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11 फरवरी 2022

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बाल्यावस्था के पश्चात् ऐसा समय आता है जब उद्दण्डता की धुन सिर पर सवार हो जाती है। इसमें युवाकाल की सुनिश्चित इच्छा नहीं होती, उसकी जगह एक विशाल आशावादिता है जो दुर्लभ को सरल और असाध्य को मुँह का कौर समझती है। भाँति-भाँति की मृदु-कल्पनाएँ चित्त को आन्दोलित करती रहती है। सैलानीपन का भूत-सा चढ़ा रहता है। कभी जी में आता है कि रेलगाड़ी में बैठकर देखूँ कि कहाँ तक जाती है। अर्थी को लेकर उसके साथ श्मशान तक जाते हैं कि वहाँ क्या होता है? मदारी का खेल देखकर जी में उत्कण्ठा होती है कि हम भी गले में झोली लटकाये देश-विदेश घूमते और ऐसे ही तमाशे दिखाते। अपनी क्षमता पर ऐसा विश्वास होता है कि बाधाएँ ध्यान में भी नहीं आती। ऐसी सरलता तो अलाउद्दीन के चिराग को ढूढ़ निकालना चाहती है। इस काल में अपनी योग्यता की सीमाएँ अपरिमित होती हैं। विद्या क्षेत्र में हम तिलक को पीछे हटा देते हैं, रणक्षेत्र में नेपोलियन से आगे बढ़ जाते हैं। कभी जटाधारी योगी बनते हैं, कभी टाटा से भी धनवान् हो जाते हैं। हमें इस अवस्था में फकीरों और साधुओं पर ऐसी श्रद्धा होती है। जो उनकी विभूति को कामधेनु समझती है। तेजशंकर और पद्यशंकर दोनों ही सैलानी थे। घर पर कोई देखभाल करने वाला न था, जो उन्हें उत्तेजनाओं से दूर रखता, उनकी सजीवता को, उनकी अबाध्य कल्पनाओं को सुविचार की ओर कर सकता। लाला प्रभाशंकर उन्हें पाठशाला में भरती करके ज्यादा देखभाल अनावश्यक समझते थे। दोनों लड़के घर से स्कूल को चलते; लेकिन रास्ते में नदी के तट पर घूमते, बैंड सुनते या सेना की कवायद देखने की इच्छा उन्हें रोक लिया करती। किताबों में दोनों को अरुचि थी और दोनों एक ही श्रेणी में कई-कई साल फेल हो जाने के कारण हताश हो गये थे। उन्हें ऐसा मालूम होता था कि हमें विद्या आ ही नहीं सकती। एक बार लालाजी की आलमारी में इन्द्रजाल की एक पुस्तक मिल गयी थी। दोनों ने उसे बड़े चाव से पढ़ा और मन्त्रों को जगाने की चेष्टा करने लगे। दोनों अक्सर नदी की ओर चले जाते और साधु-सन्तों की बातें सुनते। सिद्धियों की नयी-नयी कथाएँ सुनकर उनके मन में भी कोई सिद्धि प्राप्त करने की प्रबल इच्छा होती। इस कल्पना से उन्हें गर्वयुक्त आनन्द मिलता था कि इन सिद्धियों के बल से हम सब कुछ कर सकते हैं, गड़ा हुआ धन निकाल सकते हैं, शत्रुओं पर विजय पा सकते हैं, पिशाचों को वश में कर सकते हैं, उन्होंने दो-एक लटकों का अभ्यास किया था। और यद्यपि अभी तक उनकी परीक्षा करने का अवसर न मिला था, पर अपनी कृतकार्यता पर उन्हें अटल विश्वास था।
लेकिन जब से गायत्री ने मायाशंकर को गोद लिया था, ईर्ष्या और स्वार्थ से दोनों जल रहे थे। यह दाह एक क्षण के लिए भी न शान्त होता। जो लड़का अभी कल तक उनके साथ था खिलाड़ी था वह सहसा इतने ऊँचे पद पर पहुँच जाय! दोनों यही सोचा करते कि कोई ऐसी सिद्धि प्राप्त करनी चाहिए कि जिसके सामने धन और वैभव की कोई हस्ती न रहे, जिसके प्रभाव से वे मायाशंकर को नीचा दिखा सकें। अन्त में बहुत सोच-विचार के पश्चात् उन्होंने भैरव-मन्त्र जगाने का निश्चय किया। एक तन्त्र ग्रन्थ ढूँढ़ निकाला। जिसमें एक क्रिया की विधियाँ विस्तार से लिखी हुई थीं। दोनों ने कई दिनों तक मन्त्र को कंठ किया। उसके मुखाग्र हो जाने पर यह सलाह होने लगी, इसे जगाने का आरम्भ कब से किया जाय? तेजशंकर ने कहा– चलो आज से ही श्रीगणेश कर दें।
पद्य– जब कहो तब। बस, अस्सी घाट की ओर चलें।
तेज– चालीस किसी तरह पूरा हो जाय फिर तो हम अमर हो जायेंगे। तलवार, तोप का हम पर कुछ असर ही न होगा।
पद्य– यार, बड़ा मजा आएगा। सैकड़ों बरस तक जीते रहेंगे।
तेज– सैकड़ों! अजी हजारों क्यों नहीं कहते? हिमालय की गुफाओं में ऐसे-ऐसे साधु पड़े हैं जिनकी अवस्थाएँ चार-चार सौ साल से अधिक हैं। उन्होंने भी यही मन्त्र जगाया होगा। मौत का उन पर कोई वश नहीं चलता।
पद्य– माया बड़ी शेखी मारा करते हैं। बच्चा एक दिन मर जायेंगे, सब यहीं रखा रह जायेगा। यहाँ कौन चिन्ता है? तोप से भी न डरेंगे।
तेज– लेकिन मन्त्र जगाना सहज नहीं है। डरे और काम तमाम हुआ, जरा चौंके और वहीं ढेर हो गये। तुमने तो किताब में पढ़ा ही है, कैसी-कैसी भयंकर सूरतें दिखायी देती हैं। कैसी-कैसी डरावनी आवाजें सुनायी देती हैं। भूत, प्रेत, पिशाच नंगी तलवार लिए मारने दौड़ते हैं। उस वक्त जरा भी शंका न करनी चाहिए।
पद्य– मैं जरा भी न डरूँगा, वह कोई सचमुच के भूत-प्रेत थोड़े न होंगे। देवता लोग परीक्षा के लिए डराते होंगे।
तेज– हाँ और क्या! सब भ्रम है। अपना कलेजा मजबूत किये रहना।
पद्य– और जो कहीं तुम डर जाओ?
तेजशंकर ने गर्व से हँसकर कहा– मैंने डर को भूनकर खा लिया है। वह मेरे पास नहीं फटक सकता। मैं तो सचमुच के प्रेतो से न डरूँ, शंकाओं की कौन चलाये।
पद्य– तो हम लोग अमर हो जायेंगे।
तेज– अवश्य, इसमें भी कुछ सन्देह है?
