(राजा एक साधारण नागिरक के रूप में आप-ही-आप)
समय कम है, ऐसे तीन सज्जनों के पास चलना चाहिए जो मेरे भक्त थे। पहले सेठ के पास चलूँ। वह परोपकार के प्रत्येक काम में मेरी सहायता करता था। मैंने उसकी कितनी बार रक्षा की है और उसे कितना लाभ पहुँचाया है। यह सेठ जी का घर आ गया। सेठ जी, सेठजी, जरा बाहर आओ।
सेठ– क्या है? इतनी रात गये कौन काम है?
राजा– कुछ नहीं; अपने स्वर्गवासी राजा का यश गाकर उनकी आत्मा को शान्ति देना चाहता हूँ। कैसे धर्मात्मा, प्रजा-प्रिय, पुरुष थे! उनका परलोक हो जाने से सारे देश में अन्धकार-सा छा गया है। प्रजा उनको कभी न भूलेगी। आपसे तो उनकी बड़ी मैत्री थी, आपको तो और भी दुःख हो रहा होगा?
सेठ– मुझे उनके राज्य में कौन-सा सुख था कि अब दुःख होगा? मर गये, अच्छा हुआ। उसकी बदौलत लाखों रुपये साधु सन्तों को खिलाने पड़ते थे।
राजा– (मन में) हाय! इस सेठ पर मुझे कितना भरोसा था। यह मेरे इशारे पर लाखों रुपये दान कर दिया करता था। सच कहा है; बनिये किसी के मित्र नहीं होते। मैं जन्म भर इसके साथ रहा, पर इसे पहचान न सका। अब चलूँ मन्त्री के पास, वह बड़ा स्वामि-भक्त सज्जन पुरुष हैं। उसके साथ मैंने बड़े-बड़े सलूक किये हैं। यह उसका भवन आ गया। शायद अभी दरबार से आ रहा है। मंत्रीजी, कहिए क्या राज दरबार से आ रहे हैं? इस समय तो दरबार में शोक मनाया जा रहा होगा। ऐसे धर्मात्मा राजा की मृत्यु पर जितना शोक किया जाय, वह थोड़ा है। अब फिर ऐसा राजा न होगा। आपको तो बहुत ही दुःख हो रहा होगा।
मन्त्री– मुझे उनसे कौन-सा सुख मिलता था कि अब दुःख होगा? मर गये, अच्छा हुआ। उनके मारे साँस लेने की भी छुट्टी न मिलती थी। प्रजा के पीछे आप-आप मरते थे, मुझे भी मारते थे! रात-दिन कमर कसे खड़े रहना पड़ता था।
राजा– (आप-ही-आप) हाय! इस परम हितैषी सेवक ने भी भी धोखा दिया। मेरी आँख बन्द होते ही सारा संसार मेरा बैरी हो गया। ऐसे-ऐसे आदमी धोखा दे रहे हैं जो मेरे पसीने की जगह लोहूँ बहाने को तैयार रहते थे। तीन आदमी भी ऐसे नहीं, जिन्हें मेरा जीना पसन्द हो। जब दोनों निकल गये तो दूसरों से क्या आशा रखूँ? अब रानी के पास जाता हूँ वह साध्वी सती स्त्री है। उसकी जितनी ही सखियाँ हैं सभी मुझ पर प्राण देती थीं। वहाँ मेरी इच्छा अवश्य पूरी होगी। अब केवल थोड़ा सा समय और रह गया है।– यह राजभवन आ गया। रानी अकेली मन मारे शोक में बैठी हुई है। महारानी जी, अब धीरज से काम लीजिए, आपके स्वामी ऐसे प्रतापी थे कि संसार में सदा उनका लोग यश गाया करेंगे। देह हत्या करके वह अमर हो गये।
रानी– अमर नहीं, पत्थर हो गये। उनसे संसार को चाहे जो सुख मिला हो, मुझे तो कोई सुख न मिला! उनके साथ बैठते लज्जा आती थी। मैं उनका क्या यश गाऊँ? मैं तो उसी दिन विधवा हो गई जिस दिन उनसे विवाह हुआ। वह जीते थे तब भी राँड़ थी, मर गये तब भी राँड हूँ। देखो तो कुँवर साहब कैसे सजीले, बाँके जवान हैं। मेरे योग्य यह थे, न कि वैसा खूसट बुड्ढा, जिसके मुँह में दाँत तक नहीं थे।
यह सुनते ही राजा एक लम्बी साँस लेता है और मूर्छित होकर गिर पड़ता है।
(अभिनय समाप्त होता है)
प्रेमशंकर को इन गँवारों के अभिनय-कौशल पर विस्मय हुआ? बनावट का कहीं नाम न था। प्रत्येक व्यक्ति ने अपना-अपना भाग स्वाभाविक रीति से पूरा किया। यद्यपि न परदे थे न कपड़े थे, न कोई दूसरा सामान, तथापि अभिनय रोचक और मनोरंजक था।
