26.
प्रभात का समय था और कुआर का महीना। वर्षा समाप्त हो चुकी थी। देहातों में जिधर निकल जाइए, सड़े हुए सन की सुगन्ध उड़ती थी। कभी ज्येष्ठ को लज्जित करने वाली धूप होती थी, कभी सावन को सरमाने वाले बादल घिर आते थे। मच्छर और मलेरिया का प्रकोप था, नीम की छाल और गिलोय की बाहर थी। चरावर में दूर तक हरी-हरी घास लहरा रही थी। अभी किसी को उसे काटने का अवकाश न मिलता था। इसी समय बिन्दा महाराज और कर्तारसिंह लाठी कंधे पर रखे एक वृक्ष के नीचे आकर खड़े हो गये। कर्तार ने कहा, इस बुड्ढे को खुचड़ सूझती रहती है। भला बताओ, जो यहाँ मवेसी न चरने पायेंगे तो कहाँ जायेंगे और जो लोग सदा से चराते आये हैं, वे मानेंगे कैसे? एक बेर कोई इसकी मरम्मत कर देता तो यह आदत छूट जाती।
बिन्दा– हमका तो ई मौजा मा तीस बरसें होय गईं। तब से कारिन्दे पर चरावर कोऊँ न रोका। गाँव-भर के मवेशी मजे से चरत रहे।
कर्तार– उन्हें हुक्म देते क्या लगता है! जायगी तो हमारे माथे।
बिन्दा– हमार जी तो अस ऊब गया कि मन करत है छोड़-छाड़ के घर चला जाई। सुनित है मलिक अवैया हैं। बस, एक बेर उनसे भेंट होय जाय और अपने घर के राह लेई।
कर्तार– फ़ैजू दिन भर खाट पर पड़ा रहता है, उससे कुछ नहीं कहते। जब देखो, कर्तार को ही दौड़ाते हैं, मानो कर्तार उनके बाप का गुलाम है। और देखो, पीपल के नीचे जहाँ हम-तुम जल चढ़ाते हैं। वहाँ नमाज पढ़ते हैं; वहीं दतुअन-कुल्ली करते हैं, वहीं नहाते हैं। बताओं, धरम नष्ट भया की रहा? आप तो रोज कुरान पढ़ते हैं और मैं रामायण पढ़ने लगता हूँ तो कैसे डाँट के कहते हैं, क्या शोर मचा रखा है। अबकी असाढ़ में ३०० रु. नजराना मिला; मुझे एक पाई भेंट न हुई।
बिन्दा– हमका तो एक रुपया मिला रहै।
कर्तार– यह भी कोई मिलने में मिलना है! और सब कहीं चपरासियों को रुपये में आठ आने मिलते हैं। यह कुछ न दें तो चार आने तो दें, । लेना-देना दूर रहा उस पर आठों पहर सिर पर सवार। कल तुम कहीं गये थे। मुझसे बोले, कर्तार एक घड़ा पानी तो खींच लो। मैंने तुरन्त जवाब दिया, इसके नौकर नहीं है, फौजदारी करा लो, लाठी चलवा लो, अगर कदम पीछे हटायें तो कहो, लेकिन चिलम भरना, पानी खींचना हमारा काम नहीं है। इस पर आँखें बहुत लाल पीली की। एक दिन पीपल के नीचे दाली मूरतों को देखकर बोले, यह क्या ईंट-पत्थर जमा कर रखे हैं। मैंने तो ठान लिया है कि जहाँ अबकी कोई नजराना लेकर आया और मैंने हाथ पकड़ा कि चार आने इधर रखिए। जरा भी नरम-गरम हुए, मुँह से लाम-काफ निकाली और मैंने गरदन दबायी। फिर जो कुछ होगा देखा जायेगा। फैजू बोले, तो उनसे भी मैं समझूँगा। खूब- पड़े-पड़े रोटी-गोस उड़ा रहे हैं, सब निकाल दूँगा... वह देखो मवेशी इधर आ रहे हैं। बलराज तो नहीं है न?