दोनो ने इस भाँति निश्चय करके मन्त्र जगाना शुरू किया। जब घर के सब लोग सो जाते तो दोनों चुपके से निकल जाते और अस्सी घाट पर गंगा के किनारे बैठ कर मन्त्र जाप करते। इस प्रकार उन्तालीस दिनों तक दोनों ने अभ्यास किया। इस विकट परीक्षा में वे कैसे पूरे उतरें इसकी व्याख्या करने के लिए एक पोथी अलग चाहिए। उन्हें वह सब विकराल सूरतें दिखायी दीं, वे सब रोमांचकारी शब्द दिये, जिनका उस पुस्तक में जिक्र था। कभी मालूम होता था आकाश फटा पड़ता है, कभी आग की एक लहर सामने आती, कहीं कोई भयंकर राक्षस मुँह से अग्नि की ज्वाला निकालता हुआ उन्हें निगलने को लपकता, लेकिन भय की पराकाष्ठा का नाम साहस है। दोनों लड़के आँखें बन्द किये, नीरव, निश्चल, निस्तब्ध, मूर्ति के समान बैठे रहते। जाप का तो केवल नाम था, सारी मानसिक शक्तियाँ इन शंकाओं को दूर रखने में ही केन्द्रीभूत हो जाती थीं। यह भय कि जरा भी चौंके, झिझके या विचलित हुए तो तत्क्षण प्राणान्त हो जायेगा उन्हें अपनी जगह पर बाँधे रहता था। मेरा भाई समीप ही बैठा है, यह विश्वास उनकी दृढ़ता का एक मुख्य कारण था, हालाँकि इस विश्वास से तेजशंकर को उतना ढाँढस न होता था जितना पद्यशंकर को। उसे पद्य पर वह भरोसा न था जो पद्य को उस पर था। अतएव तेजशंकर के लिए यह परीक्षा ज्यादा दुस्साध्य थी, पर यह भय कि मैं जरा भी हिला तो पद्य की जान पर बन जायेगी, उस विश्वास की थोड़ी सी कसर पूरी कर देता था। इन दिनों वे बहुत दुर्बल हो गये थे, मुख पीले, आँखें चंचल ओंठ सूखे हुए। दोनों सारे दिन संज्ञा-हीन से पड़े रहते, खेल-कूद, सैर-सपाटे, आमोद-विनोद में उन्हें जरा भी रुचि न थी, आठों पहर मन उचटा रहता था, यहाँ तक कि भोजन भी अच्छा न लगता। इस तरह उन्तालीस दिन बीत गये और चालीसवाँ दिन आ पहुँचा। आज भोर से ही उनके चित्त उद्वग्नि होने लगे, शंकाओं ने उग्र रूप धारण किया, आशाएँ भी प्रबल हुईं। दोनों आशा और भय की दशा में बैठे हुए कभी अमरत्व की कल्पना से प्रफुल्लित हो जाते, कभी आज की कठिनतम परीक्षाओं के भय से काँपते, पर आशाएँ भय के ऊपर थीं। सारे शहर में हलचल मच जायेगी, हम लोग जलती हुई आग में कूद पड़ेंगे और बेदाग निकल जायेंगे, आँच तक न आयेगी। उस मुँडेर पर से निश्शंक नीचे कूद पड़ेंगे, जरा भी चोट न लगेगी। लोग देखकर दंग हो जायेंगे। दिन भर दोनों ने कुछ नहीं खाया। कभी नीचे जाते, ऊपर जाते, कभी हँसते, कभी रोते, कभी नाचते, कोई दूसरा आदमी उनकी यह दशा देख कर समझता कि पागल हो गये हैं।
जब अन्धेरा हुआ तो तेजशंकर घर में से एक तलवार निकाल लाया जिसे लालाजी ने हाल ही में जयपुर से मँगवाया था। दोनों ने कमरे का द्वार बन्द कर उसे मिट्टी के तेल से खूब साफ किया, तब उसे पत्थर पर रगड़ा, यहाँ तक कि उसमें से चिनगारियाँ निकलने लगीं। तब उसे बिछावन के नीचे छिपाकर दोनों बाजार की सैर करने निकल गये। लौटे तो नौ बज गये थे। बड़ी बहू के बहुत अनुरोध करने पर दोनों ने कुछ सूक्ष्म भोजन किया और तब अपने कमरे में लोगों के निद्रा-मग्न हो जाने का इन्तजार करने लगे। ज्यों-ज्यों समय निकट आता था उनका आशादीपक भय-तिमिर में विलुप्त हो जाता था। इस समय उनकी दशा कुछ उस अपराधी की-सी जिसकी फाँसी का समय प्रति क्षण निकट आता जाता हो। भाँति-भाँति की शंकाए और दुष्कल्पनाएँ उठ रही थीं, किन्तु इस आँधी और तूफान में भी एक नौका का स्पष्ट चिह्न दूर से दिखायी देता था जिससे उनकी हिम्मत बँध जाती थी। तेजशंकर चिन्तित और गम्भीर था और पद्यशंकर की सरल, आशामय बातों का जवाब तक न देता था।
निश्चित समय आ पहुँचा तो दोनों घर से निकले। माघ का महीना, तुषारवेष्टित वायु हड्डियों में चुभती थी। हाथ-पाँव अकड़े जाते थे। तेजशंकर ने तलवार को अपनी चादर के नीचे छिपा लिया और दोनों चले, जैसे कोई मन्द-बुद्धि बालक परीक्षा भवन की ओर चले। पग-पग पर वे शंका-विह्वल होकर ठिठक जाते, फिर कलेजा मजबूत करके आगे बढ़ते। यहाँ तक कि कई बार उन्होंने लौटने का इरादा किया, लेकिन उन्तालीस दिन की तपस्या के बाद वरदान मिलने के दिन हिम्मत हार जाना अक्षम्य दुर्बलता और भीरुता थी। अब तो चाहे जो हो, यह अन्तिम परीक्षा अनिवार्य थी। इस तरह डरते, हिचकते दोनों घाट पर पहुँच गये। रास्ते में किसी के मुँह से एक शब्द भी न निकला।
अमावस की रात थी। आँखों का होना-न-होना बराबर था। तारागण भी बादलों में मुँह छिपाये हुए थे। अन्धकार ने जल और बालू, पृथ्वी और आकाश को समान कर दिया था। केवल जल की मधुर-ध्वनि गंगा का पता देती थी। ऐसा सन्नाटा छाया हुआ था कि जल-नाद भी उसमें निमग्न हो जाता था। ऐसा जान पड़ता था कि पृथ्वी अभी शून्य के गर्भ में पड़ी हुई है। अनन्त जीवन के दोनों आराधक पग-पग पर ठोकरें खाते, शंका-रचित बाधाओं से पग-पग पर चौंकते नदी के किनारे पहुँचे और नग्न होकर जल में उतरे। पानी बर्फ हो रहा था। उनके सारे अंग शिथिल हो गये। स्नान करके दोनों रेत पर बैठ गये और मन्त्र का जाप करने लगे। लेकिन आश्चर्य यह था कि आज उन्हें कोई ऐसा दृश्य न दिखायी दिया जिसे वे देख न चुके हों, न कोई ऐसी आवाजें सुनाई दीं जो वे सुन न चुके हों। कोई असाधारण घटना न हुई। सरदी ने शंकाओं को भी शान्त कर दिया था। विषम कल्पनाएँ भी निर्जीव हो गयी थीं। दोनों डर रहे थे कि आज न जाने कैसी-कैसी विकराल मूर्तियाँ दिखायी देंगी, प्रेतगण न जाने किन मन्त्रों से आघात करेंगे? न जाने प्राण बचेंगे या जायेंगे? लेकिन आज और दिनों से भी सस्ते छूट गये।
