गायत्री के आदेशानुसार ज्ञानशंकर २००० रुपये महीना मायाशंकर के खर्च के लिए देते जाते थे। प्रेमशंकर की इच्छा थी कि कई अध्यापक रखे जायें, सैर करने के लिए गाड़ियाँ रखी जायँ, कई नौकर सेवा-टहल के लिए लगाये जायँ, पर मायाशंकर अपने ऊपर इतना खर्च करने को राजी न हुआ। प्रेमशंकर को मजबूर हो कर उसकी बात माननी पड़ी। केवल दो अध्यापक उसे पढ़ाने आते थे। फारसी पढ़ाने के लिए ईजाद हुसेन और संस्कृत पढ़ाने के लिए एक पंडित। सवारी के लिए एक घोड़ा भी था। अंग्रेजी प्रेमशंकर स्वयं पढ़ाते थे। गणित ज्वालासिंह के जिम्मे था, डॉक्टर सप्ताह में दो दिन गाने की शिक्षा देते थे, जिसमें यह निपुण थे और दो दिन आरोग्य शास्त्र पढ़ाते थे। डॉक्टर इर्फान अली अर्थशास्त्र के ज्ञाता थे। सप्ताह में दो दिन कानून सिखाते और दो दिन अर्थशास्त्र की व्याख्या करते। कालेज के कई विद्यार्थी शहर से इन व्याख्यानों को सुनने के लिए आ जाते थे और प्रियनाथ का संगीत समाज तो सारे शहर में प्रसिद्ध था। इधर की बचत मित्र-भवन इत्तहादी अनाथालय और प्रियनाथ के चिकित्सालय के संचालन में खर्च होती थी। विद्यावती के नाम से बीस-बीस रुपये की दस छात्रवृत्तियाँ भी दी जाती थी। इतना सब खर्च करने पर भी महीने में खासी बचत हो जाती थी। इन तीन वर्षों में कोई २५ हजार रुपये जमा हो गये थे। प्रेमशंकर चाहते थे कि ज्ञानशंकर की सम्मति ले कर माया को कुछ दिनों के लिए यूरोप, अमेरिका आदि देशों में भ्रमण करने के लिए भेज दिया जाये। इस धन का इससे अच्छा उपयोग न हो सकता था। पर मायाशंकर की कुछ और ही इच्छा थी। वह यात्रा करने के लिए उत्सुक था, पर एक हजार रुपये महीने से ज्यादा खर्च न करना चाहता था। इन घन के सदुपयोग की उसने दूसरी ही विधि सोची थी, पर प्रेमशंकर से यह प्रकट करते हुए सकुचाता था। संयोग से इसी बीच में उसे इसका अच्छा अवसर मिल गया।
लाला प्रभाशंकर ने प्रेमशंकर को लखनपुर के मुकदमे से बचाने के लिए जो रुपये उधार लिए थे उसकी अवधि तीन साल थी। यह मियाद पूरी हो गयी थी, पर रुपये का सूद तक न अदा हुआ था। पहले प्रेमशंकर को इस मामले की जरा भी खबर न थी, पर जब महाजन ने अदालत में नालिश की तो उन्हें खबर हुई। रुपये क्यों उधार लिए गये, यह बात शीघ्र ही मालूम हो गयी। तब से यह घोर चिन्ता में पड़े हुए थे, यह रुपये कैसे दिये जायें? यद्यपि मुकदमे में रुपये का एक ही भाग खर्च हुआ था, अधिकांश खाने-खिलाने, शादी-ब्याह में उड़ था, पर यह हिसाब-किताब करने का समय न था। प्रेमशंकर ऋण का पूरा भार लेना चाहते थे। लेकिन रुपये कहाँ से आयें? वे कई दिन इसी चिन्ता में विकल रहे। कभी सोचते ज्ञानशंकर से माँगूँ, कभी प्रियनाथ से माँगने का विचार करते, पर संकोचवश किसी से कहते न बनता था।
एक दिन वह इसी उधेड़-बुन में पड़े हुए थे कि भोला आ कर खड़ा हो गया और उन्हें चिन्तित देख बोला– बाबूजी आज-कल आप बहुत उदास रहते हैं, क्या बात है? हमारे लायक कोई काम हो तो बताइए, भरसक उसे पूरा करेंगे।
प्रेमशंकर को भोला से बहुत स्नेह था। इनके सत्संग से उसकी शराब और जुए की आदत छूट गयी थी। वह इनको अपना मुक्तिदाता समझता था और इन पर असीम श्रद्धा रखता था। प्रेमशंकर भी उस पर विश्वास करते थे। बोले– कुछ ऐसी ही चिन्ता है, मगर तुम सुन कर क्या करोगे?