बिन्दा– होबै करी तो कौनो डर हौ। अबकी अस जर आवा है कि ठठरी होय गवा है।
कर्तार– बड़े कस-बल का पट्ठा है। सुक्खू चौखरी का तालाब जहाँ बन रहा था वहीं एक दिन अखाड़े में उससे मेरी एक पकड़ हो गयी थी। मैं उसे पहले ही झपाटे में नीचे लाया; लेकिन ऐसा तड़प के नीचे से निकला कि झोकों में आ गया। सँभल ही न सका। बदन नहीं, लोहा है।
बिन्दा– निगाह का बड़ा सच्चा जवान है। क्या मजा कि कोऊ बिटिया-महरिया की ओर आँखें उठाके ताके।
कर्तार– वह देखो, फैजू और गौस खाँ भी इधर ही आ रहे हैं। आज कुशल नहीं दीखती।
बिन्दा– यह गायें-भैंसें तो मनोहर के जान पड़ते हैं। बिलासी लीने आवत है।
कर्तार ने उच्च स्वर में कहा, यह कौन मवेशी लिये आता है? यहाँ से निकाल ले जाव, सरकारी हुक्म नहीं है। इतने में बिलासी निकट आ गयी और बिन्दा महाराज की ओर निश्चिंत भाव से देखकर बोली, सुनत हौ महाराज ठाकुर की बात!
कर्तार– सरकारी हुक्म हो गया कि अब कोई जानवर यहाँ न चरने पाये।
बिलासी– कौन-सा सरकारी हुकुम? सरकार की जमीन नहीं है। महाराज, तुम्हें तो यहाँ एक युग बीत गया, कभी किसी ने चराई भी मना किया है?
बिन्दा– उस पुरानी बातन का न गाओ, अब ऐसे हुकुम भवा है। जानवर का और कौनो कैत ले जाव, नाहीं तो वह गौस खाँ आवत है, सभन का पकड़ के कानी हौद पठै दैहैं?
बिलासी– कानी हौद कैसे पठै दैहैं, कोई राहजनी है? हमारे मवेशी सदा से यहाँ चरते आये हैं और सदा यहीं चरेंगे। अच्छा सरकारी हुकुम है, आज कह दिया चरावर के छोड़ दो, कल कहेंगे अपना घर छोड़ो, पेड़ तले जाकर रहो। ऐसा कोई अन्धेर है!
इतने में गौस खाँ और फैजू भी आ पहुँचे। बिलासी के अन्तिम शब्द खाँ साहब के कान में पड़े। डपटकर बोले, अपने जानवरों को फौरन निकाल ले जा, वरना मवेशीखाना भेज दूँगा।
बिलासी– क्यों निकाल ले जाऊँ चरावर सारे गाँव का है। जब सारा गाँव छोड़ देगा तो हम भी छोड़ देंगे।
गौस खाँ– जानवरों को ले जाती है कि खड़ी-खड़ी कानून बघारती है?