जब रात समाप्त हो गयी और दोनों साधकों ने आँखें खोली तब आकाश पर उषा की लालिमा दिखायी दी। पृथ्वी शनैः-शनैः तिमिर-तट से निकलने लगी। उस पार के वृक्ष और रेत व्यक्त हो गये जैसे किसी मुर्च्छित रोगी के मुख पर चैतन्य का विकास हो रहा हो। श्यामल जल वेग से बह रहा था, मानो अन्धकार को अपने साथ बहाये लिये जाता हो। उस पार के वृक्ष इस तरह सिर झुकाये खड़े थे, मानो शोक समाज किसी की दाह-क्रिया करके शोक से सिर झुकाये चला जाता है।
सहसा तेजशंकर उठ खड़ा हुआ और बोला– जय भैरव की।
दोनों के नेत्रों में एक अलौकिक प्रकाश था, दोनों के मुखों पर एक अद्भुत प्रतिभा झलक रही थी।
तेजशंकर– तलवार हाथ में लो, मैं सिर झुकाये हुए हूँ।
पद्य– नहीं, पहले तुम चलाओ मैं सिर झुकाता हूँ।
तेज– क्या अब भी डरते हो? हमने मौत को कुचल दिया काल को जीत लिया, अब हम अमर हैं।
पद्य– क्या, पहले तुम ही श्रीगणेश करो। ऐसा हाथ चलाना कि एक ही वार में गर्दन अलग जा गिरे। मगर यह तो बताओ दर्द तो न होगा?
तेज– कैसा दर्द? ऐसा जान पड़ेगा जैसे किसी ने फूल से मारा हो। इसी से तो कहता हूँ कि पहले तुम शुरू करो।
पद्य– नहीं, पहले मैं सिर झुकाता हूँ।
तेजशंकर ने तलवार हाथ में ली, उसे तौला, दो-तीन बार पैंतरे बदले और तब जय भैरव की कहकर पद्यशंकर की गर्दन पर तलवार चलायी। हाथ भरपूर पड़ा; तलवार तेज थीं, सिर धड़ से अलग जा गिरा रक्त का फौवारा छूटने लगा। तेजशंकर खड़ा मुस्कुरा रहा था, मानो कोई फुलझड़ी छूट रही हो। उसके चेहरे पर तेजोमय शान्ति छायी हुई थी। कोई शिकारी भी पक्षी को भूमि पर तड़पते देखकर इतना अविचलित न रहता होगा। कोई अभ्यस्त बधिक भी पशु गर्दन पर तलवार चला कर इतना स्थिर-चित्त न रह सकता होगा। वह ऐसे सुदृढ़ विश्वास के भाव से खड़ा था जैसे कोई कबूतरबाज अपने कबूतर को उड़ा कर उसके लौट आने की राह देख रहा हो।
लाश कुछ देर तक तड़पती रही, इसके बाद शिथिल हो गयी। खून के छींटे बन्द हो गये, केवल एक-एक बूँद टपक रही थी जैसे पानी बरसने के बाद ओरी टपकती है, किन्तु पुनरुज्जवीन के संसार का कोई लक्षण न दिखायी दिया। एक मिनट और गुजरा। तेजशंकर को कुछ भ्रम हुआ, पर विश्वास ने उसे शान्त कर दिया। उसने गंगाजल चुल्लू में लेकर भैरव मन्त्र पढ़ा और उस पर एक फूँक मार कर उसे लाश पर छिड़क दिया; किन्तु यह क्रिया भी असफल हुई। उस कटे हुए सिर में कोई गति नहीं हुई उस मृत देह में स्फूर्ति का कोई चिह्न न दिखायी दिया। मन्त्र की जीवन-संचारिणी शक्ति का कुछ असर न हुआ।
अब तेजशंकर को शंका होने लगी, विश्वास की नींव हिलने लगी। उस पुस्तक में स्पष्ट लिखा था कि सिर गर्दन से अलग होते ही तुरन्त उसमें चिमट जाता है और यदि इस क्रिया में कुछ विलम्ब हो तो भैरव मन्त्र से फूँके हुए पानी का एक चुल्लू काफी है। यहाँ इतनी देर हो गयी और अभी तक कुछ भी असर न हुआ। यह बात क्या है? मगर यह असम्भव है कि मन्त्र निष्फल हो। कितने लोगों ने इस मन्त्र को सिद्ध किया है। नहीं, घबराने की कोई बात नहीं, अभी जान आयी जाती है।
उसने तीन-चार मिनट तक और इन्तजार किया, पर लाश ज्यों की त्यों शान्तशिथिल पड़ी हुई थी। तब उसने फिर गंगाजल छिड़का, फिर मन्त्र पढ़ा लाश न उठी। उसने चिल्लाकर कहा– हा ईश्वर! अब क्या करूँ? विश्वास का दीपक बुझ गया। उसने निराश भाव से नदी की ओर देखा। लहरें दहाढे़ मार-मार कर रोती हुई जान पड़ी। वृक्ष शोक से सिर धुनते हुए मालूम हुए। उसके कण्ठ से बलात् क्रन्दन ध्वनि निकल आयी, वह चीख मार कर रोने लगा। अब उसे ज्ञान हुआ कि मैंने कैसे घोर अनर्थ किया। अनन्त जीवन की सिद्धि कितनी उदभ्रांत, कितनी मिथ्या थी। हा! मैं कितना अन्धा, कितना मन्द बुद्धि, कितना उद्दण्ड हूँ। हा! प्राणों से प्यारे पद्य, मैंने मिथ्या भक्ति की धुन में अपने ही हाथों से, इन्हीं निर्दय हाथों से, तुम्हारी गर्दन पर तलवार चलायी। हा! मैंने तुम्हारे प्राण लिये! मुझ सा पापी और अभागा कौन होगा? अब कौन सा मुँह लेकर घर जाऊँ? कौन सा मुँह दुनिया को दिखाऊँ? अब जीवन वृथा है। तुम मुझे प्राणों से भी प्यारे थे। अब तुम्हें कैसे देखूँगा, तुम्हें कैसे पाऊँगा?
तेजशंकर कई मिनट तक इन्हीं शोकमय विचारों से विह्वल हो कर खड़ा रोता रहा। अभी एक क्षण पहले उसके दिल में क्या-क्या इरादे थे, कैसी-कैसी अभिलाषाएँ थीं? वह सब इरादे मिट्टी में मिल गये? आह? जिस धूर्त पापी ने, यह किताब लिखी है उसे पाता तो इसी तलवार से उसकी गर्दन काट लेता, उसके भ्रम जाल में पड़कर मैंने अपना सर्वनाश किया!
हाय! अभी तक लाश में जान नहीं आयी। उसे उसकी ओर ताकते हुए अब भय होता था।
नैराश्य-व्यथा, शोकाघात, परिणाम-भय, प्रेमोद्गार, ग्लानि– इन सभी भावों ने उसके हृदय को कुचल दिया!
तिस पर भी अभी तक उसकी आशाओं का प्राणान्त न हुआ था। उसने एक बार डरते-डरते कनखियों से लाश को देखा, पर अब भी उसमें प्राण-प्रवेश का चिह्न न दिखायी दिया तो आशाओं का अन्तिम सूत्र भी टूट गया, धैर्य ने साथ छोड़ दिया।
उसने एक बार निराश होकर आकाश की ओर देखा। भाई की लाश पर अन्तिम दृष्टि डाली तब सँभल कर बैठ गया और वही तलवार अपने गले पर फेर दी। रक्त की फुवारें छुटीं, शरीर तड़पने लगा, पुतलियाँ फैल गयीं। बलिदान पूरा हो गया। मिथ्या विश्वास ने दो लहलहाते हुए जीव-पुष्पों को पैर से मसल दिया!
सूर्य देव अपने आरक्त नेत्रों से यह विषम माया लीला देख रहे थे। उसकी नीरव पीत किरणें उन दोनों मन्त्राहत बालकों पर इस भाँति पड़ रही थी मानों कोई शोक-विह्वल प्राणी से लिपट कर रो रहा हो।
 