भोला– और तो क्या करूँगा? हाँ, जान लड़ा दूँगा।
प्रेम– जान लड़ाने से मेरी चिन्ता दूर न होगी, उसका कोई और ही उपाय करना पड़ेगा।
भोला– कहिए वह करने को तैयार हूँ। जब-तक आप न बतायेंगे पिण्ड न छोड़ूँगा।
अन्त में विवश हो कर प्रेमशंकर ने कहा– मुझे कुछ रुपयों की जरूरत है और समझ में नहीं आता कि कौन सा उपाय करूँ।
भोला– हजार दो हजार से काम चले तो मेरे पास हैं, ले लीजिए। ज्यादा की जरूरत हो तो कोई और उपाय करूँ।
प्रेम– हजार दो हजार का तुम क्या प्रबन्ध करोगे? तुम्हारे पास तो हैं नहीं, किसी से लेने ही पड़ेंगे।
भोला– नहीं बाबूजी, आपकी दुआ से अब इतने फटेहाल नहीं हैं। हजार से कुछ ऊपर तो अपने ही हैं। एक हजार मस्ता ने रखने को दिये हैं। दुर्गा और दमड़ी भी कुछ रुपये रखने को देते थे, पर मैंने नहीं लिये। पराये रुपये घर में रख कर कौन जंजाल पाले? कहीं कुछ हो जाय तो लोग समझेंगे इसने खा लिए होंगे।
प्रेम– तुम लोगों के पास इतने रुपये कहाँ से आ गये?
भोला– आप ही ने दिये हैं, और कहाँ से आये? जवानी की कसम खा कर कहता हूँ कि इधर तीन साल से एक दिन भी कौड़ी हाथ से छुई हो या दारू मुँह से लगायी हो। आप लोगों जैसे भले आदमियों के साथ रह कर ऐसे कुकर्म करता तो कौन मुँह दिखाता? मस्ता के बारे में भी कह सकता हूँ कि इधर दो-ढाई साल से किसी के माल की तरफ आँख उठा कर नहीं देखा। अभी थोड़े ही दिनों की बात है, भवानी सिंह की अंटी से पाँच गिन्नियाँ गिर गयी थीं। मस्ता ने खेत में पड़ी पायीं और उसी दिन जा कर उन्हें दे आया। पहले इस बगीचे से फल-फलारी तोड़ कर बेच लिया करता था, पर अब यह सारी आदतें छूट गयीं। दुर्गा और दमड़ी गाँजा-चरस तो पीते हैं, लेकिन बहुत कम और मैंने उन्हें कोई कुचाल चलते नहीं देखा हम अभी रोटी, दाल, तरकारी खा कर दो-तीन सौ रुपये बचा लेते हैं। तो कहिए, जितने रुपये मेरे पास हैं वह लाऊँ?
