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11 फरवरी 2022

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होली का दिन था। शहर में चारों तरफ अबीर और गुलाल उड़ रही थी, फाग और चौताल की धूम थी, लेकिन लाला प्रभाशंकर के घर पर मातम छाया हुआ था। श्रद्धा अपने कमरे में बैठी हुई गायत्री देवी के गहने और कपड़े सहेज रही थी कि अबकी ज्ञानशंकर आये तो यह अमानत सौंप दूँ। विद्या के देहान्त और गायत्री के चले जाने के बाद से उसकी तबीयत अकेले बहुत घबराया करती थी। अक्सर दिन के दिन बड़ी बहू के पास बैठी रहती, पर जब से दोनों लड़कों की मृत्यु हुई उसका जी और भी उचटा रहता था। हाँ, कभी-कभी शीलमणि के आ जाने से जरा देर के लिए जी बहल जाता था। गायत्री के मरने की खबर उसकी यहाँ कल ही आयी थी। श्रद्धा उसे याद करके सारी रात रोती रही। इस वक्त भी गायत्री उसकी आँखों में फिर रही थी, उसकी मृदु, सरल, निष्कपट बातें याद आ रही थीं, कितनी उदार, कितनी नम्र, कितनी प्रेममयी रमणी थी। जरा भी अभिमान नहीं, पर हा शोक! कितना भीषण अंत हुआ। इसी शोकावस्था में दोनों लड़कों की ओर ध्यान जा पहुँचा। हा! दोनों कैसे हँसमुख कैसे, होनहार, कैसे सुन्दर बालक थे! जिन्दगी का कोई भरोसा नहीं, आदमी कैसे-कैसे इरादे करता है, कैसे-कैसे मनसूबे बाँधता है, किन्तु यमराज के आगे किसी की नहीं चलती। वह आन की आन में सारे मंसूबों को धूल में मिला देता है। तीन महीने के अन्दर पाँच प्राणी चल दिये। इस तरह एक दिन मैं भी चल बसँगी और मन की मन में रह जायेगी। आठ साल से हम दोनों अपनी-अपनी टेक पर अड़े हैं, न वह झुकते हैं, न मैं दबती हूँ। जब इतने दिनों तक उन्होंने प्रायश्चित नहीं किया तब अब कदापि न करेंगे। उनकी आत्मा अपने पुण्य कार्यों से सन्तुष्ट है, न इसकी जरूरत समझती है न महत्त्व, अब मुझी को दबना पड़ेगा। अब मैं ही किसी विद्वान पंडित से पूछूँ कि मेरे किसी अनुष्ठान से उनका प्रायश्चित हो सकता है या नहीं? क्या मेरी इतने दिनों की तपस्या, गंगा-स्नान, पूजा-पाठ, व्रत और नियम अकारथ हो जायेंगे? माना, उन्होंने विदेश में कितने ही काम अपने धर्म के विरुद्ध किये, लेकिन जब से यहाँ आए हैं तब से तो बराबर सत्कार्य ही कर रहे हैं। दीनों की सेवा और पतितों के उद्धार में दत्तचित्त रहते हैं। अपनी जान की भी परवाह नहीं करते। कोई बड़ा से बड़ा धर्मात्मा भी परोपकार में इतना व्यस्त न रहता होगा। उन्होंने अपने को बिलकुल मिटा दिया है। धर्म के जितने लक्षण ग्रन्थों में लिखे हुए हैं वे उनमें मौजूद हैं। जिस पुरुष ने अपने मन को, अपनी इन्द्रियों को, अपनी वासना को ज्ञान-बल से जीत लिया हो क्या उनके लिए भी प्रायश्चित की जरूरत है? क्या कर्मयोग का मूल्य प्रायश्चित के बराबर नहीं? कोई पुस्तक नहीं मिलती जिसमें इस तपस्या की साफ-साफ व्यवस्था की गई हो। कोई ऐसा विद्वान् नहीं दिखाई देता जो मेरी शंकाओं का समाधान करे। भगवान, मैं क्या करूँ? इन्हीं दुविधाओं में पड़ी एक दिन मर जाऊँगी और उनकी सेवा करने की अभिलाषा मन में ही रह जायेगी। उनके साथ रह कर मेरा जीवन सार्थक हो जाता, नहीं तो इस चहारदीवारी में पड़े जीवन वृथा गँवा रही हूँ।
श्रद्धा इन्हीं विचारों में मग्न थी कि अचानक उसे द्वार पर हलचल-सी सुनायी दी। खिड़की से झाँका तो नीचे सैकड़ों आदमियों की भीड़ दिखायी दी। इतने में महरी ने आकर कहा, बहू जी लखनपुर के जितने आदमी कैद हुए थे वह सब छूट आये हैं और द्वार पर खड़े बाबू जी को आशीर्वाद दे रहे हैं। जरा सुनो, वह बुड्ढा दाढ़ी वाला कह रहा है, अल्लाह! बाबू प्रेमशंकर को कयामत तक सलामत रखे! इनके साथ एक बूढ़ा साधु भी है। सुखदास नाम है। वह बाजार से यहाँ तक रुपये-पैसे लुटाता आया है। जान पड़ता है कोई बड़ा धनी आदमी है।
