सैयद ईजाद हुसेन का घर दारानगर की एक गली में था। बरामदे में दस-बारह वस्त्रविहीन बालक एक फटे हुए बोरिये पर बैठे करीमा और खालिकबारी की रट लगया करते थे। कभी-कभी जब वे उमंग में आ कर उच्च स्वर से अपने पाठ याद करने लगते तो कानों पड़ी आवाज न सुनायी देती। मालूम होता, बाजार लगा हुआ हो। इस हरबोंग में लौंडे गालियाँ बकते, एक-दूसरे को मुँह चिढ़ाते, चुटकियाँ काटते। यदि कोई लड़का शिकायत करता तो सब-के-सब मिल कर ऐसा कोलाहल मचाते कि उसकी आवाज ही दब जाती थी। बरामदे के मध्य में मौलवी साहब का तख्त था। उस पर एक दढ़ियल मौलवी लुंगी बाँधे, एक मैला-कुचैला तकिया लगाए अपना मदरिया पिया करते और इस कलरव में भी शान्तिपूर्वक झपकियाँ लेते रहते थे। उन्हें हुक्का पीने का रोग था। एक किनारे अँगीठी में उपले सुलगा करते थे और चिमटा पड़ा रहता था। चिलम भरना बालकों के मनोरंजन की मुख्य सामग्री थी। उनकी शिक्षोन्नति चाहे बहुत प्रशंसा के योग्य न हो, लेकिन गुरु-सेवा में सब के सब निपुण थे। यही सैयद ईजाद हुसेन का ‘‘इत्तहादी यतीमखाना’’ था।
किन्तु बरामदे के ऊपरवाले कमरे में कुछ और ही दृश्य था। साफ-सुथरा फर्श बिछा हुआ था, कालीन और मसनद भी करीने से सजे हुए थे। पानदान, खसदान, उगालदान आदि मौके से रखे हुए थे। एक कोने में नमाज पढ़ने की दरी बिछी हुई थी। तस्वीह खूँटी पर लटक रही थी। छत में झालरदार छतगीर थी, जिसकी शोभा रंगीन हाँडियों से और भी बढ़ गयी थी। दीवारें बड़ी-बड़ी तस्वीरों से अलंकृत थीं।
प्रातःकाल था। मिर्जा साहब मसनद लगाये हारमोनियन बजा रहे थे। उनके सम्मुख तीन छोटी-छोटी सुन्दर बालिकाएँ बैठी हुई डॉक्टर इकबाल की सुविख्यात रचना ‘शिवाजी’ के शे’रों को मधुर स्वर में गा रही थीं। ईजाद हुसेन स्वयं उनके साथ गा कर ताल-स्वर बताते जाते यह ‘‘इत्तहादी यतीमखाने’’ की लड़कियाँ बतायी जाती थीं, किन्तु वास्तव में एक, उन्हीं की पुत्री और दो भांजियाँ थीं। ‘‘इत्तहाद’ के प्रचार में यह त्रिमूर्ति लोगों को वशीभूत कर लेती थी। एक घंटे के अभ्यास के बाद मिर्जा साहब ने प्रसन्न हो सगर्व नेत्रों से लड़कियों को देखा और उन्हें छुट्टी दी। इसके बाद लड़कों की बारी आयी। किन्तु यह मकतबवाले, दुर्बल वस्त्रहीन बालक न थे। थे तो चार ही, पर चारों स्फूर्ति और सजीवता की मूर्ति थे। सुन्दर, सुकुमार सुवस्त्रित, चहकते हुए घर में से आए और फर्श पर बैठ गये मिर्जा साहब ने फिर हारमोनियम के स्वर मिलाये और लड़कों ने हक्कानी में एक ग़ज़ल