प्रेम– यह सुन कर मुझे बड़ी खुशी हुई कि तुम लोग भी चार पैसे के आदमी हो गये। यह सब तुम्हारे सुविचार का फल है। लेकिन मेरा काम इतने रुपये में न चलेगा। मुझे पच्चीस हजार की जरूरत है।
सहसा मायाशंकर आ कर खड़ा हो गया। उसकी आँखें डबडबायी हुई थीं और मुँह पर करुण उत्सुकता झलक रही थी। प्रेमशंकर ने भोला को आँखों के इशारे से हटा दिया तब माया से बोले– आँखें क्यों भरी हुई हैं? बैठो।
माया– जी, कुछ नहीं। अभी तेजू और पद्यू की याद आ रही थी। दोनों अब तक होते तो उन्हें यहीं बुला कर रखता। उस समय मैं बड़ा निर्दयी था। बेचारों को अपना ठाट दिखा कर जलाना चाहता था। मेरी शेखी की बातें सुन-सुन वे भी कहा करते थे, हम वह मन्त्र जगायेंगे कि कोई मार ही न सके। ऐसे-ऐसे मन्त्रों को अपने वश में कर लेंगे कि घर बैठें संसार की जो वस्तु चाहें मँगा लेंगे! उस वक्त मेरी समझ में वे बात न आती थीं, दिल्लगी समझता था, पर अब तो उन बातों को याद करता हूँ तो ऐसा मालूम होता है कि मैं उनका घातक हूँ। चित्त व्याकुल हो जाता है और अपने ऊपर ऐसा क्रोध आता है कि क्या कहूँ! अभी बाबा से मिलने गया था। बहुत दुःखी थे। किसी महाजन ने उन पर नालिश भी कर दी। है, इससे और भी चिन्तित थे। अगर यह मुसीबत न आती तो शायद वह इतने दुःखी न होते। विपत्ति में शोक और भी दुस्सह हो जाता है। शोक का घाव भरना तो असम्भव है, पर इस नयी विपत्ति का निवारण हो सकता है। आपसे कहते हुए संकोच होता है, पर इस समय मुझे क्षमा कीजिये। चाचा दयाशंकर तो बाबा से कह रहे थे, हमें जमीन की परवाह नहीं है, निकल जाने दीजिए। आपको अब क्या करना है? मेरे सिर पर जो पड़ेगी, देख लूँगा, लेकिन बाबा की इच्छा यह थी कि महाजन से कुछ दिनों की मुहलत ली जाये। अगर आपकी आज्ञा हो तो मैं जा कर बातचीत करूँ मुझसे वह कुछ दबेगा भी।
प्रेमशंकर– रुपयों की फिक्र तो मैं कर रहा हूँ, पर मालूम नहीं उन्हें कितने रुपयों की जरूरत है। उन्होंने मुझसे कभी यह जिक्र नहीं किया।
माया– बातचीत से मालूम होता था कि पन्द्रह-बीस हजार का मुआमला है।
प्रेम– यही मेरा अनुमान है। दो-चार दिन में कुछ न कुछ उपाय निकल ही आयेगा। या तो महाजन को समझा-बुझा दूँगा या दो-चार हजार दे कर कुछ दिन की मुहलत ले लूँगा।
माया– मैं चाहता हूँ कि बाबा को मालूम भी न होने पाये और महाजन के सब रुपये पहुँच जायें जिसमें यह झंझट न रहे। जब हमारे पास रुपये हैं तो फिर महाजन की खुशामद क्यों की जाय?
प्रेम– वह रुपये अमानत हैं। उन्हें छूने का अधिकार नहीं है। उन्हें मैंने तुम्हारी यूरोप-यात्रा के लिए अलग कर दिया है।
माया– मेरी यूरोप यात्रा इतनी आवश्यक नहीं है कि घरवालों को संकट में छोड़ कर चला जाऊँ।
प्रेम– जिस काम के लिए वह रुपये दिये गये हैं उसी काम में खर्च होने चाहिए।
माया मन में खिन्न हो कर चला गया, पर श्रद्धा से ढीठ हो गया था। उसके पास जा कर बोला– अगर चाचा साहब बाबा को रुपये न देंगे तो मैं यूरोप कदापि न जाऊँगा। तीस हजार ले कर मैं वहाँ क्या करूँगा! मेरे लिए चलते समय पाँच हजार काफी हैं। चाचा साहब से पचीस हजार दिला दो।
प्रेमशंकर ने श्रद्धा से भी वही बातें कहीं। श्रद्धा ने माया का पक्ष लिया। बहस होने लगी। कुछ निश्चय न हो सका। दूसरे दिन श्रद्धा ने फिर प्रश्न उठाया। आखिर जब उसने देखा कि यह दलीलों से हार जाने पर भी रुपये नहीं देना चाहते तो जरा गर्म होकर बोली– अगर तुमने दादाजी को रुपये न दिये तो माया कभी यूरोप न जायेगा।
प्रेम– वह मेरी बात को कभी नहीं टाल सकता है।
श्रद्धा– और बातों को नहीं टाल सकता। पर इस बात को हरगिज न मानेगा।
प्रेम– तुमने यह शिक्षा दी होगी।
श्रद्धा ने कुछ जवाब न दिया। यह बात उसे लग गयी। एक क्षण तक चुपचाप बैठी रही। तब जाने के लिए उठी। प्रेमशंकर के मुँह से बात तो निकल गयी थी, पर अपनी कठोरता पर लज्जित थे। बोले– अगर ज्ञानशंकर कुछ आपत्ति करें तो?
