बाल्यावस्था के पश्चात् ऐसा समय आता है जब उद्दण्डता की धुन सिर पर सवार हो जाती है। इसमें युवाकाल की सुनिश्चित इच्छा नहीं होती, उसकी जगह एक विशाल आशावादिता है जो दुर्लभ को सरल और असाध्य को मुँह का कौर समझती है। भाँति-भाँति की मृदु-कल्पनाएँ चित्त को आन्दोलित करती रहती है। सैलानीपन का भूत-सा चढ़ा रहता है। कभी जी में आता है कि रेलगाड़ी में बैठकर देखूँ कि कहाँ तक जाती है। अर्थी को लेकर उसके साथ श्मशान तक जाते हैं कि वहाँ क्या होता है? मदारी का खेल देखकर जी में उत्कण्ठा होती है कि हम भी गले में झोली लटकाये देश-विदेश घूमते और ऐसे ही तमाशे दिखाते। अपनी क्षमता पर ऐसा विश्वास होता है कि बाधाएँ ध्यान में भी नहीं आती। ऐसी सरलता तो अलाउद्दीन के चिराग को ढूढ़ निकालना चाहती है। इस काल में अपनी योग्यता की सीमाएँ अपरिमित होती हैं। विद्या क्षेत्र में हम तिलक को पीछे हटा देते हैं, रणक्षेत्र में नेपोलियन से आगे बढ़ जाते हैं। कभी जटाधारी योगी बनते हैं, कभी टाटा से भी धनवान् हो जाते हैं। हमें इस अवस्था में फकीरों और साधुओं पर ऐसी श्रद्धा होती है। जो उनकी विभूति को कामधेनु समझती है। तेजशंकर और पद्यशंकर दोनों ही सैलानी थे। घर पर कोई देखभाल करने वाला न था, जो उन्हें उत्तेजनाओं से दूर रखता, उनकी सजीवता को, उनकी अबाध्य कल्पनाओं को सुविचार की ओर कर सकता। लाला प्रभाशंकर उन्हें पाठशाला में भरती करके ज्यादा देखभाल अनावश्यक समझते थे। दोनों लड़के घर से स्कूल को चलते; लेकिन रास्ते में नदी के तट पर घूमते, बैंड सुनते या सेना की कवायद देखने की इच्छा उन्हें रोक लिया करती। किताबों में दोनों को अरुचि थी और दोनों एक ही श्रेणी में कई-कई साल फेल हो जाने के कारण हताश हो गये थे। उन्हें ऐसा मालूम होता था कि हमें विद्या आ ही नहीं सकती। एक बार लालाजी की आलमारी में इन्द्रजाल की एक पुस्तक मिल गयी थी। दोनों ने उसे बड़े चाव से पढ़ा और मन्त्रों को जगाने की चेष्टा करने लगे। दोनों अक्सर नदी की ओर चले जाते और साधु-सन्तों की बातें सुनते। सिद्धियों की नयी-नयी कथाएँ सुनकर उनके मन में भी कोई सिद्धि प्राप्त करने की प्रबल इच्छा होती। इस कल्पना से उन्हें गर्वयुक्त आनन्द मिलता था कि इन सिद्धियों के बल से हम सब कुछ कर सकते हैं, गड़ा हुआ धन निकाल सकते हैं, शत्रुओं पर विजय पा सकते हैं, पिशाचों को वश में कर सकते हैं, उन्होंने दो-एक लटकों का अभ्यास किया था। और यद्यपि अभी तक उनकी परीक्षा करने का अवसर न मिला था, पर अपनी कृतकार्यता पर उन्हें अटल विश्वास था।
लेकिन जब से गायत्री ने मायाशंकर को गोद लिया था, ईर्ष्या और स्वार्थ से दोनों जल रहे थे। यह दाह एक क्षण के लिए भी न शान्त होता। जो लड़का अभी कल तक उनके साथ था खिलाड़ी था वह सहसा इतने ऊँचे पद पर पहुँच जाय! दोनों यही सोचा करते कि कोई ऐसी सिद्धि प्राप्त करनी चाहिए कि जिसके सामने धन और वैभव की कोई हस्ती न रहे, जिसके प्रभाव से वे मायाशंकर को नीचा दिखा सकें। अन्त में बहुत सोच-विचार के पश्चात् उन्होंने भैरव-मन्त्र जगाने का निश्चय किया। एक तन्त्र ग्रन्थ ढूँढ़ निकाला। जिसमें एक क्रिया की विधियाँ विस्तार से लिखी हुई थीं। दोनों ने कई दिनों तक मन्त्र को कंठ किया। उसके मुखाग्र हो जाने पर यह सलाह होने लगी, इसे जगाने का आरम्भ कब से किया जाय? तेजशंकर ने कहा– चलो आज से ही श्रीगणेश कर दें।