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रचनाएँ
प्रेमाश्रम
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प्रेमचंद आधुनिक हिन्दी कहानी के पितामह और उपन्यास सम्राट माने जाते हैं। यू तो उनके साहित्यिक जीवन का आरंभ १९०१ से हो चुका था पर बीस वर्षों की इस अवधि में उनकी कहानियों के अनेक रंग देखने को मिलते हैं। इस उपन्यास में प्रेमचंद व्यापक स्तर पर किसान के उत्पीड़न का चित्र अंकित करते हैं। अनगिनत शोषण और ज्ञानशंकर आततायी किसान को चूसकर सूखा देने के लिए जुट गए हैं। ज्ञानशंकर मानो अन्याय का मूर्तिमान रूप है, किन्तु प्रेमशंकर अपनी गहरी मानवीयता और सदगुणों के कारण असत्य और अधर्म पर पूरी तरह विजयी होते हैं। 'प्रेमाश्रम' भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है। गांधीजी के सत्याग्रह आन्दोलन की इस कथा पर विशिष्ट छाप है। इस उपन्यास में प्रेमचंद व्यापक स्तर पर किसान के उत्पीड़न का चित्र अंकित करते हैं।
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प्रेमाश्रम 1

10 फरवरी 2022
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सन्ध्या हो गई है। दिन भर के थके-माँदे बैल खेत से आ गये हैं। घरों से धुएँ के काले बादल उठने लगे। लखनपुर में आज परगने के हाकिम की परताल थी। गाँव के नेतागण दिनभर उनके घोड़े के पीछे-पीछे दौड़ते रहे थे। इस