बिलासी– तुम तो खाँ साहब, ऐसी घुड़की जमा रहे हो, जैसे मैं तुम्हारा दिया खाती हूँ।’
गौस खाँ– फैजू जबाँदराज औरत यों न मानेगी। घेर लो इसके जानवरों को और मवेशीखाने हाँक ले जाओ।
फैजू तो मवेशियों की तरफ लपका, पर कर्तार और बिन्दा महाराज धर्मसंकट में पड़े खड़े रहे। खाँ साहब ने उन्हे ललकारा- खड़े मुँह क्या देख रहे हो? घेर लो जानवरों को और हाँक ले जाओ। सरकारी हुक्म है या कोई मजाक है।
अब कर्तार और बिन्दा महाराज भी उठे और जानवरों को चारों ओर से घेरने का आयोजन करने लगे। मवेशियों ने चौकन्नी आँखों से देखा, कान खड़े किये और इधर-उधर बिदकने लगे। परिस्थिति को ताड़ गये। बिलासी ने कहा, मैं कहती हूँ इन्हें मत घेरो, नहीं तो ठीक न होगा।
किन्तु किसी ने उसकी धमकी पर ध्यान न दिया। थोड़ी देर में सब जानवर बीच में घिर गये। और कन्धे से कन्धा मिलाये, कनखियों से ताकते, तीनों चपरासियों के साथ धीरे-धीरे चले। बिलासी एक संदिग्ध दशा में मूर्तिवत खड़ी थी। जब जानवर कोई बीस कदम निकल गये तब वह उन्मत्त की भांति दौड़ी और हाँपते हुए बोली, मैं कहती हूँ इन्हें छोड़ दे, नहीं तो ठीक न होगा।
फैजू– हट जा रास्ते से। कुछ शामत तो नहीं आयी है।
बिलासी रास्ते में खड़ी हो गयी और बोला, ले कैसे जाओगे? दिल्लगी है?
गौस खाँ– न हटे तो इसकी मरम्मत कर दो।
बिलासी– कह देती हूँ, इन जानवरों के पीछे लोहू की नदी बह जायेगी। माथे गिर जायेंगे।
फैजू– हटती है या नहीं चुड़ैल?
बिलासी– तू हट जा दाढ़ीजार।
इतना उसके मुँह से निकलना था कि फैजू ने आगे बढ़कर बिलासी की गर्दन पकड़ी और उसे इतने जोर का झोंका दिया कि वह दो कदम पर जा गिरी उसकी आँखें तिलमिला गयी, मूर्छा-सी आ गयी। एक क्षण वह वहीं अचेत पड़ी रही, तब उठी और लँगडाती हुई उन पुरुषों से अपनी अपमान कथा कहने चली जो उसके मान-मर्यादा के रक्षक थे।
मनोहर और बलराज दोनों एक दूसरे गाँव में धान काटने गये थे। वह यहाँ से कोस भर पड़ता था। लखनपुर में धान के खेत न थे। इसलिए सभी लोग प्रायः उसी गाँव में धान बोते थे। बिलासी धान के मेड़ों पर चली जाती थी। कभी पैर इधर फिसलते, कभी उधर वह ऐसी उद्विग्न हो रही थी कि किसी प्रकार उड़कर वहाँ पहुँच जाऊँ। पर घुटनियों में चोट आ गयी थी। इसी लिए विवश थी।उसके रोम-रोम से अग्नि की ज्वाला निकल रही थी। अंग-अंग में यही ध्वनि निकलती थी–इनकी इतनी मजाल ।
उसे इस समय परिणाम और फल की लेशमात्र भी चिन्ता न थी। कौन मरेगा? किसका घर मिट्टी में मिलेगा? यह बातें उसके ध्यान में न भी आती थीं। वह संकल्प, विकल्प के बन्धन से मुक्त हो गयी थी।
लेकिन जब उस गाँव के समीप पहुँची और धान से लहराते हुए खेत दिखायी देने लगे तो पहली बार उसके मन में यह प्रश्न उठा, कि इसका फल क्या होगा? बलराज एक ही क्रोधी है, मनोहर उससे भी एक अंगुल आगे। मेरा रोना सुनते ही दोनों भभक उठेंगे। जान पर खेल जायेंगे, तब? किन्तु आहत हृदय ने उत्तर दिया; क्या हानि है? लड़कों के लिए आदमी क्या झींकता है। पति के लिये क्यों रोता है? इसी दिन के लिए तो? इस कलमुँह फैजू का मान मरदन तो हो जायेगा! गौस खाँ का घमंड तो चूर-चूर हो जायेगा।
तब भी, जब वह अपने खेतों के डाँडे पर पहुँची, मनोहर और बलराज नगर आने लगे तब उसके पैर आप ही रुकने लगे। यहाँ तक कि जब वह उनके पास पहुँची तब परिणाम चिन्ता ने उसे परास्त कर दिया। वह फूट-फूटकर रोने लगी। जानती थी और समझती थी कि यह आँसू की बूँदें आग की चिनगारियाँ हैं। पर आवेश पर अपना काबू न था! वह खेत के किनारे खड़ी हो गयी और मुँह ढाँपकर रोने लगी।
बलराज ने सशंक होकर पूछा– अम्मा क्या बात है? रोती क्यों है? क्या हुआ? यह सारा कपड़ा कैसे लोहूलुहान हो गया?