पद्य– जब कहो तब। बस, अस्सी घाट की ओर चलें।
तेज– चालीस किसी तरह पूरा हो जाय फिर तो हम अमर हो जायेंगे। तलवार, तोप का हम पर कुछ असर ही न होगा।
पद्य– यार, बड़ा मजा आएगा। सैकड़ों बरस तक जीते रहेंगे।
तेज– सैकड़ों! अजी हजारों क्यों नहीं कहते? हिमालय की गुफाओं में ऐसे-ऐसे साधु पड़े हैं जिनकी अवस्थाएँ चार-चार सौ साल से अधिक हैं। उन्होंने भी यही मन्त्र जगाया होगा। मौत का उन पर कोई वश नहीं चलता।
पद्य– माया बड़ी शेखी मारा करते हैं। बच्चा एक दिन मर जायेंगे, सब यहीं रखा रह जायेगा। यहाँ कौन चिन्ता है? तोप से भी न डरेंगे।
तेज– लेकिन मन्त्र जगाना सहज नहीं है। डरे और काम तमाम हुआ, जरा चौंके और वहीं ढेर हो गये। तुमने तो किताब में पढ़ा ही है, कैसी-कैसी भयंकर सूरतें दिखायी देती हैं। कैसी-कैसी डरावनी आवाजें सुनायी देती हैं। भूत, प्रेत, पिशाच नंगी तलवार लिए मारने दौड़ते हैं। उस वक्त जरा भी शंका न करनी चाहिए।
पद्य– मैं जरा भी न डरूँगा, वह कोई सचमुच के भूत-प्रेत थोड़े न होंगे। देवता लोग परीक्षा के लिए डराते होंगे।
तेज– हाँ और क्या! सब भ्रम है। अपना कलेजा मजबूत किये रहना।
पद्य– और जो कहीं तुम डर जाओ?
तेजशंकर ने गर्व से हँसकर कहा– मैंने डर को भूनकर खा लिया है। वह मेरे पास नहीं फटक सकता। मैं तो सचमुच के प्रेतो से न डरूँ, शंकाओं की कौन चलाये।
पद्य– तो हम लोग अमर हो जायेंगे।
तेज– अवश्य, इसमें भी कुछ सन्देह है?
दोनो ने इस भाँति निश्चय करके मन्त्र जगाना शुरू किया। जब घर के सब लोग सो जाते तो दोनों चुपके से निकल जाते और अस्सी घाट पर गंगा के किनारे बैठ कर मन्त्र जाप करते। इस प्रकार उन्तालीस दिनों तक दोनों ने अभ्यास किया। इस विकट परीक्षा में वे कैसे पूरे उतरें इसकी व्याख्या करने के लिए एक पोथी अलग चाहिए। उन्हें वह सब विकराल सूरतें दिखायी दीं, वे सब रोमांचकारी शब्द दिये, जिनका उस पुस्तक में जिक्र था। कभी मालूम होता था आकाश फटा पड़ता है, कभी आग की एक लहर सामने आती, कहीं कोई भयंकर राक्षस मुँह से अग्नि की ज्वाला निकालता हुआ उन्हें निगलने को लपकता, लेकिन भय की पराकाष्ठा का नाम साहस है। दोनों लड़के आँखें बन्द किये, नीरव, निश्चल, निस्तब्ध, मूर्ति के समान बैठे रहते। जाप का तो केवल नाम था, सारी मानसिक शक्तियाँ इन शंकाओं को दूर रखने में ही केन्द्रीभूत हो जाती थीं। यह भय कि जरा भी चौंके, झिझके या विचलित हुए तो तत्क्षण प्राणान्त हो जायेगा उन्हें अपनी जगह पर बाँधे रहता था। मेरा भाई समीप ही बैठा है, यह विश्वास उनकी दृढ़ता का एक मुख्य कारण था, हालाँकि इस विश्वास से तेजशंकर को उतना ढाँढस न होता था जितना पद्यशंकर को। उसे पद्य पर वह भरोसा न था जो पद्य को उस पर था। अतएव तेजशंकर के लिए यह परीक्षा ज्यादा दुस्साध्य थी, पर यह भय कि मैं जरा भी हिला तो पद्य की जान पर बन जायेगी, उस विश्वास की थोड़ी सी कसर पूरी कर देता था। इन