सवेरे प्रेमशंकर टहलते हुए-पड़ाव की ओर चले तो देखा कि लश्कर कूच की तैयारी कर रहा है। खेमे उखड़ रहे हैं। गाड़ियों पर असबाब लद रहा है। साहब बहादुर की मोटर तैयार है और बिसेसर शाह तहसीलदार के सामने कागज का एक पुलिन्दा लिये खड़े हैं। तेली, तमोली, बूचड़ आदि भी एक पेड़ के नीचे अभियुक्तों की भाँति दाम वसूल करने के लिए बैठे हुए हैं। प्रेमशंकर ने तहसीलदार से हाथ मिलाया और बैठकर तमाशा देखने लगे।
तहसीलदार– कहाँ है, गाड़ीवान लोग? बुलाओ, रसद का हिसाब करें। इस पर एक गाड़ीवान ने कहा, हुजूर यहाँ रसद मिला है कि हमारी जान मारी गयी है! आटे में इस बेईमानी बनिये ने न जाने क्या मिला दिया है कि उसी दिन से पेट में दर्द हो रहा है। घी में तेल मिलाया था, उस पर हिसाब करने को कहता है। अभी साहब से कह दें तो बच्चू को लेने-के-देने पड़ जायँ।
अर्दली के कई चपरासी बोले, यह बनिया गोली मार देने के लायक है। ऐसा खराब आटा उम्र भर नहीं खाया। न जाने क्या चीज मिला दी है कि हजम ही नहीं होता। घी ऐसा बदबू करता था कि दाल खाते न बनती थी इस पर तो जुर्माना होना चाहिए। उल्टे हिसाब करने को कहता है।
एक कान्सटेबिल महाशय ने कहा, हम इसे खूब जानते हैं, छटा हुआ है। चीनी दी तो उसमें आधी बालू, घी में आधी घुइयाँ, आटे में आधा चोकर, दाल में आधा कूड़ा! इसे तो ऐसी जगह मारे जहाँ पानी न मिले।
कई साईस बोले, घोड़ों को जो दाना दिया है वह बिल्कुल घुना हुआ, आधा चना आधा चोकर। घोड़ों ने सूँघा तक नहीं। साहब से कह दें तो अभी हंटर पड़ने लगें।
तहसीलदार– ये सब शिकायतें पहले क्यों नहीं कीं?
कई आदमी– हुजूर रोज तो हाय-हाय कर रहे हैं!
तहसीलदार– (प्रेमशंकर की ओर देखकर) मुझसे किसी ने भी नहीं कहा। अब यह सब कुछ नहीं सुनूंगा। जिसके जिम्मे जो कुछ निकले, कौड़ी-कौड़ी दे दो। साहजी, अपना हिसाब निकालो।
बिसेसर– मौल बख्श अर्दली आटा, ऽ३ घी ऽ।। चावल ऽ२, दाल ऽ१, मसाला ऽ।, तमाखू ऽ।, कथ्या-सुपारी २ छटाँग, चीनी ५ छटाँक कुल ३ ) रुपये।
तहसीलदार– कहाँ है मौला बख्श। दाम देकर रसीद लो।
एक अर्दली– इस नाम का हमारे यहाँ कोई आदमी नहीं है।
बिसेसर– हैं क्यों नहीं? लम्बे-लम्बे हैं, छोटी दाढ़ी है, मुँह पर शीतला का दाग है, सामने के दो-तीन दाँत टूटे हुए हैं।
कई अर्दली– इस हुलिया का यहाँ कोई आदमी ही नहीं है। पहचान हममें से कौन है?
बिसेसर– कहीं चल दिये होंगे और क्या?
तहसीलदार– अच्छा दूसरा नाम बोलो।
बिसेसर– धन्नू, अहीर, चावल ऽ३, आटा ऽ२, घी ऽ१, खली ऽ४, दाना और चोकर ऽ८, तमाखू– कुल दो रुपये।
तहसीलदार– कहाँ है धन्नू अहीर? निकाल रुपये।
एक अर्दली– वह तो पहर रात रहे साहब का ढेरा लादकर चला गया।
तहसीलदार– हिसाब नहीं चुकाया और चल दिया। अच्छा नाजिरजी उसका नाम लिख लीजिए। कहाँ जाते हैं बच्चू? एक-एक पाई वसूल कर लूँगा।
प्रेमशंकर– यह लश्कर वालों की बड़ी ज्यादती है।
तहसीलदार– कुछ न पूछिए, कम्बख्त खा-खाकर चल देते हैं, बदनामी बेचारे तहसीलदार की होती है।
बिसेसर साह ने फिर ऐसा ही ब्यौरा पढ़ सुनाया। यह जयराम चपरासी का पुर्जा था। जयराम उपस्थित थे। आगे बढ़कर बोले, क्यों रे घी ऽ।। लिया था कि आधा पाव?