इतने में मायाशंकर लपका हुआ आया और बोला– बड़ी अम्माँ, लखनपुर के सब आदमी छूट आये हैं। बाजार में उनका जुलूस निकला था। डॉ. इर्फान इली, बाबू ज्वालासिंह, डॉ. प्रियनाथ, चाचा साहब, चाचा दयाशंकर और शहर के और सैकड़ों छोटे-बड़े आदमी जुलूस के साथ थे। लाओ, दीवानखाने की कुंजी दे दो। कमरा खोल कर सबको बैठाऊं।
श्रद्धा ने कुंजी निकाल कर दे दी और सोचने लगी, इन लोगों का क्या सत्कार करूँ कि इतने में जय-जयकार का गगन-व्यापी नाद सुनाई दिया– बाबू प्रेमशंकर की जय। लाला दयाशंकर की जय। लाला प्रभाशंकर की जय!
मायाशंकर फिर दौड़ा हुआ आया और बोला– बड़ी अम्माँ, जरा ढोल-मजीरा निकलवा दो, बाबा सुखदास भजन गायेंगे। वह देखो, वह दाढ़ीवाला बुड्ढा, वही कादिर खाँ है। वह जो लम्बा-तगड़ा आदमी है, वही बलराज है। इसी के बाप ने गौस खाँ को मारा था।
श्रद्धा का चेहरा आत्मोल्लास से चमक रहा था। हृदय ऐसा पुलकित हो रहा था मानो द्वार पर बारात आयी हो। मन में भाँति-भाँति की उमंगें उठ रही थीं। इन लोगों को आज यहीं ठहरा लूँ, सबकी दावत करूँ, खूब धूमधाम से सत्यनारायण की कथा हो। प्रेमशंकर के प्रति श्रद्धा का ऐसा प्रबल आवेग हो रहा था कि इसी दम जा कर उनके चरणों में लिपट जाऊँ। तुरन्त ही ढोल और मजीरे निकाल कर मायाशंकर को दिये।
सुखदास ने ढोल गले में डाला औरों ने मजीरे लिये, मंडल बाँधकर खड़े हो गये और यह भजन गाने लगे–
‘सतगुरु ने मोरी गह लई बाँह नहीं रे मैं तो जात बहा।’
माया खुशी के मारे फूला न समाता था। आकर बोला– कादिर मियाँ खूब गाते हैं।
श्रद्धा– इन लोगों की कुछ आव-भगत करनी चाहिए।
माया– मेरा तो जी चाहता है कि सब की दावत हो। तुम अपनी तरफ से कहला दो। जो सामान चाहिए वह मुझे लिखवा दो। जाकर आदमियों को लाने के लिए भेज दूँ। यह सब बेचारे इतने सीधे, गरीब हैं कि मुझे तो विश्वास नहीं आता कि इन्होंने गौस खाँ को मारा होगा। बलराज है तो पूरा पहलवान, लेकिन वह भी बहुत ही सीधा मालूम होता है।
श्रद्धा– दावत में बड़ी देर लगेगी। बाजार से चीजें आयेंगी, बनाते-बनाते तीसरा पहर हो जायेगा। इस वक्त एक बीस रुपये की मिठाई मँगाकर जलपान करा दो। रुपये हैं या दूँ?
माया– रुपये बहुत हैं। क्या कहूँ, मुझे पहले यह बात न सूझी।
दोपहर तक भोजन होता रहा। शहर के हजारों आदमी इस आनन्दोत्सव में शरीक थे। प्रेमशंकर ने सबको आदर से बिठाया। इतने में बाजार से मिठाइयाँ आ गयीं, लोगों ने नाश्ता किया और प्रेमशंकर का यश-गान करते हुए विदा हुए, लेकिन लखनपुर वालों को छुट्टी न मिली। श्रद्धा ने कहला भेजा कि खा-पीकर शाम को जाना। यद्यपि सब-के-सब घर पहुँचने के लिए उत्सुक हो रहे थे, पर यह निमन्त्रण कैसे अस्वीकार करते। लाला प्रभाशंकर भोजन बनवाने लगे। अब तक उन्होंने केवल बड़े आदमियों को ही व्यजंन-कला से मुग्ध किया था। आज देहातियों को भी यह सौभाग्य प्राप्त हुआ। लाला ऐसा स्वादयुक्त भोजन देना चाहते थे जो उन्हें तृप्त कर दें, जिसको वह सदैव याद करते रहें। भाँति-भाँति के पकवान बनने लगे। बहुत जल्दी की गयी, फिर भी खाते-खाते आठ बज गये। प्रियनाथ और इर्फानअली ने अपनी सवारियाँ भेज दी थीं। उस पर बैठ कर लोग लखनपुर चले। सब ने मुक्त कंठ से आशीर्वाद दिये। अभी घर वाले बाकी थे। उनके खाने में दस बज गये। प्रेमशंकर हाजीपुर जाने को प्रस्तुत हुए तो महरी ने आकर धीरे से कहा, बहू जी कहती हैं कि आज यहीं सो रहिये रात बहुत हो गयी है। इस असाधारण कृपा-दृष्टि ने प्रेमशंकर को चकित कर दिया। वह इसका मर्म न समझ सके।