दिनों वे बहुत दुर्बल हो गये थे, मुख पीले, आँखें चंचल ओंठ सूखे हुए। दोनों सारे दिन संज्ञा-हीन से पड़े रहते, खेल-कूद, सैर-सपाटे, आमोद-विनोद में उन्हें जरा भी रुचि न थी, आठों पहर मन उचटा रहता था, यहाँ तक कि भोजन भी अच्छा न लगता। इस तरह उन्तालीस दिन बीत गये और चालीसवाँ दिन आ पहुँचा। आज भोर से ही उनके चित्त उद्वग्नि होने लगे, शंकाओं ने उग्र रूप धारण किया, आशाएँ भी प्रबल हुईं। दोनों आशा और भय की दशा में बैठे हुए कभी अमरत्व की कल्पना से प्रफुल्लित हो जाते, कभी आज की कठिनतम परीक्षाओं के भय से काँपते, पर आशाएँ भय के ऊपर थीं। सारे शहर में हलचल मच जायेगी, हम लोग जलती हुई आग में कूद पड़ेंगे और बेदाग निकल जायेंगे, आँच तक न आयेगी। उस मुँडेर पर से निश्शंक नीचे कूद पड़ेंगे, जरा भी चोट न लगेगी। लोग देखकर दंग हो जायेंगे। दिन भर दोनों ने कुछ नहीं खाया। कभी नीचे जाते, ऊपर जाते, कभी हँसते, कभी रोते, कभी नाचते, कोई दूसरा आदमी उनकी यह दशा देख कर समझता कि पागल हो गये हैं।
जब अन्धेरा हुआ तो तेजशंकर घर में से एक तलवार निकाल लाया जिसे लालाजी ने हाल ही में जयपुर से मँगवाया था। दोनों ने कमरे का द्वार बन्द कर उसे मिट्टी के तेल से खूब साफ किया, तब उसे पत्थर पर रगड़ा, यहाँ तक कि उसमें से चिनगारियाँ निकलने लगीं। तब उसे बिछावन के नीचे छिपाकर दोनों बाजार की सैर करने निकल गये। लौटे तो नौ बज गये थे। बड़ी बहू के बहुत अनुरोध करने पर दोनों ने कुछ सूक्ष्म भोजन किया और तब अपने कमरे में लोगों के निद्रा-मग्न हो जाने का इन्तजार करने लगे। ज्यों-ज्यों समय निकट आता था उनका आशादीपक भय-तिमिर में विलुप्त हो जाता था। इस समय उनकी दशा कुछ उस अपराधी की-सी जिसकी फाँसी का समय प्रति क्षण निकट आता जाता हो। भाँति-भाँति की शंकाए और दुष्कल्पनाएँ उठ रही थीं, किन्तु इस आँधी और तूफान में भी एक नौका का स्पष्ट चिह्न दूर से दिखायी देता था जिससे उनकी हिम्मत बँध जाती थी। तेजशंकर चिन्तित और गम्भीर था और पद्यशंकर की सरल, आशामय बातों का जवाब तक न देता था।
निश्चित समय आ पहुँचा तो दोनों घर से निकले। माघ का महीना, तुषारवेष्टित वायु हड्डियों में चुभती थी। हाथ-पाँव अकड़े जाते थे। तेजशंकर ने तलवार को अपनी चादर के नीचे छिपा लिया और दोनों चले, जैसे कोई मन्द-बुद्धि बालक परीक्षा भवन की ओर चले। पग-पग पर वे शंका-विह्वल होकर ठिठक जाते, फिर कलेजा मजबूत करके आगे बढ़ते। यहाँ तक कि कई बार उन्होंने लौटने का इरादा किया, लेकिन उन्तालीस दिन की तपस्या के बाद वरदान मिलने के दिन हिम्मत हार जाना अक्षम्य दुर्बलता और भीरुता थी। अब तो चाहे जो हो, यह अन्तिम परीक्षा अनिवार्य थी। इस तरह डरते, हिचकते दोनों घाट पर पहुँच गये। रास्ते में किसी के मुँह से एक शब्द भी न निकला।