गानी शुरू की, जो स्वयं मिर्जा साहब की सुरचना थी। इसमें हिन्दू-मुस्लिम एकता की एक सुन्दर वाटिका से उपमा दी गई थी और जनता से अत्यन्त करुण और प्रभावयुक्त शब्दों में प्रेरणा की गयी थी कि वह इस बाग को अपनाये, उसकी रमणीकता का आनन्द उठायें और द्वेष तथ वैमनस्य की कंटकमय झाड़िया में न उलझें। लड़कों के सुकोमल, ललित स्वरों में यह गजब ढाती थी। भावों को व्यक्त करने में भी यह बहुत चतुर थे। यह ‘इत्तहादी यतीमखाने’ के लड़के बताये जाते थे, किन्तु वास्तव में यह मिर्जा साहब की दोनों बहनों के पुत्र थे।
मिर्जा साहब अभी गानाभ्यास में मग्न थे कि इतने में एक आदमी नीचे से आया और सामने खड़ा हो कर बोला, लाला गोपालदास ने भेजा है और कहा है आज हिसाब चुकता न हो तो कल नालिश कर दी जायगी। कपड़े का व्यवहार महीने-दो-महीने का है और आपको कपड़े लिये तीन साल से ज्यादा हो गये।
मिर्जा साहब ने ऐसा मुँह बनाया, मानो समस्त संसार की चिन्ता-भार उन्हीं के सिर पर लदा हुआ हो और बोले, नालिश क्यों करेंगे? कह दो थोड़ा– सा जहर भेज दें, खा कर मर जाऊँ। किसी तरह दुनिया से नजात मिले। उन्हें तो खुदा ने लाखों दिये हैं, घर में रुपयों के ढेर लगे हुए हैं। उन्हें क्या खबर कि यहाँ जान पर क्या गुजर रही है? कुन्बा बड़ा, आमदनी का कोई जरिया नहीं, दुनिया चालाक हत्थे नहीं चढ़ती क्या करूँ! मगर इन्शा अल्लाह– एक महीने के अन्दर आ कर सब नया-पुराना हिसाब साफ कर दूँगा। अबकी मुझे वह चाल सूझी है जो कभी पट ही नहीं पड़ सकती। इन लड़कों की ग़ज़लें सुन कर मजलिसें फड़क उठेंगी। जा कर सेठ जी से कह दो, जहाँ इतने दिनों सब्र किया है, एक महीना और करें।
प्यादे ने हँस कर कहा, आप तो मिर्जा साहब, ऐसी बातें करके टाल देते हैं। और वहाँ मुझ पर लताड़ पड़ती है। मुनीम जी कहते हैं, तुम जाते ही न होगे या कुछ ले-दे के चले आते होगे!
मिर्जा साहब ने एक चवन्नी उसको भेंट की। उसके चले जाने के बाद उन्होंने मौलवी साहब को बुलाया और बोले, क्यों मियाँ अमजद, मैंने तुमसे ताकीद कर दी थी कि कोई आदमी ऊपर न आने पाये। इस प्यादे को क्यों आने दिया? मुँह में दही जमा हुआ था? इतना कहते न बनता था कि कहीं बाहर गये हुए हैं। अगर इस तरह तुम लोगों को आने दोगे तो सुबह से शाम तक ताँता लगा रहेगा। आखिर तुम किस मरज की दवा हो?
अमजद– मैं तो उससे बार-बार कहता रहा कि मियाँ कहीं बाहर गये हुए हैं, लेकिन वह जबरदस्ती जीने पर चढ़ आया। क्या करता, उससे क्या फौजदारी करता?