बिसेसर– कागद में तो ऽ।। लिखा हुआ है।
जयराम– झूठ लिखा है, सोलहों आने झूठ।
तहसीलदार– अच्छा आधा पाव का दाम दो, या कुछ भी नहीं देना चाहते?
यह झमेला नौ-दस बजे तक रहा। एक तिहाई से अधिक आदमी बिना हिसाब चुकाये ही प्रस्थान कर चुके थे। एक चौथाई से अधिक आदमी लापता हो गये। आधे आदमी मौजूद थे, लेकिन उन्हें भी हिसाब के ठीक होने में सन्देह था। ऐसे दस ही पाँच सज्जन निकले जिन्होंने खरे दाम चुका दियें हों। जब सब चिटें समाप्त हो गयीं तो बिसेसर साह ने उन्हें लाकर तहसीलदार के सामने पटक दिया और बोला– मैं और किसी को नहीं जानता, एक हुजूर को जानता हूँ और हुजूर के हुक्म से मैंने रसद दी है।
तहसीलदार– मैं क्या अपनी गिरह से दूँगा?
बिसेसर– हुजूर जैसे चाहे दें या दिला दें। २००) में यह ७०) मिले हैं। मैं टके का आदमी इतना धक्का कैसे उठाऊँगा? महाजन मेरा घर बिकवा लेगा।
तहसीलदार– अच्छी बात है, तुम्हारे दाम मिलेंगे। नाजिर जी, आप चपरासियों को लेकर जाइए,। इसके बही-खाता उठा लाइए और खुद इसकी सलाना आमदनी का हिसाब कीजिए। देखिए, अभी कलई खुली जाती है। मैं इसके सब रुपए दूँगा, पर इसी से लेकर। बच्चू, दो हजार रुपये साल नफा करते हो, उस पर एक बार १०० का घाटा हुआ तो दम निकल गया?
कहाँ तो बिसेसर साह इतने गर्म हो रहे थे, कहाँ यह धमकी सुनते ही भीगी बिल्ली बन गये। बोले, हाँ हुजूर, सब हिसाब-किताब जाँच लें। इस गाँव में ऐसा कौन रोजगार है कि दो हजार का नफा हो जायेगा? खाने भर को मिल जाये यही बहुत है।
तहसीलदार– और यह आस-पास के देहातों का अनाज किसके घर में भरा जाता है? तुम समझते हो कि हाकिमों को खबर नहीं होती। यहाँ इतना बतला सकते हैं कि आज तुम्हारे घर में क्या पक रहा है? यह रिआयत इसी दिन के लिए करते हैं, कुछ तुम्हारी सूरत देखने के लिए नहीं।
बिसेसर साह चुपके से सरक गये। तेली-तमोली ने भी देखा कि यहाँ मिलता-जुलता तो कुछ नहीं दीखता, उल्टे और पलेथन लगने का भय है तो उन्होंने भी अपनी-अपनी राह ली। तहसीलदार ने प्रेमशंकर की ओर देखकर कहा, देखा आपने, टैक्स के नाम में इन सबों की जान निकल जाती है। मैं जानता हूँ कि इसकी सालाना आमदानी ज्यादा-से-ज्यादा १००० होगी। लेकिन चाहे इस तरह कितना ही नुकसान बरदाश्त कर लें, अपने बही-खाते न दिखायेंगे। यह इनकी आदत है।
प्रेमशंकर– खैर, यह तो अपनी चाल-बाजी की बदौलत नुकसान से बच गया, मगर और बेचारे तो मुफ्त में पिस गये, उस पर जलील हुए वह अलग।
तहसीलदार– जनाब, इसकी दवा मेरे पास नहीं है। जब तक कौम को आप लोग एक सिरे से जगा न देंगे, इस तरह के हथकण्डों का बन्द होना मुश्किल है। जहाँ दिलों में इतनी खुदगरजी समाई हुई है और जहाँ रिआया इतनी कच्ची वहाँ किसी तरह की इसलाह नहीं हो सकती। (मुस्कुराकर) हम लोग एक तौर पर आपके मददगार हैं। रियाया को सताकर, पीसकर मजबूत बनाते हैं और आप जैसे कौमी हमदर्दों के लिए मैदान साफ करते हैं।