श्रद्धा ने तिनक कर कहा– तो साफ-साफ क्यों नहीं कहते कि ज्ञानशंकर के डर से नहीं देता। अधिकार, कर्त्तव्य और अमानत का आश्रय क्यों लेते हो?
प्रेमशंकर ने असमंजस में पड़ कर कहा– डर की बात नहीं है। रुपयों के विषय में मुझे पूरा अधिकार है, लेकिन ज्ञानशंकर की अनुमति के बिना मैं उसे इस तरह खर्च नहीं करना चाहता।
श्रद्धा– तो एक चिट्ठी लिख कर पूछ लो। मुझे तो पूरा विश्वास है कि उन्हें कोई आपत्ति न होगी। अब वह ज्ञानशंकर नहीं हैं जो पैसे-पैसे पर जान देते थे।
प्रेमशंकर बाहर आ कर ज्ञानशंकर को पत्र लिखने बैठे। लेकिन फिर ख्याल आया कि उन्होंने अनुमति दे दी तो अनुमति देने में उनकी क्या हानि है? तब मुझे विवश हो कर रुपये देने पड़ेंगे। यह रुपये न मेरे है, न ज्ञानशंकर के हैं। यह माया की शिक्षावृत्ति है। पत्र न लिखा। ज्वालासिंह के सामने यह समस्या पेश की। उन्होंने भी कुछ निश्चय न किया। डॉक्टर इर्फानअली से परामर्श लेने की ठहरी। डॉक्टर साहब ने फैसला किया कि यह रकम माया की शिक्षा के सिवा और किसी काम में नहीं खर्च की जा सकती।
मायाशंकर ने यह फैसला सुना तो झुँझला उठा। जी में आया कि चलकर डॉक्टर साहब से खूब बहस करूँ पर डरा कि कहीं वह इसे बेअदबी न समझें। क्यों न महाजन के पास जा कर वह सब रुपये माँग लूँ? अभी नाबालिक हूँ, शायद उसे कुछ आपत्ति हो, लेकिन एक के दो देने पर तैयार हो गया तो मुंह से तो चाहे कुछ न कहें, पर मन में बहुत नाराज होंगे। बेचारा इन्हीं दुश्चिन्ताओं में डूबा हुआ मलीन, उदास जाकर लेट रहा। सन्ध्या हो गयी पर कमरे से न निकला। डॉ. इर्फान अली ने पढ़ाने के लिए बुलाया। कहला भेजा, मेरे सिर में दर्द है। भोजन का समय आया। मित्र-भवन के और सब छात्र भोजन करने लगे। माया ने कहला भेजा, मेरे सिर में दर्द है। श्रद्धा बुलाने आयी। उसे देखते ही माया रो पड़ा।
श्रद्धा ने प्रेम से आँसू पोंछते हुए कहा– बेटा, चल कर थोड़ा सा खाना खा लो। सवेरे मैं फिर उनसे कहूँगी। डॉ. इर्फानअली ने बात बिगाड़ दी, नहीं तो मैंने तो राजी कर लिया था।
माया– चाची, मेरी खाने की बिलकुल इच्छा नहीं है। (रो कर) तेजू और पद्यू के प्राण मैंने लिए और अब मैं बाबा की कुछ मदद भी नहीं कर सकता। ऐसे जीने पर धिक्कार है।
श्रद्धा भी करुणावेग से विवश हो गयी। अंचल से माया के आँसू पोंछती थी और स्वयं रोती थी।
माया ने कहा– चाची, तुम नाहक हलाकान होती हो, मैं अभागा हूँ, मुझे रोने दो।
श्रद्धा– तुम चल कर कुछ खा लो। मैं आज ही रात को यह बात छेड़ूँगी।