ज्वालासिंह ने महरी से हँसी की– हम लोग भी रहे या चले जायँ?
महरी सतर्क थी। बोली– नहीं सरकार, आप भी रहे, माया भैया भी रहें, यहाँ किस चीज की कमी है?
ज्वाला– चल, बातें बनाती है!
महरी चली गयी तो वह प्रेमशंकर से बोले– आज मालूम होता है आपके नक्षत्र बलवान हैं। अभी और विजय प्राप्त होने वाली है।
प्रेमशंकर ने विरक्त भाव से कहा– कोई नया उपदेश सुनना पड़ेगा और क्या?
ज्वाला– जी नहीं, मेरा मन कहता है कि आज देवी आपको वरदान देगी। आपकी तपस्या पूरी हो गयी।
प्रेम– मेरी देवी इतनी भक्तवत्सला नहीं है।
ज्वाला– अच्छा, कल आप ही ज्ञात हो जायेगा। हमें आज्ञा दीजिये।
प्रेम– क्यों, यहीं न सो रहिये।
ज्वाला– मेरी देवी और भी जल्द रूठती है।
यह कह कर वह मायाशंकर के साथ चले गये।
महरी ने प्रेमशंकर के लिए पलँग बिछा दिया था। वह लेटे तो अनिवार्यतः मन में जिज्ञासा होने लगी कि श्रद्धा आज क्यों मुझ पर इतनी सदय हुई है। कहीं यह महरी का कौशल तो नहीं है। नहीं, महरी ऐसी हँसोड़ तो नहीं जान पड़ती। कहीं वास्तव में उसने दिल्लगी की तो व्यर्थ लज्जित होना पड़े। श्रद्धा न जाने अपने मन में क्या सोचे। अन्त में इन शंकाओं को शांत करने के लिए उन्होंने ज्ञानशंकर की आलमारी में से एक पुस्तक निकाली और उसे पढ़ने लगे।
ज्वालासिंह की भविष्यवाणी सत्य निकली। आज वास्तव में उनकी तपस्या पूरी हो गयी थी। उनकी सुकीर्ति ने श्रद्धा को वशीभूत कर लिया था। आज जब से उसने सैकड़ों आदमियों को द्वार पर खड़े प्रेमशंकर की जय-जयकार करते देखा था तभी से उसके मन में यह समस्या उठ रही थी– क्या इतने अन्तःकरण से निकली हुई शुभेच्छाओं का महत्त्व प्रायश्चित से कम है? कदापि नहीं। परोपकार की महिमा प्रायश्चित से किसी तरह कम नहीं हो सकती, बल्कि सच्चा प्रायश्चित तो परोपकार ही है। इतनी आशीषें किसी महान् पापी का भी उद्धार कर सकती हैं। कोरे प्रायश्चित का इनके सामने क्या महत्त्व हो सकता है? और इन आशीषों का आज ही थोड़े ही अन्त हो गया। जब यह सब घर पहुँचेंगे तो इनके घरवाले और भी आशीष देंगे। जब तक दम-में-दम रहेगा, उनके हृदय से नित्य यह सादिच्छाएँ निकलती रहेंगी। ऐसे यशस्वी, ऐसे श्रद्वेय को प्रायश्चित की कोई जरूरत नहीं। इस सुधा-वृष्टि ने उसे पवित्र कर दिया है।
ग्यारह बजे थे। श्रद्धा ऊपर से उतरी और सकुचाती हुई आकर दीवानखाने के द्वार पर खड़ी हो गयी। लैम्प जल रहा था, प्रेमशंकर किताब देख रहे थे। श्रद्धा को उनके मुखमंडल पर आत्मगौरव की एक दिव्य ज्योति झलकती हुई दिखायी दी। उसका हृदय बाँसों उछल रहा था और आंखें आनन्द के अश्रु-बिन्दुओं से भरी हुई थीं। आज चौदह वर्ष के बाद उसे अपने प्राणपति की सेवा का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। अब विरहिणी श्रद्धा न थी जिसकी सारी आकांक्षाएँ मिट चुकीं हो। इस समय उसका हृदय अभिलाषाओं से आन्दोलित हो रहा था, किन्तु उसके नेत्रों में तृष्णा न थी, उसके अधरों पर मृदु मुस्कान न थी। वह इस तरह नहीं आयी थी जैसे कोई नववधु अपने पति के पास आती है, वह इस तरह आई थी जैसे कोई उपासिका अपने इष्टदेव के सामने आती है, श्रद्धा और अनुराग में डूबी हुई।
वह क्षण भर द्वार पर खड़ी रही। तब जाकर प्रेमशंकर के चरणों में गिर पड़ी।  
 