बिलासी ने साड़ी की ओर देखा तो वास्तव में रक्त के छींटे दिखायी दिये, घुटनियों से खून बह रहा था, उसका हृदय थर-थर काँपने लगा। इन छींटों को छिपाने के लिए वह इस समय अपने प्राण तक दे सकती थी। हाय! मेरे सिर पर कौन सा भूत सवार हो गया कि यहाँ दौड़ी आयी! मैं क्या जानती थी कि कहीं फूट-फाट भी गया है। अब गजब हो गया! मुझे चाहिए था कि धीरज धरे बैठी रहती। साँझ को जब यह लोग घर जाते और गाँव के सब आदमी जमा होते तो सारा वृत्तान्त कह देती। जैसी सबकी सलाह होती, वैसा किया जाता। इस अव्यवस्थित दशा में कोई शान्तिप्रद उत्तर न सोच सकी।
बलराज ने फिर पूछा– कुछ मुँह से बोलती क्यों नहीं? बस रोये जाती है। क्या हुआ, कुछ बता भी तो!
बिलासी– (सिसकते हुए) फैजू और गौस खाँ हमारी सब गायें-भैंसें कानी हौद हाँक ले गये।
बलराज– क्यों? क्या उनकी सीर में पड़ी थीं?
बिलासी– नहीं, कहते थे कि चरावर चराने की मनाही हो गयी है।
बलराज ने देखा कि माता की आँखें झुकी हुई हैं और मुख पर मर्माघात की आभा झलक रही है। उसने उग्रावस्था में स्थिति को उससे कहीं, भयंकर समझ लिया, जितनी वह वस्तुतः थी कुछ और पूछने की हिम्मत न पड़ी। आँखें रक्त-वर्ण हो गयीं। कंधे पर लट्ठ रख लिया और मनोहर से बोला, मैं ज़रा गाँव तक जाता हूँ।
मनोहर– क्या काम है?
बलराज– फैजू और गौस खाँ से दो-दो बातें करनी हैं।
मनोहर– ऐसी बात करने का यह मौका नहीं। अभी जाओगे तो बात बढ़ेगी और कुछ हाथ भी न लगेगा। चार आदमी तुम्हीं को बुरा कहेंगे। अपमान का बदला इस तरह नहीं लिया जाता।
मनोहर के हर शब्दों में इतना भयंकर संकल्प, इतना घातक निश्चय भर हुआ था कि बलराज अधिक आग्रह न कर सका। उसने लाठी रख दी और माँ से कहा, अभी घर जाओ। हम लोग आयेंगे तो देखा जायेगा।
मनोहर– नहीं, घर मत जाओ। यहीं बैठो। साँझ को सब जने साथ ही चलेंगे। वह कौन दौड़ा आ रहा है? बिन्दा महाराज हैं क्या?
बलराज– नहीं, कादिर दादा जान पड़ते हैं। हाँ, वहीं हैं। भागे चले जाते हैं। मालूम होता हैं गाँव में मारपीट हो गयी। दादा क्या है, कैसे दौड़े आते हो, कुशल तो है?