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10 फरवरी 2022
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लखनपुर के जमींदारों का मकान काशी में औरंगाबाद के निकट था। मकान के दो खण्ड आमने-सामने बने हुए थे। एक जनाना मकान था, दूसरी मरदानी बैठक। दोनों खण्डों के बीच की जमीन बेल-बूटे से सजी हुई थी, दोनों ओर ऊँची

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10 फरवरी 2022
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मनोहर अक्खड़पन की बातें तो कर बैठा; किन्तु जब क्रोध शान्त हुआ तो मालूम हुआ कि मुझसे बड़ी भूल हुई। गाँव वाले सब-के-सब मेरे दुश्मन हैं। वह इस समय चौपाल में बैठे मेरी निन्दा कर रहे होंगे। कारिंदा न जाने

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10 फरवरी 2022
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तीसरा पहर था। ज्ञानशंकर दीवानखाने में बैठे हुए एक किताब पढ़ रहे थे कि कहार ने आकर कहा, बाबू साहब पूछते हैं, कै बजे हैं? ज्ञानशंकर ने चिढ़कर कहा, जा कह दे, आपको नीचे बुलाते हैं? क्‍या सारे दिन सोते रहे

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एक महीना बीत गया, गौस खाँ ने असामियों की सूची न तैयार की और न ज्ञानशंकर ने ही फिर ताकीद की । गौस खाँ के स्वहित और स्वामिहित में विरोध हो रहा था और ज्ञानशंकर सोच रहे थे कि जब इजाफे से सारे परिवार का ला

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प्रेमाश्रम (भाग-2)

10 फरवरी 2022
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7. जब तक इलाके का प्रबन्धन लाला प्रभाशंकर के हाथों में था, वह गौस खाँ को अत्याचार से रोकते रहते थे। अब ज्ञानशंकर मालिक और मुख्तार थे। उनकी स्वार्थप्रियता ने खाँ साहब को अपनी अभिलाषाएँ पूर्ण करने का अ

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जिस भाँति सूर्यास्त के पीछे विशेष प्रकार के जीवधारी; जो न पशु हैं न पक्षी, जीविका की खोज में निकल पड़ते हैं, अपनी लंबी श्रेणियों से आकाश मंडल को आच्छादित कर लेते हैं, उसी भाँति कार्तिक का आरम्भ होते ह

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अपनी पारिवारिक सदिच्छा का ऐसा उत्तम प्रमाण देने के बाद ज्ञानशंकर को बँटवारे के विषय में अब कोई असुविधा न रही, लाला प्रभाशंकर ने उन्हीं की इच्छानुसार करने का निश्चय कर लिया। दीवानखाना उनके लिए खाली कर

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 राय कमलानन्द बहादूर लखनऊ के एक बड़े रईस और तालुकेदार थे। वार्षिक आय एक लाख के लगभग थी। अमीनाबाद में उनका विशाल भवन था। शहर में उनकी और भी कई कोठियाँ थीं, पर वह अधिकांश नैनीताल या मसूरी में रहा करते थ

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आँधी का पहला वेग जब शान्त हो जाता है, तब वायु के प्रचण्ड झोंके, बिजली की चमक और कड़क बन्द हो जाती है और मूसलाधार वर्षा होने लगती है। गायत्री के चित्त की शान्ति भी द्रवीभूत हो गई थी। हृदय में रुधिर की

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गायत्री के जाने के बाद ज्ञानशंकर को भी वहाँ रहना दूभर हो गया। सौभाग्य उन्हें हवा के घोड़े पर बैठाये ऋद्धि और सिद्धि के स्वर्ग में लिए जाता था, किन्तु एक ही ठोकर में वह चमकते हुए नक्षत्र अदृश्य हो गये;

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यद्यपि गाँव वालों ने गौस खाँ पर जरा भी आँच न आने दी थी, लेकिन ज्वालासिंह का उनके बर्ताव के विषय में पूछ-ताछ करना उनके शान्ति-हरण के लिए काफी था। चपरासी, नाजिर मुंशी सभी चकित हो रहे थे कि इस अक्खड़ लौं

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राय साहब को नैनीताल आये हुए एक महीना हो गया। ‘‘एक सुरम्य झील के किनारे हरे-भरे वृक्षों के कुन्ज में उनका बँगला स्थित है, जिसका एक हजार रुपया मासिक किराया देना पड़ता है। कई घोड़े हैं, कई मोटर गाड़ियाँ,

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प्रातः काल था। ज्ञानशंकर स्टेशन पर गाड़ी का इन्तजार कर रहे थे। अभी गाड़ी के आने में आध घण्टे की देर थी। एक अँग्रेजी पत्र लेकर पढ़ना चाहा पर उसमें जी न लगा। दवाओं के विज्ञापन अधिक मनोरंजक थे। दस मिनट म

