होली का दिन था। शहर में चारों तरफ अबीर और गुलाल उड़ रही थी, फाग और चौताल की धूम थी, लेकिन लाला प्रभाशंकर के घर पर मातम छाया हुआ था। श्रद्धा अपने कमरे में बैठी हुई गायत्री देवी के गहने और कपड़े सहेज रही थी कि अबकी ज्ञानशंकर आये तो यह अमानत सौंप दूँ। विद्या के देहान्त और गायत्री के चले जाने के बाद से उसकी तबीयत अकेले बहुत घबराया करती थी। अक्सर दिन के दिन बड़ी बहू के पास बैठी रहती, पर जब से दोनों लड़कों की मृत्यु हुई उसका जी और भी उचटा रहता था। हाँ, कभी-कभी शीलमणि के आ जाने से जरा देर के लिए जी बहल जाता था। गायत्री के मरने की खबर उसकी यहाँ कल ही आयी थी। श्रद्धा उसे याद करके सारी रात रोती रही। इस वक्त भी गायत्री उसकी आँखों में फिर रही थी, उसकी मृदु, सरल, निष्कपट बातें याद आ रही थीं, कितनी उदार, कितनी नम्र, कितनी प्रेममयी रमणी थी। जरा भी अभिमान नहीं, पर हा शोक! कितना भीषण अंत हुआ। इसी शोकावस्था में दोनों लड़कों की ओर ध्यान जा पहुँचा। हा! दोनों कैसे हँसमुख कैसे, होनहार, कैसे सुन्दर बालक थे! जिन्दगी का कोई भरोसा नहीं, आदमी कैसे-कैसे इरादे करता है, कैसे-कैसे मनसूबे बाँधता है, किन्तु यमराज के आगे किसी की नहीं चलती। वह आन की आन में सारे मंसूबों को धूल में मिला देता है। तीन महीने के अन्दर पाँच प्राणी चल दिये। इस तरह एक दिन मैं भी चल बसँगी और मन की मन में रह जायेगी। आठ साल से हम दोनों अपनी-अपनी टेक पर अड़े हैं, न वह झुकते हैं, न मैं दबती हूँ। जब इतने दिनों तक उन्होंने प्रायश्चित नहीं किया तब अब कदापि न करेंगे। उनकी आत्मा अपने पुण्य कार्यों से सन्तुष्ट है, न इसकी जरूरत समझती है न महत्त्व, अब मुझी को दबना पड़ेगा। अब मैं ही किसी विद्वान पंडित से पूछूँ कि मेरे किसी अनुष्ठान से उनका प्रायश्चित हो सकता है या नहीं? क्या मेरी इतने दिनों की तपस्या, गंगा-स्नान, पूजा-पाठ, व्रत और नियम अकारथ हो जायेंगे? माना, उन्होंने विदेश में कितने ही काम अपने धर्म के विरुद्ध किये, लेकिन जब से यहाँ आए हैं तब से तो बराबर सत्कार्य ही कर रहे हैं। दीनों की सेवा और पतितों के उद्धार में दत्तचित्त रहते हैं। अपनी जान की भी परवाह नहीं करते। कोई बड़ा से बड़ा धर्मात्मा भी परोपकार में इतना व्यस्त न रहता होगा। उन्होंने अपने को बिलकुल मिटा दिया है। धर्म के जितने लक्षण ग्रन्थों में लिखे हुए हैं वे उनमें मौजूद हैं। जिस पुरुष ने अपने मन को, अपनी इन्द्रियों को, अपनी वासना को ज्ञान-बल से जीत लिया हो क्या उनके लिए भी प्रायश्चित की जरूरत है? क्या कर्मयोग का मूल्य प्रायश्चित के बराबर नहीं? कोई पुस्तक नहीं मिलती जिसमें इस तपस्या की साफ-साफ व्यवस्था की गई हो। कोई ऐसा विद्वान् नहीं दिखाई देता जो मेरी शंकाओं का समाधान करे। भगवान, मैं क्या करूँ? इन्हीं दुविधाओं में पड़ी एक दिन मर जाऊँगी और उनकी सेवा करने की अभिलाषा मन में ही रह जायेगी। उनके साथ रह कर मेरा जीवन सार्थक हो जाता, नहीं तो इस चहारदीवारी में पड़े जीवन वृथा गँवा रही हूँ।
श्रद्धा इन्हीं विचारों में मग्न थी कि अचानक उसे द्वार पर हलचल-सी सुनायी दी। खिड़की से झाँका तो नीचे सैकड़ों आदमियों की भीड़ दिखायी दी। इतने में महरी ने आकर कहा, बहू जी लखनपुर के जितने आदमी कैद हुए थे वह सब छूट आये हैं और द्वार पर खड़े बाबू जी को आशीर्वाद दे रहे हैं। जरा सुनो, वह बुड्ढा दाढ़ी वाला कह रहा है, अल्लाह! बाबू प्रेमशंकर को कयामत तक सलामत रखे! इनके साथ एक बूढ़ा साधु भी है। सुखदास नाम है। वह बाजार से यहाँ तक रुपये-पैसे लुटाता आया है। जान पड़ता है कोई बड़ा धनी आदमी है।
इतने में मायाशंकर लपका हुआ आया और बोला– बड़ी अम्माँ, लखनपुर के सब आदमी छूट आये हैं। बाजार में उनका जुलूस निकला था। डॉ. इर्फान इली, बाबू ज्वालासिंह, डॉ. प्रियनाथ, चाचा साहब, चाचा दयाशंकर और शहर के और सैकड़ों छोटे-बड़े आदमी जुलूस के साथ थे। लाओ, दीवानखाने की कुंजी दे दो। कमरा खोल कर सबको बैठाऊं।
श्रद्धा ने कुंजी निकाल कर दे दी और सोचने लगी, इन लोगों का क्या सत्कार करूँ कि इतने में जय-जयकार का गगन-व्यापी नाद सुनाई दिया– बाबू प्रेमशंकर की जय। लाला दयाशंकर की जय। लाला प्रभाशंकर की जय!