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रचनाएँ
प्रेमाश्रम
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प्रेमचंद आधुनिक हिन्दी कहानी के पितामह और उपन्यास सम्राट माने जाते हैं। यू तो उनके साहित्यिक जीवन का आरंभ १९०१ से हो चुका था पर बीस वर्षों की इस अवधि में उनकी कहानियों के अनेक रंग देखने को मिलते हैं। इस उपन्यास में प्रेमचंद व्यापक स्तर पर किसान के उत्पीड़न का चित्र अंकित करते हैं। अनगिनत शोषण और ज्ञानशंकर आततायी किसान को चूसकर सूखा देने के लिए जुट गए हैं। ज्ञानशंकर मानो अन्याय का मूर्तिमान रूप है, किन्तु प्रेमशंकर अपनी गहरी मानवीयता और सदगुणों के कारण असत्य और अधर्म पर पूरी तरह विजयी होते हैं। 'प्रेमाश्रम' भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है। गांधीजी के सत्याग्रह आन्दोलन की इस कथा पर विशिष्ट छाप है। इस उपन्यास में प्रेमचंद व्यापक स्तर पर किसान के उत्पीड़न का चित्र अंकित करते हैं।
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प्रेमाश्रम 1

10 फरवरी 2022
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सन्ध्या हो गई है। दिन भर के थके-माँदे बैल खेत से आ गये हैं। घरों से धुएँ के काले बादल उठने लगे। लखनपुर में आज परगने के हाकिम की परताल थी। गाँव के नेतागण दिनभर उनके घोड़े के पीछे-पीछे दौड़ते रहे थे। इस

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लखनपुर के जमींदारों का मकान काशी में औरंगाबाद के निकट था। मकान के दो खण्ड आमने-सामने बने हुए थे। एक जनाना मकान था, दूसरी मरदानी बैठक। दोनों खण्डों के बीच की जमीन बेल-बूटे से सजी हुई थी, दोनों ओर ऊँची

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मनोहर अक्खड़पन की बातें तो कर बैठा; किन्तु जब क्रोध शान्त हुआ तो मालूम हुआ कि मुझसे बड़ी भूल हुई। गाँव वाले सब-के-सब मेरे दुश्मन हैं। वह इस समय चौपाल में बैठे मेरी निन्दा कर रहे होंगे। कारिंदा न जाने

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तीसरा पहर था। ज्ञानशंकर दीवानखाने में बैठे हुए एक किताब पढ़ रहे थे कि कहार ने आकर कहा, बाबू साहब पूछते हैं, कै बजे हैं? ज्ञानशंकर ने चिढ़कर कहा, जा कह दे, आपको नीचे बुलाते हैं? क्‍या सारे दिन सोते रहे

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एक महीना बीत गया, गौस खाँ ने असामियों की सूची न तैयार की और न ज्ञानशंकर ने ही फिर ताकीद की । गौस खाँ के स्वहित और स्वामिहित में विरोध हो रहा था और ज्ञानशंकर सोच रहे थे कि जब इजाफे से सारे परिवार का ला

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प्रेमाश्रम (भाग-2)

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7. जब तक इलाके का प्रबन्धन लाला प्रभाशंकर के हाथों में था, वह गौस खाँ को अत्याचार से रोकते रहते थे। अब ज्ञानशंकर मालिक और मुख्तार थे। उनकी स्वार्थप्रियता ने खाँ साहब को अपनी अभिलाषाएँ पूर्ण करने का अ

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जिस भाँति सूर्यास्त के पीछे विशेष प्रकार के जीवधारी; जो न पशु हैं न पक्षी, जीविका की खोज में निकल पड़ते हैं, अपनी लंबी श्रेणियों से आकाश मंडल को आच्छादित कर लेते हैं, उसी भाँति कार्तिक का आरम्भ होते ह

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अपनी पारिवारिक सदिच्छा का ऐसा उत्तम प्रमाण देने के बाद ज्ञानशंकर को बँटवारे के विषय में अब कोई असुविधा न रही, लाला प्रभाशंकर ने उन्हीं की इच्छानुसार करने का निश्चय कर लिया। दीवानखाना उनके लिए खाली कर

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 राय कमलानन्द बहादूर लखनऊ के एक बड़े रईस और तालुकेदार थे। वार्षिक आय एक लाख के लगभग थी। अमीनाबाद में उनका विशाल भवन था। शहर में उनकी और भी कई कोठियाँ थीं, पर वह अधिकांश नैनीताल या मसूरी में रहा करते थ