अमावस की रात थी। आँखों का होना-न-होना बराबर था। तारागण भी बादलों में मुँह छिपाये हुए थे। अन्धकार ने जल और बालू, पृथ्वी और आकाश को समान कर दिया था। केवल जल की मधुर-ध्वनि गंगा का पता देती थी। ऐसा सन्नाटा छाया हुआ था कि जल-नाद भी उसमें निमग्न हो जाता था। ऐसा जान पड़ता था कि पृथ्वी अभी शून्य के गर्भ में पड़ी हुई है। अनन्त जीवन के दोनों आराधक पग-पग पर ठोकरें खाते, शंका-रचित बाधाओं से पग-पग पर चौंकते नदी के किनारे पहुँचे और नग्न होकर जल में उतरे। पानी बर्फ हो रहा था। उनके सारे अंग शिथिल हो गये। स्नान करके दोनों रेत पर बैठ गये और मन्त्र का जाप करने लगे। लेकिन आश्चर्य यह था कि आज उन्हें कोई ऐसा दृश्य न दिखायी दिया जिसे वे देख न चुके हों, न कोई ऐसी आवाजें सुनाई दीं जो वे सुन न चुके हों। कोई असाधारण घटना न हुई। सरदी ने शंकाओं को भी शान्त कर दिया था। विषम कल्पनाएँ भी निर्जीव हो गयी थीं। दोनों डर रहे थे कि आज न जाने कैसी-कैसी विकराल मूर्तियाँ दिखायी देंगी, प्रेतगण न जाने किन मन्त्रों से आघात करेंगे? न जाने प्राण बचेंगे या जायेंगे? लेकिन आज और दिनों से भी सस्ते छूट गये।
जब रात समाप्त हो गयी और दोनों साधकों ने आँखें खोली तब आकाश पर उषा की लालिमा दिखायी दी। पृथ्वी शनैः-शनैः तिमिर-तट से निकलने लगी। उस पार के वृक्ष और रेत व्यक्त हो गये जैसे किसी मुर्च्छित रोगी के मुख पर चैतन्य का विकास हो रहा हो। श्यामल जल वेग से बह रहा था, मानो अन्धकार को अपने साथ बहाये लिये जाता हो। उस पार के वृक्ष इस तरह सिर झुकाये खड़े थे, मानो शोक समाज किसी की दाह-क्रिया करके शोक से सिर झुकाये चला जाता है।
सहसा तेजशंकर उठ खड़ा हुआ और बोला– जय भैरव की।
दोनों के नेत्रों में एक अलौकिक प्रकाश था, दोनों के मुखों पर एक अद्भुत प्रतिभा झलक रही थी।
तेजशंकर– तलवार हाथ में लो, मैं सिर झुकाये हुए हूँ।
पद्य– नहीं, पहले तुम चलाओ मैं सिर झुकाता हूँ।
तेज– क्या अब भी डरते हो? हमने मौत को कुचल दिया काल को जीत लिया, अब हम अमर हैं।
पद्य– क्या, पहले तुम ही श्रीगणेश करो। ऐसा हाथ चलाना कि एक ही वार में गर्दन अलग जा गिरे। मगर यह तो बताओ दर्द तो न होगा?
तेज– कैसा दर्द? ऐसा जान पड़ेगा जैसे किसी ने फूल से मारा हो। इसी से तो कहता हूँ कि पहले तुम शुरू करो।
पद्य– नहीं, पहले मैं सिर झुकाता हूँ।
तेजशंकर ने तलवार हाथ में ली, उसे तौला, दो-तीन बार पैंतरे बदले और तब जय भैरव की कहकर पद्यशंकर की गर्दन पर तलवार चलायी। हाथ भरपूर पड़ा; तलवार तेज थीं, सिर धड़ से अलग जा गिरा रक्त का फौवारा छूटने लगा। तेजशंकर खड़ा मुस्कुरा रहा था, मानो कोई फुलझड़ी छूट रही हो। उसके चेहरे पर तेजोमय शान्ति छायी हुई थी। कोई शिकारी भी पक्षी को भूमि पर तड़पते देखकर इतना अविचलित न रहता होगा। कोई अभ्यस्त बधिक भी पशु गर्दन पर तलवार चला कर इतना स्थिर-चित्त न रह सकता होगा। वह ऐसे सुदृढ़ विश्वास के भाव से खड़ा था जैसे कोई कबूतरबाज अपने कबूतर को उड़ा कर उसके लौट आने की राह देख रहा हो।
लाश कुछ देर तक तड़पती रही, इसके बाद शिथिल हो गयी। खून के छींटे बन्द हो गये, केवल एक-एक बूँद टपक रही थी जैसे पानी बरसने के बाद ओरी टपकती है, किन्तु पुनरुज्जवीन के संसार का कोई लक्षण न दिखायी दिया। एक मिनट और गुजरा। तेजशंकर को कुछ भ्रम हुआ, पर विश्वास ने उसे शान्त कर दिया। उसने गंगाजल चुल्लू में लेकर भैरव मन्त्र पढ़ा और उस पर एक फूँक मार कर उसे लाश पर छिड़क दिया; किन्तु यह क्रिया भी असफल हुई। उस कटे हुए सिर में कोई गति नहीं हुई उस मृत देह में स्फूर्ति का कोई चिह्न न दिखायी दिया। मन्त्र की जीवन-संचारिणी शक्ति का कुछ असर न हुआ।