माया का चित्त बहुत खिन्न था, पर श्रद्धा की बात न टाल सका। दो-चार कौर खाये, पर ऐसा मालूम होता था कि कौर मुँह से निकला पड़ता है। हाथ-मुँह धो कर फिर अपने कमरे में लेट रहा।
सारी रात श्रद्धा यही सोचती रही कि इन्हें कैसे समझाऊँ। शीलमणि से भी सलाह ली, पर कोई युक्ति न सूझी।
प्रातःकाल बुधिया किसी काम से आई। बातों-बातों में कहने लगी– बहूजी, पैसा सब कोई देखता है, मेहनत कोई नहीं देखता। मर्द दिन भर में एक-दो रुपया कमा लाता है तो मिजाज ही नहीं मिलता, औरत बेचारी रात-दिन चूल्हे-चक्की में जुटी रहे, फिर भी वह निकम्मी ही समझी जाती है।
श्रद्धा सहसा उछल पड़ी। जैसे सुलगती हुई आग हवा पा कर भभक उठती है। उसी भाँति इन बातों ने उसे एक युक्ति सुझा दी। भटकते हुए पथिक को रास्ता मिल गया। कोई चीज जिसे घंटों से तलाश करते-करते थक गयी थी, अचानक मिल गयी। ज्यों ही बुधिया गयी, वह प्रेमशंकर के पास आ कर बोली– चाचाजी को रुपये देने के बारे में क्या निश्चय किया?
प्रेम– फिक्र में हूँ। दो-चार दिन में कोई सूरत निकल ही आयेगी।
श्रद्धा– रुपये तो रखे ही हैं।
प्रेम– मुझे खर्च करने का अधिकार नहीं है।
श्रद्धा– यह किसके रुपये हैं?
प्रेम– (विस्मित होकर) माया के शिक्षार्थ दिये गये हैं।
श्रद्धा– तो क्या २००० रुपये महीने खर्च नहीं होते हैं?
प्रेम– क्या तुम जानती नहीं? लगभग ८०० रुपये खर्च होते हैं, बाकी १२०० रुपये बचे रहते हैं।
श्रद्धा– यह क्यों बचे रहते हैं? क्या यह तुम्हारी समझ में नहीं आता? डॉक्टर इर्फान अली को पढ़ने के लिए कितना वेतन मिलना चाहिए? डॉ. प्रियनाथ और बाबू ज्वालासिंह को भी नौकर रखते तो कुछ न कुछ देना पड़ता। तुम्हारी मजूरी भी कुछ न कुछ होनी ही चाहिए। तुम्हारे विचार में इर्फानअली का वेतन कुछ होता ही नहीं? उनका एक दिन का मेहनताना ५०० रुपये न दोगे? प्रियनाथ की आमदनी १०० रुपये प्रति दिन से कम नहीं थी। पहले तो वह किसी के घर पढ़ाने जायें ही नहीं, जायें तो ५०० रुपये महीने से कम न लें। बाबू ज्वालासिंह भी १०० रुपये पर महँगे नहीं हैं। रहे तुम तुम्हारा भतीजा है, उसे शौक से प्रेम से पढ़ाते हो, पर दूसरों को क्या पड़ी है। कि वह सेंत में अपनी सिरपच्ची करें। इन रुपयों को तुम बचत समझते हो, यह सर्वथा अन्याय है। इसे चाहे अपनी सज्जनता का पुरस्कार समझो या उनके एहसान का मूल्य, इस धन के खर्च करने का उन्हें अधिकार है।
प्रेमशंकर ने सन्दिग्ध भाव से कहा– माया और तुम बिना रुपये दिलाये न मानोगे, जैसी तुम्हारी इच्छा। तुम्हारी युक्ति में न्याय है, इसे मैं मानता हूँ, पर आत्मा सन्तुष्ट नहीं होती। मैं इस वक्त दिये देता हूँ पर इसे ऋण समझ कर सदैव अदा करने की चेष्टा करता रहूँगा।