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प्रेमाश्रम (भाग-3)

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16. प्रेमशंकर यहाँ दो सप्ताह ऐसे रहे, जैसे कोई जल्द छूटने वाला कैदी। जरा भी जी न लगता था। श्रद्धा की धार्मिकता से उन्हें जो आघात पहुँचा था उसकी पीड़ा एक क्षण के लिए भी शान्त न होती थी। बार-बार इरादा

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गायत्री उन महिलाओं में थी जिनके चरित्र में रमणीयता और लालित्य के साथ पुरुषों का साहस और धैर्य भी मिला होता है। यदि वह कंघी और आईने पर जान देती थी तो कच्ची सड़कों के गर्द और धूल से भी न भागती थी। प्यान

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ज्ञानशंकर को गायत्री का पत्र मिला तो फूले न समाये। हृदय में भाँति-भाँति की मनोहर सुखद कल्पनाएँ तरंगे मारने लगीं। सौभाग्य देवी जीवन-संकल्प की भेंट लिये उनका स्वागत करने को तैयार खड़ी थी। उनका मधुर स्वप

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ज्ञानशंकर लगभग दो बरस से लखनपुर पर इजाफा लगान करने का इरादा कर रहे थे, किन्तु हमेशा उनके सामने एक-न-एक बाधा आ खड़ी होती थी। कुछ दिन तो अपने चचा से अलग होने में लगे। जब उधर से बेफिक्र हुए तो लखनऊ जाना

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प्रभात का समय था। चैत का सुखद पवन प्रवाहित हो रहा था। बाबू ज्वालासिंह बरामदे में आरामकुर्सी पर लेटे हुए घोड़े का इन्तजार कर रहे थे। उन्हें आज मौका देखने के लिए लखनपुर जाना था, किन्तु मार्ग में एक बड़ी

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एक पखवारा बीत गया। सन्ध्या समय था। शहर में बर्फ की दूकानों पर जमघट होने लगा था। हुक्के और सिगरेट से लोगों को अरुचि होती जाती थी। ज्वालासिंह लखनपुर से मौके की जाँच करके लौटे थे और कुर्सी पर बैठे ठंडा श

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ज्ञानशंकर को अपील के सफल होने का पूरा विश्वास था। उन्हें मालूम था कि किसानों में धनाभाव के कारण अब बिल्कुल दम नहीं है। लेकिन जब उन्होंने देखा, काश्तकारों की ओर से भी मुकदमें की पैरवी उत्तम रीति से की

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अपील खारिज होने के बाद ज्ञानशंकर ने गोरखपुर की तैयारी की। सोचा, इस तरह तो लखनपुर से आजीवन गला न छूटेगा, एक-न-एक उपद्रव मचा ही रहेगा। कहीं गोरखपुर में रंग जम गया तो दो-तीन बरसों में ऐसे कई लखनपुर हाथ आ

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आय में वृद्धि और व्यय में कमी, यह ज्ञानशंकर के सुप्रबन्ध का फल था। यद्यपि गायत्री भी सदैव किफायत कर निगाह रखती थी, पर उनकी किफायत अशर्फियों की लूट और कोयलों पर मोहर को चरितार्थ करती थी। ज्ञानशंकर ने स

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जिस समय ज्ञानशंकर की अपील खारिज हुई, लखनपुर के लोगों पर विपत्ति की घटा छायी हुई थी। कितने ही घर प्लेग से उजड़ गये। कई घरों में आग लग गयी। कई चोरियाँ हुईं। उन पर दैविक घटना अलग हुई, कभी आँधी आती कभी पा

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पहला अंक

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राजा– हाय! हाय! बैद्यों ने जबाव दिया, हकीमों ने जवाब दिया, डाकदरों ने जवाब दिया, किसी ने रोग को न पहचाना। सब-के-सब लुटेरे थे। अब जिन्दगानी की कोई आशा नहीं। यह सारा राज-पाट छूटता है। मेरे पीछे परजा पर

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दूसरा अंक

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(राजा एक साधारण नागिरक के रूप में आप-ही-आप) समय कम है, ऐसे तीन सज्जनों के पास चलना चाहिए जो मेरे भक्त थे। पहले सेठ के पास चलूँ। वह परोपकार के प्रत्येक काम में मेरी सहायता करता था। मैंने उसकी कितनी बा

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प्रेमाश्रम (भाग-4)

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26. प्रभात का समय था और कुआर का महीना। वर्षा समाप्त हो चुकी थी। देहातों में जिधर निकल जाइए, सड़े हुए सन की सुगन्ध उड़ती थी। कभी ज्येष्ठ को लज्जित करने वाली धूप होती थी, कभी सावन को सरमाने वाले बादल घ

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प्रेमशंकर की कृषिशाला अब नगर के रमणीय स्थानों की गणना में थी। यहाँ ऐसी सफाई और सजावट थी। कि प्रातः रसिकगण सैर करने आया करते। यद्यपि प्रेमशंकर केवल उसके प्रबन्धकर्ता थे, पर वस्तुतः असामियों की भक्ति और

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श्रद्घा की बातों से पहले तो ज्ञानशंकर को शंका हुई, लेकिन विचार करने पर यह शंका निवृत्त हो गयी, क्योंकि इस मामले में प्रेमशंकर का अभियुक्त हो जाना अवश्यम्भावी था। ऐसी अवस्था में श्रद्धा के निर्बल क्रोध

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इस मुकदमें ने सारे शहर मे हलचल मचा दी। जहाँ देखिए, यह चर्चा थी सभी लोग प्रेमशंकर के आत्म-बलिदान की प्रंशसा सौ-सौ मुँह से कर रहे थे। यद्यपि प्रेमशंकर ने स्पष्ट कह दिया था कि मेरे लिए किसी वकील की जरूर