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आँधी का पहला वेग जब शान्त हो जाता है, तब वायु के प्रचण्ड झोंके, बिजली की चमक और कड़क बन्द हो जाती है और मूसलाधार वर्षा होने लगती है। गायत्री के चित्त की शान्ति भी द्रवीभूत हो गई थी। हृदय में रुधिर की

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गायत्री के जाने के बाद ज्ञानशंकर को भी वहाँ रहना दूभर हो गया। सौभाग्य उन्हें हवा के घोड़े पर बैठाये ऋद्धि और सिद्धि के स्वर्ग में लिए जाता था, किन्तु एक ही ठोकर में वह चमकते हुए नक्षत्र अदृश्य हो गये;

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यद्यपि गाँव वालों ने गौस खाँ पर जरा भी आँच न आने दी थी, लेकिन ज्वालासिंह का उनके बर्ताव के विषय में पूछ-ताछ करना उनके शान्ति-हरण के लिए काफी था। चपरासी, नाजिर मुंशी सभी चकित हो रहे थे कि इस अक्खड़ लौं

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राय साहब को नैनीताल आये हुए एक महीना हो गया। ‘‘एक सुरम्य झील के किनारे हरे-भरे वृक्षों के कुन्ज में उनका बँगला स्थित है, जिसका एक हजार रुपया मासिक किराया देना पड़ता है। कई घोड़े हैं, कई मोटर गाड़ियाँ,

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प्रातः काल था। ज्ञानशंकर स्टेशन पर गाड़ी का इन्तजार कर रहे थे। अभी गाड़ी के आने में आध घण्टे की देर थी। एक अँग्रेजी पत्र लेकर पढ़ना चाहा पर उसमें जी न लगा। दवाओं के विज्ञापन अधिक मनोरंजक थे। दस मिनट म

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प्रेमाश्रम (भाग-3)

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16. प्रेमशंकर यहाँ दो सप्ताह ऐसे रहे, जैसे कोई जल्द छूटने वाला कैदी। जरा भी जी न लगता था। श्रद्धा की धार्मिकता से उन्हें जो आघात पहुँचा था उसकी पीड़ा एक क्षण के लिए भी शान्त न होती थी। बार-बार इरादा

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गायत्री उन महिलाओं में थी जिनके चरित्र में रमणीयता और लालित्य के साथ पुरुषों का साहस और धैर्य भी मिला होता है। यदि वह कंघी और आईने पर जान देती थी तो कच्ची सड़कों के गर्द और धूल से भी न भागती थी। प्यान

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ज्ञानशंकर को गायत्री का पत्र मिला तो फूले न समाये। हृदय में भाँति-भाँति की मनोहर सुखद कल्पनाएँ तरंगे मारने लगीं। सौभाग्य देवी जीवन-संकल्प की भेंट लिये उनका स्वागत करने को तैयार खड़ी थी। उनका मधुर स्वप

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ज्ञानशंकर लगभग दो बरस से लखनपुर पर इजाफा लगान करने का इरादा कर रहे थे, किन्तु हमेशा उनके सामने एक-न-एक बाधा आ खड़ी होती थी। कुछ दिन तो अपने चचा से अलग होने में लगे। जब उधर से बेफिक्र हुए तो लखनऊ जाना

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प्रभात का समय था। चैत का सुखद पवन प्रवाहित हो रहा था। बाबू ज्वालासिंह बरामदे में आरामकुर्सी पर लेटे हुए घोड़े का इन्तजार कर रहे थे। उन्हें आज मौका देखने के लिए लखनपुर जाना था, किन्तु मार्ग में एक बड़ी

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एक पखवारा बीत गया। सन्ध्या समय था। शहर में बर्फ की दूकानों पर जमघट होने लगा था। हुक्के और सिगरेट से लोगों को अरुचि होती जाती थी। ज्वालासिंह लखनपुर से मौके की जाँच करके लौटे थे और कुर्सी पर बैठे ठंडा श

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ज्ञानशंकर को अपील के सफल होने का पूरा विश्वास था। उन्हें मालूम था कि किसानों में धनाभाव के कारण अब बिल्कुल दम नहीं है। लेकिन जब उन्होंने देखा, काश्तकारों की ओर से भी मुकदमें की पैरवी उत्तम रीति से की

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अपील खारिज होने के बाद ज्ञानशंकर ने गोरखपुर की तैयारी की। सोचा, इस तरह तो लखनपुर से आजीवन गला न छूटेगा, एक-न-एक उपद्रव मचा ही रहेगा। कहीं गोरखपुर में रंग जम गया तो दो-तीन बरसों में ऐसे कई लखनपुर हाथ आ