मिर्जा– बेशक उसे धक्का दे कर हटा देना चाहिए था।
अमजद– तो जनाब रूखी रोटी और पतली दाल में इतनी ताकत नहीं होती, उस पर दिमाग लौड़े चर जाते हैं। हाथा-पाई किस बूते पर करूँ? कभी सालन तक नसीब नहीं होता। दरवाजे पर पड़ा-पड़ा मसाले और प्याज की खुशबू लिया करता हूँ। सारा घर पुलाव और जरदे उड़ाता है। यहाँ खुश्क रोटियों पर ही बसर है। दस्तरखान पर खाने को तरस गया। रोज वही मिट्टी की प्याली सामने आ जाती है। मुझे भी तर माल खिलाइए। फिर देखूँ, कौन घर में कदम रखता है।
मिर्जा– लाहौल बिलाकूबत तुम हमेशा पेट का ही रोना रोते रहे। अरे मियाँ, खुदा का शुक्र करो कि बैठे-बैठे रोटियाँ तो तोड़ने को मिल जाती हैं, वरना इस वक्त कहीं फक-फक फाँय-फाँय करते होते।
अमजद– आपसे दिल की बात कहता हूँ तो आप गालियाँ देने लगते हैं। लीजिए, जाता हूँ, अब अगर सूरत दिखाऊँ तो समझिएगा कोई कमीना था। खुदा ने मुँह दिया तो रोजी भी देगा। इस सुदेशी के जमाने में मैं भूखा न मरूँगा।
यह कह मियाँ अमजद सजल नेत्र हो उतरने लगे, कि ईजाद हुसेन ने फिर बुलाया और नम्रता से बोले, आप तो बस-जरा-सी बात पर बिगड़ जाते हैं। देखते नहीं हो यहाँ घर में कितना खर्च है? औलाद की कसरत खुदा की मार है, उस पर रिश्तेदारों का बटोर टिडिडयों का दल है जो आन-की-आन दरख्त ठूँठ कर देता है। क्या करूँ? औलाद की परवरिश फर्ज ही है और रिश्तेदारों से बेमुरौवत करना अपनी आदत नहीं। इस जाल में फँस कर तरह-तरह की चालें चलता हूँ, तरह-तरह की स्वाँग भरता हूँ, फिर भी चूल नहीं बैठती। अब ताकीद कर दूँगा कि जो कुछ पके वह आपको जरूर मिले। देखिए, अब कोई ऊपर न आने पाये।
अमजद– मैंने तो कसम खा ली है।
ईजाद– अरे मियाँ कैसी बातें करते हो? ऐसी कसमें दिन में सैकड़ों बार खाया करते हैं। जाइए देखिए, फिर कोई शैतान आया है।
मियाँ अमजद नीचे आये तो सचमुच एक शैतान खड़ा था। ठिगना कद, उठा हुआ शरीर, श्याम वर्ण, तंजेब का नीचा कुरता पहने हुए। अमजद को देखते ही बोला, मिर्जा जी से कह दो वफाती आया है।
अमजद ने कड़ककर कहा– मिर्जा साहब कहीं बाहर तशरीफ ले गये हैं।
वफाती– मियाँ, क्यों झूठ बोलते हो? अभी गोपालदास का आदमी मिला था, कहता था ऊपर कमरे में बैठे हुए हैं। इतनी जल्दी क्या उठकर चले गये?
अमजद– उसने तुम्हें झाँसा दिया होगा। मिर्जा साहब कल से ही नही हैं।
वफाती– तो मैं जरा ऊपर जा कर देख ही न आऊँ?
अमजद– ऊपर जाने का हुक्म नहीं है बेगमात बैठी होंगी। यह कह कर वे जीने का द्वार रोक कर खड़े हो गये। वफाती ने उनका हाथ पकड़ कर अपनी ओर घसीट लिया और जीने पर चढ़ा। अमजद ने पीछे से उनको पकड़ लिया। वफाती ने झल्ला कर ऐसा झोंका दिया कि मिया अमजद गिरे और लुढ़कते हुए नीचे आ गये। लौड़ों ने जोर से कहकहा मारा। वफाती ने ऊपर जा कर देखा तो मिर्जा साहब साक्षात् मसनद लगाये विराजमान हैं। बोले, वाह मिर्जा जी वाह, आपका निराला हाल है कि घर में बैठे रहते हैं और नीचे मियाँ अमजद कहते हैं, बाहर गये हुए हैं। अब भी दाम दीजिएगा या हशर के दिन ही हिसाब होगा? दौड़ते-दौड़ते तो पैरों में छाले पड़ गये।
मिर्जा– वाह, इससे बेहतर क्या होगा! हश्र के दिन तुम्हारा कौड़ी-कौड़ी चुका दूँगा, उस वक्त जिन्दगी भर की कमाई पास रहेगी, कोई दिक्कत न होती।
वफाती-लाइए-लाइए, आज दिलवाइए, बरसों हो गये। आप यतीमखाने के नाम पर चारों तरफ से हजारों रुपये लाते हैं, मेरा क्यों नहीं देते?