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रात के १० बजे थे। ज्वालासिंह तो भोजन करके प्रभाशंकर के दीवानखाने में ही लेटे, लेकिन प्रेमशंकर को मच्छरों ने इतना तंग किया कि नींद न आयी। कुछ देर तक तो वह पंखा झलते रहे, अन्त को जब भीतर न रहा गया तो व्

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डाक्टर इर्फान अली की बातों से प्रभाशंकर को बड़ी तसकीन हुई। मेहनताने के सम्बन्ध में उनसे कुछ रिआयत चाहते थे, लेकिन संकोचवश कुछ न कह सकते थे। इतने में हमारे पूर्व-परिचित सैयद ईजाद हुसैन ने कमरे में प्रव

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जब मुकदमा सेशन सुपुर्द हो गया और ज्ञानशंकर को विश्वास हो गया कि अब अभियुक्तों का बचना कठिन है तब उन्होंने गौस खाँ की जगह पर फैजुल्लाह को नियुक्त किया और खुद गोरखपुर चले आए। यहाँ से गायत्री की कई चिट्ठ

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सेशन जज के इजलास में एक महीने से मुकदमा चल रहा है। अभियुक्त ने फिर सफाई दी। आज मनोहर का बयान था। इजलास में एक मेला सा लगा हुआ था। मनोहर ने बड़ी निर्भीक दृढ़ता के साथ सारी घटना आदि से अन्त तक बयान की औ

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फैजुल्लाह खाँ का गौस खाँ के पद पर नियुक्त होना गाँव के दुखियारों के घाव पर नमक छिड़कना था। पहले ही दिन से खींच-तान होने लगी और फैजू ने विरोधाग्नि को शान्त करने की जरूरत न समझी। अब वह मुसल्लम गाँव के स

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प्रातःकाल ज्योंही मनोहर की आत्महत्या का समाचार विदित हुआ, जेल में हाहाकार मच गया। जेल के दारोगा, अमले, सिपाही, पहरेदार-सब के हाथों के तोते उड़ गये। जरा देर में पुलिस को खबर मिली, तुरन्त छोटे-बड़े अधिक

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डा० इर्फान अली बैठे सोच रहे थे कि मनोहर की आत्महत्या का शेष अभियुक्तों पर क्या असर पड़ेगा? कानूनी ग्रन्थों का ढेर सामने रखा हुआ था। बीच में विचार करने लगते थे; मैंने यह मुकदमा नाहक लिया। रोज १०० रुपये

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सैयद ईजाद हुसेन का घर दारानगर की एक गली में था। बरामदे में दस-बारह वस्त्रविहीन बालक एक फटे हुए बोरिये पर बैठे करीमा और खालिकबारी की रट लगया करते थे। कभी-कभी जब वे उमंग में आ कर उच्च स्वर से अपने पाठ य

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महाशय ज्ञानशंकर का धर्मानुराग इतना बढ़ा कि सांसारिक बातों से उन्हें अरुचि सी होने लगी, दुनिया से जी उचाट हो गया। वह अब भी रियासत का प्रबन्ध उतने ही परिश्रम और उत्साह से करते थे, लेकिन अब सख्ती की जगह

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जलसा बड़ी सुन्दरता से समाप्त हुआ रानी गायत्री के व्याख्यान पर समस्त देश में वाह-वाह मच गयी। उसमें सनातन-धर्म संस्था का ऐतिहासिक दिग्दर्शन कराने के बाद उसकी उन्नति और पतन, उसके उद्धार और सुधार उसकी विर

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प्रेमाश्रम (भाग-5)

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41. राय कमलानन्द को देखे हुए हमें लगभग सात वर्ष हो गये, पर इस कालक्षेप का उनपर कोई चिन्ह नहीं दिखाई देता। बाल-पौरुष, रंग-ढंग सब कुछ वही है। यथापूर्व उनका समय सैर और शिकार पोलो और टेनिस, राग और रंग मे

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दो दिन हो गये और ज्ञानशंकर ने राय साहब से मुलाकात न की। रायसाहब उन निर्दय पुरुषों में न थे जो घाव लगाकर उस पर नमक छिड़कते हैं। वह जब किसी पर नाराज होते तो यह मानी हुई बात थी कि उसका नक्षत्र बलवान है,

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सन्ध्या का समय था। बनारस के सेशन जज के इजलास में हजारों आदमी जमा थे। लखनपुर के मामले से जनता को अब एक विशेष अनुराग हो गया था। मनोहर की आत्महत्या ने उसकी चर्चा सारे शहर में फैला दी थी। प्रत्येक पेशी के

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डाक्टर इर्फान अली उस घटना के बाद हवा खाने न जा सके, सीधे घर की ओर चले। रास्ते भर उन्हें संशय हो रहा था कि कहीं उन उपद्रवियों से फिर मुठभेड़ न हो जाये नहीं तो अबकी जान के लाले पड़े जायेंगे। आज बड़ी खैर

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कई महीने बीत चुके, लेकिन प्रेमशंकर अपील दायर करने का निश्चय न कर सके। जिस काम में उन्हें किसी दूसरे से मदद मिलने की आशा न होती थी, उसे वह बड़ी तत्परता के साथ करते थे, लेकिन जब कोई उन्हें सहारा देने के

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ज्ञानशंकर लखनऊ से सीधे बनारस पहुँचे, किन्तु मन उदार और खिन्न रहते। न हवा खाने जाते, न किसी से मिलते-जुलते। उनकी दशा इस समय उस पक्षी की-सी थी जिसके दोनों पंख कट गये हों, या उस स्त्री की-सी जो किसी दैवी

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ज्ञानशंकर को बनारस आये दो सप्ताह से अधिक बीत चुके थे। संगीत-परिषद् समाप्त हो चुकी थी और अभी सामयिक पत्रों में उस पर वाद-विवाद हो रहा था। यद्यपि अस्वस्थ होने के कारण राय साहब उसमें उत्साह के साथ भाग न