कादिर ने दम लेकर कहा, तुम्हारे ही पास तो दौड़े आते हैं। बिलासी रोती आयी है। मैं डरा तुम लोग गुस्से में न जाने क्या कर बैठो। चला कि राह में मिल जाओगे तो रोक लूँगा, पर तुम कहीं मिले ही नहीं। अब तो जो हो गया सो हो गया, आगे की खबर करो। आज से ज़मींदार ने चरावर रोक दी है। अन्धेर देखते हो?
मनोहर– हाँ, देख तो रहा हूँ। अन्धेर-ही-अन्धेर है।
कादिर– फिर अदालत जाना पड़ेगा।
मनोहर– चलो, मैं तैयार हूँ।
कादिर– हाँ, आज जाओ तो सलाह पक्की करके सवाल दे दें। अबकी हाईकोर्ट तक लड़ेंगे, चाहे घर बिक जाय। बस, हल पीछे चन्दा लगा लिया जाय।
मनोहर– हाँ, यही अच्छा होगा।
कादिर– मैं नवाज पढ़ता था, सुना बिलासी को चरावर में चपरासियों ने बुरा-भला कहा और वह रोती हुई इधर-उधर आयी है। समझ गया कि आज गजब हो गया। बारे तुमने सबर से काम लिया अल्लाह इसका सवाब तुमको देगा। तो मैं अब जाता हूँ, अपने चन्दे की बातचीत करता हूँ। जरा दिन रहते चले आना।
कादिर खाँ सावधान चले गये। यह न समझे कि यहाँ मन में कुछ और ठन गयी है। मनोहर के तुले हुए शब्दों को उन्होंने मानसिक धैर्य का द्योतक समझा।
मनोहर ऐसे उद्दीप्त उत्साह से अपने काम में दत्तचित्त था मानो उसकी युवावस्था का विकास हो गया है। धान के पोलों के ढेर लगते जाते थे। न आगे ताकता था, न पीछे, न किसी से कुछ बोलता था, न किसी की कुछ सुनता था, न हाथ थकते थे, न कमर दुखती थी। बलराज ने चिलम भरकर रख दी। तम्बाखू रखे-रखे जल गया। बिलासी खाँड का रस घोलकर सामने लायी। उसने उसकी ओर देखा तक नहीं, कुत्ता पी गया। कुआर की धूप थी, देह से चिनगारियाँ निकलती थीं, पसीने की धारें बहती थीं; किन्तु वह सिर तक न उठाता था। बलराज कभी खेत में आता, कभी पेड़ के नीचे जा बैठता, कभी चिलम पीता। एक ही अग्नि दोनों के हृदय में प्रज्वलित थी, एक ओर सुलगती हुई, दूसरी ओर दहकती हुई। एक ओर वायु के वेग से चंचल, दूसरी ओर निर्बलता से निश्चल। एक ही भावना दोनों के हृदय में थी, एक में उद्दाम-उच्छृंखल, दूसरे में गम्भीर और स्थिर।
दोपहर हुई। बिलासी ने आकर डरते-डरते कहा– चबेना कर लो।
मनोहर ने सिर झुकाये हुए जवाब दिया– चलो आते हैं।
एक घण्टे के बाद बिलासी फिर आकर बोली– चलो, चबेना कर लो, दिन ढल गया। क्या आज ही सब खेत काट लोगे?
मनोहर ने कठोर स्वर में कहा– हाँ, यही विचार है। कौन जाने, कल आये या न आये!
जैसे किसी भरे हुए घड़े में एक कंकर लग जाय और पानी बह निकले, उसी भाँति बिलासी के हृदय में एक चोट-सी लगी और आँसू बहने लगे। वह रह-रह कर हाथ मलती थी। हाय! न जाने इन्होंने मन में क्या ठान लिया है?