मायाशंकर फिर दौड़ा हुआ आया और बोला– बड़ी अम्माँ, जरा ढोल-मजीरा निकलवा दो, बाबा सुखदास भजन गायेंगे। वह देखो, वह दाढ़ीवाला बुड्ढा, वही कादिर खाँ है। वह जो लम्बा-तगड़ा आदमी है, वही बलराज है। इसी के बाप ने गौस खाँ को मारा था।
श्रद्धा का चेहरा आत्मोल्लास से चमक रहा था। हृदय ऐसा पुलकित हो रहा था मानो द्वार पर बारात आयी हो। मन में भाँति-भाँति की उमंगें उठ रही थीं। इन लोगों को आज यहीं ठहरा लूँ, सबकी दावत करूँ, खूब धूमधाम से सत्यनारायण की कथा हो। प्रेमशंकर के प्रति श्रद्धा का ऐसा प्रबल आवेग हो रहा था कि इसी दम जा कर उनके चरणों में लिपट जाऊँ। तुरन्त ही ढोल और मजीरे निकाल कर मायाशंकर को दिये।
सुखदास ने ढोल गले में डाला औरों ने मजीरे लिये, मंडल बाँधकर खड़े हो गये और यह भजन गाने लगे–
‘सतगुरु ने मोरी गह लई बाँह नहीं रे मैं तो जात बहा।’
माया खुशी के मारे फूला न समाता था। आकर बोला– कादिर मियाँ खूब गाते हैं।
श्रद्धा– इन लोगों की कुछ आव-भगत करनी चाहिए।
माया– मेरा तो जी चाहता है कि सब की दावत हो। तुम अपनी तरफ से कहला दो। जो सामान चाहिए वह मुझे लिखवा दो। जाकर आदमियों को लाने के लिए भेज दूँ। यह सब बेचारे इतने सीधे, गरीब हैं कि मुझे तो विश्वास नहीं आता कि इन्होंने गौस खाँ को मारा होगा। बलराज है तो पूरा पहलवान, लेकिन वह भी बहुत ही सीधा मालूम होता है।
श्रद्धा– दावत में बड़ी देर लगेगी। बाजार से चीजें आयेंगी, बनाते-बनाते तीसरा पहर हो जायेगा। इस वक्त एक बीस रुपये की मिठाई मँगाकर जलपान करा दो। रुपये हैं या दूँ?
माया– रुपये बहुत हैं। क्या कहूँ, मुझे पहले यह बात न सूझी।
दोपहर तक भोजन होता रहा। शहर के हजारों आदमी इस आनन्दोत्सव में शरीक थे। प्रेमशंकर ने सबको आदर से बिठाया। इतने में बाजार से मिठाइयाँ आ गयीं, लोगों ने नाश्ता किया और प्रेमशंकर का यश-गान करते हुए विदा हुए, लेकिन लखनपुर वालों को छुट्टी न मिली। श्रद्धा ने कहला भेजा कि खा-पीकर शाम को जाना। यद्यपि सब-के-सब घर पहुँचने के लिए उत्सुक हो रहे थे, पर यह निमन्त्रण कैसे अस्वीकार करते। लाला प्रभाशंकर भोजन बनवाने लगे। अब तक उन्होंने केवल बड़े आदमियों को ही व्यजंन-कला से मुग्ध किया था। आज देहातियों को भी यह सौभाग्य प्राप्त हुआ। लाला ऐसा स्वादयुक्त भोजन देना चाहते थे जो उन्हें तृप्त कर दें, जिसको वह सदैव याद करते रहें। भाँति-भाँति के पकवान बनने लगे। बहुत जल्दी की गयी, फिर भी खाते-खाते आठ बज गये। प्रियनाथ और इर्फानअली ने अपनी सवारियाँ भेज दी थीं। उस पर बैठ कर लोग लखनपुर चले। सब ने मुक्त कंठ से आशीर्वाद दिये। अभी घर वाले बाकी थे। उनके खाने में दस बज गये। प्रेमशंकर हाजीपुर जाने को प्रस्तुत हुए तो महरी ने आकर धीरे से कहा, बहू जी कहती हैं कि आज यहीं सो रहिये रात बहुत हो गयी है। इस असाधारण कृपा-दृष्टि ने प्रेमशंकर को चकित कर दिया। वह इसका मर्म न समझ सके।
ज्वालासिंह ने महरी से हँसी की– हम लोग भी रहे या चले जायँ?