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आय में वृद्धि और व्यय में कमी, यह ज्ञानशंकर के सुप्रबन्ध का फल था। यद्यपि गायत्री भी सदैव किफायत कर निगाह रखती थी, पर उनकी किफायत अशर्फियों की लूट और कोयलों पर मोहर को चरितार्थ करती थी। ज्ञानशंकर ने स

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जिस समय ज्ञानशंकर की अपील खारिज हुई, लखनपुर के लोगों पर विपत्ति की घटा छायी हुई थी। कितने ही घर प्लेग से उजड़ गये। कई घरों में आग लग गयी। कई चोरियाँ हुईं। उन पर दैविक घटना अलग हुई, कभी आँधी आती कभी पा

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पहला अंक

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राजा– हाय! हाय! बैद्यों ने जबाव दिया, हकीमों ने जवाब दिया, डाकदरों ने जवाब दिया, किसी ने रोग को न पहचाना। सब-के-सब लुटेरे थे। अब जिन्दगानी की कोई आशा नहीं। यह सारा राज-पाट छूटता है। मेरे पीछे परजा पर

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दूसरा अंक

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(राजा एक साधारण नागिरक के रूप में आप-ही-आप) समय कम है, ऐसे तीन सज्जनों के पास चलना चाहिए जो मेरे भक्त थे। पहले सेठ के पास चलूँ। वह परोपकार के प्रत्येक काम में मेरी सहायता करता था। मैंने उसकी कितनी बा

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प्रेमाश्रम (भाग-4)

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26. प्रभात का समय था और कुआर का महीना। वर्षा समाप्त हो चुकी थी। देहातों में जिधर निकल जाइए, सड़े हुए सन की सुगन्ध उड़ती थी। कभी ज्येष्ठ को लज्जित करने वाली धूप होती थी, कभी सावन को सरमाने वाले बादल घ

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प्रेमशंकर की कृषिशाला अब नगर के रमणीय स्थानों की गणना में थी। यहाँ ऐसी सफाई और सजावट थी। कि प्रातः रसिकगण सैर करने आया करते। यद्यपि प्रेमशंकर केवल उसके प्रबन्धकर्ता थे, पर वस्तुतः असामियों की भक्ति और

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श्रद्घा की बातों से पहले तो ज्ञानशंकर को शंका हुई, लेकिन विचार करने पर यह शंका निवृत्त हो गयी, क्योंकि इस मामले में प्रेमशंकर का अभियुक्त हो जाना अवश्यम्भावी था। ऐसी अवस्था में श्रद्धा के निर्बल क्रोध

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इस मुकदमें ने सारे शहर मे हलचल मचा दी। जहाँ देखिए, यह चर्चा थी सभी लोग प्रेमशंकर के आत्म-बलिदान की प्रंशसा सौ-सौ मुँह से कर रहे थे। यद्यपि प्रेमशंकर ने स्पष्ट कह दिया था कि मेरे लिए किसी वकील की जरूर

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रात के १० बजे थे। ज्वालासिंह तो भोजन करके प्रभाशंकर के दीवानखाने में ही लेटे, लेकिन प्रेमशंकर को मच्छरों ने इतना तंग किया कि नींद न आयी। कुछ देर तक तो वह पंखा झलते रहे, अन्त को जब भीतर न रहा गया तो व्

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डाक्टर इर्फान अली की बातों से प्रभाशंकर को बड़ी तसकीन हुई। मेहनताने के सम्बन्ध में उनसे कुछ रिआयत चाहते थे, लेकिन संकोचवश कुछ न कह सकते थे। इतने में हमारे पूर्व-परिचित सैयद ईजाद हुसैन ने कमरे में प्रव

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जब मुकदमा सेशन सुपुर्द हो गया और ज्ञानशंकर को विश्वास हो गया कि अब अभियुक्तों का बचना कठिन है तब उन्होंने गौस खाँ की जगह पर फैजुल्लाह को नियुक्त किया और खुद गोरखपुर चले आए। यहाँ से गायत्री की कई चिट्ठ

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सेशन जज के इजलास में एक महीने से मुकदमा चल रहा है। अभियुक्त ने फिर सफाई दी। आज मनोहर का बयान था। इजलास में एक मेला सा लगा हुआ था। मनोहर ने बड़ी निर्भीक दृढ़ता के साथ सारी घटना आदि से अन्त तक बयान की औ

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फैजुल्लाह खाँ का गौस खाँ के पद पर नियुक्त होना गाँव के दुखियारों के घाव पर नमक छिड़कना था। पहले ही दिन से खींच-तान होने लगी और फैजू ने विरोधाग्नि को शान्त करने की जरूरत न समझी। अब वह मुसल्लम गाँव के स

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प्रातःकाल ज्योंही मनोहर की आत्महत्या का समाचार विदित हुआ, जेल में हाहाकार मच गया। जेल के दारोगा, अमले, सिपाही, पहरेदार-सब के हाथों के तोते उड़ गये। जरा देर में पुलिस को खबर मिली, तुरन्त छोटे-बड़े अधिक