वह कई मिनट तक खड़ी रोती रही। परिणाम की भयावह विकराल मूर्ति उसके नेत्रों के सामने नाच रही थी। मुँह खोले उसे निगलने को दौड़ती थी और शोक! इस मूर्ति को उसने अपने हाथों रचा था। अन्त में वह मनोहर के सम्मुख बैठ गयी और उसकी ओर अत्यन्त दीन भाव से देखकर बोली, हाथ जोड़कर कहती हूँ, चलकर चबेना कर लो। तुम्हारे इस तरह से गुमसुम रहने से मेरा कलेजा दहल रहा था। तुमने क्या ठान ली है, बोलते क्यों नहीं?
मनोहर– जाकर चुपके से बैठो। जब मुझे भूख लगेगी तब खा लूँगा।
बिलासी– हाय राम! तुम क्या करने पर तुले हो?
मनोहर– करूँगा क्या? कुछ करने ही लायक होता तो आज यह बेइज्जती नहीं होती। जो कुछ तकदीर में है वह होगा।
यह कहकर वह फिर अपने कार्य में व्यस्त हो गया। कोई किसी से न बोला। बलराज टालमटोल करता रहा और बिलासी उदास बैठी कभी रोती और कभी अपने को कोसती, यहाँ तक कि सन्ध्या हो गयी। तीनों ने धान के गट्ठे गाड़ी पर लादे और लखनपुर चले। बलराज गाड़ी हाँकता था और मनोहर पीछे-पीछे उच्च स्वर से एक बिरहा गाता हुआ चला आता था। राह में कल्लू अहीर मिला, बोला, मनोहर काका आज बड़े मगन हो। मनोहर का गाना समाप्त हुआ तो उसने भी एक बिरहा गाया। दोनों साथ-साथ गाँव में पहुँचे तो एक हलचल-सी मची हुई थी। चारों ओर चरावर की ही चर्चा थी। कादिर के द्वार पर एक पंचायत सी बैठी हुई थी। लेकिन मनोहर पंचायत में न जाकर सीधा घर गया और जाते-ही-जाते भोजन माँगा। बहू ने रसोई तैयार कर रखी थी। इच्छापूर्ण भोजन करके नारियल पीने लगा। थोड़ी देर में बलराज भी पंचायत से लौटा। मनोहर ने पूछा, कहो क्या हुआ?
बलराज– कुछ नहीं, यह सलाह हुई है कि खाँ साहब को कुछ नजर-वजर दे कर मना लिया जाय। अदालत में सब लोग घबड़ाते हैं।
मनोहर– यह तो मैं पहले से ही समझ गया था। अच्छा जाकर चटपट खा-पी लो। आज मैं भी तुम्हारे साथ रखवाली करने चलूँगा। आँख लग जाय तो जगा लेना।
एक घंटे बाद दोनों खेत की ओर चलने को तैयार हुए, मनोहर ने पूछा, कुल्हाड़ा खूब चलता है न?
बलराज– हाँ, आज ही तो रगड़ा है।
मनोहर– तो उसे ले लो।
बलराज– मेरा कलेजा थर-थर काँप रहा है।
मनोहर– काँपने दो। तुम्हारे साथ मैं भी तो रहूँगा। तुम दो-एक हाथ चलाके वहाँ से लम्बे हो जाना और सब मैं देख लूँगा। इस तरह आके सो रहना, जैसे कुछ जानते ही नहीं। कोई कितना ही पूछे, डरावे धमकावे मुँह मत खोलना। मैं अकेले ही जाता, मुदा एक तो मुझे अच्छी तरह सूझता नहीं, कई दिनों से रतौंधी होती है, दूसरे हाथों में अब वह बल नहीं कि एक चोट में वारा-न्याय हो जाय।
मनोहर यह बातें ऐसी सावधानी से कह रहा था, मानो कोई साधारण घरेलू बातचीत हो। बलराज इसके प्रतिकूल इसके शंका और भय से आतुर हो रहा था। क्रोध के आवेश में वह आग में कूद सकता था, किन्तु इस पैशाचिक हत्याकाण्ड से उसके प्राण सूख जाते थे।
खेत में पहुँचकर दोनों मचान पर लेटे। अमावस की रात थी। आकाश पर कुछ बादल भी आये थे। चारों ओर घोर अन्धकार छाया हुआ था।
मनोहर तो लेटते ही खर्राटे लेने लगा, लेकिन बलराज पड़ा-पड़ा करवटें बदलता रहा। उसका हृदय नाना प्रकार की शंकाओं का अविरल स्रोत्र बना हुआ था।
दो घड़ी बीतने पर मनोहर जागा, बोला, बसराज सो गये क्या?