महरी सतर्क थी। बोली– नहीं सरकार, आप भी रहे, माया भैया भी रहें, यहाँ किस चीज की कमी है?
ज्वाला– चल, बातें बनाती है!
महरी चली गयी तो वह प्रेमशंकर से बोले– आज मालूम होता है आपके नक्षत्र बलवान हैं। अभी और विजय प्राप्त होने वाली है।
प्रेमशंकर ने विरक्त भाव से कहा– कोई नया उपदेश सुनना पड़ेगा और क्या?
ज्वाला– जी नहीं, मेरा मन कहता है कि आज देवी आपको वरदान देगी। आपकी तपस्या पूरी हो गयी।
प्रेम– मेरी देवी इतनी भक्तवत्सला नहीं है।
ज्वाला– अच्छा, कल आप ही ज्ञात हो जायेगा। हमें आज्ञा दीजिये।
प्रेम– क्यों, यहीं न सो रहिये।
ज्वाला– मेरी देवी और भी जल्द रूठती है।
यह कह कर वह मायाशंकर के साथ चले गये।
महरी ने प्रेमशंकर के लिए पलँग बिछा दिया था। वह लेटे तो अनिवार्यतः मन में जिज्ञासा होने लगी कि श्रद्धा आज क्यों मुझ पर इतनी सदय हुई है। कहीं यह महरी का कौशल तो नहीं है। नहीं, महरी ऐसी हँसोड़ तो नहीं जान पड़ती। कहीं वास्तव में उसने दिल्लगी की तो व्यर्थ लज्जित होना पड़े। श्रद्धा न जाने अपने मन में क्या सोचे। अन्त में इन शंकाओं को शांत करने के लिए उन्होंने ज्ञानशंकर की आलमारी में से एक पुस्तक निकाली और उसे पढ़ने लगे।
ज्वालासिंह की भविष्यवाणी सत्य निकली। आज वास्तव में उनकी तपस्या पूरी हो गयी थी। उनकी सुकीर्ति ने श्रद्धा को वशीभूत कर लिया था। आज जब से उसने सैकड़ों आदमियों को द्वार पर खड़े प्रेमशंकर की जय-जयकार करते देखा था तभी से उसके मन में यह समस्या उठ रही थी– क्या इतने अन्तःकरण से निकली हुई शुभेच्छाओं का महत्त्व प्रायश्चित से कम है? कदापि नहीं। परोपकार की महिमा प्रायश्चित से किसी तरह कम नहीं हो सकती, बल्कि सच्चा प्रायश्चित तो परोपकार ही है। इतनी आशीषें किसी महान् पापी का भी उद्धार कर सकती हैं। कोरे प्रायश्चित का इनके सामने क्या महत्त्व हो सकता है? और इन आशीषों का आज ही थोड़े ही अन्त हो गया। जब यह सब घर पहुँचेंगे तो इनके घरवाले और भी आशीष देंगे। जब तक दम-में-दम रहेगा, उनके हृदय से नित्य यह सादिच्छाएँ निकलती रहेंगी। ऐसे यशस्वी, ऐसे श्रद्वेय को प्रायश्चित की कोई जरूरत नहीं। इस सुधा-वृष्टि ने उसे पवित्र कर दिया है।
ग्यारह बजे थे। श्रद्धा ऊपर से उतरी और सकुचाती हुई आकर दीवानखाने के द्वार पर खड़ी हो गयी। लैम्प जल रहा था, प्रेमशंकर किताब देख रहे थे। श्रद्धा को उनके मुखमंडल पर आत्मगौरव की एक दिव्य ज्योति झलकती हुई दिखायी दी। उसका हृदय बाँसों उछल रहा था और आंखें आनन्द के अश्रु-बिन्दुओं से भरी हुई थीं। आज चौदह वर्ष के बाद उसे अपने प्राणपति की सेवा का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। अब विरहिणी श्रद्धा न थी जिसकी सारी आकांक्षाएँ मिट चुकीं हो। इस समय उसका हृदय अभिलाषाओं से आन्दोलित हो रहा था, किन्तु उसके नेत्रों में तृष्णा न थी, उसके अधरों पर मृदु मुस्कान न थी। वह इस तरह नहीं आयी थी जैसे कोई नववधु अपने पति के पास आती है, वह इस तरह आई थी जैसे कोई उपासिका अपने इष्टदेव के सामने आती है, श्रद्धा और अनुराग में डूबी हुई।
वह क्षण भर द्वार पर खड़ी रही। तब जाकर प्रेमशंकर के चरणों में गिर पड़ी।