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गायत्री बनारस पहुँच कर ऐसी प्रसन्न हुई जैसे कोई बालू पर तड़पती हुई मछली पानी में जा पहुँचे। ज्ञानशंकर पर राय साहब की धमकियों का ऐसा भय छाया हुआ था कि गायत्री के आने पर वह और भी सशंक हो गये। लेकिन गायत

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रात के आठ बजे थे। ज्ञानशंकर के दीवानखाने में शहर के कई प्रतिष्ठित सज्जन जमा थे। बीच में एक लोहे का हवनकुण्ड रखा हुआ था, उसमें हवन हो रहा था। हवनकुण्ड के एक तरफ गायत्री बैठी थी, दूसरी तरफ ज्ञानशंकर और

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प्रेमाश्रम (भाग-6)

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50. श्रद्धा और गायत्री में दिनों-दिन मेल-जोल बढ़ने लगा। गायत्री को अब ज्ञात हुआ कि श्रद्धा में कितना त्याग, विनय, दया और सतीत्व है। मेल-जोल से उनमें आत्मीयता का विकास हुआ, एक-दूसरी से अपने हृदय की ब

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बाबू ज्ञानशंकर गोरखपुर आये, लेकिन इस तरह जैसे लड़की ससुराल आती है। वह प्रायः शोक और चिन्ता में पड़े रहते। उन्हें गायत्री से सच्चा प्रेम न सही, लेकिन वह प्रेम अवश्य था जो शराबियों को शराब से होता है। उ

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बाबू ज्वालासिंह को बनारस से आये आज दूसरा दिन था। कल तो वह थकावट के मारे दिन भर पड़े रहे, पर प्रातःकाल ही उन्होंने लखनपुरवालों की अपील का प्रश्न छेड़ दिया। प्रेमशंकर ने कहा– मैं तो आप ही की बाट जोह रहा

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ज्यों ही दशहरे की छुट्टियों के बाद हाईकोर्ट खुला, अपील दायर हो गयी और समाचार पत्रों के कालम उसकी कार्यवाही से भरे जाने लगे। समस्या बड़ी जटिल थी। दंड प्राप्तों में उन साक्षियों को फिर पेश किये जाने की

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गायत्री की दशा इस समय उस पथिक की सी थी जो साधु भेषधारी डाकुओं के कौशल जाल में पड़ कर लुट गया हो। वह उस पथिक की भाँति पछताती थी कि मैं कुसमय चली क्यों? मैंने चलती सड़क क्यों छोड़ दी? मैंने भेष बदले हुए

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‘‘लाला प्रभाशंकर ने भविष्य-चिन्ता का पाठ न पढ़ा था। ‘कल’ की चिन्ता उन्हें कभी न सताती थी। उनका समस्त जीवन विलास और कुल मर्यादा की रक्षा में व्यतीत हुआ था। खिलाना, खाना और नाम के लिए मर जाना– यही उनके

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बाल्यावस्था के पश्चात् ऐसा समय आता है जब उद्दण्डता की धुन सिर पर सवार हो जाती है। इसमें युवाकाल की सुनिश्चित इच्छा नहीं होती, उसकी जगह एक विशाल आशावादिता है जो दुर्लभ को सरल और असाध्य को मुँह का कौर स

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इस शोकाघात ने लाला प्रभाशंकर को संज्ञा-विहीन कर दिया। दो सप्ताह बीत चुके थे, पर अभी तक घर से बाहर न निकले थे। दिन-के-दिन चारपाई पर पड़े छत की ओर देखा करते, रातें करवटें बदलने में कट जातीं। उन्हें अपना

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होली का दिन था। शहर में चारों तरफ अबीर और गुलाल उड़ रही थी, फाग और चौताल की धूम थी, लेकिन लाला प्रभाशंकर के घर पर मातम छाया हुआ था। श्रद्धा अपने कमरे में बैठी हुई गायत्री देवी के गहने और कपड़े सहेज रह

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मानव-चरित्र न बिलकुल श्यामल होता है न बिलकुल श्वेत। उसमें दोनों ही रंगों का विचित्र सम्मिश्रण होता है। स्थिति अनुकूल हुई तो वह ऋषितुल्य हो जाता है, प्रतिकूल हुई तो नराधम। वह अपनी परिस्थितियों का खिलौन

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गायत्री के आदेशानुसार ज्ञानशंकर २००० रुपये महीना मायाशंकर के खर्च के लिए देते जाते थे। प्रेमशंकर की इच्छा थी कि कई अध्यापक रखे जायें, सैर करने के लिए गाड़ियाँ रखी जायँ, कई नौकर सेवा-टहल के लिए लगाये ज

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लाला प्रभाशंकर को रुपये मिले तो वह रोये। गाँव तो बच गया, पर उसे कौन बिलसेगा? दयाशंकर का चित्त फिर घर से उचाट हो चला था। साधु-सन्तों के सत्संग के प्रेमी हो गये थे। दिन-दिन वैराग्य में रह होते जाते थे।

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महाशय ज्ञानशंकर का भवन आज किसी कवि-कल्पना की भाँति अलंकृत हो रहा है। आज वह दिन आ गया है जिसके इन्तजार में एक युग बीत गया। प्रभुत्व और ऐश्वर्य का मनोहर स्वप्न पूरा हो गया है। मायाशंकर के तिलकोत्सव का श

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उपसंहार

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दो साल हो गये हैं। सन्ध्या का समय है। बाबू मायाशंकर घोड़े पर सवार लखनपुर में दाखिल हुए। उन्हें वहाँ रौनक और सफाई दिखायी दी। प्रायः सभी द्वारों पर सायबान थे। उनमें बड़े-बड़े तख्ते बिछे हुए थे। अधिकांश

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