बलराज– नहीं, नींद नहीं आती।
मनोहर– अच्छा, तो अब राम का नाम लेकर तैयार हो जाओ। डरने या घबराने की कोई बात नहीं। अपने मरजाद की रक्षा करना मरदों का काम है। ऐसे अत्याचारों का हम और क्या जवाब दे सकते हैं? बेइज्जत होकर जीने से मर जाना अच्छा है। दिल को खूब सँभालो। अपना काम करके सीधे यहाँ चले आना। अंधेरी रात है। किसी की नजर भी नहीं पड़ सकती। थानेदार तुम्हें डरायेंगे, लेकिन खबरदार, डरना मत! बस गाँव के लोगों से मेल रक्खोगे तो कोई तुम्हारा बाल भी बाँका न कर सकेगा। दुखरन भगत अच्छा आदमी नहीं है, उससे चौकन्ने रहना। हाँ, कादिर भरोसे का आदमी है। उसकी बातों का बुरा मत मानना। मैं तो फिर लौटकर घर न आऊँगा। तुम्हीं घर के मालिक बनोगे, अब वह लड़कपन छोड़ देना, कोई चार बात कहे तो गम खाना। ऐसा कोई काम न करना कि बाप-दादे के नाम को कलंक लगे। अपनी घरवाली को सिर मत चढ़ाना। उसे समझाते रहना कि सास के कहने में रहे। मैं तो देखने न आऊँगा, लेकिन इसी तरह घर में रार मचता हो तो घर मिट्टी में मिल जायेगा।
बलराज ने अवरुद्ध कंठ से कहा, दादा मेरी इतनी बात मानो, इस बखत सबुर कर जाओ! मैं कल एक-एक की खोंपड़ी तोड़कर रख दूँगा।
मनोहर– हाँ, तुम्हें कोई मारे तो तुम संसार भर को मार गिराओ। फैजू और कर्तार क्या मिट्टी के लोंदे हैं? गौस खाँ भी पलटन में रह चुका है। तुम लकड़ी में उनसे पेश न पा सकोगे। वह देखो, हिरना निकल आया। महाबीर जी का नाम लेकर उठ खड़े हो। ऐसे कामों में आगा-पीछा अच्छा नहीं होता। गाँव के बाहर ही चलाना होगा, नहीं तो कुत्ते भूँकेंगे और जाग उठेंगे।
बलराज– मेरे तो हाथ-पैर काँप रहे हैं।
मनोहर– कोई परवा नहीं। कुल्हाड़ी हाथ में लोगे तो सब ठीक हो जायेगा। तुम मेरे बेटे हो, तुम्हारा कलेजा मजबूत है। तुम्हें अभी जो डर लग रहा है, वह ताप के पहले का जाड़ा है। तुमने कुल्हाड़ा कन्धे पर रक्खा, महाबीर का नाम लेकर उधर चले, तो तुम्हारी आँखों से चिनगारियाँ निकलने लगेंगी। सिर पर खून सवार हो जायेगा। बाज की तरह शिकार पर झपटोगे। फिर तो मैं तुम्हें मना भी करूँ तो न सुनोगे। वह देखो सियार बोलने लगे, आधी रात हो गयी। मेरा हाथ पकड़ लो और आगे-आगे चलो। जय महाबीर की!