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डा० इर्फान अली बैठे सोच रहे थे कि मनोहर की आत्महत्या का शेष अभियुक्तों पर क्या असर पड़ेगा? कानूनी ग्रन्थों का ढेर सामने रखा हुआ था। बीच में विचार करने लगते थे; मैंने यह मुकदमा नाहक लिया। रोज १०० रुपये

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सैयद ईजाद हुसेन का घर दारानगर की एक गली में था। बरामदे में दस-बारह वस्त्रविहीन बालक एक फटे हुए बोरिये पर बैठे करीमा और खालिकबारी की रट लगया करते थे। कभी-कभी जब वे उमंग में आ कर उच्च स्वर से अपने पाठ य

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महाशय ज्ञानशंकर का धर्मानुराग इतना बढ़ा कि सांसारिक बातों से उन्हें अरुचि सी होने लगी, दुनिया से जी उचाट हो गया। वह अब भी रियासत का प्रबन्ध उतने ही परिश्रम और उत्साह से करते थे, लेकिन अब सख्ती की जगह

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जलसा बड़ी सुन्दरता से समाप्त हुआ रानी गायत्री के व्याख्यान पर समस्त देश में वाह-वाह मच गयी। उसमें सनातन-धर्म संस्था का ऐतिहासिक दिग्दर्शन कराने के बाद उसकी उन्नति और पतन, उसके उद्धार और सुधार उसकी विर

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प्रेमाश्रम (भाग-5)

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41. राय कमलानन्द को देखे हुए हमें लगभग सात वर्ष हो गये, पर इस कालक्षेप का उनपर कोई चिन्ह नहीं दिखाई देता। बाल-पौरुष, रंग-ढंग सब कुछ वही है। यथापूर्व उनका समय सैर और शिकार पोलो और टेनिस, राग और रंग मे

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दो दिन हो गये और ज्ञानशंकर ने राय साहब से मुलाकात न की। रायसाहब उन निर्दय पुरुषों में न थे जो घाव लगाकर उस पर नमक छिड़कते हैं। वह जब किसी पर नाराज होते तो यह मानी हुई बात थी कि उसका नक्षत्र बलवान है,

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सन्ध्या का समय था। बनारस के सेशन जज के इजलास में हजारों आदमी जमा थे। लखनपुर के मामले से जनता को अब एक विशेष अनुराग हो गया था। मनोहर की आत्महत्या ने उसकी चर्चा सारे शहर में फैला दी थी। प्रत्येक पेशी के

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डाक्टर इर्फान अली उस घटना के बाद हवा खाने न जा सके, सीधे घर की ओर चले। रास्ते भर उन्हें संशय हो रहा था कि कहीं उन उपद्रवियों से फिर मुठभेड़ न हो जाये नहीं तो अबकी जान के लाले पड़े जायेंगे। आज बड़ी खैर

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कई महीने बीत चुके, लेकिन प्रेमशंकर अपील दायर करने का निश्चय न कर सके। जिस काम में उन्हें किसी दूसरे से मदद मिलने की आशा न होती थी, उसे वह बड़ी तत्परता के साथ करते थे, लेकिन जब कोई उन्हें सहारा देने के

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ज्ञानशंकर लखनऊ से सीधे बनारस पहुँचे, किन्तु मन उदार और खिन्न रहते। न हवा खाने जाते, न किसी से मिलते-जुलते। उनकी दशा इस समय उस पक्षी की-सी थी जिसके दोनों पंख कट गये हों, या उस स्त्री की-सी जो किसी दैवी

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ज्ञानशंकर को बनारस आये दो सप्ताह से अधिक बीत चुके थे। संगीत-परिषद् समाप्त हो चुकी थी और अभी सामयिक पत्रों में उस पर वाद-विवाद हो रहा था। यद्यपि अस्वस्थ होने के कारण राय साहब उसमें उत्साह के साथ भाग न

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गायत्री बनारस पहुँच कर ऐसी प्रसन्न हुई जैसे कोई बालू पर तड़पती हुई मछली पानी में जा पहुँचे। ज्ञानशंकर पर राय साहब की धमकियों का ऐसा भय छाया हुआ था कि गायत्री के आने पर वह और भी सशंक हो गये। लेकिन गायत

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रात के आठ बजे थे। ज्ञानशंकर के दीवानखाने में शहर के कई प्रतिष्ठित सज्जन जमा थे। बीच में एक लोहे का हवनकुण्ड रखा हुआ था, उसमें हवन हो रहा था। हवनकुण्ड के एक तरफ गायत्री बैठी थी, दूसरी तरफ ज्ञानशंकर और

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प्रेमाश्रम (भाग-6)

