों में न थे जो घाव लगाकर उस पर नमक छिड़कते हैं। वह जब किसी पर नाराज होते तो यह मानी हुई बात थी कि उसका नक्षत्र बलवान है,

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सन्ध्या का समय था। बनारस के सेशन जज के इजलास में हजारों आदमी जमा थे। लखनपुर के मामले से जनता को अब एक विशेष अनुराग हो गया था। मनोहर की आत्महत्या ने उसकी चर्चा सारे शहर में फैला दी थी। प्रत्येक पेशी के

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डाक्टर इर्फान अली उस घटना के बाद हवा खाने न जा सके, सीधे घर की ओर चले। रास्ते भर उन्हें संशय हो रहा था कि कहीं उन उपद्रवियों से फिर मुठभेड़ न हो जाये नहीं तो अबकी जान के लाले पड़े जायेंगे। आज बड़ी खैर

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कई महीने बीत चुके, लेकिन प्रेमशंकर अपील दायर करने का निश्चय न कर सके। जिस काम में उन्हें किसी दूसरे से मदद मिलने की आशा न होती थी, उसे वह बड़ी तत्परता के साथ करते थे, लेकिन जब कोई उन्हें सहारा देने के

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ज्ञानशंकर लखनऊ से सीधे बनारस पहुँचे, किन्तु मन उदार और खिन्न रहते। न हवा खाने जाते, न किसी से मिलते-जुलते। उनकी दशा इस समय उस पक्षी की-सी थी जिसके दोनों पंख कट गये हों, या उस स्त्री की-सी जो किसी दैवी

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ज्ञानशंकर को बनारस आये दो सप्ताह से अधिक बीत चुके थे। संगीत-परिषद् समाप्त हो चुकी थी और अभी सामयिक पत्रों में उस पर वाद-विवाद हो रहा था। यद्यपि अस्वस्थ होने के कारण राय साहब उसमें उत्साह के साथ भाग न

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गायत्री बनारस पहुँच कर ऐसी प्रसन्न हुई जैसे कोई बालू पर तड़पती हुई मछली पानी में जा पहुँचे। ज्ञानशंकर पर राय साहब की धमकियों का ऐसा भय छाया हुआ था कि गायत्री के आने पर वह और भी सशंक हो गये। लेकिन गायत

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रात के आठ बजे थे। ज्ञानशंकर के दीवानखाने में शहर के कई प्रतिष्ठित सज्जन जमा थे। बीच में एक लोहे का हवनकुण्ड रखा हुआ था, उसमें हवन हो रहा था। हवनकुण्ड के एक तरफ गायत्री बैठी थी, दूसरी तरफ ज्ञानशंकर और

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प्रेमाश्रम (भाग-6)

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50. श्रद्धा और गायत्री में दिनों-दिन मेल-जोल बढ़ने लगा। गायत्री को अब ज्ञात हुआ कि श्रद्धा में कितना त्याग, विनय, दया और सतीत्व है। मेल-जोल से उनमें आत्मीयता का विकास हुआ, एक-दूसरी से अपने हृदय की ब

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बाबू ज्ञानशंकर गोरखपुर आये, लेकिन इस तरह जैसे लड़की ससुराल आती है। वह प्रायः शोक और चिन्ता में पड़े रहते। उन्हें गायत्री से सच्चा प्रेम न सही, लेकिन वह प्रेम अवश्य था जो शराबियों को शराब से होता है। उ

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बाबू ज्वालासिंह को बनारस से आये आज दूसरा दिन था। कल तो वह थकावट के मारे दिन भर पड़े रहे, पर प्रातःकाल ही उन्होंने लखनपुरवालों की अपील का प्रश्न छेड़ दिया। प्रेमशंकर ने कहा– मैं तो आप ही की बाट जोह रहा

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ज्यों ही दशहरे की छुट्टियों के बाद हाईकोर्ट खुला, अपील दायर हो गयी और समाचार पत्रों के कालम उसकी कार्यवाही से भरे जाने लगे। समस्या बड़ी जटिल थी। दंड प्राप्तों में उन साक्षियों को फिर पेश किये जाने की

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गायत्री की दशा इस समय उस पथिक की सी थी जो साधु भेषधारी डाकुओं के कौशल जाल में पड़ कर लुट गया हो। वह उस पथिक की भाँति पछताती थी कि मैं कुसमय चली क्यों? मैंने चलती सड़क क्यों छोड़ दी? मैंने भेष बदले हुए

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‘‘लाला प्रभाशंकर ने भविष्य-चिन्ता का पाठ न पढ़ा था। ‘कल’ की चिन्ता उन्हें कभी न सताती थी। उनका समस्त जीवन विलास और कुल मर्यादा की रक्षा में व्यतीत हुआ था। खिलाना, खाना और नाम के लिए मर जाना– यही उनके

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बाल्यावस्था के पश्चात् ऐसा समय आता है जब उद्दण्डता की धुन सिर पर सवार हो जाती है। इसमें युवाकाल की सुनिश्चित इच्छा नहीं होती, उसकी जगह एक विशाल आशावादिता है जो दुर्लभ को सरल और असाध्य को मुँह का कौर स

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इस शोकाघात ने लाला प्रभाशंकर को संज्ञा-विहीन कर दिया। दो सप्ताह बीत चुके थे, पर अभी तक घर से बाहर न निकले थे। दिन-के-दिन चारपाई पर पड़े छत की ओर देखा करते, रातें करवटें बदलने में कट जातीं। उन्हें अपना

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होली का दिन था। शहर में चारों तरफ अबीर और गुलाल उड़ रही थी, फाग और चौताल की धूम थी, लेकिन लाला प्रभाशंकर के घर पर मातम छाया हुआ था। श्रद्धा अपने कमरे में बैठी हुई गायत्री देवी के गहने और कपड़े सहेज रह

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मानव-चरित्र न बिलकुल श्यामल होता है न बिलकुल श्वेत। उसमें दोनों ही रंगों का विचित्र सम्मिश्रण होता है। स्थिति अनुकूल हुई तो वह ऋषितुल्य हो जाता है, प्रतिकूल हुई तो नराधम। वह अपनी परिस्थितियों का खिलौन

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गायत्री के आदेशानुसार ज्ञानशंकर २००० रुपये महीना मायाशंकर के खर्च के लिए देते जाते थे। प्रेमशंकर की इच्छा थी कि कई अध्यापक रखे जायें, सैर करने के लिए गाड़ियाँ रखी जायँ, कई नौकर सेवा-टहल के लिए लगाये ज

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लाला प्रभाशंकर को रुपये मिले तो वह रोये। गाँव तो बच गया, पर उसे कौन बिलसेगा? दयाशंकर का चित्त फिर घर से उचाट हो चला था। साधु-सन्तों के सत्संग के प्रेमी हो गये थे। दिन-दिन वैराग्य में रह होते जाते थे।

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महाशय ज्ञानशंकर का भवन आज किसी कवि-कल्पना की भाँति अलंकृत हो रहा है। आज वह दिन आ गया है जिसके इन्तजार में एक युग बीत गया। प्रभुत्व और ऐश्वर्य का मनोहर स्वप्न पूरा हो गया है। मायाशंकर के तिलकोत्सव का श

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उपसंहार

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दो साल हो गये हैं। सन्ध्या का समय है। बाबू मायाशंकर घोड़े पर सवार लखनपुर में दाखिल हुए। उन्हें वहाँ रौनक और सफाई दिखायी दी। प्रायः सभी द्वारों पर सायबान थे। उनमें बड़े-बड़े तख्ते बिछे हुए थे। अधिकांश

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