मिर्जा– मियाँ, कैसी बातें करते हो? दुनिया न ऐसी अन्धी है, न ऐसी अहमक। अब लोगों के दिल पत्थर हो गये हैं। कोई पसीजता नहीं। अगर इस तरह रुपये बरसते तो तकाजों में ऐसा क्या मजा है जो तुम लोगों से नादिम कराती है। खुदा के लिए एक माह और सब्र करो। दिसम्बर का महीना आने दो। जिस तरह क्वार और कातिक हकीमों के फसल के दिन होते हैं, उसी तरह दिसम्बर में हमारी भी फसल तैयार होती है। हर एक शहर में जलसे होने लगते हैं। अबकी मैंने वह मन्त्र जगाया है जो कभी खाली जा ही नहीं सकता।
वफाती– इस तरह हीला-हवाला करते तो आपको बरसों हो गये। आज कुछ न कुछ पिछले हिसाब में तो दे दीजिए।
मिर्जा– आज तो अगर हलाल भी कर डालो तो लाश के सिवा और कुछ न पाओगे।
वफाती निराश हो कर चला गया। मिर्जा साहब ने अबकी जा कर जीने का द्वार भीतर से बन्द कर दिया और फिर हारमोनियम सँभाला कि अकस्मात् डाकिए ने पुकारा। मिर्जा साहब चिट्ठियों के लिए बहुत उत्सुक रहा करते थे। जा कर द्वार खोला और समाचार-पत्रों तथा चिट्ठियों का एक पुलिन्दा लिये प्रसन्न मुख ऊपर आये। पहला पत्र उनके पुत्र का था, जो प्रयाग में कानून पढ़ रहे थे। उन्होंने एक सूट और कानूनी पुस्तकों के लिए रुपये माँगे थे। मिर्जा से झुँझलाकर पत्र को पटक दिया। जब देखो, रुपयों का तकाजा, गोया यहाँ रुपये फलते हैं। दूसरा पत्र एक अनाथ बालक का था। मिर्जाजी ने उसे सावधानी से सन्दूक में रखा। तीसरा पत्र एक सेवा-समिति का था। उसने ‘इत्तहादी’ अनाथालय के लिए २० रुपये महीने की सहायता देने का निश्चय किया था। इस पत्र को पढ़ कर वे उछल पड़े और उसे कई बार आँखों से लगाया। इसके बाद समाचार-पत्रों की बारी आयी। लेकिन मिर्जा जी की निगाह लेखों या समाचारों पर न थी। वह केवल ‘इत्तहादी’ अनाथालय की प्रशंसा के इच्छुक थे। पर इस विषय में उन्हें बड़ी निराशा हुई। किसी पत्र में भी इसकी चर्चा न देख पड़ी। सहसा उनकी निगाह एक ऐसी खबर पर पड़ी कि वह खुशी के मारे फड़क उठे! गोरखपुर में सनातन धर्म-सभा का अधिवेशन होने वाला था। ज्ञानशंकर प्रबन्धक मन्त्री थे। विद्वज्जनों से प्रार्थना की गयी थी कि वह उत्सव में सम्मिलित हो कर उसकी शोभा बढ़ाये। मिर्जा साहब, यात्रा की तैयारी करने लगे।