अब तेजशंकर को शंका होने लगी, विश्वास की नींव हिलने लगी। उस पुस्तक में स्पष्ट लिखा था कि सिर गर्दन से अलग होते ही तुरन्त उसमें चिमट जाता है और यदि इस क्रिया में कुछ विलम्ब हो तो भैरव मन्त्र से फूँके हुए पानी का एक चुल्लू काफी है। यहाँ इतनी देर हो गयी और अभी तक कुछ भी असर न हुआ। यह बात क्या है? मगर यह असम्भव है कि मन्त्र निष्फल हो। कितने लोगों ने इस मन्त्र को सिद्ध किया है। नहीं, घबराने की कोई बात नहीं, अभी जान आयी जाती है।
उसने तीन-चार मिनट तक और इन्तजार किया, पर लाश ज्यों की त्यों शान्तशिथिल पड़ी हुई थी। तब उसने फिर गंगाजल छिड़का, फिर मन्त्र पढ़ा लाश न उठी। उसने चिल्लाकर कहा– हा ईश्वर! अब क्या करूँ? विश्वास का दीपक बुझ गया। उसने निराश भाव से नदी की ओर देखा। लहरें दहाढे़ मार-मार कर रोती हुई जान पड़ी। वृक्ष शोक से सिर धुनते हुए मालूम हुए। उसके कण्ठ से बलात् क्रन्दन ध्वनि निकल आयी, वह चीख मार कर रोने लगा। अब उसे ज्ञान हुआ कि मैंने कैसे घोर अनर्थ किया। अनन्त जीवन की सिद्धि कितनी उदभ्रांत, कितनी मिथ्या थी। हा! मैं कितना अन्धा, कितना मन्द बुद्धि, कितना उद्दण्ड हूँ। हा! प्राणों से प्यारे पद्य, मैंने मिथ्या भक्ति की धुन में अपने ही हाथों से, इन्हीं निर्दय हाथों से, तुम्हारी गर्दन पर तलवार चलायी। हा! मैंने तुम्हारे प्राण लिये! मुझ सा पापी और अभागा कौन होगा? अब कौन सा मुँह लेकर घर जाऊँ? कौन सा मुँह दुनिया को दिखाऊँ? अब जीवन वृथा है। तुम मुझे प्राणों से भी प्यारे थे। अब तुम्हें कैसे देखूँगा, तुम्हें कैसे पाऊँगा?
तेजशंकर कई मिनट तक इन्हीं शोकमय विचारों से विह्वल हो कर खड़ा रोता रहा। अभी एक क्षण पहले उसके दिल में क्या-क्या इरादे थे, कैसी-कैसी अभिलाषाएँ थीं? वह सब इरादे मिट्टी में मिल गये? आह? जिस धूर्त पापी ने, यह किताब लिखी है उसे पाता तो इसी तलवार से उसकी गर्दन काट लेता, उसके भ्रम जाल में पड़कर मैंने अपना सर्वनाश किया!
हाय! अभी तक लाश में जान नहीं आयी। उसे उसकी ओर ताकते हुए अब भय होता था।
नैराश्य-व्यथा, शोकाघात, परिणाम-भय, प्रेमोद्गार, ग्लानि– इन सभी भावों ने उसके हृदय को कुचल दिया!
तिस पर भी अभी तक उसकी आशाओं का प्राणान्त न हुआ था। उसने एक बार डरते-डरते कनखियों से लाश को देखा, पर अब भी उसमें प्राण-प्रवेश का चिह्न न दिखायी दिया तो आशाओं का अन्तिम सूत्र भी टूट गया, धैर्य ने साथ छोड़ दिया।
उसने एक बार निराश होकर आकाश की ओर देखा। भाई की लाश पर अन्तिम दृष्टि डाली तब सँभल कर बैठ गया और वही तलवार अपने गले पर फेर दी। रक्त की फुवारें छुटीं, शरीर तड़पने लगा, पुतलियाँ फैल गयीं। बलिदान पूरा हो गया। मिथ्या विश्वास ने दो लहलहाते हुए जीव-पुष्पों को पैर से मसल दिया!
सूर्य देव अपने आरक्त नेत्रों से यह विषम माया लीला देख रहे थे। उसकी नीरव पीत किरणें उन दोनों मन्त्राहत बालकों पर इस भाँति पड़ रही थी मानों कोई शोक-विह्वल प्राणी से लिपट कर रो रहा हो।