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50. श्रद्धा और गायत्री में दिनों-दिन मेल-जोल बढ़ने लगा। गायत्री को अब ज्ञात हुआ कि श्रद्धा में कितना त्याग, विनय, दया और सतीत्व है। मेल-जोल से उनमें आत्मीयता का विकास हुआ, एक-दूसरी से अपने हृदय की ब

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बाबू ज्ञानशंकर गोरखपुर आये, लेकिन इस तरह जैसे लड़की ससुराल आती है। वह प्रायः शोक और चिन्ता में पड़े रहते। उन्हें गायत्री से सच्चा प्रेम न सही, लेकिन वह प्रेम अवश्य था जो शराबियों को शराब से होता है। उ

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बाबू ज्वालासिंह को बनारस से आये आज दूसरा दिन था। कल तो वह थकावट के मारे दिन भर पड़े रहे, पर प्रातःकाल ही उन्होंने लखनपुरवालों की अपील का प्रश्न छेड़ दिया। प्रेमशंकर ने कहा– मैं तो आप ही की बाट जोह रहा

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ज्यों ही दशहरे की छुट्टियों के बाद हाईकोर्ट खुला, अपील दायर हो गयी और समाचार पत्रों के कालम उसकी कार्यवाही से भरे जाने लगे। समस्या बड़ी जटिल थी। दंड प्राप्तों में उन साक्षियों को फिर पेश किये जाने की

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गायत्री की दशा इस समय उस पथिक की सी थी जो साधु भेषधारी डाकुओं के कौशल जाल में पड़ कर लुट गया हो। वह उस पथिक की भाँति पछताती थी कि मैं कुसमय चली क्यों? मैंने चलती सड़क क्यों छोड़ दी? मैंने भेष बदले हुए

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‘‘लाला प्रभाशंकर ने भविष्य-चिन्ता का पाठ न पढ़ा था। ‘कल’ की चिन्ता उन्हें कभी न सताती थी। उनका समस्त जीवन विलास और कुल मर्यादा की रक्षा में व्यतीत हुआ था। खिलाना, खाना और नाम के लिए मर जाना– यही उनके

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बाल्यावस्था के पश्चात् ऐसा समय आता है जब उद्दण्डता की धुन सिर पर सवार हो जाती है। इसमें युवाकाल की सुनिश्चित इच्छा नहीं होती, उसकी जगह एक विशाल आशावादिता है जो दुर्लभ को सरल और असाध्य को मुँह का कौर स

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इस शोकाघात ने लाला प्रभाशंकर को संज्ञा-विहीन कर दिया। दो सप्ताह बीत चुके थे, पर अभी तक घर से बाहर न निकले थे। दिन-के-दिन चारपाई पर पड़े छत की ओर देखा करते, रातें करवटें बदलने में कट जातीं। उन्हें अपना

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होली का दिन था। शहर में चारों तरफ अबीर और गुलाल उड़ रही थी, फाग और चौताल की धूम थी, लेकिन लाला प्रभाशंकर के घर पर मातम छाया हुआ था। श्रद्धा अपने कमरे में बैठी हुई गायत्री देवी के गहने और कपड़े सहेज रह

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मानव-चरित्र न बिलकुल श्यामल होता है न बिलकुल श्वेत। उसमें दोनों ही रंगों का विचित्र सम्मिश्रण होता है। स्थिति अनुकूल हुई तो वह ऋषितुल्य हो जाता है, प्रतिकूल हुई तो नराधम। वह अपनी परिस्थितियों का खिलौन

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गायत्री के आदेशानुसार ज्ञानशंकर २००० रुपये महीना मायाशंकर के खर्च के लिए देते जाते थे। प्रेमशंकर की इच्छा थी कि कई अध्यापक रखे जायें, सैर करने के लिए गाड़ियाँ रखी जायँ, कई नौकर सेवा-टहल के लिए लगाये ज

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लाला प्रभाशंकर को रुपये मिले तो वह रोये। गाँव तो बच गया, पर उसे कौन बिलसेगा? दयाशंकर का चित्त फिर घर से उचाट हो चला था। साधु-सन्तों के सत्संग के प्रेमी हो गये थे। दिन-दिन वैराग्य में रह होते जाते थे।

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महाशय ज्ञानशंकर का भवन आज किसी कवि-कल्पना की भाँति अलंकृत हो रहा है। आज वह दिन आ गया है जिसके इन्तजार में एक युग बीत गया। प्रभुत्व और ऐश्वर्य का मनोहर स्वप्न पूरा हो गया है। मायाशंकर के तिलकोत्सव का श

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उपसंहार

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दो साल हो गये हैं। सन्ध्या का समय है। बाबू मायाशंकर घोड़े पर सवार लखनपुर में दाखिल हुए। उन्हें वहाँ रौनक और सफाई दिखायी दी। प्रायः सभी द्वारों पर सायबान थे। उनमें बड़े-बड़े तख्ते बिछे हुए थे। अधिकांश

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